देश में इस समय कुल 63 खुली जेलें हैं जो जरूरत के मुताबिक बेहद कम हैं. इस मई के महीने में मध्य प्रदेश के जिला सतना में एक खुली जेल का उद्घाटन किया गया.
देश में खुली जेलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दखल और दबाव की वजह से पहली बार जेल की सलाखें कुछ पिघलने की तैयारी में दिख रही हैं.
देश में इस समय कुल
63 खुली जेलें हैं जो जरूरत के मुताबिक बेहद कम हैं.
इस मई के महीने में मध्य प्रदेश के जिला सतना में एक खुली जेल का उद्घाटन किया गया.
वैसे तो यह उद्घाटन रस्मी था,
क्योंकि मुख्यमंत्री ने खुद खुली जेल में जाने की जहमत उठाने की बजाय सतना के ही एक ठिकाने से उसका शिलान्यास कर दिया,
लेकिन तब भी तसल्ली यह कि एक और खुली जेल देश के नाम हुई.
इससे पहले
2010 में मध्य प्रदेश के शहर होशंगाबाद में भी एक खुली जेल बनाई गई थी और वह सफल रही है.
इन दोनों खुली जेलों में प्रत्येक की क्षमता
25 बंदियों की है.
यह वर्तमान दृश्य है.
लेकिन इससे परे खुली जेलों को लेकर मध्य प्रदेश का एक रोचक इतिहास है जिस पर आम तौर पर चर्चा तक नहीं की जाती.
असल में मध्यप्रदेश में पहली खुली जेल मुंगावली में
1973 में बनी.
तब मुंगावली गुना जिले में था और अब जिला अशोकनगर में हैं.
इसे
1972 में जय प्रकाश नारायण के सामने आत्मसमर्पण करने वाले चंबल के डकैतों के लिए शुरू किया गया था.
जेपी के अभियान के दौरान
500 डकैतों ने आत्मसमर्पण किया था.
इन डकैतों की शर्त थी कि इन्हें किसी एक जेल में एक साथ रहने की अनुमति दी जाए.
उस समय इस जेल में
72 डकैत थे.
1972 में प्रकाशित पत्रिकानुमा इस किताब का संपादन प्रभाष जोशी,
अनुपम मिश्र और श्रवण गर्ग ने किया था.
यह किताब डकैतों अपराध और पश्चाताप पर कमाल की रोशनी डालती है.
किताब के शुरुआत में जयप्रकाश नारायण,
विनोबा भावे और इंदिरा गांधी के लिखे हुए शब्द दर्ज हैं.
उन्होंने अपने संपादकीय लेख में लिखा है कि इस पुस्तक के लिए हमें
96 घंटे दिए गए थे.
लकिन हमने इसे
84 घंटों में तैयार कर दिया.
इस किताब के शुरू में ही लेखक के तौर पर जयप्रकाश नारायण ने
26 अप्रैल
1972 को उन्होंने लिखा है कि डकैतों ने जो आत्मसमर्पण किया,
यह ईश्वरीय चमत्कार था.
विनोबा भावे ने
7 अप्रैल
1972 को लिखा कि ये बागी अपने जीवन में परिवर्तन करना चाहते हैं.
इंदिरा गांधी ने इस किताब की शुरुआत में लिखा है कि इस बारे में सार्वजनिक संवाद होना चाहिए और कोई भी कदम उठाने से पहले जनमत बनाना ही चाहिए.
उन्होंने यह भी लिखा मैं पूरी तरह से सहमत हूं कि डकैतों के आत्मसर्पण से जो कल्याणकारी प्रभाव बना है,
उसको हमें मिटने नहीं देना चाहिए.
यह काम चंबल घाटी के आगे के विकास में बहुत सहायक होगा.
असल में जो जेपी के नेतृत्व में हुआ,
उसका बीज विनोबा भावे ने ही बोया था और उसी का नतीजा था कि चंबल में डकैतों की समस्या के निदान का रास्ता बन सका.
1960 की मई में जब विनोबा भावे पदयात्रा के दौरान आगरा जिले में पहुंचे तो किसी ने उनसे कहा कि यह डकैतों का क्षेत्र है.
तब विनोबा भावे ने कहा कि मैंने डकैतों के नहीं,
सज्जनों के क्षेत्र में प्रवेश किया है.
विनोबा भावे ने बार-बार डकैतों से कहा कि तुम जेल में जाओगे तो तुम्हें जेल,
जेल जैसी नहीं लगेगी और आत्मसमर्पण करने वालों ने इसी बात को अपनी गांठ से बांध लिया.
बाद में जेपी ने मध्यप्रदेश,
उत्तरप्रदेश और राजस्थान की सरकारों और केन्द्र सरकार से संपर्क किया और तब
1972 में कुल
270 डकैतों ने महात्मा गांधी के चित्र के सामने जेपी के कहने पर समर्पण कर दिया.
जेपी ने वादा किया कि किसी को फांसी नहीं होगी,
लेकिन कानूनी कार्रवाई का सामना करना होगा.
यह हिंदुस्तान के इतिहास में एक बड़ी घटना थी जिस पर बाद में यथोचित चर्चा नहीं हुई.
यहां एक जरूरी बात यह थी कि इस जेल के बाहर कई ऐसे परिवार भी थे जो जेल में न होते हुए भी जेल का-
सा जीवन बिता रहे थे.
इन परिवारों में इन बागियों के परिवार और बागियों से पीड़ित-
दोनों तरह के परिवार थे.
इसमें यह भी जरूरी समझा गया कि ऐसे परिवारों के पुनर्वास के लिए कोई कार्यक्रम बनाया जाए.
Courtesy: Zee News