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BREVITY: IOJ: 2025

Aug 10, 2012

आमंत्रण



आप सबकी दुआ से थी हूं रहूंगी को परंपरा ऋतुराज सम्मान 14 अगस्त की शाम को दिया जाना है। कार्यक्रम शाम को इंडिया हैबिटाट सेंटर में होगा। विवरण इस कार्ड पर है। समय जरूर निकालिएगा। आपकी उपस्थिति आशीष का काम करेगी।
सादर
वर्तिका नन्दा

Aug 8, 2012

मैं सब समझती हूं फिजा...


धुले-धुले बालों को अपने हाथ से झटकती, चांद के साथ किसी चांदनी की तरह सिमटी और शाल ओढ़े मुस्कुराती उस बेहद सुंदर फिजा के बारे में मैं चंडीगढ़ के अपने दोस्तों से अक्सर पूछा करती थी। अगले महीने चंडीगढ़ जाकर उससे मिलने का इरादा भी था।

अभी शायद एक महीने पहले ही तहलका के एक पत्रकार ने फेसबुक पर बताया कि फिजा अब अकेलेपन की जिंदगी बसर कर रही हैं। मैं कुछ लिख रही थी और मेरा मन था कि मैं जाकर फिजा से कहूं फिजा, मैं सब समझ सकती हूं, फिजा।

फिजा की हत्या ज्यादा और आत्महत्या कम के बारे में जिस समय पता चला, मुझे हैरानी से कहीं ज्यादा दुख हुआ लेकिन दुख का यह भाव रात होते-होते कई गुना बढ़ गया। फेसबुक और ट्विटर पर जो भी कमेंट पढ़े, वे फिजा को दोषी ठहराते हुए थे। टीवी की चिल्लाती हुई वार्ताएं भी गीतिका और फिजा पर अंगुली उठाती हुई थीं, पूरी तरह से चरित्र हनन करतीं, तस्वीरों को कई कोणों से दिखाती हुईं, उनके अति महत्वाकांक्षी होने की छवि गढ़तीं और अनकहा अट्टाहास करतीं।

एक युवा और सुंदर लड़की की हत्या कई दृष्टियों से चीजों को खोलकर और उधेड़ कर रख देती है। फिजा का चांद से शादी करना मीडिया ने कुछ इस अंदाज में बयान किया कि जैसे फिजा ही चांद को गोद में लेकर भगा ले गई थी। उनका धर्म को बदलना, उनका सफल होना, नामी होना, कथित बड़े लोगों को जानना, खबर तो बस उनके चरित्र के पन्नों को उधेड़ने पर ही आकर रुक गई। खबर वहां पहुंची ही नहीं जहां उसे पहुंचना चाहिए था।

खबर को उनका एकाकीपन नहीं दिखा। उसकी उदासी, बेबसी, दुख, मातृत्व का अभाव और प्रेमी बनाम पति का विछोह। मीडिया को कहां दिखा कि अगर उनके जिगर में भरे-लदे प्रेम का भाव न होता तो वे एकाकी रहती ही क्यों। मीडिया को यह भी समझ में नहीं आया कि दूसरी पत्नी होना आसान नहीं होता। किसी और के बच्चों की अनकही, अस्वीकृत मां बनना तो और भी नहीं।

मीडिया अंदाजा नहीं लगा सका कि औरत होने की कीमत एक बार नहीं, हर बार अदा की जाती है और ‘दूसरी’ होने पर इसकी कीमत और सजा भी कुछ और होती है। मीडिया जब उनकी जिंदगी के गीले पन्ने उधेड़ रहा था, मैं उस शोर के बीच चांद के लिए उसकी चुप्पी को अपनी हथेली पर तोल रही थी। चांद को लेकर जिस संजीदगी से आरोपों की फेहरिस्त खुलनी और छीली जानी चाहिए थी, मीडिया ने उस उफान को उठने ही नहीं दिया बल्कि वह तो फिजा के मरने को तार्किक मनवाने में जुट गया और इस शोर में उसका साथ देने के लिए उसे कई बंसी बजाने वाले बड़ी आसानी से मिल गए।

ठीक ही हुआ एक तरह से। औरत को थकाते इस समाज में शायद पीड़िता के लिए कोई जगह है भी नहीं। वह भोग्या हो सकती है, परित्यक्ता, बिखरी हुई और पराजित पर उसकी जुबान नहीं होनी चाहिए। वह या तो हाथ में कलम थामे, कुछ बोले, कानून के पास जाए या फिर मर जाए या मारी जाए। सबसे आसान है आखिरी रास्ता ही।

फेसबुक पर जब कुछ सवाल मैंने उछाले तो किसी ने मुझसे कहा- फिजा बोली क्यों नहीं। मेरा जवाब था जो बोलती हैं, उनके साथ क्या होता है, क्या यह जानते हैं आप। बोलने का अपराध अमूमन चुप रहने से भी ज्यादा मारक होता है खासतौर पर जब अपराधी शातिर हो और राजनीति या पुलिस से ताल्लुक रखता हो।

यकीन न हो तो घरेलू हिंसा, बलात्कार, मानहानि का केस दायर करने वाली किसी भी महिला का हश्र पूछकर जान लीजिए या फिर जाइए देश के किसी भी बड़े शहर की महिला अपराध शाखा में। केस दर्ज होने से पहले और फिर बाद में तो स्वाभाविक तौर पर ही अपराधी पूरी तरह से महिला को दोषी साबित करने में जुट जाता है।

वह जायदाद की लोभिनी, पागल, क्रूर, अपराधिनी, शोषिणी वगैरह के तौर पर देखी जाने लगती है जो घर पर कब्जा जमाना चाहती है और मार-पीट करती है। (यह बात अलग है कि असल में जिन विश्लेषणों और अपराधों का ठीकरा औरत पर फोड़ा जाता है, वो असल में उसी अपराधी के होते हैं)

हां, समाज, प्रशासन, पुलिस, कार्यकर्ता, कथित दोस्त एक थकी औरत को श्मशान तक पहुंचाने में बड़ी मदद करते हैं। ऊंचा सुनता कानून, धीमी चलती पुलिस, साजिश रचती राजनीति, शातिर अपराधी और फैसले सुनाता फेसबुक भी - औरत को थकाने और हराने के लिए काफी होता है इतना-सा सामान।

