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Pornography and Its Negative Affect on Women

Jul 31, 2009

मीडिया में बहस, बहस में मीडिया

पहले घोषणा हुई, फिर संसद में हंगामा और आखिर में एक और घोषणा। सार यह कि बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती, ,समाजवादी

पार्टी के नेता मुलायम सिंह और राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव के सुरक्षा के घेरे में कोई कमी नहीं लाई जाएगी। कहा जा रहा था कि गृह मंत्रालय देश के कथित 395 अति-महत्वपूर्ण लोगों के सुरक्षा कवच को घटाने को लेकर गंभीर विचार कर रहा है। इसे लेकर कई विशिष्ट और महत्वपूर्ण दलों के नेताओं का गुस्सा बढ़ा और फिर संसद के दोनों सदन उसकी चपेट में आ गए। भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने आपत्ति जताई कि केंद्र सरकार उनके वरिष्ठ सहयोगी मुरली मनोहर जोशी की सुरक्षा में भी कमी लाने की योजना बना रही है। यही हल्ला राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू यादव की सुरक्षा में कटौती को लेकर हुआ। कहा यहां तक गया कि इस कदम से अगर पार्टी के नेताओं के साथ 'कुछ' भी हुआ तो उसके लिए सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार होगी।

नतीजा यह रहा कि वही ढाक के तीन पात रहे और औपचारिकता भी बखूबी निभ गई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को गृह मंत्री पी चिदंबरम से कहना पड़ा कि राजनेताओं की सुरक्षा के साथ किसी भी तरह का कोई समझौता हर्गिज न किया जाए। वैसे भी हाल ही में मिस्र में मनमोहन सिंह और युसूफ रजा गिलानी के संयुक्त वक्तव्य से आतंकवाद को बाहर रखने की वजह से सिंह को विरोध का सामना करना पड़ा है। इसलिए सिंह ऐसे नाजुक मौके पर एक और नाजुक मुद्दे को जानबूझकर और बढ़ाने से खुद को बचाना चाहते थे।

राजनीतिक स्तर पर यह मुद्दा उठा और जल्द ही सो भी गया लेकिन इसके बावजूद इस तर्क से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस एक सूचना की वजह से नेताओं की छवि को एक धक्का तो जरूर पहुंचा ही है। नेता भले ही सुरक्षा के चक्र में काला चश्मा लगाकर घूमते रहें, जनता के लिए यह सर्कस ही है और साथ ही है उनके पैसों की आपराधिक फिजूलखर्ची।

अखबारों में छपी रिपोर्टें कहती हैं कि मायावती जब लखनऊ की सड़कों पर निकलती हैं तो उनकी शाही सवारी के साथ 350 पुलिसकर्मियों और 34 गाड़ियों का काफिला साथ दौड़ता है। 2007 में जब मायावती से एसपीजी का कवर हटाया गया तो मायावती ने जैसे ठान ही लिया कि इस कवर से भी बड़ा बन कर दिखाना है। नतीजा है - उनका मौजूदा सुरक्षा तंत्र। इसी तरह मुलायम सिंह के साथ भी सख्त सुरक्षा का घेरा रहता है और कई ऐसे नेताओं के साथ भी जिनके पांच साल के सत्कर्म उनके काफिले की संख्या से कहीं कम हैं।

दरअसल सुरक्षा का यह सारा मामला प्रतिष्ठा से जुड़ा दिखता है। कई नेता यह भूल जाते हैं कि एसपीजी की सुरक्षा सिर्फ प्रधानमंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री को ही दी जाती है। ऐसे भी नेता हैं जो सुरक्षा तंत्र में मामूली कमी लाने के प्रस्ताव भर को भी सरकार की साजिश मानने में पल भर की देर नहीं लगाते और कुछ पूरी कोशिश कर यह छान-बीन और शोध करते रहते हैं कि किस देश के किस नेता की सुरक्षा उनकी कमीज से ज्यादा सफेद है।(काश यह छानबीन अपने संसदीय क्षेत्र की भलाई के लिए की जाती)। नेता यह भी भूल जाते हैं कि उनकी सुरक्षा की तामझाम से जनता उनसे प्रभावित होने की बजाय उनसे दूरी रखने में ही भलाई समझने लगती है। मिसाल के तौर पर बहनजी जब उत्तर प्रदेश की सड़कों से निकलती हैं तो रास्ते थम जाते हैं और उनकी जान की सुरक्षा की खातिर लोगों को अपने घरों की खिड़की से झांकने की इजाजत भी नहीं होती।

खैर इसी विवाद के बीच कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने एक सुर में गाते हुए आरोप लगा दिया कि उत्तर प्रदेश में मायावती सरकार गैर-बसपाइयों की सुरक्षा को समेटने में लगी हुई है। जाहिर है कि बसपा ने इसका जमकर विरोध किया। कुल मिलाकर लब्बोलुआब यह कि संसद सत्र के कुछ महत्वपूर्ण दिन सिर्फ इसी बहस के बहाने कट गए। वैसे इससे यह भी साबित होता है कि भारतीय नेता को अब भी अपनी जान कितनी प्यारी है और जान का मामला संसद से शायद कहीं ऊपर का है।

