Sep 15, 2008
क्योंकि खबरों में अपराध बिकता है
डब्ल्यू जेम्स पोस्टर ने अपनी चर्चित किताब 'ऑन मीडिया वॉयलेंस' में लिखा है- समाज में मौजूद हिंसा जनता की सेहत की परेशानी की परिचायक है। मीडिया के जरिए हमें लगातार इसकी मौजूदगी का अहसास होता रहता है। मीडिया एक अकेले इंसान से जुड़े अपराधों को रिपोर्ट करता ही रहता है। हिंसा से जुड़ी खबरों का इस्तेमाल कई बार जनता के मनोरंजन के लिए भी बखूबी किया जाता है। इस तरह से मीडिया असल जिंदगी में मौजूद हिंसा के तत्वों को परिभाषित करता है और इन संदेशों को अंतहीन प्रयासों के जरिए हमारी सोच में भरता रहता है।
पोटर ने यह टिप्पणी भले ही अमेरिकी संदर्भ में की हो लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य पर भी यह सटीक लगती है। 90 के शुरुआती दशक में जब भारतीय दरवाजे पर निजी चैनल ने दस्तक दी थी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि कुछ ही साल में भारत में अपराध की कवरेज सर्वोपरि हो जाएगी। 1959 में जब भारत में दूरदर्शन का जन्म हुआ तो 'साइट' की परिकल्पना सामने आई जिसका मकसद भारत के गली-कूचों में विकास की नई कहानी लिखना था। 1975-76 में शुरू हुई साइट परियोजना ने देश के छह राज्यों में आकार लेना शुरू किया। इसमें 20 जिलों के 2340 गांव शामिल किए गए। इसका सबसे आकर्षक पहलू था- सेटेलाइट तकनीक का जनसंचार के प्रभावशाली माध्यम के रूप में इस्तेमाल।
ढीले-ढाले सरकारी तंत्र, कल्पनाहीनता और इच्छा शक्ति की कमी के बीच दूरदर्शन का फैलाव भले ही हुआ लेकिन निजी चैनलों के आगमन ने उसे काफी पछाड़ दिया। आज भी दूरदर्शन का दायरा 90-95 प्रतिशत आबादी तक माना जाता है कि लेकिन औसत भारतीय फिलहाल निजी चैनलों को ही प्राथमिकता देता है लेकिन इसमें एक रोचक कहानी भी है। निजी चैनलों का आगमन भले ही नई स्फूर्ति के साथ हुआ लेकिन एक समय बाद वे बाजारवाद में डूबे दिखने लगे। मीडिया के बुनियादी मकसद - सूचना, मनोरंजन और शिक्षा में निजी चैनल पहले दो मकसद तो पूरे करते दिखे लेकिन शिक्षा के नाम पर वे खाली हाथ ही दिखाई दिए। विशुद्ध बाजारवाद के बीच पिछले पांच साल में अपराध सबसे आगे है। मीडिया का मूलभूत मकसद विकास से परे हटकर टीआरपी और पूंजी पर केंद्रित होने लगा है और ऐसे में मीडिया की नए सिरे से समीक्षा जरूरी लगती है।
भारत में हर घंटे करीब दो बलात्कार होते हैं। यह आंकडा जितना चौंकाने वाला है, उतना ही चौंकाने वाले इसके कवरेज के प्रति रखा जाने वाला रवैया भी है। भारत में निजी चैनलों के आगमन के बाद अपराध को जोरदार महत्व दिया जाने लगा है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि दक्षिण एशिया ने सर्वोच्च पद पर पहुँचने वाली महिलाओं के मामले में एक रिकार्ड कायम किया है। इंदिरा गॉधी, भंडारनायके, चंद्रिका कुमारतुंगा, बेगम खालिदा, बेगम हसीना और बेनजीर भुट्टो। लेकिन इसके साथ ही महिला अधिकारों के नाम पर दक्षिण एशिया की स्थिति ही सबसे कमजोर है। भारत जैसे देश में आज 250 से ज्यादा टीवी चैनल देखे जा सकते हैं लेकिन इसके बावजूद आज भी मीडिया में आधी आबादी को आधी जगह तक नसीब नहीं हो पाई है। इसलिए जरूरी है कि महिला अपराध से जुड़े मुद्दों को आधार बना कर मीडिया की भूमिका की विवेचना की जाए। इसके तीन आधार हो सकते हैं।
मीडिया कवरेज - संवेदना या व्यापार
