बहुत दिनों बाद उत्तर प्रदेश एक सुखद वजह से सुर्खियों में आया है। खबर है कि बुंदेलखंड की ग्रामीण महिलाओं की मेहनत से निकाली जा रही अखबार खबर लहरिया को यूनेस्को के किंग सेजोंग साक्षरता अवार्ड, 009 के लिए चुन लिया गया है। इस अखबार को बुंदेलखंड की पिछड़ी जाति की महिलाएं निकाल रही थीं। इस अखबार की खासियत है – महिलाओं के हाथों में मीडिया की कमान और साथ ही खबरों की स्थानीयता। इस अखबार में आस-पास के परिवेश के पानी, बिजली, सड़क से लेकर सामाजिक मुद्दे इस अखबार में छलकते दिखते हैं और साथ ही दिखती है – इन्हें लिखते हुए एक ईमानदारी और सरोकार।
दरअसल भारत भर में इस समय जनता के हाथों खुद अपने लिए अखबार चलाने की मुहिम सी ही चल पड़ी है। हाल ही में बुंदेलखंड के एक जिले ओरइया से छपने वाले अखबार मित्रा में इस बात पर सारगर्भित लेख प्रकाशित हुआ कि कैसे प्राथमिक स्कूलों मे दाखिला देते समय जातिगत भेदभाव पुख्ता तौर पर काम करते हैं। इसी तरह वाराणसी से पुरवाई, प्रतापगढ़ से भिंसार, सीतापुर से देहरिया और चित्रकूट से महिला डाकिया का नियमित तौर पर प्रकाशन हो रहा है।
इसका सीधा मतलब यह हुआ कि रसोई संभालने वालों ने अब कलम भी थाम ली है। यह भारत का महिला आधारित समाचारपत्र क्रांति की तरफ एक बड़ा कदम है। यहां यह सवाल स्वाभाविक तौर पर दिमाग में आ सकता है कि ग्रामीण महिलाओं ने सूचना और संचार के लिए सामुदायिक रेडियो या फिर ग्रामीण समाचार पत्र का माध्यम ही क्यों चुना। वजह साफ है। मुख्यधारा का मीडिया गांव को आज भी हास्य का विषय ही मानता है और फिर महिलाओं को जगह देना तो और भी दुरूह काम है।ऐसे में सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से इन महिलाओं ने अपनी आवाज खुद बनने के लिए ऐसे माध्यम को चुना जिस पर न तो मुख्यधारा मीडिया की कोई गहरी दिलचस्पी रही और न ही पुरूषों को। यह तो काफी बाद में समझ में आया कि इन माध्यमों के लोकप्रियता की डगर चल निकलते ही इनमें गहरी रूचि लेने वाले भी गुड़ को देख कर चींटियों की तरह उमड़ने लगे।
अकेले सामुदायिक रेडियो की ही मिसाल लें तो आंध्रप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड और यहां तक कि अंडमान और निकोबार तक में ऐसी महिलाओं की मजबूत जमात खड़ी हो गई है जो विशुद्ध तौर पर पत्रकारिता कर रही हैं। इन महिलाओं के पास भले ही किसी मान्यता प्राप्त नामी संस्थान का पत्रकारिता का डिप्लोमा या डिग्री ने हो, लेकिन दक्षता और मेहनत के मामले में ये किसी से कम नहीं हैं। झारखंड के चला हो गांव में, रांची की पेछुवाली मन के स्वर, उत्तराखंड की हेवल वाणी, मंदाकिनी की आवाज, प्रदीप सामुदायिक रेडियो, कर्नाटक की नम्मा धवनि, केरल का रेडियो अलाकल, राजस्थान के किशोर वाणी समेत ऐसी मिसालों की कमी नहीं जहां जनता ने सामाजिक सरोकारों की डोर खुद अपने हाथों में थाम ली है।
