May 31, 2008
हंसी की बात नहीं रही अब हंसी
खबरिया चैनल हंसी का पात्र कई बार बने हैं, बनेंगे लेकिन वे जानबूझकर भी दर्शक को हंसाने का ज़िम्मा लेने लगेंगे, यह बात खुद मीडिया विश्लेषकों को अचंभे में डालने वाली रही।
आम दर्शक ने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसे खुश रखने के फेर में धीर-गंभीर माने जाने वाला न्यूज़ मीडिया एक दिन मसखरे का काम भी करने लगेगा। बेचैन करवटें बदलते-बदलते अब एक नया मीडिया सामने है। मीडिया के इस नटखट पुर्जे के पास समाचार पत्रों की ललक है, रेडियो को हम भारत में देख रहे हैं, वैसा दुनिया में कहीं नहीं। शायद यही वजह है कि सबकी नजरें भारतीय मीडिया पर आ टिकी हैं और मीडिया की नज़र मुनाफे की उस पोटली पर है जो उसे टिकाए रखने का सबसे पुख्ता स्तंभ है। इसी मजबूरी ने मीडिया को एक प्रयोगशाला बना डाला है। नए प्रयोगों की इस गहमागहमी में दिखती है- हंसी। बरसों पहले दूरदर्शन पर शाम सात बजे क्षेत्रीय समाचार और रात नौ बजे राष्ट्रीय समाचार प्रसारित होते थे। उन समाचारों को बचपन में देखा-सुना और दिमाग ने समझा कि समाचार का मतलब है- ऐसा कुछ जो बेहद गंभीर है। इसलिए बड़ों की तरह कभी भी बेताबी से समाचारों का इंतजार करने की इच्छा नहीं जगी। पर समय बदला, कुछ ऐसा कि विश्वास से ज़रा परे। जब निजी चैनल जब पैदा हुए तो उन्होंने दूरदर्शन को पटखनी दी। शुरुआत खबर के प्रस्तुतिकरण की चुस्ती और कुछ बेहतर तकनीकी सामान से हुई। चैनलों में पुराने चेहरों की जगह नई बयार ने ले ली लेकिन जब प्रतियोगिता बढ़ी तो शिकन को भी बढ़ना ही था। तब राजनीति, अपराध और खेलों को पहले पायदान पर रखकर जनता की गुहार लगायी गई लेकिन धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि जनता को अब मुस्कुराहट की भी ज़रुरत है। न्यूज़ चैनल ऐसा हो जो सूचना भी दे और खुशी भी। इसलिए अब न्यूज चैनलों में हास्य की रेलमपेल दिखने लगी है। एनडीटीवी के पास अगर छुपा रुस्तम है तो सीएनएन आईबीएन के पास साइरस बरुचा, ज़ी के पास कलयुग का रामराज है तो स्टार के पास पोल-खोल, आईबीएन सेवन में खबरों के बीच हास्य कवियों की फुहार महसूस होती है तो आज तक जैसे कई चैनलों के पास दिखती है - हास्य कवियों की मसखरी को दिखाने का समय।
लेकिन ऐसा हुआ क्यों- इसे छानना कम मज़ेदार नहीं। ऐसा नहीं है कि न्यूज़ चैनलों को हंसी एकाएक भाने लगी है बल्कि इसमें छिपी व्यापार और उम्र के परे हर दर्शक को बांध लेने का सामर्थ्य बड़ी ताकत का काम कर गया है। अभी कुछ साल पहले तक अखबारों के कोनों में खूब चुटकुले छपा करते थे जिन्हें गाहे-बगाहे लोग पढ़ा करते थे। फिर टीवी का दौर चला तो दूरदर्शन कवि सम्मेलनों के लिए रंगीन कालीन बिछाने लगा। कई बार कवि सम्मेलन अ-झेल हो जाते लेकिन उन में भी कभी-कभी हास्य का छौक लगा दिया जाता तो जनता ज़रा मदमस्त हो जाती। उस दौर के जो गिने-चुने हास्य कवि पैदा हुए, वो कई दर्शकों के चहेते बन गए।
लेकिन इस हंसी को कभी भी विशिष्ट दर्जा नहीं मिला। हास्य हाशिए पर रहा। माना गया कि वह निचले दर्जे की चलताऊ आइतम है। वह खाने में चटनी का काम करते दिखा लेकिन उसे प्राथमिकता कभी नहीं मिली।
