25 साल पहले इस देश में एक प्रयोग की शुरूआत हुई थी। नाम था –जनवाणी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को यह सुविचार आया था कि थकते हुए दूरदर्शन में नई ताकत का संचार भरने के लिए एक ऐसे कार्यक्रम की शुरूआत की जाए जिसमें जनता जन प्रतिनिधियों से सीधे तौर पर खुलकर सवाल पूछ सकें। कुबेर दत्त को इस कार्यक्रम का प्रोड्यूसर बनाया गया। कार्यक्रम खूब चला लेकिन के सी पंत से जुड़े एक विवादास्पद कार्यक्रम के प्रसारण के बाद बाद इस कार्यक्रम का पतन आरंभ हो गया। इसके बावजूद यह कार्यक्रम अपने मकसद में कामयाब रहा। इसने जनता के स्टूडियो तक पहुंचने की नींव रखी। यह भारत में जनता के मुखर बनने का पहला बिगुल था। जनता और प्रतिनिधियों के बीच बना यही सेतु आज एक कद्दावर रूप में उभर कर सामने आ गया है।
जनता की इसी आक्रोश की आवाज के टीवी पर तय हुई 25 साल की यात्रा पर हाल ही में अरिंदम चौधरी के द संडे इंडियन ने दिल्ली में एक राष्ट्रीय मीडिया सेमिनार का आयोजन किया। यूं तो मीडिया के 16 प्रतिनिधियों को एक ही दिन सुनना बोझिल हो सकता था लेकिन मुद्दे की ताकत ऐसी थी कि चर्चा अपने नियत समय से काफी आगे निकल गई। यह बात तो साफ हुई कि मीडिया, खास तौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया, ने जनता की आवाज को सामन लाने का एक बड़ा सशक्त मंच तैयार किया है लेकिन यह सफल कितना रहा, यह अपनेआप में एक बड़ा सवाल है।
दूरदर्शन के दिनों को याद कीजिए। आप और हम- सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम। खतों पर आधारित। हर सप्ताह एंकर जब आप और हम का पता बोलने लगता तो लोगों को प्लैकार्ड देखने की जरूरत भी नहीं पड़ती। उन्हें पता याद था। आप और हम, दूरदर्शन केंद्र, संसद मार्ग, नई दिल्ली। 110001 हर रोज हजारों की तादाद में बोरियों में भरकर खत दूरदर्शन केंद्र आते। एक पूरी की पूरी टीम उन खतों को खंगालती, बेहतरीन खतों को फिर कार्यक्रम में शामिल किया जाता। यह अखबारों के संपादक के नाम पत्र का टीवीनुमा रूप था जो बेहद लोकप्रिय हुआ। यहीं से भारतीय जनता को अपनी राय को और गुस्से का खुलकर इजहार करने का मौका भी मिला।
उसके बाद 1992 के शुरूआती दिनों में जब जी टीवी अपनी पलकें खोल रहा था तो तीन कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की गई। ये तीनों ही कार्यक्रम अपनी जोरदार लोकप्रियता से देश के पहले निजी चैनल की मजबूत उपस्थिति और आने वाले सालों में नए टीवी चैनलों की पैदावार के स्तंभ बनकर खड़े हो जाते हैं। ये तीन कार्यक्रम थे- आपकी अदालत, हेल्पलाइन और इनसाइट। आपकी अदालत के एंकर रजत शर्मा थे, यह कार्यक्रम उनके जी टीवी छोड़ कर जाने पर जैसे दहेज में उनके साथ चल कर जाता है और अब तक उन्हीं के चैनल इंडिया टीवी की आंखों का तारा है। इसका शुमार देश के सबसे लंबे समय तक चलने वाले इंटरव्यू आधारित शोज में है। इनसाइट उमेश उपाध्याय का कार्यक्रम था जो किसी एक मुद्दे की तह में जाकर गहरी पड़ताल करता था। तीसरा कार्यक्रम था - हेल्पलाइन। इसकी एंकर जामिया से पढ़ीं राधिका कौल थीं। यह कार्यक्रम जनता की शिकायतों, मांगों और सुझावों पर आधारित था। हर हफ्ते आने वाले सप्ताहों के लिए मंत्रालयों या किसी विषय विशेष की घोषणा कर दी जाती और फिर दर्शक उस पर अपनी चिट्ठियां भेजते। इस टीम में गौरी गुप्ता, असदउर्रहमान किदवाई, शैला दुबे और मैं थे।
