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Feb 1, 2009

कृषि दर्शन : उपयोगी पर दर्शनीय नहीं

किसान भाइयों को राम राम। 26 जनवरी, 1966 को इस संबोधन के साथ जिस प्रयोग की शुरूआत हुई, उसका नाम था- कृषि दर्शन। मकसद था-किसानों तक कृषि संबंधी सही और जरूरी सूचनाओं का प्रसारण। कहने को तो आप इसे महज एक कार्यक्रम भर मान सकते हैं लेकिन दरअसल कृषि दर्शन अपने आप में एक मुहावरा है। याद कीजिए वे दिन जब काले-सफेद टीवी के परदे के सामने बैठ कर दर्शक सत्यम् शिवम् सुंदरम् के लोगो को बहुत चाव से देखा-सुना करते थे। उन दिनों दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले गिने-चुने कार्यक्रमों में से एक था - कृषि दर्शन। चूंकि तब विकल्प नहीं थे और मनोरंजन के साज बुद्धू बक्से पर एक ही चैनल का कब्जा था तो यह कृषि दर्शन कई बार बड़े काम का लगता था। इस कार्यक्रम को असल में एक दृष्टि के साथ शुरू किया गया था। कृषि दर्शन एक प्रयोग था जिसे सबसे पहले दिल्ली और आस-पास के चुने गए 80 गांवों में सामुदायिक दर्शन के लिए विकसित किया गया। यह प्रयोग सफल रहा और यह पाया गया कि हरित क्रांति के इस देश में कृषि दर्शन ने किसानों से बेहद जरूरी जानकारियां बांटने में जोरदार भूमिका निभाई। कृषि प्रधान देश के किसानों के लिए इस कार्यक्रम ने घर बैठे ताजा सूचनाओं और तकनीक के नए द्वार खोल दिए। किसान इस कार्यक्रम का बेसब्री से इंतजार करते और बाद में दो तरफा संवाद कायम होने के बाद बीजों से लेकर कीटनाशकों तक से जुड़े सवालों के जवाब सीधे वैज्ञानिकों से पाने लगे। आज भी यह कार्यक्रम हफ्ते में पांच दिन प्रसारित किया जाता है। बाद में इसी प्रयोग से उत्साहित होकर 1975 में साइट परियोजना की नींव रखी गई। भारत में तकनीक और सामाजिक स्तर पर यह सबसे बड़ी परियोजनाओं मे से एक बना। इसके तहत भारत के 6 राज्यों(राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश) के 2330 गांवों को चुना गया। इसका मकसद था - गांवों की संचार प्रणाली की प्रक्रिया को समझना, टेलीविजन को शिक्षा के माध्यम के तौर इस्तेमाल करना और ग्रामीण विकास में तेजी लाना। इन कार्यक्रमों में कृषि और परिवार नियोजन को तरजीह दी गई। 5 से 12 साल के स्कूली बच्चों के लिए हिंदी, कन्नड, उड़ीया और तेलुगु में 22 मिनट के कई ऐसे कार्यक्रम तैयार किए गए जिससे बच्चों में विज्ञान में दिलचस्पी बढ़ी। इस परियोजना ने यह साबित किया कि दूरदर्शन ग्रामीण शिक्षा और विकास के लिए एक बड़ा हथियार बन सकता है। इसके बाद प्रयोग चलते ही रहे। 1982 में इंसैट और 1983 में इंसैट 1-बी परियोजनाओं ने गांवों में अलख जगाने की मुहिम बरकरार रखी। लेकिन दूरदर्शन न तो कभी पूरी रफ्तार पकड़ पाया और न ही वह गुणवत्ता जिसकी उससे अपेक्षा थी। नई दिल्ली में सितंबर, 1959 को पहला केंद्र स्थापित होने के बाद मुंबई में दूसरा केंद्र स्थापित करने में ही सरकार ने 13 साल का समय लगा दिया और रंगीन होने में तो 23 साल ही लग गए। वह भी तब जब भारत में एशियाड खेल आ धमके। बाद में खाड़ी युद्ध के बहाने निजी चैनलों की घुसपैठ होते ही दूरदर्शन का जैसे बाजा ही बज गया। 1962 में 41 टीवी सेटों से शुरू हुई कहानी फिर कभी ठहरी नहीं और न ही दूरदर्शन और निजी चैनलों के बीच तुलना का दौर। इस सबके बीच दूरदर्शन के लिए विकास तो प्राथमिक ही रहा लेकिन गुणवत्ता तब भी नहीं। यह त्रासदी ही है कि दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे कृषि संबंधी कार्यक्रमों में कृषि दर्शन सबसे पुराना होने के बावजूद गुणवत्ता के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ आज भी नहीं है। आज भी न तो सेट आकर्षक नहीं बन सके हैं और न ही एंकरों में कसाव आया है। इस कार्यक्रम में आज भी विषयों में विविधता नहीं दिखती। रीसर्च के नाम पर भी ढीलेपन का कब्जा है। यहां किसान की परिभाषा भी रटी-रटाई है। किसान यानी अपने खेत में खेती करने वाला आम किसान या फिर बहुत बड़ा किसान। भूमिहीन किसानों के अधिकारो की बात अक्सर यहां नहीं होती। दूसरे यहां नकदी फसलों जैसे नए और ज्यादा आधुनिक विकल्पों को भी नएपन से समझाया नहीं जाता। यही वजह है कि आज भी एक आम मजाक है कि कृषि दर्शन की हालत ऐसी है कि यह भेद करना मुश्किल है कि जो एपिसोड दर्शक देख रहा है वह 2009 में बना था या 1966 में। 2005 से कृषि मंत्रालय के सहयोग से राष्ट्रीय प्रसारण के लिए नैरोकास्टिंग कृषि दर्शन नामक कार्यक्रम की भी शुरूआत कर दी गई है लेकिन यहां भी दूरदर्शिता का अभाव साफ दिखता है। यह ठीक है कि निजी चैनलों ने कभी भी विकास को पहली प्राथमिकता नहीं दी। वे रसोईयों में पकवानों की रिसिपी तो सिखाते रहे लेकिन सब्जी-अन्न मुहैया कराने वाले बहुत याद नहीं आए। मेरा गांव मेरा देश, किसान भाइयों और जय जवान जय किसान जैसे कार्यक्रमों की शुरूआत भी हुई लेकिन नेक नीयती के स्तर पर वे भी पिछड़ गए। अब जबकि कृषि दर्शन अपने प्रसारण के 23 साल पूरे कर रहा है, खुशी होती है कि दूरदर्शन ने आज भी किसान को हाशिए पर सरकाया नहीं है। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि क्या किसान अकेले दूरदर्शन की ही जिम्मेदारी हैं? क्या आचार संहिताएं बनाने वाले बुद्धिजीवी ऐसी कोई अनिवार्यता रख पाने में अक्षम हैं कि निजी चैनलों को एक तयशुदा प्रतिशत किसानों के लिए रखना ही होगा? दूसरे यह कि क्या तकनीक के स्तर पर इतनी क्रांतियां आने के बाद अब भी दूरदर्शन को महसूस नहीं होता कि अथाह संसाधनों के बावजूद वह आज भी इस कार्यक्रम को स्तरीय बनाने में चूक रहा है? ( यह लेख 1 फरवरी, 2009 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

