ऐसे मौके विरले ही आते हैं जब अखबारों की सुर्खियां वे चेहरे बनते हैं जिन्हें देखते ही सम्मान जगे।
बहुत पहले किसी ने सीख दी थी। करियर में बदलाव लाना हो तो तब लाओ जब वो शीर्ष पर हो। अनिल कुंबले के संन्यास ने इसी बात को पुख्ता किया है। कुंबले ने एक ऐसे समय पर क्रिकेट को अलविदा कहा है जब उन पर ऐसा करने का न तो कोई दबाव था और न ही कोई मजबूरी। अपनी मर्जी से वे एक दिवसीय क्रिकेट से पहले ही संन्यास ले चुके थे और यह साफ था कि टैस्ट क्रिकेट भी वे अब ज्यादा दिन खेलने वाले नहीं हैं। वे जब तक खेले, शान और अदब के साथ खेले। दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान पर कुंबले की वह पारी हमेशा याद की जाएगी जब उन्होंने पाकिस्तानी टीम के दसों विकट गिरा दिए थे।
कुंबले के पास सफलता रही लेकिन ग्लैमर की चाश्नी कभी साथ नहीं चिपकी। इस मामले में वे सचिन तेंदुलकर या सुनील गावस्कर जैसे खिलाड़ियों से बहुत अलग रहे। वे ललचाती-लपलपाती जीभ लटकाते ऐसे खिलाड़ी के तौर पर कभी भी नहीं देखे गए जो हर समय किसी भी स्तर का विज्ञापन कर तिजोरी भरने के मौके की फिराक में रहे। उन्होंने जो भी किया, उसे भरपूर जीया। क्रिकेट के मैदान पर वे डूबे अंदाज में खेलते दिखे और बाद में फोटोग्राफी करते। एक ऐसे समय में, जबकि क्रिकेटर क्रिकेट कम और पैसे बनाने के दूसरे करतब करते ज्यादा नजर आते हैं, कुंबले ने अपनी छवि की गंभीरता को करीने से बनाए रखा।
कुंबले के पास आने वाले समय के लिए न तो मौकों की कमी है और न ही काबिलियत की। उनका शुमार भारतीय क्रिकेट टीम के अतिशिक्षित खिलाड़ियों में होता है। उनके पास बाकायदा इंजीनियरिंग की डिग्री है, आवाज में प्रोफेशनल सधाव है और भाषा पर पूरा अधिकार भी। इसके अलावा है- 132 टेस्ट खेलने का अनुभव। अपनी व्यवहार-कुशलता की वजह से उनके पास भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सहयोग और खिलाड़ियों का साथ भी है। यह एक ऐसी संपदा है जो उन्हें अब तक के रूतबे से कहीं आगे ले जाने की कुव्वत रखती है। वैसे संभावना यह भी है कि वे उदीयमान खिलाड़ियों के लिए एक अकादमी खोलेगें और कोच की जिम्मेदारी निभाएंगें। इसके अलावा अपने हुनर से वे क्रिकेट पर एक सॅाफ्टवेयर भी तैयार कर सकते हैं जिसकी जरूरत एक लंबे अरसे से महसूस की जा रही है।
लेकिन यहां एक बात पर गौर जरूर किया जाना चाहिए। आज कुंबले के सामने जो अपार संभावनाएं बन रहीं हैं, उनकी इकलौती वजह उनका खेल-अनुभव या व्यवहार-कुशलता ही नहीं है बल्कि एक वजह उनके पास पर्याप्त शिक्षा का होना भी है। यह बात जोर देकर कही जानी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मौजूदा दौर में टीवी की दुनिया की चकाचौध नई पीढ़ी के मन में यह गलतफहमी भरने लगी है कि पढ़ना शायद बेहद जरूरी नहीं। इसकी दो मिसालें हैं- एक तो टीवी चैनलों पर शिक्षा से जुड़े कार्यक्रमों का एकदम न के बराबर दिखना( याद कीजिए कितने टीवी चैनलों पर आपको