लेकिन न्यूज़ मीडिया अब इस सच को समझने लगा है कि हास्य समाचार को बेचता है। वह समाचार को सजाने और मसालेदार बनाने का काम करता है, वह तमाम सीमाओं के परे दर्शक को खीचने का माद्दा रखता है और सबसे बड़ी बात वह उन तमाम बातों को बड़े मज़े से कह सकता है जिन्हें खबर के साचे में ढाल कर कहना कई बार शायद उतना आसान न हो। वैसे भी जब व्यापार की बात आती है तो तुरंत सबक लेने में मीडिया जैसा माहिर कोई नहीं। दस साल के भीतर ही मीडिया ने हिन्दी में व्यापार की खुशबू महसूस की और नए पैदा हुए कथित अंग्रेजों के इस देश में टीवी पर हिंदी काबिज हो गई। यहाँ तक कि राजनीति में भी वही नेता ज्यादा समय तक लोगों के दिमाग पर हावी हुए जो या तो हिंदी भाषा थी या क्षेत्रीय भाषा में बतियाने में शर्म महसूस नहीं करते थे।
यहाँ यह भी गौर करने लायक है कि 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से फैल रहे टेलीविज़न मीडिया में भले ही संभावनाएं अपार हैं लेकिन यहाँ जो जीतेगा वही होगा सिकंदर। हंसाना अब मीडिया की मजबूरी है लेकिन हंसी तो चार्ली चैप्लिन की भी थी। जब भी हंसते हुए दर्द की बात होती है तो पहला नाम भी चार्ली का ही आता है। आज जब ख़बर में दर्द, विद्रूपता, भूख, गरीबी, तनाव, परेशानी के कई रंग घुल गए हैं, अगर हंसी, हंसी- हंसी में इस दर्द को भी अपने में समेट ले तो न्यूज़ मीडिया को वाकई कोई हंसी में नहीं लेगा।
May 29, 2008
पहली सीढ़ी...
मैं मीडिया स्कूल की छात्रा हूं और मेरा मकसद है- लगातार सीखना। मैं जानना चाहती हूं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में निजी चैनलों की उछलकूद के बाद शाट्स को लेकर भी कोई नयापन महसूस हो रहा है या नहीं। अगर हां तो वे कितने प्रभावी हैं ? न्यूज़ मीडिया के शाट्स क्या सिर्फ कहानी ही कह भर देते हैं या उनमें डिस्कवरी और नेशनल जोग्रोफिक जैसी कुछ ताज़गी भी दिखाई देती है। आपने अगर कुछ अनूठे प्रयोग हाल ही में देखे हैं तो अपनी बात बांटिए ज़रूर।
पहली क्लास की पहली सीढ़ी।
शुभकामनाएं।
वर्तिका नन्दा
पहली क्लास की पहली सीढ़ी।
शुभकामनाएं।
वर्तिका नन्दा
May 28, 2008
मैं-मैं और मैं- यानी एक पत्रकार
कसाईगिरी
तुम और हम एक ही काम करते हैं
तुम सामान की हांक लगाते हो
हम खबर की ।
तुम पुरानी बासी सब्ज़ी को नया बताकर
रूपए वसूलते हो
हम बेकार को 'खास' बताकर टीआरपी बटोरते हैं
लेकिन तुममें और हममें कुछ फर्क भी है।
तुम्हारी रेहड़ी से खरीदी बासी सब्ज़ी
कुकर पर चढ़कर जब बाहर आती है
तो किसी की ज़िंदगी में बड़ा तूफान नहीं आता।
तुम जब बाज़ार में चलते हो
तो खुद को अदना सा दुकानदार समझते हो
तुम सोचते हो कि
रेहड़ी हो या हट्टी
तुम हो जनता ही
बस तुम्हारे पास एक दुकानदारी है
और औरों के पास सामान खऱीदने की कुव्वत।
तुम हमारी तरह फूल कर नहीं चलते
तुम्हें नहीं गुमान कि
तुम्हारी दुकान से ही मनमोहन सिंह या आडवाणी के घर
सब्ज़ी जाती है
लेकिन हमें गुमान है कि
हमारी वजह से ही चलती है
जनसत्ता और राजसत्ता।
हम मानते हैं
हम सबसे अलहदा हैं
खास और विशिष्ट हैं।
पर एक फर्क हममें और तुममें ज़रा बड़ा है
तुम कसाई नहीं हो
और हम पेशे के पहले चरण में ही
उतर आए हैं कसाईगिरी पर।
तुम और हम एक ही काम करते हैं
तुम सामान की हांक लगाते हो
हम खबर की ।
तुम पुरानी बासी सब्ज़ी को नया बताकर
