कविता का यह दरवाज़ा
नितांत निजी तरफ़ जाता है
मत आओ यहां
बाहर इनकी हवा आएगी नहीं
अंदर सुखी हैं यह अपनी गलबहियों में
यह कविताएं बुहार रहीं हैं
अंदर आंगन
बतिया रही हैं आपस में
कुछ कर रहीं हैं गेहूं की छटाई
कुछ चरखे पर कात रही हैं सूत और
कोई लगाती लिपस्टिक सूरज को बनाए आईना
अंदर बहुत चेहरे हैं
शायद मायावी लगें यह तुम्हें
अंदर जंगल हैं कई
झीलें, नदियां, उपवन, शहर, गंवीली गलियां
कमल, फूल, सब्ज़ियां और
चरती-फकफकती बकरियां भी
इस संसार का नक़्शा
किसी देश के मंत्रालय ने पास नहीं किया
यहां की लय, थिरकन, स्पंदन दूसरा ही है
कहीं तुम अंदर आए
तो साथ चली आएगी
बाहर की बिनबुलाई हवा
बंध जाएंगे यहां के सुखी झूले
स्त्री के अंदर की दुनिया
अंदर ही बुनी जाती है
रोज दर रोज
दस्तावेज़ नहीं मिलेंगें इनके कहीं
मिलेगी सिर्फ़ पायल की गूंज
ठकठकाते दिलों की धड़कन
खिलखिलाते चेहरे
सपनों की गठरियां और
उनके कहीं भीतर जाकर चिपके
बहुत सारे आंसू
2 comments:
mere paas tarif karne ke liye shabd nahi hai. Bus itna hi kah sakta hoo.
behad khoobsurat rachna......aapke blog par aaj aana hua ...to aacha laga...aabhaar
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