क्विज दिखाए देते है? ऐसा कथित बोरियत का काम सरकारी भोंपू दूरदर्शन के ही पास सुरक्षित कर दिया गया है लेकिन अब उसने भी शिक्षा की बात कभी-कभार के लिए समेट दी है) और दूसरे संगीत के तमाम सर्कसनुमा अ-गंभीर कार्यक्रमों में शिक्षा से जुड़े सरोकार जगाते सवालों का तकरीबन न पूछा जाना। मीडिया सेक्टर से जुड़े लोग बखूबी जानते हैं कि रातों-रात लता मंगेश्कर और माइकल जैक्सन बनने की ख्वाहिश रखने वाले कई युवा बड़ी गलतफहमियों के चलते अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ मुंबई जा बसे हैं। ( मीडिया यह नहीं बताता कि कैसे बुनियादी शिक्षा छोड़ देने और बाद में कैरियर के भी न बनने पर किस तरह उनका भविष्य दांव पर लग जाता है)
तो बात कुंबले की हो रही थी। कुंबले ने एक राजा की विदाई पाई है। 2 नवंबर को फिरोजशाह कोटला मैदान में उनके साथियों और प्रशंसकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। उनके लिए जो तालियां बजीं, उसकी गूंज बहुत दूर तक सुनाई दी। अगले दिन उनकी तस्वीरें सभी प्रमुख अखबारों के मुख पृष्ठ पर छपी। ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि अखबारों में खुशी और गर्व एक साथ झलका- वह भी बिना किसी सियासती दांव-पेंच के। मीडिया ने उनके इस कदम को सलाम किया।
दरअसल कुंबले अपने लिए महानता का सर्टिफिकेट खुद लिख गए हैं। गौर करने की बात यह है कि अपने इस कदम से वे अपने वर्तमान और अपनी अतीत की उपलब्धियों से कहीं आगे की चहलकदमी पर निकल गए हैं। जैसी विदाई उन्हें मिली, वैसी तो सुनील गावस्कर के हाथ भी नहीं आई और उन्हें पलकों के आचल पर बिठाकर यह विदाई सिर्फ इसलिए भी नहीं दी गई कि वे 619 विकेट लेने वाले भारत के सबसे सफल गेंदबाज थे। वे ईमानदार खिलाड़ी भी थे। वे 18 साल मैदान पर बने रहे और उनका नाम उस खिलाड़ी के तौर पर दर्ज है जिसने भारत को सबसे ज्यादा बार जिताया। उन्होंने यह साबित किया कि वे सबसे महान स्पिनर हैं। अपनी पसंदीदा टोपी पहने खेल के मैदान पर खेलते वे अब नहीं दिखेंगें लेकिन यह एक सीमित सोच है। जो दस्तक सुनाई पड़ रही है, वह यही कहती है कि अब एक नए कुंबले से साक्षात्कार का समय आ गया है। यह नया कुंबले खिलाड़ी कुंबले से कहीं ज्यादा प्रभावशाली और सफल होगा।
अब जबकि कई क्रिकेटर फैशन शो में रैंप पर थिरक रहे हैं, फिल्मी शोज में बहूदे ढंग से मटक रहे हैं या फिर बेतुके चुटकुले पर दहाड़ें मार कर हंस रहे हैं, कुंबले जैसे खिलाड़ी सम्मान और गरिमा की एक मिसाल तो हैं ही।वैसे सच कहें तो वे क्रिकेटरों की जमात से भी बड़ी मिसाल उन राजनेताओं के लिए हैं जो अपनी रिटायमेंट की उम्र लांघने के दशकों बाद भी रिटायर होना नहीं चाहते। सच ही है। किसी बदलाव को गरिमा और आत्म-सम्मान के साथ आमंत्रित करना और उसे बारीकी से समेटना बिना मानसिक ताकत और हिम्मत के संभव ही नहीं।