हेल्पलाइन असल में एक तरह का जन आंदोलन ही था। एलआईसी, पेंशन, रेलवे, उपभोक्ता मामलों पर खास तौर पर चिट्टियों का ऐसा अंबार लगता कि बोरियां भर-भर कर आतीं। सबसे बड़ा काम तो इन चिट्टियों को खोल कर उनका वर्गीकरण करना ही होता था और फिर संबंधित मंत्रालय से संपर्क बनाना, कार्यक्रम करना और उसके बाद उसका फॉलोअप भी। इसमें खास बात यह थी कि जिन लोगों के खतों को शामिल किया जाता था, उनके घर एक टीम भेजी जाती थी और उन पर पूरी स्टोरी को काटा जाता था। पाकिस्तान में बंदी बने लोगों पर बना एपिसोड तो कइयों की आखें भर आईं थीं। इस तरह से हर एपिसोड जनता के सरोकारों पर बुना जाता था।
जाहिर तौर पर यह कार्यक्रम बेहद सराहा गया। इस तरह से निजी चैनलों के शुरूआती दौर ने ही इस बात के पुख्ता सुबूत दे दिए कि जनता जन भागेदारी और जन के आस-पास घूमने वाले कार्यक्रमों में गहरी दिलचस्पी रखती है। फिर तो यह प्रयोग चल ही पड़ा, अलग-अलग तरीकों से अलग-अलग चैनलों ने इन्हें आत्मसात किया और अपनी जरूरत के मुताबिक इन्हें ढाला।
इस कड़ी में विनोद दुआ का जनवाणी हमेशा मील का पत्थर तो रहा लेकिन बाद में जब खबरिया चैनलों का प्रसव तेजी से होने लगा तो खबर की खोज और उसमें मसाले की मौजूदगी टीवी पर हावी होने लगी। लोकतंत्र के चौथे खंभे के तौर पर निजी चैनलों ने शुरूआती सालों में अपनी ताकत खबरिया पक्ष पर ही लगाई लेकिन धीरे-धीरे यह भी साबित होने लगा कि जनता पसंद वही करेगी, जहां वो खुद भी होगी। यह जन आंदोलन के दौर की पहली दस्तक थी। दूरदर्शन पर चिट्ठी पढ़ते कार्यक्रमों की लोकप्रियता जनता से दो तरफा संवाद के कायम करने की जरूरत की तरफ संकेत देते थे और अब निजी चैनलों पर लगती एसएमएस की गुहार, ट्वीट, फेसबुक और आडियंस की मौजूदगी में होने वाले कार्यक्रम जनता को मंच प्रदान करने का काम कर रहे हैं। इसका एक नतीजा तो प्रणाली में पारदर्शिता की चहलकदमी का बढ़ना है लेकिन दूसरे नतीजे काफी दूरगामी हैं। भारतीय दर्शक अब क्रांतिकारी-सा हो चला है। वह अब मौन नहीं है, मुखर है। शून्यता में डूबी उसकी शख्सियत में अब उत्साह भर आया है जो हर मुद्दे पर खुल कर बोलने की ताकत रखता है। वो प्रणाली से नहीं डरता, वो उसे झकझोरता है। टीवी के मंच पर जब वो बोलता है तो उसकी बात तथ्यों से लैस होती है। वह अब सिटिजन जर्नलिज्म के मौकों का फायदा उठाने लगा है। वह खुद एक अदना ही सही, लेकिन पत्रकार बन चला है। वह टीवी पर अपने वॉक्सपॉप देता है तो भी आत्मविश्वास से लबरेज होता है। टीवी पर उसका फोनो किसी मंझे हुए पत्रकार से कम नहीं होता। उसकी बात अब पैनी, सटीक और साफ होती जा रही है। यह करामात उस करिश्माई और नटखट डिब्बे की है जिसे कुछ साल पहले बुद्धू बक्सा कहकर नकारने की कोशिश की गई थी।
