देशभर की जेलों में कैद महिला बंदियों को लेकर संसदीय समिति की एक ताजा रिपोर्ट ने जेलों में भीड़ के मुद्दे को एक बार फिर जीवंत कर दिया है. 'हिरासत में महिलाएं और न्याय तक उनकी पहुंच' के बारे में इस रिपोर्ट को महिलाओं को सामर्थ्य देने वाली संसदीय समिति ने संसद के दोनों सदनों में हाल के दिनों में प्रस्तुत किया. जेलों में भीड़ का मतलब एक ऐसी परिस्थिति है जिसमें कैदियों के सोने के लिए पर्याप्त जगह न हो, उनके खाने के लिए जरूरी खाद्य पदार्थ न हों, सेहत को लेकर बुनियादी सुविधाएं न हों, रचनात्मक कार्यों के लिए कोई गुंजाइश न हो, उन्हें सुरक्षा देने के लिए जेल स्टाफ की कमी हो, अलग-अलग किस्म के बंदियों को अलग-अलग जगह पर रखने की कोई सुविधा न हो, महिलाओं और पुरुषों को अलग बैरक में रखने की जगह का अभाव हो, बच्चों को बड़ों से अलग रखने, विचाराधीन कैदियों को सजायाफ्ता से अलग रखने या फिर किसी बड़ी परिस्थिति में नए बंदियों को रखने के लिए जगह का न होना- इन सभी कारणों या फिर सिर्फ कुछ कारणों की मौजूदगी जेल में भीड़ की परिस्थितियों को तय करते हैं.
बेशक जेलों का गठन और संचालन बंदी को उसके अपराधों की सजा देने के लिए ही किया गया है लेकिन साथ ही यह भी सच है कि यह जगह उसे अपनी गलतियों का प्रायश्चित करने,
उन पर विचार करने और भविष्य का रास्ता खोजने की प्रेरणास्थली के तौर पर भी देखी जाती है.
भारतीय संदर्भ में जेलों को सुधारगृह ही माना गया है.
गांधीजी से लेकर नेहरू तक ने कारागार को कभी भी यातनागृह बनाने की पैरवी नहीं की थी.
लेकिन जेलों को रातोंरात सुधारगृह नहीं बनाया जा सकता.
इसके लिए नए सिरे से बदलाव लाने होंगे और यह रिपोर्ट इस जरूरत की तरफ साफतौर पर संकेत करती है.
इस रिपोर्ट में साफतौर पर यह कहा गया है कि देश की जेलों में बंद महिलाओं में से
60 फीसदी की गिरफ्तारी अनावश्यक रूप से की गई है.
इसकी वजह से कई जेलों में क्षमता से
300 फीसदी तक ज्यादा भीड़ है.
तकनीकी रूप से कानून तोड़ने और जुर्माना न अदा कर पाने की वजह से जेल में बंद महिलाओं की संख्या भी काफी ज्यादा है.
रिपोर्ट में राष्ट्रीय पुलिस आयोग के हवाले से कहा गया है कि कुल गिरफ्तारियों में से
60 फीसदी या तो अनावश्यक थीं या न्यायोचित नहीं थीं.
अनावश्यक गिरफ्तारियों पर जेल के व्यय का
43 फीसदी खर्च हो रहा है.
ऐसे में संसदीय समिति ने यह सलाह दी है कि सरकार पुलिस को अनावश्यक गिरफ्तारियों से बचने की सलाह दे.
समिति ने यह जोर देकर कहा है कि जेलों में भीड़ की समस्या से उचित ढंग से नहीं निपटा जा रहा है.
रिपोर्ट के मुताबिक विचाराधीन कैदियों में गंभीर,
पेशेवर व हिंसक अपराध को अंजाम देने वाली महिला कैदियों की संख्या संदिग्ध मादक पदार्थ,
बिना टिकट यात्रा करने वाले यात्री,
रेलवे अलार्म चेन खींचने वाले और अनेक प्रकार के ऐसे लोगों से कम है जिन्होंने तकनीकी रूप से कानून का उल्लंघन किया है.
समिति के मुताबिक इनमें से भी कई केवल इसलिए जेल में हैं क्योंकि वे न्यायालय द्वारा लगाए गए जुर्माने का भुगतान नहीं दे सकी हैं.
वैसे इस संदर्भ में संजय दत्त की दी गई उस जनहित याचिका को भी याद किया जा सकता है जिसमें भारतीय जेलों की बदहाली की तरफ ध्यान दिलाया गया था.
असल में इस समिति का गठन भयखला महिला जेल में
23 जून को महिला कैदी मंन्जुला शेट्टे की हत्या के बाद किया गया था.
इस जेल में शीना बोरा हत्या मामले की आरोपी इंद्राणी मुखर्जी भी है.
उस पर भी महिला कैदियों को भड़काने का आरोप लगा था.
इस घटना के बाद करीब
30 महिला सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने भयखला महिला जेल का दौरा किया और जेल का मुयायना करते हुए जेल के भीतर मौजूद सभी कैदियों से बातचीत भी की.
इन्होंने यह जानकारी भी ली कि वहां रह रही महिला कैदियों को क्या-क्या सुविधाएं दी जा रही हैं और उनके साथ जेल के स्टाफ का कैसा बर्ताव है.
महिला सांसद प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व असम की सांसद बिजोया चक्रवर्ती ने किया था.
इसमें अन्य प्रमुख सांसद एनसीपी की सुप्रिया सूले,
बीजेपी की रक्षा खडसे,
एनसीपी की राज्यसभा सांसद वंदना चव्हाण,
डीएमके की एमके कनिमोजी भी शामिल थीं.
