अभी भी मन करता है
घूम आऊं किताबों के मेले में
पलटूं एक-एक पन्ना
और घर आऊं
तो तैयार मिले मां के हाथों का खाना
पिता की चिंता
लौटूं
तो इत्मीनान से खोलूं
किताबों का थैला
महसूसूं खुशबू ताजे छपे पन्नों की
उनकी जिल्द पर जडूं इतिहास होता वर्तमान-
अपना नाम, तारीख, साल
फिर उन्हें दूं जिल्द का तकिया
उन्हें सहलाऊं
तकिए के पास रख
मजे से सो जाऊं
सुबह पहली नजर फिर जाए
इन्हीं मीठे बेरों पर
उन्हें बता दूं छुअन से
दफ्तर से आते ही
दिमागी सैर करूंगी इनके साथ
अभी भी मन करता है
न जाने क्या-क्या
6 comments:
acha laga pad kar
amrit'wani'
http://kavyakalash.blogspot.com/
किताबों में जिंदगी ढूंढता हूँ तो ,
अक्सर जिंदगी हीं किताब नज़र आती है .
मन है की किताबों के पन्नो में अटका रहता है
और जिंदगी है की इन्ही पन्नो में उलझ जाती है .
Getting nostalgic about home is sometimes, rather many a times, so infectious. One starts walking down the memory lane the moment HOME - the subject - is initiated. And can one ever forget the intoxicating smell of our HOME, where we were born and raised!
अभी भी मन करता है न जाने क्या-क्या
सुन्दर रचना
अच्छा शब्द सयोजन
बधाई ..
महसूसूं aisa shabd hota hai kya???
I am doubtful..
"कभी-कभी पीछे लौटना अच्छा लगता है.."
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com
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