लेकिन औरत हमेशा मरजानी नहीं होती। यह बात इस पूरे समाज को जान लेनी चाहिए। कई बार जब दुखों का अंबार बहुत बड़ा हो जाता है तो सब्र के बांध टूटते भी हैं। समाज अक्सर भूल जाता है कि जो भी औरत मारे जाने से बच जाती है, वह बदल जाती है। जिस दिन उसकी आंखों के आंसू सूखकर एक लाल अंगारे में तब्दील हो जाते हैं, समाज की कई पथरीली पगडंडियां बदल जाती हैं। इन करमजलियों को मारने वालों को समाज सजा दे या न दे, एक अदृश्य शक्ति इनका साथ जरूर देती है और हमेशा देगी।

कानून एकाएक नहीं बदलेगें और लोकपाल बिल जैसे वायदे या घरेलू हिंसा के हांफते अक्षरों की जमात, भ्रष्ट तंत्र में काम करते कथित प्रोटेक्शन ऑफिसर और असंवेदनशीलता को मोहर लगाते राष्ट्रीय या राज्य के महिला आयोग भी औरत को एक खुली सड़क दे सकेंगें, ऐसा बहुत लगता नहीं।

हर औरत को अपनी रक्षा के हथियार खुद बनाने होंगे, उनकी धार को तेज करना होगा और सबसे बड़ी बात उसे दूसरी औरत का साथ देना होगा और न देना हो तो चुप्पी साधनी होगी।

इतना ही हो सका तो औरत को मारने वालों को कई बार सोचना तो होगा ही। दुर्गा बनी हुई औरत से अपराधी तो क्या खुद सृष्टि भी डरा ही करती है।

फिजा के जाने के बाद लगा कि चुप्पी को तोड़ने का समय आ गया है। अपराध की शिकार हर औरत एक दिन अपनी तकदीर को नए सिरे से लिखेगी जरूर और कहेगी - मैं थी, हूं और रहूंगी।

बाहरी लिंक

Jul 12, 2012

लोकसभा टीवी – वाद, विवाद, प्रतिवाद

लोकसभा टीवी पर पिछले 3 साल में बाबू जगजीवन राम पर 6 फिल्में बनीं। एक अंग्रेजी अखबार ने हाल ही में इस पर रिपोर्ट छापी तो कई माथों पर शिकन के निशान दिखाई दिए। एक बार फिर यह बहस भी उठी कि पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर की उपयोगिता असल में होती क्या है और भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में वह क्या महज राजनीतिक पूर्ति का एक सफेद हाथी है है या फिर उस पर शान के साथ घोड़े की सवारी भी की जा सकती है।। क्या इन फिल्मों का निर्माण कुछ संकेतों की तरफ ले जाता है या फिर यह महज एक इत्तफाक भर ही था।

लोकसभा टीवी को लाने का श्रेय लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पूर्व सचिव और रिटार्यड आईएएस अधिकारी भास्कर घोष को जाता है। यह दोनों न होते तो यह शायद यह चैनल कभी शुरू भी न हो पाता। चटर्जी चाहते थे कि पार्लियामेंट लाइब्रेरी बिल्डिंग से एक ऐसे चैनल की शुरूआत हो जो सबसे अलग हो। जो विजिटर्स गैलेरी को सीधे दर्शकों तक पहुंचा सके। इससे पहले लोकसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण दूरदर्शन करता था और इसलिए वह साल के 90 दिनों तक ही सीमित था। लोकसभा के चलने पर ही फुटेज दिखाई देती और बाकी समय रंगीन पट्टियां। नतीजा यह होता कि आम दर्शक को भी लगता कि शायद लोकसभा सांसद साल में सिर्फ 90 दिन ही कथित तौर पर काम करते हैं। तिस पर कहानी यह कि संसद में उनका जो आचरण अकसर दिखाई देता, वह उनके सम्मानित होने के वजूद पर ही सवाल लगाता। खैर, 2006 में यह चैनल शुरू हुआ और दुनिया का पहला ऐसा चैनल बना जो संसद का अपना चैनल बना, संसद भवन से ही संचालित और प्रसारित होता हुआ।

भास्कर घोष ने एक टीम का गठन किया। इसमें सुधीर टंडन और वैंकटेश्वर लू के अलावा मैं भी थी। बाद में के जे एस चीमा, भूपिंदर कैंथोला, विनोद कौल, विकास शर्मा, बी बी नागपाल, ज्ञानेंद्र पांडेय, शकील हसन शम्सी वगैरह को भी जोड़ा गया। एक बड़ा समय इस बात पर लगाया गया कि पूरे साल इस चैनल को कैसे चलाया जाए, वह भी न्यूज के बिना। योग्य एंकरों का चयन, प्रोडक्शन की टीम और पूरी तरह से सीलबंद दिखती बिल्डिंग में बुनियादी जरूरतों को जुटाना – सब एक युद्ध लड़ने जैसा ही था पर था रोचक।

चैनल काफी हद तक सफल रहा। बेरंग और नीरस दिखने के बावजूद लोगों का चहेता बना क्योंकि जो उसमें था, वह दूसरे चैनलों में होना तकरीबन नामुमकिन ही था। विजिलेंट पत्रकारिता के इस दौर में लोक सभा टीवी एक सुनहरा अध्याय बन कर सामने आया। चैनल देश का पहला ऐसा चैनल बना जो लोकसभा सचिवालय चला रहा है, जो संसद के भवन के अंदर ही है और जो लोकसभा का पूरा आंखोंदेखा हाल दिखाने में सक्षम है, वह भी सरकारी खर्चे पर। चैनल शुरू हुआ तो सबसे पहले डर यही उपजा कि जनता सांसदों को जब झगड़ते-गलियाते लाइव देखेगी तो क्या सोचेगी। लेकिन इन डरों की परवाह नहीं की गई और चैनल पैदा हो गया। चैनल संसद के सत्र के सिर्फ 90 दिनों तक ही सीमित नहीं रहा, पूरे 365 दिनों का चौबीसी चैनल बना और उसने भी सांसदों के लाइव ड्रामे को दिखा कर जनता को जगरूक किया।

मीरा कुमार के अध्यक्ष बनने के बाद भी लोक सभा टीवी नए प्रयोग करता रहा है और चैनल के प्रति उनकी आस्था और स्नेह भी साफ तौर पर झलका है।

लेकिन इसके बावजूद यह चैनल भी दूरदर्शन की तरह विवादों और सवालों से अछूता नहीं रह सका है। शायद लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह जरूरी भी है पर अगर इनसे सबक न लिए जाएं तो फिर यह घातक स्थिति को आमंत्रण दे सकते हैं। किसी भी पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर से कुछ उम्मीदें होती हैं और वे पूरी तरह से जायज होती हैं। जनता के पैसों पर चलने वाली कोई भी मशीनरी किसी द्वीप में खुद को रख ही नहीं सकती।