अब वह एक ऐसा आम आदमी बन चला है जिसका पास कहने के लिए बहुत कुछ खास है। मजे की बात यह कि अब राजनेता भी इस कथित आम आदमी से डरने लगा है क्योंकि यह आम आदमी सूचना के भंडार पर बैठा है और धीरे-धीरे ताकतवर होता जा रहा है। जो उसे अनसुना करेगा, वह औंधे मुंह गिरेगा क्योंकि यह पब्लिक ही है जो सब कुछ जानती है।
लेकिन इन सबके बीच खामियां भी कई हैं। टीवी में आडिंयस की तलाश व्यापार का चेहरा लेने लगी है। नोएडा में बसे चैनल के लिए वहीं की जनता जुटाई जाती है और ग्रेटर कैलाश के लिए आम तौर पर दक्षिण दिल्ली से ही। इस वजह से दर्शक एक खास तबके, सोच या केंद्र से निकला हुआ ही आता है। कई बार दर्शक को जुटाना इतना मुश्किल हो जाता है कि उनकी जोरों से गुहार लगानी पड़ती है। कालेज के बच्चे भी आसानी से मिलते नहीं। वे एकाध बार शौक से चले जाते हैं, फिर उनका उत्साह उड़नछू हो जाता है। जो बुजुर्ग जाना चाहते हैं, उनके लिए खास तौर पर अलग से गाड़ी भेजने की दिलदारी कई चैनल दिखाते नहीं। लिहाजा किसी एक स्कूल कालेज या कालोनी में गाड़ी भेज कर ही वहीं के दर्शक एक बस में भर जुगाड़ कर लिया जाता है।
लेकिन इस जनता के बिना काम चलता भी नहीं। उसका भावनाओं में डूबा चेहरा, उसका चिल्लाना हंगामा करना, बेधड़की से बोलना – यह सब अगर लोकतंत्र का आईना है तो टीवी चैनलों की सांसे भी। ये अगर न हों तो कई चैनल यूं ही बेदम होकर जा गिरें। यानी जनता जनार्दन जिंदाबाद। जनता है तो जीवन है। यह बात अलग है कि यह सच्चाई जितना मीडिया जानती है, तकरीबन उतना ही जनता भी(खास तौर से बड़े शहरों की जनता)। जनता जरूरी है, इसीलिए हर न्यूज चैनल के पास अब आंडियस जुटाने की दुकान भी है जिसमें जरूरत के मुताबिक कार्यक्रमों में बुलाए जाने वाली आडियंस के नाम-नंबर-पते टंगे रहते हैं। यह चयनित आडियंस है। जांचीपरखी हुई, जो सुंदर –स्मार्ट और टीवी को बतौर माध्यम समझने वाली है। जो कि बताई गई भाषा में फराटेदार ढंग से बोल सकती है।कार्यक्रम शुरू होने से कुछ घंटे पहले फोन कीजिए और जनता जुटा लीजिए। ठीक उसी अंदाज में जैसे कि शादी के लिए किराए के बाराती ढूंढ लिए जाएं जो आमंत्रण देने वाले के एसी ट्रक में सवार होकर आएं औऱ तब तक ठुमके लगाएं जब तक कि आमंत्रण देने वाला चाहे।
इस विभाग में काम करने वाली टीम का वर्गीकरण भी बहुत ही व्यावहारिक ढंग से किया जाता है ताकि जरूरत पड़ने पर मनमाफिक भीड़ जुटाई जा सके। चिल्लाने वाली जनता, तालियां पीटने वाली जनता, बिना दिमाग की जनता, शूट के लिए दो-चार घंटे तक इंतजार करने का माद्दा रखने वाली जनता वगैरह। कार्यक्रम और एंकर के स्वभाव के मुताबिक इन्हे जगह मिलती है और फिर चैनल के खाली, उबाऊ स्क्रीन और कभी-कभार मुश्किल से कटने वाले समय को भरने के लिए इस जनता का सदुपयोग किया जाता है।
मिसाल के तौर पर ऐसे कार्यक्रम जहां जनता के चेहरे पर न तो कोई विशेष फोकस करना है और न ही उनकी आवाज सुनाई जानी है, वहां ऐसी जनता का जुटाऊ अभियान चलाया जाता है है जो टीवी स्टूडियो देखने की बेताबी से भरी हो। इसमें वैसी जनती बड़ी काम की होती है जो किसी एंकर विशेष या पिर स्टूडियो को देखने में अपना परम सौभाग्य समझती है लेकिन एक सच यह भी है कि एकाध बार के चक्कर के बार फिर से उसी दर्शक को साधना आसान भी नहीं होता।
