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Jul 4, 2008

फिर मैं क्यों बोलूं

शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।

न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।

राजनीति और अपराध पर भी
अब बहुत बातें नहीं होतीं।

शहर के लोग शायद अब थकने लगे हैं
या फिर जानने लगे हैं
ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।

इसलिए शहर के लोग अब तब बोलेंगें
जब पांच साल होंगे पूरे
तब तक बोलना
बोलना नहीं
अपने अंदर के सच को काटना ही होगा।

( यह कविता 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है)

3 comments:

Satyendra Prasad Srivastava said...

बहुत अच्छी कविता। शहर बड़ा डरपोक हो गया है

तसलीम अहमद said...

shahri jindgi par karara comment. bahoot theek kaha apne. par sawal yeh hai ki kya shaher ke log sirf panch saal baad bolne ke intajaar me hi jeete chale jayenge. kya hoga is shahri jindi ka?
badhai vartika ji samaj ki nabj pakdi hai apne. ek baar fir badhai.

समयचक्र said...

ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।



बहुत अच्छी कविता है.