इसलिए इस बार जो सवाल खड़े हुए हैं और जो संकेत दिए गए हैं, उन पर गहन विचार होना चाहिए। पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर को जन सेवकों, रोजनेताओं, प्रेरणादायक शख्सियतों पर काम करना ही चाहिए – हर हाल में पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे जनता को सुख और तृप्ति का ही भाव दें।

वैसे एक समस्या यह भी दिखती है कि तमाम तरह के सरकारी-अर्ध सरकारी ध्रुवों में सही सलाह देने वाले होते भी नहीं। शीर्ष पर बैठे लोगों के आस-पास मीठी लोरियां सुनाने वाले इस कदर बढ़ जाते हैं कि राजा की नंगई को भी फैशन कह दिया जाता है ताकि राजा मुस्कुराए। राजा अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि सत्ता की रेलमपेल जब भी होती है, लोरी वाचक सबसे पहले नदारद हो जाते हैं और यह भी सत्ता के लिए जरूरी होता है कि वह जमीन पर कान लगा कर अंदर होती खुसफुसाहट और आक्रोश के स्वर को गौर से सुने जरूर।।

(इस लेख को यहां भी देख सकते हैं)

http://www.mediakhabar.com/media-article/guest-column/4101-loksabha-tv.html

http://samachar4media.com/content/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%B8%E0%A4%AD%E0%A4%BE-%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A5%80-%E2%80%93-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6

( 11 जुलाई, 2012)

Jul 3, 2012

A radio broadcaster's dream...

- Sohan Kumar

In the month of May 2012, I went to Iran participate in the 12th International Radio Festival of Iran. Along with this, 4th Radio Forum was also Organized. This festival is organized by IRIB every year from 2000 under the ages of Asian Broadcasting Union.

Baring 2011, this festival has been organized every regularly. This year it was organized from 15th May to 17th May in the city of Zibekenar in the province of Ginnar on the north western part of the Islamic Republic Of Iran, on the sandy banks of biggest natural lake of the earth, that is, Caspian Sea.

From the point of view of a Radio person it is a very big event and it is the dream of every radio programmer to be a part of this event.


Representatives of around forty countries take part in this festival, where entries are invited in various radio formats from member countries of ABU many months before this event. All the entries compete with in its own category and the Producer of first five in all categories are invited as foreign delegates in this festival.


This being my first visit to any foreign country, I was very excited about this. My flight reached Tehran early in the morning on 14th May. As all the details of flight were already sent to the authorities in IRIB so their representatives were present at the airport to receive us. Straight way we were taken to Persian Isteghal Hotel. For the whole day all the foreign delegates stayed in same hotel. For lunch, we were taken to the radio station where officials of IRIB hosted lunch for all the foreign delegates.


Next day, special tourist buses were arranged and we were taken to Zibekenar. Zibekenar city is around 380 km. towards North- West of Tehran. This journey was very enjoyable As opposite to general perception, this region of Iran is full of greenery. We were moving along a river for miles. The road was very broad and it was an express way. There were many long tunnels on the road and a new rail line was being laid.


We reached our destination around 8.15pm and around 9.00 pm formal inauguration of the function took place. After that a sumptuous dinner was there for all the participants.


Next day was the first day of 4th Radio forum in which delegates from many member countries presented their papers. All papers were either in English or Persian. And translators were there to translate them in to other language.


All the papers which were presented in the radio forum were published in a book which was distributed amongst the participants. Most of the papers were concerning the changing role of Radio in the ever changing world, regarding radio and impact of globalization etc. Many new ideas/concepts were shared in that forum.


Ali Intezari, faculty member at Allmeh Tabatabai University of Iran presented his paper on the topic Radio’s Task in Constructing Polarization as an Alternative Concept for Globalization. One thing which was very much clear from that function was that for them radio is a very serious medium. And their research in the field of radio is very much original. IRIB makes the arrangements of trainers from foreign countries. At the university level so many research projects are under taken especially in the field of radio.


Next day the Radio forums continued and in the evening prize winner in various categories were given trophies and citations along with cash prizes in a very impressive and creatively staged function. Some of the legendary radio drama artists of yesteryears were also honored. The whole function was broadcast live on one channel of TV. On the suggestion of one member, all the foreign delegates planted a tree on the bank of Caspian Sea to commemorate the function.


Being an Islamic country, every function started with national anthem of Iran and recitation of some verses of holy Quran. And unlike us they clap after the completion of national anthem.

On the whole, this was an excellent opportunity to be a participant of this function.

Jun 30, 2012

Kuch Metha Ho Jaye Episode Part 3 2

इंटरनेट पर सेंसरशिप और ऑनलाइन मीडिया के भविष्य पर बड़ी बहस

(प्रवासी दुनिया)
मीडिया से जुड़े लोगों ने ऑनलाइन मीडिया को नियंत्रित करने के सरकार के प्रयास की आलोचना की और आगाह किया कि जल्दबाजी में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाए. नोएडा में बुधवार 27 जून को आयोजित ‘एस पी सिंह स्मृति समारोह 2012’ में मौजूद मीडिया के तमाम लोगों ने सरकार के ऐसे किसी भी प्रयास का विरोध किया.

मीडिया खबर डॉट कॉम की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में ‘इंटरनेट सेंसरशिप और ऑनलाइन मीडिया का भविष्य’ विषय पर चर्चा हुई. कार्यक्रम में आनलाइन मीडिया पर नकेल कसने के सरकार के प्रयासों की निंदा की गई. केंद्र सरकार की ओर से सोशल साइटों को सोनिया गांधी के खिलाफ की गई एक टिप्पणी को हटाने के लिए कहना और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से उनके कार्टून प्रसारित करने वाले एक प्रोफेसर को गिरफ्तार किये जाने पर चिंता व्यक्त की गयी.

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम की पूर्व एडिटर सलमा जैदी ने कहा कि सेंसरशिप की बात तो ठीक है लेकिन एक इंटरनेट वॉच होना चाहिए.

‘इंटरनेट सेंसरशिप और आनलाइन मीडिया का भविष्य’ विषय पर वेब दुनिया के संपादक जयदीप कार्णिक ने कहा कि ऑनलाइन मीडिया ने व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को प्लेटफॉर्म दिया है. इंटरनेट पर सेंसरशिप के सवाल पर कार्णिक का कहना था कि ‘बांध नदियों पर बनते हैं, समुद्र पर नही’. आज इंटरनेट एक समुद्र की तरह हो गया है जिस पर किसी प्रकार का सेंसरशिप लगाना अतार्किक और अव्यवहारिक है.