मीडिया विशेषज्ञों के आकलन पर यकीन करें तो महिला अपराध और उसमें भी बलात्कार, कवरेज का श्रेणी में सबसे उपर आता है। इसकी वजह यह है कि महिला अपराध में पुरूष को आकर्षित करने के सबसे ठोस तत्व होते हैं और ये ही पुरूष अपराध कार्यकमों के खास दर्शक भी हैं। रात 11 बजे तक जब महिलाएं सास-बहू की नोक-झोंक को झेलने या फिर उसका रस लेने के बाद थक जाती हैं तो रिमोट पुरूषों के हाथ में आ जाता है। तब वे अपराध या फिर खेल को ही प्राथमिकता देते हैं और अपराध में अगर सेक्स संबंधी मसाला हो तो वही पहला नंबर हासिल कर लेता है। लेकिन यहां सोचने की बात है - मीडिया की कवरेज और उसका महिला अपराध के प्रति रवैया कैसा है? इसका जवाब बहुत संतोषजनक नहीं है। इसके लिए कुछ टेलीविजन चैनलों के हेडलाइनों पर गौर किया जा सकता है। 'बलात्कारियों ने महिला को रौंदा', 'बर्बरता से महिला हवस की शिकार, अपराधी फरार' 'नाबालिगों ने एक अधेड़ को बनाया अपनी भूख का निशाना' वगैरह। टेलीविजन चैनलों पर सुनाई देने वाली ऐसी हेडलाइनें अक्सर अपराधी को एक विशिष्ट सम्मान देती दिखती हैं। लगता है इस देश में हर उम्र की महिला स्थायी तौर पर असुरक्षित है और अपराधी हमेशा ही भाग जाने में कामयाब होता है। इस संदर्भ में ब्रिटेन की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी के छह विशेषज्ञों की हाल में जारी अध्ययन रिपोर्ट को पढ़ा जा सकता है जो खुल कर कहती है कि टेलीविजन पर दिखायी जाने वाली हिंसा बच्चों में आक्रोश बढ़ाने की एक बड़ी वजह है।
जवाबदही और जिम्मेदार मोजेक की प्रथा
एक निजी चैनल के अपराध कार्यक्रम में एक स्टोरी दिखाई जा रही है। घटना दिल्ली के एक निम्न-वर्गीय परिवार की है। परिवार की एक नाबालिग लडकी से दो युवकों ने बलात्कार किया है और वे फरार हो गए हैं। अब पढ़िए कि इस स्टोरी को किस अंदाज में कवर किया गया है। स्टोरी में अपराधी पूरी तरह नदारद है। स्वभाविक है कि वे अभी पकडे़ नहीं गए हैं, युवती का चेहरा मोजैक करके दिखाया गया है (इसके पीछे चैनल का डर है) और इसके अलावा वह सब कुछ है जो युवती के दूर-दराज के सभी परिचितों और लोगों को सूचित करने के लिए काफी है। लड़की के घर का लांग-शॉ़ट और क्लोज-अप दोनों दिखाए गए हैं, लड़की के माँ-बाप का तीन बार फोटो दिखाया गया है, लड़की के बाप का व्यवसाय बताया गया है, मोहल्ले का नाम बताया गया है और कानूनी भाषा में कहें तो भला बताया ही क्या गया? कुछ भी तो नहीं। लड़की का नाम तो बताया ही नहीं।
मीडिया से इससे बड़ी बेईमानी की उपेक्षा नहीं की जा सकती। पूरी कहानी में न तो अपराधी का नाम बताया गया, न उसका फोटो दिखाया गया और न ही परिवार वाले या फिर परिचित दिखाए गए। कहानी इस अंदाज में की गई कि लड़की का जीना दूभर हो जाए और तथाकथित अपराधी को आंच भी न आए। हैरानी की बात यह है कि बात-बात पर बडे़-बडे़ सम्मेलनों में जमा हो जाने वाली महिला आयोग की तमाम वीरांगनाएं इस मुद्दे पर जरा भी आवाज नहीं निकालतीं। इसका संदेश साफ है- आम महिला के साथ हुआ अपराध कोई मायने नहीं रखता। यही वजह है कि बीते कुछ सालों में देखने में आया है कि अब दहेज संबंधी हत्याओं से कहीं ज्यादा महत्व महिला उत्पीड़न को मिलने लगा है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल कम से कम पांच हजार युवतियां दहेज की बलि चढ़ती हैं लेकिन उन पर कितनी रिपोर्ट दिखाई देती हैं या फिर कितने फॉलोअप किये जाते हैं? अंग्रेजी अखबार तो फिर भी बलात्कार को 'मोलेस्टेशन' कह देते हैं लेकिन ज्यादातर हिन्दी अखबार बलात्कार शब्द को ही न्यूज़ी मानते हैं।