बहुत पहले किसी ने सीख दी थी। करियर में बदलाव लाना हो तो तब लाओ जब वो शीर्ष पर हो। अनिल कुंबले के संन्यास ने इसी बात को पुख्ता किया है। कुंबले ने एक ऐसे समय पर क्रिकेट को अलविदा कहा है जब उन पर ऐसा करने का न तो कोई दबाव था और न ही कोई मजबूरी। अपनी मर्जी से वे एक दिवसीय क्रिकेट से पहले ही संन्यास ले चुके थे और यह साफ था कि टैस्ट क्रिकेट भी वे अब ज्यादा दिन खेलने वाले नहीं हैं। वे जब तक खेले, शान और अदब के साथ खेले। दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान पर कुंबले की वह पारी हमेशा याद की जाएगी जब उन्होंने पाकिस्तानी टीम के दसों विकट गिरा दिए थे।
कुंबले के पास सफलता रही लेकिन ग्लैमर की चाश्नी कभी साथ नहीं चिपकी। इस मामले में वे सचिन तेंदुलकर या सुनील गावस्कर जैसे खिलाड़ियों से बहुत अलग रहे। वे ललचाती-लपलपाती जीभ लटकाते ऐसे खिलाड़ी के तौर पर कभी भी नहीं देखे गए जो हर समय किसी भी स्तर का विज्ञापन कर तिजोरी भरने के मौके की फिराक में रहे। उन्होंने जो भी किया, उसे भरपूर जीया। क्रिकेट के मैदान पर वे डूबे अंदाज में खेलते दिखे और बाद में फोटोग्राफी करते। एक ऐसे समय में, जबकि क्रिकेटर क्रिकेट कम और पैसे बनाने के दूसरे करतब करते ज्यादा नजर आते हैं, कुंबले ने अपनी छवि की गंभीरता को करीने से बनाए रखा।
कुंबले के पास आने वाले समय के लिए न तो मौकों की कमी है और न ही काबिलियत की। उनका शुमार भारतीय क्रिकेट टीम के अतिशिक्षित खिलाड़ियों में होता है। उनके पास बाकायदा इंजीनियरिंग की डिग्री है, आवाज में प्रोफेशनल सधाव है और भाषा पर पूरा अधिकार भी। इसके अलावा है- 132 टेस्ट खेलने का अनुभव। अपनी व्यवहार-कुशलता की वजह से उनके पास भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सहयोग और खिलाड़ियों का साथ भी है। यह एक ऐसी संपदा है जो उन्हें अब तक के रूतबे से कहीं आगे ले जाने की कुव्वत रखती है। वैसे संभावना यह भी है कि वे उदीयमान खिलाड़ियों के लिए एक अकादमी खोलेगें और कोच की जिम्मेदारी निभाएंगें। इसके अलावा अपने हुनर से वे क्रिकेट पर एक सॅाफ्टवेयर भी तैयार कर सकते हैं जिसकी जरूरत एक लंबे अरसे से महसूस की जा रही है।
लेकिन यहां एक बात पर गौर जरूर किया जाना चाहिए। आज कुंबले के सामने जो अपार संभावनाएं बन रहीं हैं, उनकी इकलौती वजह उनका खेल-अनुभव या व्यवहार-कुशलता ही नहीं है बल्कि एक वजह उनके पास पर्याप्त शिक्षा का होना भी है। यह बात जोर देकर कही जानी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मौजूदा दौर में टीवी की दुनिया की चकाचौध नई पीढ़ी के मन में यह गलतफहमी भरने लगी है कि पढ़ना शायद बेहद जरूरी नहीं। इसकी दो मिसालें हैं- एक तो टीवी चैनलों पर शिक्षा से जुड़े कार्यक्रमों का एकदम न के बराबर दिखना( याद कीजिए कितने टीवी चैनलों पर आपको क्विज दिखाए देते है? ऐसा कथित बोरियत का काम सरकारी भोंपू दूरदर्शन के ही पास सुरक्षित कर दिया गया है लेकिन अब उसने भी शिक्षा की बात कभी-कभार के लिए समेट दी है) और दूसरे संगीत के तमाम