Mar 8, 2011

स्त्री

कविता का यह दरवाज़ा

नितांत निजी तरफ़ जाता है

मत आओ यहां

बाहर इनकी हवा आएगी नहीं

अंदर सुखी हैं यह अपनी गलबहियों में

 

यह कविताएं बुहार रहीं हैं

अंदर आंगन

बतिया रही हैं आपस में

कुछ कर रहीं हैं गेहूं की छटाई

कुछ चरखे पर कात रही हैं सूत और

कोई लगाती लिपस्टिक सूरज को बनाए आईना

 

अंदर बहुत चेहरे हैं

शायद मायावी लगें यह तुम्हें

अंदर जंगल हैं कई

झीलें, नदियां, उपवन, शहर, गंवीली गलियां

कमल, फूल, सब्ज़ियां और

चरती-फकफकती बकरियां भी

 

इस संसार का नक़्शा

किसी देश के मंत्रालय ने पास नहीं किया

यहां की लय, थिरकन, स्पंदन दूसरा ही है

कहीं तुम अंदर आए

तो साथ चली आएगी

बाहर की बिनबुलाई हवा

बंध जाएंगे यहां के सुखी झूले

 

स्त्री के अंदर की दुनिया

अंदर ही बुनी जाती है

रोज दर रोज

दस्तावेज़ नहीं मिलेंगें इनके कहीं

मिलेगी सिर्फ़ पायल की गूंज

ठकठकाते दिलों की धड़कन

खिलखिलाते चेहरे

सपनों की गठरियां और

उनके कहीं भीतर जाकर चिपके

बहुत सारे आंसू

2 comments:

Arvind said...

mere paas tarif karne ke liye shabd nahi hai. Bus itna hi kah sakta hoo.

vinod said...

behad khoobsurat rachna......aapke blog par aaj aana hua ...to aacha laga...aabhaar