INDIA: It was around 4 PM when we stepped into the Special After Care Home for Children in Lajpat Nagar—a quiet, modest enclave nestled in South Delhi. The home, run by the Department of Women and Child Development (WCD), Government of Delhi, shelters youth aged 18 to 21 under the Juvenile Justice Act. Behind its inconspicuous gate live stories often unheard. And on this day, one such story found its voice without a single word spoken.
We were led into a dormitory where five boys lived. Each had a past, a journey, and wounds still healing. But it was the fifth boy—Krishna (name changed)—who drew our gaze. Not by speaking, but through his absolute silence.
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एक पेड़ और बड़ी उम्मीदों का आकाश
दिल्ली के लाजपत नगर स्थित विशेष पुनर्वास गृह में एक सामान्य दोपहर असाधारण बन गई। यह पुनर्वास केंद्र महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा संचालित है और यहां किशोर न्याय अधिनियम के तहत 18 से 21 वर्ष की उम्र के युवाओं को आश्रय मिलता है।
मौन की गूंज
करीब 4 बजे जब हम केंद्र में प्रवेश करते हैं, तो वहाँ के सादे वातावरण में मानो कई अनसुनी कहानियाँ छिपी हैं। पांच किशोरों के उस डॉरमिटरी में एक चेहरा सबसे अधिक ध्यान खींचता है—कृष्णा (बदला हुआ नाम)। वो सब कुछ सुन रहा है और बेहद खुश दिख रहा है। बताया जाता है कि वो न बोल सकता है, न सुन सकता है। उसका अतीत भी किसी अंधेरे में है। कोई नहीं जानता कि उसका परिवार कहां है और वो कहां से आया। उसकी मुस्कान जैसे कह रही हो कि हर कहानी को शब्दों की ज़रूरत नहीं होती।
एक मुलाक़ात, बिना शब्दों के
आज इस केंद्र में एक विशेष निरीक्षण के लिए पहुंची हैं विभाग की सचिव डॉ. रश्मि सिंह (आईं.ए.एस)। वे अन्य किशोरों से बातचीत करती हैं, लेकिन कृष्णा उन्हें देखकर वे सिर्फ मुस्कुरा देती हैं। दोनों के बीच हुए मौन संवाद में शब्दों की कोई कमी महसूस नहीं होती। इशारों और भावों से सजी यह मुलाकात एक विशेष संबंध को जन्म देती है।
वृक्षारोपण का प्रतीक
डॉ. सिंह अचानक कृष्णा को आंगन में एक पेड़ लगाने के लिए आमंत्रित करती हैं। मिट्टी में एक छोटा सा पौधा लगाते हुए कृष्णा की आंखों की चमक उसके मन की खुशी की साक्षी बन जाती है। यह केवल एक पौधा नहीं था, बल्कि स्वीकृति, उम्मीद और साझेदारी का प्रतीक था।
एक नयी राह की शुरुआत
डॉ. सिंह ने अपने विभाग को निर्देश दिया कि कृष्णा के लिए एक व्यक्तिगत कौशल-विकास योजना तैयार की जाए ताकि उसे प्रशिक्षण और रोज़गार के अवसर मिल सकें—इससे पहले कि उसे नियम के मुताबिक 21 वर्ष की आयु के बाद पुनर्वास गृह को छोड़ना पड़े। वह वृक्ष, जो उस दिन लगाया गया, अब एक वचन बन चुका है।
पत्रकार की दृष्टि
एक मीडिया शिक्षक और जेल सुधारक के तौर पर जेल या पुनर्वास केंद्रों जैसी जगहें समाज के अनछुए पहलुओं से जोड़ती हैं। कृष्णा की इस कहानी और डॉ. रश्मि सिंह की इस पहल ने एक बार फिर यह साबित किया है कि उम्मीद हर बार शोर नहीं करती, कभी-कभी वह बस इशारों से बात करती है और चुपचाप दिल छू जाती है।
मूक क्रांति की आहट
देश में ऐसे कितने ही कृष्णा हैं—जिन्हें न कोई सुनता है, न देखता है। लेकिन जब कोई सुनने वाला मिलता है तो बदलाव का पौधा अपनी जड़ जरूर पकड़ लेता है।
प्रोफेसर वर्तिका नन्दा
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