रूपए वसूलते हो
हम बेकार को 'खास' बताकर टीआरपी बटोरते हैं
लेकिन तुममें और हममें कुछ फर्क भी है।
तुम्हारी रेहड़ी से खरीदी बासी सब्ज़ी
कुकर पर चढ़कर जब बाहर आती है
तो किसी की ज़िंदगी में बड़ा तूफान नहीं आता।
तुम जब बाज़ार में चलते हो
तो खुद को अदना सा दुकानदार समझते हो
तुम सोचते हो कि
रेहड़ी हो या हट्टी
तुम हो जनता ही
बस तुम्हारे पास एक दुकानदारी है
और औरों के पास सामान खऱीदने की कुव्वत।
तुम हमारी तरह फूल कर नहीं चलते
तुम्हें नहीं गुमान कि
तुम्हारी दुकान से ही मनमोहन सिंह या आडवाणी के घर
सब्ज़ी जाती है
लेकिन हमें गुमान है कि
हमारी वजह से ही चलती है
जनसत्ता और राजसत्ता।
हम मानते हैं
हम सबसे अलहदा हैं
खास और विशिष्ट हैं।
पर एक फर्क हममें और तुममें ज़रा बड़ा है
तुम कसाई नहीं हो
और हम पेशे के पहले चरण में ही
उतर आए हैं कसाईगिरी पर।
May 26, 2008
आपके लिए यह पाती...
जब बहुत छोटी थी, तभी टीवी से नाता जुड़ गया। रास्ते में कई लोग बार-बार दीए रखते गए, सिखाते गए कि टीवी की दुनिया है क्या। मन प्रिंट का हिस्सा बनने के लिए भी हिलोरे लेता रहा और इस तरह टीवी, प्रिंट और अध्यापन- तीनों ने मुझे हमेशा जगाए रखा।
यह ब्लाग जागी हुई इसी अलख को कायम रखने की कोशिश है। यह एक स्कूल है जिसमें मैं सीख रही हूं। आप भी मेरे साथ इस पाठशाला में शामिल हो सकते हैं। यहां हम मीडिया से जुड़े गुर आपस में बांटेगें, एक-दूसरे से कुछ जानेगें-समझेंगे, संवाद करेंगें और टटोलेंगे कि सीखना क्या वाकई उतना आसान है जितना देखने-सुनने में लगता है।
बहरहाल यह मीडिया स्कूल है। आज के पन्ने में अभी इतना ही।
शुभकामनाएं।
वर्तिका नन्दा
यह ब्लाग जागी हुई इसी अलख को कायम रखने की कोशिश है। यह एक स्कूल है जिसमें मैं सीख रही हूं। आप भी मेरे साथ इस पाठशाला में शामिल हो सकते हैं। यहां हम मीडिया से जुड़े गुर आपस में बांटेगें, एक-दूसरे से कुछ जानेगें-समझेंगे, संवाद करेंगें और टटोलेंगे कि सीखना क्या वाकई उतना आसान है जितना देखने-सुनने में लगता है।
बहरहाल यह मीडिया स्कूल है। आज के पन्ने में अभी इतना ही।
शुभकामनाएं।
वर्तिका नन्दा
टीवी की दुनिया सिर्फ़ दिलक़श चेहरा ही नहीं मांगती
मनोरंजन परोसते तमाम न्यूज चैनलों में ख़बर सबसे पहले और सबसे तेज देने का दबाव रहता है, यह सभी जानते हैं लेकिन इस दबाव से परे एक और दबाव जोरों से काम करता है और वह है उसका दमदार मेकओवर। टीवी चैनलों की दुनिया दरअसल जिस तरह ख़बरों को चुनने-बीनने, सबसे पहले, सबसे आगे दिखने और विज्ञापन बटोरने के संघर्ष में लीन रहती है, वहीं रंग और प्रस्तुतीकरण भी बाजार में टिकाये रखने की एक बड़ी शर्त तो हैं ही।
जरा गौर कीजिए। आज की तारीख़ में ऐसा कोई भी चैनल नहीं है, जिसमें रंगों का चयन सावधानी से न किया गया हो- दोनों ही तरह के रंग- वे चाहे भावनाओं के हों या फिर बिखरे हुए प्राकृतिक या रचे हुए रंग। चाहा शायद सबने था लेकिन सोचा किसी ने नहीं था कि 10 साल के अंदर ही इतने अद्-भुत प्रयोग होंगे कि रंग मीडिया और खास तौर से न्यूज मीडिया पर अपनी पकड़ और मौजूदगी को इस जबरदस्त तरीके से मजबूत बना लेंगे। मीडिया रंगों के लिए अब किसी होली का मोहताज नहीं। वह समझ गया है कि बाजार में टिके रहना है तो रंगों को बांहें फैला कर अपनाना होगा, क्योंकि होली भी यहां है और दीवाली भी। बस, ज़रूरत है उन्हें हकीकत का अमली जामा पहनाने की।