6 comments:

Udan Tashtari said...

आभार इस आलेख के लिए. तथ्य विचारणीय है.

sushant jha said...

बढ़िया मैम...जारी रहिए।

Anonymous said...

वस्तुतः सही यही है कि किसान और उसके साथ साथ तमाम और वर्ग जो बाजार पर मजबूत प्रभाव नही रखते वो सरकार की ही जिम्मेदारी हैं
सरकार और दूरदर्शन को समझना होगा कि समयानुरूप बदलावों की कृषिदर्शन को भी जरुरत है और दूरदर्शन और आकाशवाणी को भी.
कई बार हमें लगता है कि दूरदर्शन और आकाशवाणी की गुणवत्ता में जान बूझ कर भी कमी छोड़ दी जाती है जिससे निजी प्रसारण कर्ताओं को आसानी हो. जैसे लखनऊ में निजी ऍफ़ एम् चैनलों के आने के पहले आकाशवाणी का ऍफ़ एम् चैनेल बेहतर था और अब उसकी गुणवत्ता कम हो गई है
फिलहाल इस मुद्दे को उठाने के लिए आपका शुक्रिया

रोमेंद्र सागर said...

वाह ! क्या याद दिला दिया आपने ? कृषि दर्शन को अगर दूरदर्शन का प्रतीक चिन्ह कहा जाए तो अतिशयोक्ति नही होगी ! अचानक जानकर अजीब लगा की इस कार्यक्रम को चलते हुए २३ वर्ष हो गए हैं ! हमें तो अभी कल ही की बात ही लगती है जब हर शाम साढे सात बजे 'किसान भाइयों को राम राम' का स्वर स्वमेव कानो में बजने लगता था !

सही कहा आपने....उद्देश्य तो खासा महत्वपूर्ण था और उस पर शायद यह कार्यक्रम पूरा भी उतरा ही था लेकिन समय के साथ इसकी गुणवत्ता एक इंच भी सरक नही पाई ! चौधरी रघुनाथ सिंह के ज़माने में, जैसा यह बनाया जाता था शायद आज भी इसका वही हाल है....आज की कसावट भरी डिजीटल निर्माण तकनीको को अपनाना कृषि दर्शन के निर्माताओं के लिए वर्जना से कम नही है शायद ! एक अजीब सा कूप मंडूक रवैय्या हुआ करता था चौधरी साब के ज़माने में....( कुछेक एपिसोड उन दिनों मैंने किए थे , इसलिए थोड़ा बहुत अवगत हूँ उन हालातों से )
मुमकिन है वही दृष्टिकोण , एक परम्परा बन चुका हो !

बाकी रही निजी चैनलों की बात तो सभी जानते है ..दुकानदारी , समाज या राष्ट्र कल्याण के लिए नही मुनाफा-खोरी के लिए होती है ! वही होता आया है , और वही होता रहेगा !

आपका लेख सोच की सतह पर , हलकी ही सही , कम्पन अवश्य पैदा करता है !

शुभकामनायें !!!

vivek said...

aapkee kitab apradh patrakarita par padi .ye kitab mahila patrakaon ko ek hosla deti hai kee ve gambhir vishyo main kitna kkuch kar sakti hai sach aapne bharat kee patrkarita ka maan bdaya hai

Anonymous said...

मीडिया यात्रियों के लिए वाकई बेहतरीन लेख है. गंभीर पत्रकारों को कम से कम कर्त्तव्य बोध तो होगा ही.
धन्यवाद वर्तिका जी

journalismindia@gmail.com