यही हाल कुछ समय बाद दूसरे वर्गों के दर्शकों का भी हो जाता है। देर से ही सही लेकिन वह भी चैनल की मजबूरियां और वजहें समझ जाती है। नेताओं के हाथों हर पांच साल में ठगे जाने का गहरा अनुभव जो ठहरा। वह भी थोड़े दिनों में फूंक- फूंक कर कदम उठाने लगती है। वह अब कार्यक्रमों को लेकर चूजी होने लगी है। वह चैनल की तरफ से फोन कर आमंत्रित करने वाली कन्या से ही पूछती है कि आखिर उसे मिलेगा क्या। उसका क्लोज शॉट लगेगा या नहीं, आने-जाने के लिए गाड़ी मिलेगी या नहीं, पैसा मिलेगा या नहीं, वगैरह वगैरह। संतुष्टि हो जाए तो ठीक वर्ना क्या पड़ी है।
मजे की बात यह है कि दर्शकों के आशीर्वाद पर फलने-फूलने वाली दुकानों की भी कोई कमी नहीं। 10-15 दिनों के एंकरिंग कोर्स करवाकर महान एंकर बनाने का दावा करने वाली दुकानें इन कॉलों का इंतजार किया करती हैं। यहां वादा तो होता ही है कि कई चैनलों की सैर करवाई जाएगी। यहां के भावी एंकर चैनलों में सवाल पूछ कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। फिर दर्शक को बुलाए जाने का मौसम भी अहम है। अगर कार्यक्रम गर्मी में है और बिजली की कटौती चल रही है तो घर में इंवर्टर की बिजली के भरोसे बैठने से अच्छा तो स्टूडियो में एसी में बैठना ही है।
पर हो जो भी, टीवी के छोटे पर नटखट परदे ने जनता के लिए जगह बनाई है और उसके आत्मविश्वास को खाद डाली है। इस जनता के मनोवैज्ञानिक पक्ष को समझने के लिए अगर कुछ शोध भी कर लिए जाएं तो इससे टेलीविजन और दर्शक - दोनों का ही भला होगा।
5 comments:
Well written mam, loaded with useful informations and you have raised some very genuine and serious questions.
आपको बहुत ज्यादा नहीं जाना है ... लेकिन आपके जितने भी लेख से सामना हुआ है ... हर लेख ने मौजूदा पत्रकारिता/जनसंचार के एक नये पहलू से रुबरु कराया है ... इस लेख ने तो पर्त दर पर्त Media की बदलती दुनिया की हकीकत ही ही सामने रख दी है.
अब वह एक ऐसा आम आदमी बन चला है जिसका पास कहने के लिए बहुत कुछ खास है। मजे की बात यह कि अब राजनेता भी इस कथित आम आदमी से डरने लगा है क्योंकि यह आम आदमी सूचना के भंडार पर बैठा है और धीरे-धीरे ताकतवर होता जा रहा है। जो उसे अनसुना करेगा, वह औंधे मुंह गिरेगा क्योंकि यह पब्लिक ही है जो सब कुछ जानती है।
अच्छा लगा आपकी इस पोस्ट से गुजर कर
आपने बिल्कुल सही नब्ज पकड़ी है। मौका मिले तो कभी सिटिजन जर्नलिज्म और एसएमएस की मांग के बीच के पनपनेवाले अर्थशास्त्र पर अलग से लिखिएगा। लोगों को नई किस्म की जानकारी मिलेगा। स्टूडियो में जो लोग बुलाए जाते हैं,उस पर मैंने कोई तीन साल पहले मजाक-मजाक में ही लिखा था। लिंक डाल रहा हूं,मौका मिले तो देखिएगा जिसे कि बाद में कुछ पत्रिकाओं ने प्रकाशित भी किया-http://www.hunkaar.com/2007/10/blog-post_8682.html
The history of audience participation in TV programmes has been nicely traced out. Also, the present day realities and compulsions of TV channels in collecting an audience is put across starkly. Well written.
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