भारत में मथुरा बलात्कार कांड के बाद हुए कानूनी संशोधनों में 1983 मे पहली बार भारतीय दंड संहिता की धारा 228 ए में यह प्रावधान किया गया कि पीड़िता के नाम, पता और पहचान को गोपनीय रखा जाए। कानून बना लेकिन क्या ऐसी पीड़ित स्त्रियों के नाम गोपनीय रखे गये? गावों या फिर कस्बों में नाम-पता-पहचान गोपनीय रखना असंभव है। यही नहीं, बहुत बार तो समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठों पर छपी खबरों मे भी नाम गोपनीय नहीं रखे जाते। ऐसा करना दंडनीय अपराध है लेकिन निर्धन और निरक्षर ग्रामीण जनता ऐसा अन्याय होने पर भी कानूनी तौर पर कोई कदम नहीं उठा पाती। इसी वजह से मीडिया की अनुशासनहीनता और संवेदनहीनता भी बढ़ी। निजी चैनलों के आने के बाद नंबर एक पर पहुंचने और वहां पर टिकने की होड़ ऐसी बढ़ी कि पत्रकारिता के मानदंड कहीं पीछे छूट गए। इसी तरह दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल के बच्चों की अश्लील फिल्म को टीवी चैनल पूरी दुनिया में प्रसारित करते हैं। स्थिती इतनी विकट हो जाती है कि लड़की को विदेश भेजना पड़ता है और बाद में लड़की का पिता आत्महत्या कर लेता है लेकिन मीडिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
निष्पक्षता
माना जाता है कि महिला अपराध कवर करने का जिम्मा अगर महिला पत्रकार को दिया जाए तो हालात बेहतर हो सकते हैं लेकिन प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के ताजा आंकडों पर यकीन करें तो पता चलता है कि भारत में महिला पत्रकारों की संख्या आज भी बहुत कम है और दूसरी बात कि महिला पत्रकारों की उपस्थिति इस बात की गारंटी नहीं दे सकती कि महिलाओं के मुद्दों के साथ न्याय होगा। इसकी एक बड़ी मिसाल है- भारतीय महिला आयोग समेत कई गैर सरकारी संस्थाएं। इनकी मौजूदगी के बावजूद आज भी भारत में न तो महिलाओं की स्थिति में कोई बड़ा सुधार हुआ है और न ही कवरेज की शैली सुधरी है। कवरेज के हिसाब से तो असल में गिरावट ही आई है और ऐसे मामलों में संस्थाएं सेंसरशिप जैसे मुद्दे उठाने के सिवा ज्यादा कुछ नहीं कर सकी हैं।
इस सिलसिले में यूनिसेफ की रिपोर्ट काफी रोचक है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 193 देशों में से सिर्फ 44 देशों ने ही घरेलू हिंसा के खिलाफ विधेयक लागू किया है। केवल 27 देशों मे यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून हैं जबकि 17 देश ही विवाह के बाद बलात्कार को अपराध के श्रेणी में रखते हैं। जाहिर है कि इस नजरिए के लिए अकेले पुरूषों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ऊंचे पदों पर आने के बाद महिलाएं भी अक्सर ऐसी मुद्दों के प्रति ढीली ही दिखती हैं। इसके अलावा मीडिया में काम कर रही महिलाओं की खुद की स्थिति कई बार इतनी सशक्त नहीं होती कि वे ऐसे बदलाव ला सकें।
लेकिन फिर इस समस्या का हल क्या है? असल में भारत में मीडिया अभी अपरिक्वता के दौर से गुजर रहा है। इसलिए उससे भरपूर समझदारी की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए लेकिन अब समझ आ गया है कि जवाबदेही को लेकर कड़ाई बरती जाए। सबसे जरूरी बात यह है कि संवेदनशील मुद्दों को कवर करने का दायित्व खासतौर पर सिर्फ जाग्रत पत्रकारों को ही सौंपा जाए ताकि न तो पत्रकारिता के ठोस नियमों की अवहेलना हो और न ही पत्रकारिता खुद एक मजाक बने। जहां तक टीआरपी नामक खिलौने को रिझाने के बहानों का सवाल है तो भारतीय मीडिया को 'टाइम्स' लंदन के पूर्व संपादन हेनरी विकहम के इस कथन से सबक लेने की कोशिश करनी चाहिए। वे कहते हैं 'आदर्श समाचार पत्र वही है जो पैसा बनाने के लिए पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता किए बिना अपनी रोजी-रोटी कमाए।'
भारतीय प्रेस में कभी ऐसी समझदारी आएगी, ऐसा सपना देखने में भला क्या हर्ज है!
(यह लेख विदुर के जुलाई-सितंबर,2005 के अंक में प्रकाशित हुआ)
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2 comments:
वर्तिका आपने मीडिया की सैद्द्धांतिकी और यथार्थ संबंधी कई महत्वपूर्ण बातें सामने रखीं ! इन्हें पढना किसी भी मीडिया विद्यार्थी के लिए बहुत ज़रूरी है !
अच्छा आलेख.
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