दरअसल टीवी की दुनिया सिर्फ़ एक दिलक़श चेहरा ही नहीं मांगती, वह मांगती है तल्लीनता, तस्वीरें, तकनीक और बहुत से रंग। लाइट, कैमरा, एक्शन की दुनिया के साथ जैसे-जैसे क़रीबी बढ़ी, रंगों की समझ भी कई करवटें लेती गयी। न्यूज की भागमभाग के बीच हर मंजा हुआ पत्रकार/कैमरामैन रंगों के तालमेल के घोल को पी कर रखता है। रंग कहीं न छूटें, कोशिश रहती है। इंटरव्यू रिकॉर्ड हो तो बैकग्राउंड भरा-भरा लगे। लाइटें इस तरह से लगायी जाएं कि लगे कि स्टूडियो अभी-अभी रोशनी और रंगों से नहाया है। आउटडोर हो तो पेड़-पौधे, रंगीन छवियां दिखें, इनडोर हो तो भी स्टूडियो या फिर कमरा जीवंत दिखे, उसमें रंग छिटके हों, चाहे कुर्सी हो या टेबल या फिर टेबल पर पड़े गिलास-सब में कुछ अलग रंगीनियत हो, रिपोर्टर टीवी पर दिखे तो जरा सा चमके। एंकर परदे पर आये, तो उसकी झुर्रियां खुद उसे भी न दिखें। पत्रकारिता की समझ और सीरत के अलावा अब दर्शक को कोई चीज खास तौर से भा सकती है, तो वह भी होता है रंग और ताज़गी ही। यह उत्सवी महक टेलीविजन की नयी ज़रूरत बन गयी है।
इतना ही नहीं, आम इंसान टेलीविजन स्टूडियो में लगे सेट से लेकर चैनल से माइके के रंग तक से चैनल के स्वभाव का अंदाजा लगाता है। चैनलों पर चल रही सूचनाओं की रंगीन पट्टी हो या फिर बड़ा सेट- रंगों का चयन इस बारीकी से किया जाता है कि सबका दर्शक पर कुछ अलग ही प्रभाव दिखे। न्यूज मीडिया में रंगों और रोशनी से लबालब स्टूडियो इससे पहले कभी नहीं देखे गये। सनसनीनुमा कार्यक्रमों में अगर आमतौर पर लाल रंग हावी दिखता है तो युवा मन को खींचते खबरी कार्यक्रमों में कई बार कुछ नीला या नारंगी-सा।
लेकिन मजे की बात यह भी कि टीवी की दुनिया में हर रंग मान्य नहीं है। कुछ रंग ऐसे हैं जिनके इस्तेमाल से परहेज किया जाता है। जैसे कि एकदम सफ़ेद या एकदम काला। दोनों ही रंग कैमरे की आंख से आकर्षण पैदा नहीं करते। यही वजह है कि टीवी में रंगों का चुनाव अक्सर बहुत सोच-विचार कर किया जाता है। यहां तक कि एकता कपूर ब्रिगेड भी अपने तमाम नाटकों में रंगों के तालमेल का ध्यान रखती है। यहां पर्दे से लेकर तकिए के गिलाफ़ के रंग का चुनाव तक बड़ी तल्लीनता से किया जाता है। यही वजह है कि कई बार एक सेट की क़ीमत ही लाखों का आंकड़ा कर जाती है। यही हाल विज्ञापनों का है। महज 10-15 सेकेंड में अपने सामान की गुहार लगाने वाले विज्ञापनदाता कोशिश करते हैं कि कम शब्दों में स्क्रीन पर ऐसा जादू दिखा दिया जाए कि दर्शक उसे ख़रीदने को उतावला हो उठे। यही वजह है कि एक-एक शॉट पर महीन सोच का निवेश होता है और फिर स्टोरी बोर्ड पर अमल किया जाता है।
मीडिया ने रंगों को आत्मसात कर लिया है। टीवी चैनलों में जाने वाले भी इस शोध को करके जाते हैं। वे जानते हैं कि एनडीटीवी में होने वाली स्टूडियो रिकॉर्डिंग के लिए कौन-सा रंग नहीं पहनना चाहिए और स्टार न्यूज के लिए कौन सा। यहां तक कि कई सितारों के सहायक भी सितारे को वहां ले जाने से पहले गेस्ट डेस्क से रंग के बारे में पड़ताल कर लेते हैं ताकि टीवी पर सब कुछ पूरे तालमेल में दिखे। कई सितारे ऐसे भी हैं, जो अपनी कार में अतिरिक्त कपड़े लटकाए रहते हैं ताकि चैनल की ज़रूरत के मुताबिक कपड़े तुरंत बदले जा सकें। चुनावी दिनों या फिर कुछ और ख़ास अवसरों पर जो नेता हर पल एक-दूसरे चैनलों में फुदकते रहते हैं, वे भी ऐसी तैयारी बखूबी किये रहते हैं, लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है।