दरअसल जेलों में भीड़ को मापने का कोई यंत्र या फिर कोई तय मापदंड नहीं है क्योंकि जेलों में बंदियों की रिहाइश की जगह को लेकर कोई बैरोमीटर बना ही नहीं है और न ही किसी तरह की कोई ठोस सहमति ही बनी है.
अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के मुताबिक हर कैदी को पर्याप्त जगह दी जानी चाहिए लेकिन इस शब्द
'पर्याप्त'
को हर देश ने अपने हिसाब से परिभाषित किया है और यह कई बार इस बात पर भी निर्भर करता है कि बंदी जेल की अपनी कोठरियों में रोजाना कितना समय बिताते हैं.
क्या किसी कोठरी में बंदी
20 घंटे बिताता है या फिर सिर्फ कुछ घंटे.
संयुक्त राष्ट्र के तय किए गए न्यूनतम मानक के अनुसार जेल की हर जेल और डारमिट्री में समुचित धूप और हवा होनी चाहिए और हर कैदी को अपना बेड और साफ बिस्तर मुहैया करवाया जाना चाहिए.
यहां इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि रेड क्रॉस ने भी जेलों में बंदियों की रिहाइशी स्थिति को लेकर कुछ मापदंड तय किए हैं.
इसके मुताबिक हर कैदी को रहने के लिए कम से कम
3.4 वर्गमीटर जगह होनी चाहिए और उसके आस-पास
20-30 वर्गमीटर जगह सुरक्षा के लिए छोड़ी जानी चाहिए.
इसी तरह जेलों में पानी और हवा की मौजूदगी को लेकर भी मापदंड तय किए गए हैं.
लेकिन पूरी दुनिया की किसी भी जेल को लेकर कोई व्यवस्थित डाटा उपलब्ध नहीं है जिससे कि बंदियों की रिहाइश को लेकर उठाए गए कदमों की कोई ठोस जानकारी मिल सके या किसी भी तरह का तुलनात्मक अध्ययन हो सके.
कैदियों के अधिकारों को लेकर कोई नियमबद्ध सहमति भी नहीं बनी है.
इसलिए हमारे पास जितना अभाव ठोस और विश्वसनीय जानकारी का है,
उतना ही इच्छाशक्ति और व्यवस्थित शोध का भी.
इसके अलावा भारत में जेलें राज्य के अधीन आती हैं और हर राज्य अपने हिसाब से कुछ बदलाव करने के लिए आजाद होता है. हमारे देश में मानवाधिकार आयोग समेत कई संस्थाएं जेलों को लेकर प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर से काम करती रहीं हैं लेकिन यह काम न तो पूरा है और न ही संतुष्टि देने लायक. इग्नू समेत कई विश्वविद्यालयों में मानवाधिकार को विषय के तौर पर पढ़ाया भी जाता है लेकिन पाठ्यक्रम में सुमचित बदलाव लाना हम भूल ही जाते हैं. हम एक ढर्रे पर चल रहे हैं. हम यह भी भूल जाते हैं कि जो जेलों में हैं, वे फिर से इस समाज का हिस्सा बनेंगे, लेकिन अगर जेलें अपराधियों के लिए सुधारगृह न बन पाईं तो इन लोगों की समाज में वापसी पहले से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है. माना समाज के लिए यह बंदी तिनके भर हैं लेकिन तिनके जब आंखों में चुभते हैं तो किरकिरी पैदा करते हैं. किसी को जेल में भेज देने भर से न तो अपराधों का खात्मा होगा, न समाज सुरक्षित. बंदियों को बदहाली की स्थिति में जेलों के अंदर ठूंस देने से हम न तो अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं और न ही अपने कर्तव्यों से पीछे हट सकते हैं. इसलिए जेलों पर पुरानी कहानियों को नई कहावतों से बार-बार लिखने से बेहतर होगा कि यह भी देखा जाए कि जिन्हें जेलों के काम का जिम्मा सौंपा गया है, वे कितने दमदार साबित हुए हैं और सुधार की जो गुंजाइश है, उसे कैसे पूरा किया जाए.
2 comments:
The article is amazing. As mentioned in the article, even though prisons have the function of punishing the inmates, they also have the duty to reform them. But if this is the condition of jails in India then their reformation is not possible. Mam has mentioned in the article that prison reformation is not something that can be achieved overnight. We must remember that these prisoners have to come back and join the society some day. But if prisons do not act as places for reform, coming back to society is going to be harder for them. #tinkatinka #prisonreforms #humanrights
Through Tinka Tinka Jail Reforms, Vartika Nanda has pioneered a movement in India focusing on prison reforms and reformation of the inmates by encouraging them through art, culture, literature, and media.She has written three books Tinka Tinka Tihar, Tinka Tinka Madhya Pradesh, Tinka Dasna, and gives a true representation of life inside prisons. Instead of sensationalizing, she has written about the true and lived experiences of inmates and even their children who unfortunately are also lodged inside prisons. She brings a softer side to inmates who are troubled because they can’t meet their families, but even the smallest of things gives them joy like music, dancing, painting, etc. Her newest initiative is opening a prison radio in Haryana, she has earlier done so in Agra. Workshops were held to train inmates and to develop their talents and creativity. The work of Dr. Vartika Nanda, the founder of the movement of prison reforms in India, is a testament to the idea that rehabilitation and not punishment is the answer. The radio will also keep the inmates informed about their rights and will give them respite in these challenging times of the pandemic when the inmates cannot have any visitors.#tinkatinka #tinkamodelofprisonreforms #vartikananda #prisonreforms
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