इंटरनेट सेंसरशिप के खिलाफ काम कर रही जर्मनी की कोवैक्स ने अपनी बात रखते हुए कहा कि सोशल एक्सपेटेंस भारत में ज्यादा है ? भारत में बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय प्रावधान पहले से ही भारतीय संविधान में डाले गए गए हैं. जब हम सेंसेरशिप की बात करते हैं तो सिर्फ मीडिया सेंसरशिप की बात नहीं कर रहे हैं, इसके अलावे भी हमें बाकी चीजों पर बात करनी होगी. हमारी बात कहने की कोई जगह नहीं है. मेरा स्पेस नहीं है, लेस प्रोटेक्टेड. ऐसा नही है कि कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं होनी चाहिए, लेकिन लेजिटिमेसी की बात है.

दिल्ली यूनिवर्सटी के लेडी श्रीराम कॉलेज की विभागाध्यक्ष डॉ वर्तिका नंदा का इंटरनेट पर सेंसरशिप के बारे में कहना था कि अगर सेंसरशिप का मतलब गला घोटना है तो मैं इसका समर्थन नहीं करती, अगर इसका मतलब एक लक्ष्मण रेखा है जो बताता है कि हर चीज की एक सीमा होती है तो ये गलत नहीं है.

न्यूज़ एक्सप्रेस के प्रमुख मुकेश कुमार ने कहा कि मैं ऑनलाइन और सेंसरशिप की बात को आइसोलेशन में नहीं देखना चाहता. मुझे लगता है कि ये सेंशरशिप माहौल में लगायी जा रही है. सेंसरशिप के और जो फार्म है उस पर भी बात होनी चाहिए. मैं तो देख रहा हूं कि नितिश कुमार भी एक अघोषित सेंशरशिप लगा रहे हैं. एक कंट्रोल मार्केट सेंसरशिप लगायी जा रही है.बाजार सरकार को नियंत्रित और संचालित किया जा रहा है, बाजार का जो सेंसरशिप है, उस पर भी लगाम लगाया जाना चाहिए.

वहीं छत्तीसगढ़ न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस फखरुद्दीन साहब ने ऑनलाइन मीडिया की तारीफ़ करते हुए कहा कि ऑनलाइन ने जो सबसे अच्छी बात की है वो ये कि आईना सामने रख दिया. सच बात मान लीजिए,चेहरे पर धूल, इल्जाम आईने पर लगाना भूल है. हमसे बाद की पीढ़ी ज्यादा जानती है क्योंकि सोशल मीडिया ने ऐसा किया है.

महुआ ग्रुप के ग्रुप एडिटर राणा यशवंत ने इंटरनेट के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज इंटरनेट बहुत जरूरी हो गया है और इसपर किसी भी तरह का सेंसर समाज के लिए ठीक नहीं. वैसे सरकार की मंशा ऐसी रही है. यह लोकतंत्र के बुनियादी अधिकार पर रोक लगाने जैसा है.

इस कार्यक्रम में बीबीसी हिंदी.कॉम की पूर्व एडिटर सलमा जैदी, वेबदुनिया के एडिटर जयदीप कार्णिक, मीडिया विश्लेषक डॉ.वर्तिका नंदा, न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के प्रमुख मुकेश कुमार, महुआ न्यूज़ के ग्रुप एडिटर यशवंत राणा, जर्मनी की कोवैक्स, वेबदुनिया के जयदीप कार्णिक, छत्तीसगढ़ के पूर्व चीफ जस्टिस फखरुद्दीन और इन.कॉम (हिंदी) के संपादक निमिष कुमार शामिल हुए जबकि मंच संचालन युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने किया.

बाहरी लिंक - http://www.pravasiduniya.com/internet-censorship-and-the-debate-on-the-future-of-online-media

Jun 29, 2012

‘20 मिनट का प्रोडक्ट लेकर आया खबरों में क्रांति’

द संडे इंडियन (पत्रिका)

आज तक के संस्थापक रहे सुरेंद्र प्रताप सिंह खबरों के क्षेत्र में क्रांति लेकर आए. दूरदर्शन पर आने वाला सिंह का कार्यक्रम 'आज तक' ने खबरों के संसार में कई मानक स्थापित किए. सिंह के साथ काम कर चुकी जी न्यूज की एंकर अल्का सक्सेना के मुताबिक आज बाजार बेशक हावी हो पर ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता कि हम वहीं दिखा रहे हैं जो कि पाठक देखना चाहते हैं. आज बाजार के इस दौर में जितनी गुंजाइश है उसमें बेहतर करने की कोशिश की जानी चाहिए. अल्का ये बातें मीडियाखबर डॉट कॉम एवं सेंटर फॉर सिविल इनिशिएटीव की पहल पर नोएडा के मारवाह स्टूडियों में आयोजित एस.पी. सिंह स्मृति समारोह 2012 के दौरान बोल रही थी.


कार्यक्रम में एस. पी. सिंह के बाद टेलीविजनविषय पर आईबीएन सेवन के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष का कहना था कि पिछले दो ढ़ाई सालों में देखे तो टेलीविजन ने अभूतपूर्व काम किया है और आज एस. पी. होते तो जरुर इसकी सराहना करते. सिंह के साथ काम कर चुके आज तक के पूर्व प्रमुख कमर वहीद नकवी ने कार्यक्रम के दौरान कहा कि पहले का दर्शक खबरों को सिर्फ रिसीव करता था, पर अब ऐसा नहीं है आज के दर्शक का पत्रकारिता में दखल बढ़ गया है.

इससे पहले सत्र में इंटरनेट सेंसरशिप और आनलाइन मीडिया का भविष्यविषय पर वेब दुनिया के संपादक जयदीप कार्णिक ने कहा कि ऑनलाइन मीडिया ने व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को प्लेटफॉर्म दिया है. इंटरनेट पर सेंसरशिप के सवाल पर कार्णिक का कहना था कि बांध नदियों पर बनते हैं, समुद्र पर नही’. आज इंटरनेट एक समुद्र की तरह हो गया है जिस पर किसी प्रकार का सेंसरशिप लगाना अतार्किक और अव्यवहारिक है.

दिल्ली यूनिवर्सटी के लेडी श्रीराम कॉलेज की विभागाध्यक्ष डॉ वर्तिका नंदा का इंटरनेट पर सेंसरशिप के बारे में कहना था कि अगर सेंसरशिप का मतलब गला घोटना है तो मैं इसका समर्थन नहीं करती, अगर इसका मतलब एक लक्ष्मण रेखा है जो बताता है कि हर चीज की एक सीमा होती है तो ये गलत नहीं है.

