खुशामदीद
पीएम की बेटी ने
किताब लिखी है।
वो जो पिछली गली में रहती है
उसने खोल ली है अब सूट सिलने की दुकान
और वो जो रोज बस में मिलती है
उसने जेएनयू में एमफिल में पा लिया है एडमिशन।
पिता हलवाई हैं और
उनकी आंखों में अब खिल आई है चमक।
बेटियां गढ़ती ही हैं।
पथरीली पगडंडियां
उन्हे भटकने कहां देंगीं!
पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा
तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।
बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां
अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं
और कब पी लेती हैं
दर्द का जहर
खबर नहीं होती।
ये लड़कियां बड़ी आगे चली जाती हैं।
ये लड़कियां चाहे पीएम की हों
या पूरनचंद हलवाई की
ये खिलती ही तब हैं
जब जमाना इन्हे कूड़ेदान के पास फेंक आता है
ये शगुन है
कि आने वाली है गुड न्यूज।
किताब लिखी है।
वो जो पिछली गली में रहती है
उसने खोल ली है अब सूट सिलने की दुकान
और वो जो रोज बस में मिलती है
उसने जेएनयू में एमफिल में पा लिया है एडमिशन।
पिता हलवाई हैं और
उनकी आंखों में अब खिल आई है चमक।
बेटियां गढ़ती ही हैं।
पथरीली पगडंडियां
उन्हे भटकने कहां देंगीं!
पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा
तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।
बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां
अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं
और कब पी लेती हैं
दर्द का जहर
खबर नहीं होती।
ये लड़कियां बड़ी आगे चली जाती हैं।
ये लड़कियां चाहे पीएम की हों
या पूरनचंद हलवाई की
ये खिलती ही तब हैं
जब जमाना इन्हे कूड़ेदान के पास फेंक आता है
ये शगुन है
कि आने वाली है गुड न्यूज।
बहूरानी (2)
बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा
और फिर देखीं अपनी
पांव की बिवाइयां
फटी जुराब से ढकी हुईं
एक बात तो मिलती थी फिर भी उन दोनों में -
दोनों की आंखों के पोर गीले थे
पैदाइश (3)
फलसफा सिर्फ इतना ही है कि
असीम नफरत
असीम पीड़ा या
असीम प्रेम से
निकलती है
गोली, गाली या फिर
कविता
गजब है (4)
बात में दहशत
बे-बात में भी दहशत
कुछ हो शहर में, तो भी
कुछ न हो तो भी
चैन न दिन में
न रैन में।
मौसम गुनगुनाए तो भी
बरसाए तो भी
शहनाई हो तो भी
न हो तो भी
हंसी आए मस्त तो भी
बेहंसी में भी
गजब ही है भाई
न्यूजरूम !
(यह कविताएं तद्भव के जुलाई 2009 के अंक में प्रकाशित हुईं)
6 comments:
सुन्दर अभिव्यक्तिपूर्ण रचनाये बधाई
सभी सोचने को बाध्य करती हैं... आखिरी वाली का तो भुक्तभोगी हूँ... सचमुच ऐसा ही होता है न्यूज़ रूम !a
वर्तिका मैं तो हैरान रह गई तुम्हारी कविताएँ पढ़ कर ! बड़ी अद्भुत भावनात्मक अभिव्यक्ति है.. तुम सचमुच बहुत अच्छा लिखती हो. मेरा विश्वास है कि तुम नाम करोगी एक दिन पर उस दिन अपनी इस पोस्ट पर मेरी टिप्पणी को याद ज़रूर कर लेना...
अशेष स्नेह सहित,
मीनू खरे
बेटियां गढ़ती ही हैं।
पथरीली पगडंडियां
उन्हे भटकने कहां देंगीं!
पांव में किसी ब्रांड का जूता होगा
तभी तो मचाएंगीं हंगामा बेवजह।
बिना जूतों के चलने वाली ये लड़कियां
अपने फटे दुपट्टे कब सी लेती हैं
और कब पी लेती हैं
दर्द का जहर
खबर नहीं होती।
वर्तिका जी ,
आपके लेखों की ही तरह कविताओं में काफी तेज धार है ..ये कवितायेँ हमारे समाज में लड़कियों की हालत को बहुत साफ और सरल ढंग से चित्रित कर रही हैं .
हेमंत कुमार
बेहद खूबसूरत कवितायें
और भी खूबसूरत होतीं अगर छोटे फॉण्ट के चलते पढने में दिक्कत न आती फॉण्ट थोडा बड़ा कर दीजिये न
बहुत ही बढ़िया कवितायें ---सरल शब्दों में लिखी गयी।
पूनम
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