सर्कसनुमा अ-गंभीर कार्यक्रमों में शिक्षा से जुड़े सरोकार जगाते सवालों का तकरीबन न पूछा जाना। मीडिया सेक्टर से जुड़े लोग बखूबी जानते हैं कि रातों-रात लता मंगेश्कर और माइकल जैक्सन बनने की ख्वाहिश रखने वाले कई युवा बड़ी गलतफहमियों के चलते अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ मुंबई जा बसे हैं। ( मीडिया यह नहीं बताता कि कैसे बुनियादी शिक्षा छोड़ देने और बाद में कैरियर के भी न बनने पर किस तरह उनका भविष्य दांव पर लग जाता है)
तो बात कुंबले की हो रही थी। कुंबले ने एक राजा की विदाई पाई है। 2 नवंबर को फिरोजशाह कोटला मैदान में उनके साथियों और प्रशंसकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। उनके लिए जो तालियां बजीं, उसकी गूंज बहुत दूर तक सुनाई दी। अगले दिन उनकी तस्वीरें सभी प्रमुख अखबारों के मुख पृष्ठ पर छपी। ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि अखबारों में खुशी और गर्व एक साथ झलका- वह भी बिना किसी सियासती दांव-पेंच के। मीडिया ने उनके इस कदम को सलाम किया।
दरअसल कुंबले अपने लिए महानता का सर्टिफिकेट खुद लिख गए हैं। गौर करने की बात यह है कि अपने इस कदम से वे अपने वर्तमान और अपनी अतीत की उपलब्धियों से कहीं आगे की चहलकदमी पर निकल गए हैं। जैसी विदाई उन्हें मिली, वैसी तो सुनील गावस्कर के हाथ भी नहीं आई और उन्हें पलकों के आचल पर बिठाकर यह विदाई सिर्फ इसलिए भी नहीं दी गई कि वे 619 विकेट लेने वाले भारत के सबसे सफल गेंदबाज थे। वे ईमानदार खिलाड़ी भी थे। वे 18 साल मैदान पर बने रहे और उनका नाम उस खिलाड़ी के तौर पर दर्ज है जिसने भारत को सबसे ज्यादा बार जिताया। उन्होंने यह साबित किया कि वे सबसे महान स्पिनर हैं। अपनी पसंदीदा टोपी पहने खेल के मैदान पर खेलते वे अब नहीं दिखेंगें लेकिन यह एक सीमित सोच है। जो दस्तक सुनाई पड़ रही है, वह यही कहती है कि अब एक नए कुंबले से साक्षात्कार का समय आ गया है। यह नया कुंबले खिलाड़ी कुंबले से कहीं ज्यादा प्रभावशाली और सफल होगा।
अब जबकि कई क्रिकेटर फैशन शो में रैंप पर थिरक रहे हैं, फिल्मी शोज में बहूदे ढंग से मटक रहे हैं या फिर बेतुके चुटकुले पर दहाड़ें मार कर हंस रहे हैं, कुंबले जैसे खिलाड़ी सम्मान और गरिमा की एक मिसाल तो हैं ही।वैसे सच कहें तो वे क्रिकेटरों की जमात से भी बड़ी मिसाल उन राजनेताओं के लिए हैं जो अपनी रिटायमेंट की उम्र लांघने के दशकों बाद भी रिटायर होना नहीं चाहते। सच ही है। किसी बदलाव को गरिमा और आत्म-सम्मान के साथ आमंत्रित करना और उसे बारीकी से समेटना बिना मानसिक ताकत और हिम्मत के संभव ही नहीं।
2 comments:
बहुत खूब,अच्छी पोस्ट लिखने के लिये धन्यवाद,कुम्बले के माध्यम से आपने बहुत सी बातें कह दीं हैं....बहुत सी खोबियों को मिला दें तो जा कत कोई हस्ती बनती है...खोखली चमक तो कुछ पल ही ठहर सकती है....
बढ़िया आलेख!
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