टीवी मीडिया 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से हिलोरें भर रहा है। हिंदुस्तान में इस समय जितने चैनलों की भरमार है, उतनी पूरी दुनिया में कहीं नहीं। इस लिहाज से टेलीविजन कुछ नया करने की प्रयोगशाला बन चला है। लेकिन परेशानी तब होती है, जब किसी एक रंग में बेवजह दूसरे रंग घोल दिये जाते हैं। वाकई दर्द होता है जब दंगे की कवरेज को और सुर्ख कर दिया जाता है ताकि वो और बिके, आंसुओं को और मटमैला कर दिया जाता है ताकि दर्शक बस किसी एक चैनल को बंध कर देखता रहे। जब शरीर के गेहुंए रंग को कपड़ों की परत से हटाकर जरा और पारदर्शी कर दिया जाता है ताकि टीवी मसाला आइटम भी बने। तब लगता है कि रंगों के चयन में हम जरा चूक गये। अच्छा हो कि जिंदगी के कैनवास को मदहोशी से भरने की कूव्वत रखने वाले रंगों के साथ व्यापारी राजनीति न हो। वैसे भी रंग और बेरंग के बीच का फ़ासला पार होने में ज़्यादा देर नहीं लगती।
जरा गौर कीजिए। आज की तारीख़ में ऐसा कोई भी चैनल नहीं है, जिसमें रंगों का चयन सावधानी से न किया गया हो- दोनों ही तरह के रंग- वे चाहे भावनाओं के हों या फिर बिखरे हुए प्राकृतिक या रचे हुए रंग। चाहा शायद सबने था लेकिन सोचा किसी ने नहीं था कि 10 साल के अंदर ही इतने अद्-भुत प्रयोग होंगे कि रंग मीडिया और खास तौर से न्यूज मीडिया पर अपनी पकड़ और मौजूदगी को इस जबरदस्त तरीके से मजबूत बना लेंगे। मीडिया रंगों के लिए अब किसी होली का मोहताज नहीं। वह समझ गया है कि बाजार में टिके रहना है तो रंगों को बांहें फैला कर अपनाना होगा, क्योंकि होली भी यहां है और दीवाली भी। बस, ज़रूरत है उन्हें हकीकत का अमली जामा पहनाने की।
दरअसल टीवी की दुनिया सिर्फ़ एक दिलक़श चेहरा ही नहीं मांगती, वह मांगती है तल्लीनता, तस्वीरें, तकनीक और बहुत से रंग। लाइट, कैमरा, एक्शन की दुनिया के साथ जैसे-जैसे क़रीबी बढ़ी, रंगों की समझ भी कई करवटें लेती गयी। न्यूज की भागमभाग के बीच हर मंजा हुआ पत्रकार/कैमरामैन रंगों के तालमेल के घोल को पी कर रखता है। रंग कहीं न छूटें, कोशिश रहती है। इंटरव्यू रिकॉर्ड हो तो बैकग्राउंड भरा-भरा लगे। लाइटें इस तरह से लगायी जाएं कि लगे कि स्टूडियो अभी-अभी रोशनी और रंगों से नहाया है। आउटडोर हो तो पेड़-पौधे, रंगीन छवियां दिखें, इनडोर हो तो भी स्टूडियो या फिर कमरा जीवंत दिखे, उसमें रंग छिटके हों, चाहे कुर्सी हो या टेबल या फिर टेबल पर पड़े गिलास-सब में कुछ अलग रंगीनियत हो, रिपोर्टर टीवी पर दिखे तो जरा सा चमके। एंकर परदे पर आये, तो उसकी झुर्रियां खुद उसे भी न दिखें। पत्रकारिता की समझ और सीरत के अलावा अब दर्शक को कोई चीज खास तौर से भा सकती है, तो वह भी होता है रंग और ताज़गी ही। यह उत्सवी महक टेलीविजन की नयी ज़रूरत बन गयी है।