कार्यक्रम में, इसके अलावा दीपक चौरसिया, पुण्य प्रसून वाजपेयी, राहुल देव, मुकेश कुमार, राणा यशवंत जैसी मीडिया हस्तियों ने शिरकत की.

बाहरी लिंक- http://www.thesundayindian.com/hi/story/20-minutes-product-was-a-revolution-in-news/11/16890/

ऑनलाइन मीडिया पर नियंत्रण की निंदा

नोएडा, एजेंसी

मीडिया से जुड़े लोगों ने ऑनलाइन मीडिया को नियंत्रित करने के सरकार के प्रयास की आलोचना करते हुए आगाह किया कि जल्दबाजी में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाए।

नोएडा में बुधवार को आयोजित चौथे एसपी सिंह स्मृति व्याख्यान 2012 में मौजूद मीडिया के तमाम लोगों सरकार के ऐसे प्रयासों की मुखालिफत की। मीडिया खबर और सेंटर फॉर सिविल इनीशिएटिव की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में इंटरनेट सेंसरशिप एंड डेंजर्स ऑफ ऑनलाइन मीडिया विषय पर चर्चा हुई।

कार्यक्रम में आनलाइन मीडिया पर नकेल कसने के सरकार के कई प्रयासों की निंदा की गई। इन मामलों में केंद्र सरकार की ओर से सोशल साइटों को सोनिया गांधी के खिलाफ की गई एक टिप्पणी को हटाने के लिए कहना और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से उनके कार्टून प्रसारित करने वाले एक प्रोफेसर को गिरफ्तार किया जाना शामिल है।

इस कार्यक्रम में बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम की पूर्व संपादक सलमा जैदी, डॉ वर्तिका नंदा, न्यूज एक्सप्रेस के मुख्य संपादक मुकेश कुमार, महुआ न्यूज के समूह प्रमुख राणा यशवंत, वेब दुनिया के संपादक जयदीप कार्णिक समेत मीडिया से जुड़े कई वरिष्ठ लोगों ने अपने विचार रखे।

इस खबर को हिन्दुस्तान टाइम्स / सहारा समय के वेबसाइट पर पढ़ने के लिए क्लिक करें.


Jun 26, 2012

S.P. Singh Smriti Samaroh, 2012




निमंत्रण: 'इंटरनेट पर सेंसरशिप के खतरे' पर परिचर्चा


मीडिया वेबसाइट मीडिया खबर.कॉम के चार साल पूरे हो चुके हैं. यह चार साल उतार - चढाव से भरे रहे. कुछ हमने आलोचना की और कुछ हमारी आलोचना हुई. कुल मिलाकर खूब प्रयोग हुए.

बहरहाल जून का महीना मीडिया खबर.कॉम के लिए आत्मसमीक्षा का होता है. यूँ तो मई में ही मीडिया खबर.कॉम के चार साल पूरे हो गए, लेकिन इस दिन को हम आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के महानायक सुरेंद्र प्रताप सिंह यानी एस.पी की पुण्यतिथि 27 जून को मनाते हैं.

पिछले साल भी इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक संगोष्ठी के बहाने एस.पी को याद किया गया था. इस साल भी 27 जून को फिल्म सिटी, नोएडा में एक कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है.

इस बार का कार्यक्रम दो सत्रों में होगा. पहले सत्र में 'ऑनलाइन सम्मेलन' होगा जिसमें मेनस्ट्रीम मीडिया के वेबपोर्टलों के संपादक भाग लेंगे. इसमें 'इंटरनेट पर सेंसरशिप के खतरे' पर परिचर्चा भी होगी.

दूसरे सत्र में सुरेंद्र प्रताप सिंह स्मृति समारोह का आयोजन किया जाएगा जिसमें 'एस.पी के बाद टेलीविजन' पर परिचर्चा होगी. आप सादर आमंत्रित हैं.



संगोष्ठी / Seminar 1 : ऑनलाइन सम्मलेन और 'इंटरनेट पर सेंसरशिप के खतरे' पर परिचर्चा / Future of Online media and danger of Censorship

तारीख/Date-
27 June, 2012, समय / Time - 12.00 - 3.00 pm

वक्ता / Speakers :

सलमा जैदी, पूर्व संपादक, बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम / Salma Zaidi: Ex Editor BBC Hindi.Com
मुकेश कुमार, एडिटर-इन-चीफ, न्यूज़ एक्सप्रेस / Mukesh Kumar: Editor-in-Chief, News Express
श्री फखरुद्दीन, पूर्व चीफ जस्टिस, छत्तीसगढ़ / Fakhruddin: Ex Chief Justice, Chhattisgarh HC
राणा यशवंत, ग्रुप एडिटर, महुआ न्यूज़ / Rana Yashwant: Group Editor, Mahua News
शाजिया इल्मी, अन्ना आंदोलन के कोर टीम की सदस्य / Shazia Ilmi: Core member of Team Anna
जयदीप कर्णिक, वेबदुनिया / Jaideep Karnik: Editor, Web Dunia
डॉ.वर्तिका नंदा, प्रमुख, पत्रकारिता विभाग, लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली वि.वि. / Dr. Vartika Nanda: HOD, Department of Journalism, Lady Shri Ram College, Delhi University
निमिष कुमार, संपादक, हिंदी इन.कॉम / Nimish Kumar: Editor, www.hindi.in.com, Network 18
कमाल अख्तर, राज्यमंत्री, उत्तरप्रदेश सरकार / Kamal Akhtar: Panchayati Raj Minister, Uttar Pradesh
दीपक मिश्र, स्पेशल पुलिस कमिश्नर, दिल्ली / Deepak Mishra: Special Commissioner, Delhi Police

संचालन / Moderator :
संदीप मारवाह, फाउंडर एंड एमडी, मारवाह स्टूडियो / Sandeep Marwah, Founder & MD, Marwah Studios.

विशेष / Special :
'सेंसरशिप औऱ संभावनाओं के बीच का सोशल मीडिया' विषय पर 'मंडी में मीडिया' किताब के लेखक विनीत कुमार संदर्भ सहित व्याख्या करेंगे./ On behalf of Media Khabar, Vineet Kumar lecture on Internet, censorship & social media

संगोष्ठी / Seminar 2 :
'एस.पी के बाद टेलीविजन' / Television After S. P.Singh (Founder Editor, Aajtak)

तारीख / Date -
27 June, 2012, समय / Time- 4.00 - 7.00 PM.

