Nov 16, 2008
नए जमाने का मीडिया-कम्यूनिटी रेडियो
हाल ही में जब छत्तीसगढ़ के गांव छेछर में 71 वर्षीय एक महिला सती हुई तब आंध्र प्रदेश के मछनूर गांव की कुछ दलित महिलाएं खुद समाचार बन रहीं थीं। इन महिलाओं ने नरसम्मा के नेतृत्व में एक सामुदायिक रेडियो की शुरूआत कर डाली। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मछनूर गांव में संगम रेडियो का उद्घघाटन सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस पी बी सावंत ने किया( इन्हीं जस्टिस सावंत ने 1995 में प्रसारण तरंगों पर से राज्य के नियंत्रण को हटाने का महत्वपूर्ण फैसला दिया था)।
गौरतलब यह भी है कि संगम रेडियो को एशिया का पहला ऐसा सामुदायिक रेडियो होने का गौरव हासिल हो गया है जो कि पूरी तरह से महिलाएं चलाती और संभालती हैं और इस रेडियो में बातें सौंदर्य या खान-पान की नहीं बल्कि ईको-कृषि, पर्यावरण,भाषा,संस्कृति, खेतों में महिला अधिकार जैसे गंभीर मुद्दों पर होती हैं। इस रेडियो की गूंज 25 किलोमीटर के क्षेत्र में सुनी जा रही है और यह आस-पास के 100 गांवों को कवर कर रहा है जिनकी आबादी करीब 50,000 है।
पर इस सच से परे एक सच यह भी है कि भारत की एक बड़ी आबादी सामुदायिक रेडियो के नाम से भी परिचित नहीं है। एक ऐसे समय में, जबकि फिक्की यह कह रहा है कि भारत में एंटरटेंनमेंट मीडिया 19 प्रतिशत की वार्षिक दर से छलांगें भर रहा है, सामुदायिक रेडियो पर ज्यादा बातें नहीं होतीं। वजहें कई हैं। एक तो सामुदायिक रेडियो का दायरा बेहद छोटा होता है। कहीं 20 किलोमीटर तो कहीं 50। दूसरे इसे चलाने और इससे फायदा पाने वाले भी बेहद आम और स्थानीय होते हैं और यहां परोसी जाने वाली सामग्री भी उन्हीं के इस्तेमाल की होती है लेकिन यहां यह नहीं भूला जाना चाहिए कि इस रेडियो की ताकत असीम है क्योंकि इसका संचालक, कार्यकर्ता और उपभोक्ता वह वर्ग है जो इस देश की चुनाव प्रक्रिया में सबसे महती भूमिका निभाता है।
दरअसल भारत में सामुदायिक रेडियो की लहर 90 के दशक में आई। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 'रेडियो तरंगें जनता की संपत्ति हैं।' यह एक शुभ समाचार था लेकिन शुरूआती दौर में सिर्फ शैक्षिक स्तर पर ही ऐसे स्टेशनों को खोलने की इजाजत दी गई। इस दशा में चन्नई स्थित अन्ना एफएम पहला कैंपस सामुदायिक रेडियो बना जिसे आज भी एजुकेशन एंड मल्टीमीडिया रीसर्च सेंटर चलाता है और इसके तमाम कार्यक्रमों को अन्ना विश्वविद्यालय के छात्र ही तैयार करते हैं।
लेकिन परिस्थितियों में तेजी से बदलाव नवंबर 2006 से आना शुरू हुआ जब भारत सरकार ने एक नई नीति के तहत गैर-सरकारी संस्थानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं को भी सामुदायिक रेडियो शुरू करने की इजाजत दे दी। इस समय भारत में 6000 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो खुल चुके हैं। नई नीति के तहत कोई व्यक्ति विशेष या फिर आपराधिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि की संस्थाओं के अलावा कोई भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्था सामुदायिक रेडियो के लिए आवेदन दे सकती है लेकिन चूंकि ऐसे रेडियो स्टेशनों के लिए केंद्र के स्तर से फंड नहीं मिल पाता और इनके लिए फंड जुटाने को लेकर कई कडे नियम भी हैं, ऐसे में सामुदायिक रेडियो के लिए लाइसेंस पाना भले ही आसान हो लेकिन उसे लंबे समय तक चला पाना किसी परीक्षा से कम नहीं। वैसे भी इसका लाइसेंस ऐसी संस्थाओं को ही मिल सकता है जो कम से कम तीन साल पहले रजिस्टर हुई हों और जिनका सामुदायिक सेवा का ' प्रमाणित ट्रैक रिकार्ड ' रहा हो।
लेकिन लाइसेंस मिलने के बाद भी दिक्कतें कम नहीं होतीं। 12 किलोमीटर के दायरे की सीमा तक में बंधे सामुदायिक रेडियो के साथ यह शर्त भी जुड़ी होती है कि उसके करीब 50 प्रतिशत कार्यक्रमों में स्थानीयता हो और जहां तक संभव हो, वे स्थानीय भाषा में हों। एक घंटे में 5 मिनट के विज्ञापनों की छूट तो है लेकिन स्पांसर्ड प्रोग्रामों की अनुमति नहीं है( वे केंद्र या राज्य द्वारा प्रायोजित हों तो बात अलग है और वहां से स्पांसरशिप मिलना अपने में टेढ़ी खीर।)
लेकिन तमाम दबावों के बीच सामुदायिक रेडियो से जुड़े कार्यकर्ताओं ने एक अनौपचारिक फोरम का गठन कर डाला है और मजे की बात यह है कि देश भर के कई टीवी पत्रकारों को जितने मेल सामुदायिक रेडियो से जुड़े इस फोरम से मिलते हैं, उतने मीडिया के किसी भी दूसरे माध्यम से नहीं।
दरअसल सामुदायिक रेडियो पर सबसे ज्यादा बातें सुनामी के समय हुईं। उस समय जबकि प्रसारण के तमाम हथियार ढीले पड़ गए थे, सामुदायिक रेडियो के जरिए हो रही उद्घघोषणाओं के चलते ही अंडमान निकोबार द्वीप समूह में करीब 14,000 लापता लोगों को आपस में जोड़ा जा सका था।
बहरहाल भारत के पिटारे में एक और सामुदायिक रेडियो जुड़ गया है। यह रेडियो फिलहाल हर रोज 90 मिनट का प्रसारण ही देगा लेकिन दिन-पर दिन इसका प्रसारण समय भी बढ़ेगा और इसकी ताकत भी क्योंकि सामुदायिक रेडियो जैसे 'अनाकर्षक' दिखने वाले माध्यम में बाजार के सीधे दखल और दबाव के बढ़ने के आसार अभी कम ही हैं।
(यह लेख 16 नवंबर, 2008 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)
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