इतना ही नहीं, आम इंसान टेलीविजन स्टूडियो में लगे सेट से लेकर चैनल से माइके के रंग तक से चैनल के स्वभाव का अंदाजा लगाता है। चैनलों पर चल रही सूचनाओं की रंगीन पट्टी हो या फिर बड़ा सेट- रंगों का चयन इस बारीकी से किया जाता है कि सबका दर्शक पर कुछ अलग ही प्रभाव दिखे। न्यूज मीडिया में रंगों और रोशनी से लबालब स्टूडियो इससे पहले कभी नहीं देखे गये। सनसनीनुमा कार्यक्रमों में अगर आमतौर पर लाल रंग हावी दिखता है तो युवा मन को खींचते खबरी कार्यक्रमों में कई बार कुछ नीला या नारंगी-सा।
लेकिन मजे की बात यह भी कि टीवी की दुनिया में हर रंग मान्य नहीं है। कुछ रंग ऐसे हैं जिनके इस्तेमाल से परहेज किया जाता है। जैसे कि एकदम सफ़ेद या एकदम काला। दोनों ही रंग कैमरे की आंख से आकर्षण पैदा नहीं करते। यही वजह है कि टीवी में रंगों का चुनाव अक्सर बहुत सोच-विचार कर किया जाता है। यहां तक कि एकता कपूर ब्रिगेड भी अपने तमाम नाटकों में रंगों के तालमेल का ध्यान रखती है। यहां पर्दे से लेकर तकिए के गिलाफ़ के रंग का चुनाव तक बड़ी तल्लीनता से किया जाता है। यही वजह है कि कई बार एक सेट की क़ीमत ही लाखों का आंकड़ा कर जाती है। यही हाल विज्ञापनों का है। महज 10-15 सेकेंड में अपने सामान की गुहार लगाने वाले विज्ञापनदाता कोशिश करते हैं कि कम शब्दों में स्क्रीन पर ऐसा जादू दिखा दिया जाए कि दर्शक उसे ख़रीदने को उतावला हो उठे। यही वजह है कि एक-एक शॉट पर महीन सोच का निवेश होता है और फिर स्टोरी बोर्ड पर अमल किया जाता है।
मीडिया ने रंगों को आत्मसात कर लिया है। टीवी चैनलों में जाने वाले भी इस शोध को करके जाते हैं। वे जानते हैं कि एनडीटीवी में होने वाली स्टूडियो रिकॉर्डिंग के लिए कौन-सा रंग नहीं पहनना चाहिए और स्टार न्यूज के लिए कौन सा। यहां तक कि कई सितारों के सहायक भी सितारे को वहां ले जाने से पहले गेस्ट डेस्क से रंग के बारे में पड़ताल कर लेते हैं ताकि टीवी पर सब कुछ पूरे तालमेल में दिखे। कई सितारे ऐसे भी हैं, जो अपनी कार में अतिरिक्त कपड़े लटकाए रहते हैं ताकि चैनल की ज़रूरत के मुताबिक कपड़े तुरंत बदले जा सकें। चुनावी दिनों या फिर कुछ और ख़ास अवसरों पर जो नेता हर पल एक-दूसरे चैनलों में फुदकते रहते हैं, वे भी ऐसी तैयारी बखूबी किये रहते हैं, लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है।
टीवी मीडिया 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से हिलोरें भर रहा है। हिंदुस्तान में इस समय जितने चैनलों की भरमार है, उतनी पूरी दुनिया में कहीं नहीं। इस लिहाज से टेलीविजन कुछ नया करने की प्रयोगशाला बन चला है। लेकिन परेशानी तब होती है, जब किसी एक रंग में बेवजह दूसरे रंग घोल दिये जाते हैं। वाकई दर्द होता है जब दंगे की कवरेज को और सुर्ख कर दिया जाता है ताकि वो और बिके, आंसुओं को और मटमैला कर दिया जाता है ताकि दर्शक बस किसी एक चैनल को बंध कर देखता रहे। जब शरीर के गेहुंए रंग को कपड़ों की परत से हटाकर जरा और पारदर्शी कर दिया जाता है ताकि टीवी मसाला आइटम भी बने। तब लगता है कि रंगों के चयन में हम जरा चूक गये। अच्छा हो कि जिंदगी के कैनवास को मदहोशी से भरने की कूव्वत रखने वाले रंगों के साथ व्यापारी राजनीति न हो। वैसे भी रंग और बेरंग के बीच का फ़ासला पार होने में ज़्यादा देर नहीं लगती।
वह पेड़...