लेकिन इस ड्रामे के बीच इस सच की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इस घोषणा के पहले हिस्से ने जनता और मीडिया को वाकई खूब गुदगुदाया। महसूस हुआ कि भारत में आज भी नेताओं की सुविधा या सुरक्षा या सरकारी खर्च में थोड़ी सी भी कमी का आना जनता को वैसे ही राहत देती है जैसे मौसम विभाग की घोषणा के सही निकलने पर तेज गर्मी के बाद बारिश। तमाम मीडिया चैनलों ने सुरक्षा में कमी आने की हलचल भर को उछल कर लपका, चुटीली भाषा का इस्तेमाल किया औऱ कुटिल-सी मुस्कान के साथ इस खबर पर कुछ विशेष कार्यक्रम भी बना डाले। इन कार्यक्रमों को देखने वालों को इसे देखकर राखी सावंत और इस जंगल से मुझे बचाओ से भी शायद कुछ ज्यादा ही मजा आया होगा।

यहां एक दृश्य याद आता है। दिल्ली के नेहरू पार्क में एक सज्जन हफ्ते में एकाध बार दिख जाते हैं सुरक्षा घेरे के बीच टहलते हुए। उनके पीछे चल रहे सुरक्षाकर्मियों में कुछ के हाथ में एक डंडा और कुछ के हाथ में बंदूक जैसी चीज दिखाई देती है। मजा तब आता है जब टहलते-टहलते नेताजी अचानक दौड़ने भी लगते हैं। तब उनके पीछे चल रहे गार्ड भी उसी गति में भागने लगते हैं। नेताजी तो पहने होते हैं आरामदायक कपड़े और खेल के जूते जबकि गार्ड पहने होते हैं औपचारिक कपड़े और दफ्तरी जूते। ऐसे में जब वे भागते नजर आते हैं तो नजारा हास्यास्पद बन जाता है। लेकिन मजे की बात यह कि इस नजारे को देखने वालों को कभी भी यह नहीं लगता कि कोई भी इंसान ऐसे किसी शख्स पर अपनी बंदूक की गोली बर्बाद करना चाहेगा जो खुद अंदर से इतना डरा हुआ है।

जो बात नेता अक्सर भूल जाते हैं या जिसे झुठलाने की पुरजोर कोशिश करते हैं, वह यह है कि इस देश की जनता सब जानती-समझती है। वक्त के थपेड़ों ने उसकी समझ को काफी परिपक्व बना दिया है। वह जानती है कि कितने नेताओं की जान वाकई 'खतरे ' में है और कितनों को खतरा जनता से या आतंकवादियों से नहीं बल्कि खुद अपने से और अपने लोगों से है। वह जानती है कि इनमें से कईयों के लिए सुरक्षा का यह चक्र, दरअसल सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि वीआईपी दिखने के विजिटिंग कार्ड की ही तरह है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि ऐसी पैंतरेबाजी सिर्फ भारत में ही होती है। पाकिस्तान भी इस मामले में पीछे नहीं है। हाल ही में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री युसूफ गिलानी जब पाकिस्तान के सुरक्षा तंत्र पर एक संवेदनशील बैठक ले रहे थे, तो उनके सहयोगी कई मंत्रियों को पाकिस्तान से ज्यादा अपनी सुरक्षा की चिंता थी। बैठक का एक बड़ा हिस्सा इस बात पर खर्च हुआ कि किन मंत्रियों को बुलेट प्रूफ गाड़ियां और सुरक्षाकर्मियों का ताम-झाम दिया जाना चाहिए। डेली टाइम्स के मुताबिक पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के एक नेता की इस बैठक के बाद टिप्पणी थी कि वे ये देख कर हैरान थे कि मंत्री पाकिस्तान की बदतर सुरक्षा व्यवस्था से कहीं ज्यादा अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित थे जबकि एक नेता का कहना था कि बुलेट प्रूफ गाड़ियों की भीड़ से जनता नेताओं से और दूर होती चली जाएगी।

खैर, अब जमाना बुद्ध या ईसा मसीह का नहीं है। नेता और गुरू सब बंदूकधारियों से घिरे होना पसंद करते हैं। अगर यह उनकी पसंद है तो कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क सिर्फ तब पड़ता है जब सारी शोशेबाजी जनता के पैसों से होती है। रास्ता सिर्फ एक ही दिखाई देता है। नेता अपनी सुरक्षा के लिए अपना खुद का ही पैसा खर्च क्यों नहीं करते। फैसला तो करना ही होगा न। जान प्यारी है या पैसा।

(यह लेख 30 जुलाई, 2009 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

6 comments:

Manjit Thakur said...

आपको नहीं लगता कि भारत की विदेश नीति से खिलवाड़ करना कांग्रे का पुराना शगल रहा है। कश्मीर पर कांग्रेसी नीति का ही खामियाजा देश आजतक भुगत रहा है। नेहरु की खामियां ही हमें आतंकवाद की आग में झुलसा रही है।

Vinay said...

इस बढ़िया लेख को पढ़वाने का शुक्रिया!

Batangad said...

वर्तिका जी
कैसी बात कर रही हैं। नेता लोग जनता से भेद थोड़े न मानते हैं। जनता के सेवक हैं तो, जनता के पैसे से ही सब कुछ करेंगे ना

amit said...

bahut achha topic aur us topic par bahut achhi jankari.

Anonymous said...

lagatar likh-likh kar aap siddhhast ho gaye hain.badhayee.prasun latant

vikas said...

vartika jee,aapka blog aaj dekhne ko mila,ek post k baad doosre post par koodte koodte,is post par aana hua,
aur ek baat ne mera dhyan kheencha,aapne "bhujan samaj party ko bhujan "samajwadi" party likha hai,jo ki sarasar ghalat hai,
apni bhool ka "shudar" kijiye
vikas zutshi
iimc hindi journalism