यहां एक मजेदार घटना का उल्लेख करना जरूरी लगता है। बुंदेखंड के एक गांव आजादपुरा में पानी की जोरदार किल्लत रहती है। यहां एक ही कुंआ था जिसकी कि मरम्मत की जानी काफी जरूरी थी। यहां की महिलाएं स्थानीय अधिकारियों से कुछेक बार इसे ठीक कराने के लिए कहती रहीं लेकिन बात नहीं बनी। लेकिन जैसे ही इन महिलाओं ने कुंए की बदहाली और उसकी मरम्मत की जरूरत की बात अपने रेडियो स्टेशन के जरिए की, स्थानीय प्रशासन ने तुरंत नींद से जगते हुए चार दिनों के भीतर ही उनका कुंआ ठीक करवा दिया। इस एक घटना ने महिलाओं को रेडियो की ताकत का आभास तो करवाया ही, लेकिन साथ ही यह हिम्मत भी दी कि सही नीयत और तैयारी से अगर संचार का खुद इस्तेमाल किया जाए तो रोजमर्रा के बहुत-से मसले खुद ही हल किए जा सकते हैं। इस इलाके में सामुदायिक रेडियो के लिए 5 रिपोर्टर और दो संचालक हैं। इसके अलावा एक प्रबंध समिति भी है जिसका मुखिया सरपंच है। इसके अलावा इसमें किसानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की भरपूर भागदारी है।
बहरहाल खबर लहरिया की इस उपलब्धि को भारत में महिलाओं के जरिए सूचना क्रांति की एक बेहद बड़ी मुबारक खबर के रूप में देखा जाना चाहिए। एक ऐसे दौर में, जब कि भारत में पूंजी केंद्रित पेज तीनीय पत्रकारिता का जन्म हो चुका है और वह एक बिगड़े बच्चे में तब्दील होकर पत्रकारिता के अभिभावकीय रूप को अपनी डफली के मुताबिक नचा रहा है, ऐसे में स्थानीय मीडिया से उम्मीदें और भी बढ़ जाती हैं। वैसे भी स्थानीय मुद्दों के लिए मुख्यधारा के पास समय, संसाधनों, विज्ञापनों से लेकर प्रशिक्षण तक – न जाने किन-किन सुविधाओं की कमी हमेशा ही रही है। जहां रवि नहीं होता, वहां कवि भले ही पहुंच जाता हो लेकिन आज भी जिन गांवों के कुएं सूख गए हैं और जहां पहुंचने के लिए हेमामालिनी के गालों सरीखी सड़कें नहीं हैं, वहां मुख्यधारा मीडिया को पहुंचने में वैसी ही तकलीफ होती है जैसी किसी आईपीएस के बेटे को डीटीसी की बस में बैठने में। इसलिए बेहतर यही होगा कि गांववाले अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए अपना माइक और अपनी कलम खुद ही थामें। मुख्यधारा के तलब लिए गांव का दर्शन नेताओं की ही तरह चुनावी मौसम में ही सही है। साल के बाकी पौने चार सालों का जिम्मा शायद स्थानीय ग्रामाण मीडिया खुद ही उठा सकता है।
तो इसका मतलब यह हुआ कि चूल्हा-चौकी संभालने वाली अब सही मायने में सशक्त हो चली हैं। लगता है, कहीं दूर से तालियों की आवाज सुनाई दे रही है।
(यह लेख दैनिक भास्कर में 18 अगस्त, 2009 को प्रकाशित हुआ)
7 comments:
बहुत अच्छा प्रयास है।
बहुत अच्छा प्रयास है।
बहुत अच्छा प्रयास है।
वर्तिका जी,
---यह खबर मैनें अखबारों में पढ़ी थी।
सच में यह महिलाओं खासकर घरेलू महिलाओं के विकास और उनके अन्दर की सोच को विकसित करने की अच्छी पहल कही जा सकती है।
आपका यह लेख भी उन लोगों तक यह समाचार पहुंचायेगा जिन्होंने इतनी महत्वपूर्ण खबर पर ध्यान नहीं दिया होगा………
हेमन्त कुमार
यह एक वास्तविक क्रान्ति है , कितना अच्छा होता अगर हमें इन अखबारों को पढने का मौका
मिल पाता
बहुत बढिया वर्तिका.आप हमेशा आगे बढिये ऐसी कामना है.
आपको अपने प्रोफाइल में इतना कुछ लिखने की जरुरत नहीं... हिन्दुस्तान में आपके लेख पढ़े हैं... आप यहाँ भी हैं देख कर खुसी हुई... खास कर यह बेहतरीन ब्लॉग बना कर तो हम जैसों के लिए तो मददगार ही साबित होंगी... खबर लहरिया के बारे में सुना था यहाँ ज्यादा जानकारी की लिए शुक्रिया... . मैं पत्रकारिता का स्टुडेंट हूँ... गलती से टॉप टेन में नाम आ गया है... कुछ आगे के लिए किताबें जाननी है जो हिंदी में हो... दूसरे साल में सिलेबस मुश्किल दिख रहा है... अगर संभव हो तो संपर्क पता दें...
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