लोकाट को वो पेड़
पठानकोट के बंगले के सामने वाले हिस्से में
एक महिला चौकीदार की तरह तैनात रहता था।
फल रसीला
मोटे पत्तों से ढका।
तब घर के बाहर गोलियां चला करती थीं
पंजाब सुलग रहा था
कर्फ्यू की खबर सुबह के नाश्ते के साथ आती थी
कर्फ्यू अभी चार दिन और चलेगा
ये रात के खाने का पहला कौर होता था।
बचपन के तमाम दिन
उसी आतंक की कंपन में गुजरे
नहीं जानते थे कि कल अपनी मुट्ठी में आएगा भी या नहीं
मालूम सिर्फ ये था कि
बस यही पल, जो अभी सांसों के साथ सरक रहा है,
अपना है।
लेकिन लोकाट के उस पेड़ को कोई डर नहीं था
गिलहरी उस पर खरगोश की तरह अठखेलियां करती
चिड़िया अपनी बात कहती
मैं स्कूल से आती तो
लोकाट के उस पेड़ के साथ छोटा सा संवाद भी हो जाता।
पंजाब में अब गोलियों की आवाज चुप है
तब जबकि बचपन के दिन भी गुजर गए
लेकिन आज भी जब-तब याद आते हैं
कर्फ्यू के वे अनचाहे बिन-बुलाए डरे दिन
और लोकाट का वह मीठा पेड़।
पठानकोट के बंगले के सामने वाले हिस्से में
एक महिला चौकीदार की तरह तैनात रहता था।
फल रसीला
मोटे पत्तों से ढका।
तब घर के बाहर गोलियां चला करती थीं
पंजाब सुलग रहा था
कर्फ्यू की खबर सुबह के नाश्ते के साथ आती थी
कर्फ्यू अभी चार दिन और चलेगा
ये रात के खाने का पहला कौर होता था।
बचपन के तमाम दिन
उसी आतंक की कंपन में गुजरे
नहीं जानते थे कि कल अपनी मुट्ठी में आएगा भी या नहीं
मालूम सिर्फ ये था कि
बस यही पल, जो अभी सांसों के साथ सरक रहा है,
अपना है।
लेकिन लोकाट के उस पेड़ को कोई डर नहीं था
गिलहरी उस पर खरगोश की तरह अठखेलियां करती
चिड़िया अपनी बात कहती
मैं स्कूल से आती तो
लोकाट के उस पेड़ के साथ छोटा सा संवाद भी हो जाता।
पंजाब में अब गोलियों की आवाज चुप है
तब जबकि बचपन के दिन भी गुजर गए
लेकिन आज भी जब-तब याद आते हैं
कर्फ्यू के वे अनचाहे बिन-बुलाए डरे दिन
और लोकाट का वह मीठा पेड़।
May 25, 2008
आत्मविश्वास जो ताउम्र साथ रहे और गुदगुदाए भी...
अपना ब्लॉग शुरू करने और उस पर पहला लेख छापने का आनंद कुछ और ही होता है. मैंने इसके लिए आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा के लिए लिखे गए एक लेख को चुना है. इसी संस्थान में कभी मैं पढ़ती थी, कभी पढ़ाती थी. आज भी उन दिनों को याद कर गुदगुदी होती है...
आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा देने का अपना ही स्वाद है. ये परीक्षा कम और नई जिंदगी का अंदाज ज्यादा है.
मैं मानती हूं कि आईआईएमसी की परीक्षा की तैयारी मानसिक और बौद्धिक दोनों ही स्तर पर की जानी जरूरी है. अगर यह ठान ही लिया है कि पत्रकार तो बनना ही है तो यह मान लीजिए कि अनजाने में ही किसी ने आपके रास्ते में दीए पहले से ही रख दिए होंगे. बशर्ते कि आप दीए की उस लौ में मेहनत करने को भी तैयार हों.
