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Aug 27, 2011

सफ़र में धूप तो होगी, चल सको तो चलो

एकला कोई नहीं चलता
साथ चलते हैं अपने हिस्से के पत्थर
किसी और के दिए पठार
नमक के टीले
जिम्मेदारी से लदे जिद्दी पहाड़
दुखों के गट्ठर

कभी कभी होता ऐसा भी है
साथ चल पड़ते हैं मीठे कुछ ख्याल
किसी के होंठों से फूटती महकती हंसी
सरकती युवा हवा
बारीक लकीर सी कोई खुशी

ये सब आते हैं, कभी भी चले जाते हैं
ठिकाना कभी तय नहीं
खानाबदोशी, बदहवासी, उखड़े कदम
लेकिन इन सबमें टिके रहती है
पैरों के नीचे की जमीन
सर का टुकड़ा आसमान
उखड़ी-संभली सांसें
और एक अदद दिल
एकला कहां, कौन, कैसे

5 comments:

Geet Chaturvedi said...

सुंदर. वाह.

हमसाया said...

कभी कभी होता ऐसा भी है

साथ चल पड़ते हैं मीठे कुछ ख्याल

किसी के होंठों से फूटती महकती हंसी


very nice mam
dil ko chu gaye

deepak kalra said...

bahut hi achhi hai, bahut akelapan hai is kavita mein, kahin na kahin akela hi hai insaan is sab cheezon ke saath - regards Deepak Kalra

बलबीर सिंह गुलाटी said...

बहुत बढ़िया!

leena malhotra rao said...

BAHUT SUNDAR ABHIVYKTI...AKELE NHI HOTE HM..