वक्ता / Speakers :

कमर वहीद नकवी, पूर्व न्यूज़ डायरेक्टर, आजतक / Qamar Waheed Naqvi, Former News director of Aajtak
राहुल देव , वरिष्ठ पत्रकार / Rahul Dev , Veteran Journalist
पुण्य प्रसून बाजपेयी, कंसल्टिंग एडिटर, ज़ी न्यूज़ / Punya Prasun Bajpai, Consulting Editor, Zee News
शैलेश, सीईओ, अल्फ़ा मीडिया / Shailesh, CEO, Alfa Media
आशुतोष, मैनेजिंग एडिटर, IBN-7 / Ashutosh, Managing Editor, IBN-7
दीपक चौरसिया, एडिटर, नेशनल अफेयर्स, ABP न्यूज़ / Deepak Chaurasia, Editor, National Affairs, ABP News
फारुख शेख , अभिनेता और टीवी प्रेजेंटर / Farooque Sheikh, Actor & TV Presenter

विशेष / Special -
अथश्री बिजनेस कथा - समाचार चैनलों के अर्थ के तंत्र पर देश के जाने - माने आर्थिक विशेषज्ञ ‘कवि कुमार’ का व्याख्यान और साथ में पावर पॉइंट प्रेजेंटेशन. / Financial Expert Kavi Kumar lecture on News Channels Economy & Future of Hindi News Channels.

संचालन / Moderator:
डॉ. वर्तिका नंदा / Dr. Vartika Nanda

एस.पी.की याद में/ Remembering S.P.Singh/ गेस्ट लिस्ट/ Guest List :

Ram Bahadur Rai (Veteran Journalist), Ajit Anjum (Managing Editor, News24), Supriya Prasad (Channel Head, Aajtak), Rana Yashwant (Group Editor, Mahua News), Ajay Nath Jha (Ex Consultant of Loksabha Speaker & Loksabha TV), Mukesh Kumar (Editor-In-Chief, News Express), Sanjay Shukla (CEO, Percept Ltd.), V P Sajeevan (Veteran Imaging Industry Professional), Rajesh Shukla (MD, Montage Capital)

स्थान/Location :
मारवाह स्टूडियो, फिल्म सिटी, सेक्टर 16A, नोयडा. / Marwah Studios, FC-14/15, Film City, Sector-16A, Noida.

आयोजक / Organizer :
मीडियाखबर.कॉम www.mediakhabar.com ( Supported By Global Capital / Centre For Civil Initiatives)

Partners :
Wilson IT Solutions, MediaMantra , HTML Artists.

संपर्क / Contact
mediakhabaronline@gmail.com , pushkar19@gmail.com , 9999177575.

Jun 19, 2012

ब्रेक और ब्रेक के बीच की पत्रकारिता

प्रमोद जोशी

दो जानकारियाँ तकरीबन साथ-साथ प्राप्त हुईं। दोनों में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं, सिवाय मूल्यों और मर्यादाओं के जो एक कर्म से जुड़ी हैं, जिसे पत्रकारिता कहते हैं। तहलका पत्रिका के पत्रकार तरुण सहरावत का देहांत हो गया। उनकी उम्र मात्र 22 साल थी। अबूझमाड़ के आदिवासियों के साथ सरकारी संघर्षों की रिपोर्टिंग करने तरुण सहरावत बस्तर गए थे। जंगल में मच्छरों के काटने और तालाब का संक्रमित पानी पीने के कारण उन्हें टाइफाइड और सेरिब्रल मलेरिया हुआ और वे बच नहीं पाए। दूसरी खबर यह कि मुम्बई प्रेस क्लब पब्लिक रिलेशनशिप और मीडिया मैनेजमेंटपर एक सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करने जा रहा है। 23 जून से शुरू हो रहे तीन महीने के इस कोर्स के विज्ञापन में प्लेसमेंट का आश्वासन दिया गया है। साथ ही फीस में डिसकाउंट की व्यवस्था है। यह विज्ञापन प्राइम कॉर्प के लोगो के साथ लगाया गया है, जो मीडिया रिलेशंस और कंसलटेंसी की बड़ी कम्पनी है। पहली खबर की जानकारी और दूसरी को लेकर परेशानी शायद बहुत कम लोगों को है।

पत्रकारों के क्लब को पब्लिक रिलेशंस पर कोर्स करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी? सम्भव है क्लब को चलाए रखने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती हो। ऐसा कोर्स चलाने से दो काम हो जाते हैं। पैसा भी मिलता है और कुछ नौजवानों को दिशा-निर्देश भी मिल जाता है। पर पत्रकारिता और पब्लिक रिलेशंस एक चीज़ नहीं है। पब्लिक रिलेशंस और मीडिया मैनेजमेंट का व्यावहारिक मतलब है मीडिया का इस्तेमाल किस तरह किया जाए। इस अर्थ में उसका पत्रकारिता से टकराव है। वह पत्रकारिता का हिस्सा नहीं है। पत्रकारों को ट्रेनिंग देते समय यह बताने की ज़रूरत है कि वे पब्लिक रिलेशंस के महारथियों से किस तरह बचें और अपने काम पर फोकस करें। पिछले साल हम लॉबीइंग के खेल में फँसे रहे। हमने सारी तोहमत नीरा राडिया पर लगाई, पर वह तो अपना काम कर रही थीं। पत्रकारों को यह समझने की ज़रूरत थी कि उनका उद्देश्य क्या है। लगता है बहुत से पत्रकारों की समझ भी अपने कर्म को लेकर साफ नहीं है। मीडिया माने कुछ भी प्रकाशित और प्रसारित करना नहीं है। बिजनेस की बात करें तो वही माल बेचना चाहिए जिसकी डिमांड हो। और चूंकि डिमांड क्रिएट करना भी अब हमारे हाथ में है, इसलिए सारी बातें गड्ड-मड्ड हो गईं हैं।