यदि परीक्षा में पास हो गए और आईआईएमसी में जगह मिल गई तो बहुत खूब और अगर नहीं भी मिली तो उससे कुछ ऐसा सबक लिया जाए कि वह आगे भी काम में आए.
जहां तक तैयारी का सवाल है तो मैं मानती हूं कि दुनिया भर के पत्रकारिता के तमाम बड़े कोर्सों के पेपरों के मुकाबले यहां पर प्रवेश परीक्षा पास करना कुछ ज्यादा ही आसान है. वजह यह कि बीते सात-आठ सालों में यहां प्रवेश परीक्षाओं का जबर्दस्त मेकओवर हुआ है और इन्हें आसान बनाने की जैसे मुहिम ही चला दी गई.
यही वजह है कि कई बार बेहद होनहार छात्र इन परीक्षा पत्रों को देखकर मायूस हो जाते हैं क्योंकि उन्हें पेपर में अपना ज्ञान और भरपूर तैयारी दिखाने का मुनासिब मौका नहीं मिल पाता और यह भी कि कई बार औसत छात्र भी इस परीक्षा को आसानी से पास कर जाते हैं. यह एक कड़वा लेकिन माना हुआ सच है.
खै़र पेपर का फार्मेट बन चुका... अब इसमें पास कैसे हुआ जाए, यह सोचना जरूरी है. एक बात तो ये कि परीक्षा से तीन महीने पहले तक के तमाम जरूरी अखब़ार ठीक से पढ़े जाएं. इसका मतलब ये नहीं कि पढ़ाई दिल्ली के दो अखबारों तक सिमट कर रह जाए. यह अधूरी पढ़ाई होगी और जमीनी हकीकत से कटी भी. बेहतर होगा कि तैयारी करते समय कुछ प्रतिष्ठित क्षेत्रीय अखबारों के संपादकीय को भी खंगाला जाए.
टीवी पत्रकारिता की परीक्षा दे रहे छात्रों को भी एक आम दर्शक की तरह समाचार चैनल देखने की बजाय उसके दृश्यों और उसमें सुनाई दे रहे शब्दों के मर्म को छू लेने की कोशिश करनी चाहिए. कुल मिलाकर यह कि जिस भी माध्यम या विभाग की परीक्षा की तैयारी करें, उस माध्यम को एक आम इंसान की तरह देखने की बजाय, एक विश्लेषक की तरह जानने-समझने की आदत डालना बहुत फायदेमंद हो सकता है.
जाहिर है कि अगर परीक्षार्थी दो आंखों की बजाय एक तीसरी आंख को भी खुला रखता है और उसके कान सूचना क्रांति की नई तरंगों को पकड़ने के लिए तत्पर रहते हैं तो उसे परीक्षा में पास होने से कोई नहीं रोक सकता.
गंभीर पढ़ाई के लिए उन अखबारों का चयन करना होगा जो स्वभाव से गंभीर हैं और जो विकास से लेकर दीन-दुनिया की तमाम खबरों को सलीके से छापने की कोशिश करते हैं. इसी तरह चैनलों और अखबारों की वेबसाइट्स पर नियमित चहलकदमी भी ज्ञान के दायरे को बढ़ा सकती है.
एक कोशिश जर्नलिज्म से जुड़ी बेहतरीन किताबों को पढ़ने की भी होनी चाहिए क्योंकि मजबूत अध्ययन और चिंतन से ही आनसर शीट को निखारा जा सकता है. बेशक देखने में पेपर आसान लगता हो और पास होना भी आसान ही लगे लेकिन सभी उसमें पहला स्थान तो हासिल नहीं कर पाते. सवाल आसान हुए तो सबके लिए आसान होंगे इसलिए ऐसे सवालों वाली परीक्षा में मुकाबला और कड़ा हो जाता है.
प्रवेश परीक्षा में मिला एक-एक अंक इंटरव्यू के समय काफी मायने रखता है. इसलिए कोशिश सर्वाधिक नंबर लेने की होनी चाहिए ताकि बाद में अपनी तरफ से कोई कमी रह जाने का मलाल न हो. चयन के बाद जो आत्मविश्वास मिलेगा, वह ताउम्र साथ रहेगा और गुदगुदाएगा भी.
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