जब हम अपने कंटेंट पर नज़र डालते हैं तो बात साफ होती है। पत्रकारिता पब्लिक रिलेशंस है, मनोरंजन है प्रचार भी। तीनों में पैसा है। सबसे ज्यादा पैसा तो विज्ञापन की कॉपी लिखने में है। वास्तव में यह पाठक को तय करना है कि उसे बेहतरीन कॉपी लिखने वाले विज्ञापन लेखक चाहिए या जीवन और समाज की विसंगतियों को उजागर करने वाले पत्रकार। पर पत्रकारिता का काम जन सम्पर्क नहीं है। ज़रूरत पड़े तो उसे जन भावनाओं के खिलाफ भी लिखना चाहिए। सच यह है कि समाज को प्रभावित करने वाले पत्रकार इस समय नज़र नहीं आते। राजनेताओं या कॉरपोरेट वर्ल्ड को पसंद आने वाले कुछ लोग हमारे बीच ज़रूर हैं, पर उनके प्रसिद्ध होने के कारण कुछ और हैं। पर जिसे नोबल प्रफेशन या श्रेष्ठ कर्म कहते थे वह पत्रकारिता अपने आप को जन सम्पर्क कहलाना पसंद करती है। दूसरी ओर हमें गर्व है कि तरुण सहरावत जैसे साहसी तरुण हमारे पास हैं जो इस कर्म को श्रेष्ठ कर्म साबित करने के लिए जान की बाजी लगा सकते हैं।

एक-डेढ़ साल पहले आईबीएन सीएनएन ने राडिया लीक्स और विकी लीक्स के बाद अपने दर्शकों से सवाल किया कि क्या पुराने स्टाइल के जर्नलिज्म को नए स्टाइल के मीडिया ने हरा दिया हैं? यह सवाल अपने पैनल से था और दर्शकों दर्शकों से भी। पर सोचने की बात तो पत्रकारों के लिए थी और उनके लिए भी जो इसका कारोबार करते हैं। क्या होता है पुराने स्टाइल का जर्नलिज्म? और क्या होती है नए स्टाइल की पत्रकारिता? सागरिका घोष का आशय नए मीडिया से था। सोशल मीडिया फेसबुक, ब्लॉग, ट्विटर वगैरह। पर ये तो मीडियम हैं, पत्रकारिता तो कंटेंट की होती है।

लगता है कि पुरानी पत्रकारिता को सबसे नए मीडिया यानी नेट ने सहारा दिया और परम्परागत प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने बिसरा दिया। क्या वजह है इसकी? एक बड़ी वजह कारोबार है। नेट पर जो कुछ लिखा जा रहा है उसके पीछे ध्येय कमाई करने का नहीं है। बेशक छोटा-मोटा प्रभाव और मामूली बिजनेस भी इसमें है, पर बड़े क़रपोरेट हित इससे नहीं जुड़े हैं। इसका मतलब यह कि सूचना की आज़ादी को बनाए रखने के लिए उसे कारोबारी हितों से बचाने की ज़रूरत होगी। और वह कारोबार है भी तो वह प्रत्यक्ष रूप से पत्रकारीय साख का कारोबार है, साख गिराने का कारोबार नहीं। यह भी सच है कि नए मीडिया की पत्रकारिता में जिम्मेदारी का भाव कम है, व्यक्तिगत आक्षेप लगाने की कामनाएं हैं, क्योंकि कानूनी पकड़ कम है।

नया मीडिया और उसकी तकनीक समझ में आती है, पर नई स्टाइल क्या? नई स्टाइल में दो बातें एकसाथ हो रहीं हैं। एक ओर पता लग रहा है कि पत्रकार और स्वार्थी तत्वों की दोस्ती हैदूसरी ओर ह्विसिल ब्लोवर हैं, नेट पर गम्भीर सवाल उठाने वाले हैं। दोनों में ओल्ड स्टाइल और न्यू स्टाइल क्या है? दोनों बातें अतीत में हो चुकी हैं। हमने बोफोर्स का मामला देखा। हर्षद मेहता और केतन मेहता के मामले देखे। कमला का मामला देखा, भागलपुर आँखफोड़ मामला देखा। यह भारत में हिकीज़ जर्नल से लेकर अब तक पत्रकारिता की भूमिका यही थी। नयापन यह आया कि मुख्यधारा का मीडिया यह सब भूल गया। कम से कम नए मीडिया ने यह बात उठाई। ओल्ड स्टाइल जर्नलिज्म को न्यू मीडिया ने सहारा दिया है।

यह सवाल अब बार-बार पूछा जाने लगा है कि पत्रकारिता क्या खत्म हो जाएगी? इसके मूल्य, सिद्धांत और विचार कूड़ेदान में चले जाएंगे? मनी और मसल पावर की ही जीत होगी? काफी लोगों को लगता है कि पत्रकारिता के सामने संकट है और इससे निकलने का रास्ता कोई खोज नहीं पा रहा है। इस कर्म से जुड़े ज्यादातर लोग यों किसी भी दौर में व्यवस्था को लेकर संतुष्ट नहीं रहे, पर इस वक्त वे सबसे ज्यादा व्यथित लगते हैं। खबरों को बेचना सारी बात का एक संदर्भ बिन्दु है, पर घूम-फिरकर हम इस बिजनेस के व्यापक परिप्रेक्ष्य को छूने लगते हैं। फिर बातें पूँजी, कॉरपोरेट कंट्रोल और राजनैतिक-व्यवसायिक हितों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं। ऐसा भी लगता है कि हम बहुत सी बातें जानते हैं, पर उन्हें खुलकर व्यक्त कर नहीं पाते या करना नहीं चाहते। भारतीय भाषाओं का मीडिया पिछले तीन दशक में काफी ताकतवर हुआ है। यह ताकत राजनीति-समाज और बिजनेस तीनों क्षेत्रों में उसके बढ़ते असर के कारण है। पर तीनों क्षेत्रों में हालात तीन दशक पहले बाले नहीं हैं।

राजनीति-बिजनेस और पत्रकारिता तीनों में नए लोगों, नए विचारों और नई प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है। राजनीति में अपराध और बिजनेस के प्रतिनिधि बढ़े हैं। अपराध का एक रूप यूपी और बिहार में नज़र आता है। इसमें अपहरण, हत्या, फिरौती वगैरह हैं। दूसरा रूप आर्थिक है। यह नज़र नहीं आता, पर यह हत्याकारी अपराध से ज्यादा खतरनाक है। यह गुलाबजल और चांदी के वर्क से पगा है। राजनीति में अपराधी का प्रवेश सहज है। वह सत्ता का सिंहासन लेकर चलती है। ऐसा ही मीडिया के साथ है। वह भी व्यक्ति के सामाजिक रुतबे और रसूख को बनाता है। पुराने पत्रकार को पाँच-सौ या हज़ार के नोट दिखाने के बजाय आज बेहतर तरीके मौज़ूद हैं। चैनल शुरू किया जा सकता है। अखबार निकाला जा सकता है।

पत्रकारिता नोबल प्रफेशन है। नब्बे फीसदी या उससे भी ज्यादा पत्रकार इसे अपने ऊपर लागू करते हैं। इसीलिए वे व्यथित हैं। और उनकी व्यथा ही इसे भटकाव से रोकेगी। पेड न्यूज़ पर पूरी तरह रोक लग पाएगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता, पर वह उस तरीके से ताल ठोककर जारी भी नहीं रह पाएगी। जिस पेड न्यूज़ पर हम चर्चा कर रहे हैं वह पत्रकारों की ईज़ाद नहीं है। यह पैसा उन्हें नहीं मिला। मिला भी तो कुछ कमीशन। एक या दो संवाददाता अपने स्तर पर ऐसा काफी पहले से करते रहे होंगे। पर इस बार मामला इंस्टीट्यूशनलाइज़ होने का था। इसका इलाज़ इंस्टीट्यूशनल लेवल पर ही होना चाहिए। यानी सरकार, इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी और पत्रकारों की संस्थाओं को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए। सार्वजनिक चर्चा या पब्लिक स्क्रूटनी से इस मंतव्य पर प्रहार हुआ ज़रूर है, पर कोई हल नहीं निकला है। एक विडंबना ज़रूर है कि मीडिया जो पब्लिक स्क्रूटनी का सबसे महत्वपूर्ण मंच होता था, इस सवाल पर चर्चा करना नहीं चाहता। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो, ज्यादातर चर्चा मीडिया के बाहर हुई है। इस मामले के असली प्लेयर अभी तक सामने नहीं आए हैं। शायद आएंगे भी नहीं।

सम्पादक वह छोर है, जहाँ से प्रबंधन और पत्रकारिता की रेखा विभाजित होती है। सम्पादक कुछ व्यक्तिगत साहसी होते हैं, कुछ व्यवस्था उन्हें बनाती है। बहुत से तथ्य शायद अभी सामने आएंगे या शायद न भी आएं। पर इतना साफ है कि मीडिया की साख बनाने की जिम्मेदारी समूचे प्रबंधतंत्र की है। इनमें मालिक भी शामिल हैं। यह बात कारोबार की रक्षा के लिए ज़रूरी है। सामान्य पत्रकार कभी नहीं चाहेगा कि उसकी साख पर बट्टा लगे। इसमें व्यक्तिगत राग-द्वेष, महत्वाकांक्षाएं और दूसरे को पीछे धकेलने की प्रवृत्तियाँ भी काम करती हैं। पैराडाइम बदलता है, तब ऐसे व्यक्ति आगे आते हैं, जो खुद को संस्थान और बिजनेस के बेहतर हितैषी के रूप में पेश करते हैं। ऐसे अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं।

इस मामले के दो प्रमुख सूत्रधारों की ओर हम ध्यान नहीं देते। एक मीडिया ओनरिशप और दूसरा पाठक या ग्राहक। देश के पहले प्रेस कमीशन ने मीडिया ओनरशिप का सवाल उठाया था। हम प्रायः दुनिया के दूसरे देशों का इंतज़ार करते हैं। या नकल करते हैं। कहा जाता है कि यही एक मॉडल है, हम क्या करें। पर हमें कुछ करना होगा। जो हालात हैं वे ऐसे ही नहीं रहेंगे। या तो वे सुधरेंगे या बिगड़ेंगे। तत्व की बात यह है कि यह सब किसी कारोबार का मसला नहीं है। यह काम हम पाठक-जनता या लोकतंत्र के लिए करते हैं।

चूंकि सार्वजनिक महत्व के प्रश्नों पर पहल स्टेट और सिविल सोसायटी को लेनी होती है, इसलिए यह राजनेताओं और जन-प्रतिनिधियों के लिए भी महत्वपूर्ण विषय है। इसके कानूनी और सांस्कृतिक पहलू भी हैं। कानूनी व्यवस्था से भी सारी बातें ठीक नहीं हो जातीं। सार्वजनिक व्यवस्था में बीबीसी और जापान के एनएचके काम कर सकते हैं, पर हमारे यहां तमाम कानूनी बदलाव के बावजूद प्रसार भारती कॉरपोरेशन नहीं कर पाता। हमारा लोकतंत्र और व्यवस्थाएं इवॉल्व कर रहीं हैं। उसके भीतर से नई बातें निकलेंगी। नई प्रोसेस, नए चैक्स एंड बैलेंसेज़ और मॉनीटरिंग आएगी। शायद पाठक भी हस्तक्षेप करेगा, जो अभी तक मूक दर्शक है।

फिलहाल कंटेंट माने खबर या पत्रकारीय सामग्री नहीं है। उसकी जगह विज्ञापन ने ले ली है। खबरें फिलर बन गई हैं। यानी महत्वपूर्ण हैं ब्रेक। ब्रेक और ब्रेक के बीच क्या दिखाया जाय ताकि दर्शक अगले ब्रेक तक रुका रहे। स्वाभाविक है कि इसकी जिम्मेदारी जिन लोगों पर है उनके जेहन में बाजीगरी आती है। अखबारों में महत्वपूर्ण चीज़ होती है डमी। डमी यानी वह नक्शा जो बताता है कि विज्ञापन लगने के बाद एडिटोरियल कंटेट कहाँ लगेगा। यहाँ भी खबरें फिलर बन गईं। दूसरी ओर ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है जो मीडिया पर विश्वास नहीं करते।

हमने बात की शुरूआत तरुण सहरावत से की थी। व्यक्तिगत रूप से तरुण के साहस की तारीफ की जा सकती है, पर यह काम जोखिम का है। दुनिया के तमाम पत्रकार जोखिम उठाकर काम करते हैं, पर उनके पीछे संस्थाएं होती हैं। जोखिम के असाइनमेंट पूरे करने की ट्रेनिंग और जंगलों में ताम करने के किट होते हैं। सारी बातें केवल भावनाओं और आवेशों से पूरी नहीं होतीं। पत्रकारिता से जुड़ी व्यावसायिक संस्थाओं को इसके लिए साधन मुहैया कराने होते हैं। हमारी पत्रकारिता के प्रफेशनल लेवल को ऊपर लाने की ज़रूरत है। चैनल की एंकर का जबर्दस्त मेकप, वॉर्डरोब या शानदार सैट और वर्च्युअल बैकड्रॉप प्रफेशनलिज्म नहीं होता। अखबारों का रूपांकन, रंगीन छपाई और चमकदार कागज भी नहीं। ये बातें पब्लिक रिलेशंस में काम आती होंगी। अच्छी पत्रकारिता में तमाम काम सादगी से हो सकते हैं। उनमें व्यावसायिक सफलता भी सम्भव है।