Featured book on Jail

Workshop on Sound: Juxtapose pre-event: March 2024

Sep 17, 2008

हिन्दी ने साबित कर ही दी अपनी ताकत

करीब दो साल पहले दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में अंग्रेजी गायन की एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इसमें अंग्रजी के दुर्ग पर अधिकार जताने वाले अंग्रेजी, रेडियो, टीवी, विज्ञापन और जनसंपर्क पत्रकारिता के छात्रों ने हिस्सा लेने की भरपूर तैयारी की। प्रतियोगिता जब होने वाली थी, तो हिन्दी पत्रकारिता के छात्रों का उत्साह भी जगा लेकिन मसला था- अंग्रेजी। अंग्रजी में हाथ तंग छात्र भला इसमें क्या हिस्सा लेते लेकिन वे पीछे हटना भी नहीं चाहते थे। आखिरकार उन्होंने इसमें हिस्सा लेने की ठानी। कैंपस में जिसे भी इसकी सूचना मिली, वह गुदगुदाहट से भर गया। लेकिन यह खबर नहीं है। खबर वह है, जो इसके बाद बनी।

प्रतियोगिता हुई, सबने अंग्रजी गाने गाए और जमकर गाया हिन्दी विभाग भी और ले गया- पहला ईनाम। परम हैरानी! जीत कैसे क्यों हुई? इसलिए कि अंग्रेजी पर एकाधिकार समझने वाले उस गर्व में ऐसे फूले रहे कि कहीं पीछे छूट गए और जिनका अंग्रेजी से नाता नहीं था, वे ऐसा झूम-झूम कर गाए कि निर्णायक समिति ने उन्हें ही पहला स्थान दे दिया। हिन्दी वालों की उस जीत पर उस दिन दिली खुशी हुई।

ऐसी ही खुशी कुछ साल पहले तब हुई थी जब हिन्दी न्यूज चैनलों को शुरू करने की बात चली थी और नीति बनाने वालों ने सवालिया निशान लगाए थे कि आम आदमी की चलताऊ भाषा का चैनल क्या चलेगा! हिन्दी आम आदमी की भाषा हो सकती है, इसमें राष्ट्रीय प्रसारण के दौरान बंधे-बंधाए समय पर एकाध बुलेटिन भी हो सकता है लेकिन हाशिए पर पड़ी इस मुरझाई-हकलाई भाषा को चौबीसों घंटे भला कौन झेलेगा! लेकिन चैनल चला और उसे चलाने वाले भी। हिन्दी के दम ने साबित किया कि इस देश में चलेगा वही जो आम आदमी और उसकी भाषा से जुड़ा होगा।

इसी तरह की खुशी का आभास तब हुआ जब पार्लियामेंट लाइब्रेरी बिल्डिंग में कुछ सांसद हिन्दी सीखते दिखे। इन सांसदों को हिन्दी सिखा रहे थे- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से रिटायर हुए एक प्रोफेसर। स्वाभाविक तौर पर हिन्दी सीखने वालों की सूची में ज्यादातर सांसद दक्षिण भारतीय हैं। लेकिन इसमें गौरतलब है- हिन्दी सीखने की इच्छाशक्ति। प्रांत कोई भी हो, लोग हिन्दी पर अपना अधिकार कायम करना चाहते हैं। यही वजह है कि जापान से लेकर अमेरिका तक ऐसे बहुत लोग है जो हिन्दी ककहरा सीखने में जुटे हैं।

विशेषज्ञ इस बदलाव की कई वजहें गिना सकते हैं लेकिन बतौर पत्रकार निजी अनुभव के आधार पर मुझे लगता है कि यह अचानक नहीं हुआ। आजादी के साठ साल पूरे कर चुके इस देश में हिन्दी को हाशिए पर लाने की कई कोशिशें हुईं, होती रहेंगी, लेकिन हिन्दी ही जीत दिला सकती है, इसे समझने में सबसे ज्यादा तेजी उस तबके ने दिखाई जिसका जनता से सबसे सीधा वास्ता पड़ता है। वह चाहे नेता हो या मीडिया। अब तो जयललिता और राहुल गांधी भी हिन्दी में बतियाने लगे हैं। 2007 में तिरुवनंतपुरम में विधानसभा अध्यक्षों की सालाना बैठक के बाद हर शाम कला संध्या का हिन्दी में ही संचालन हुआ और निमंत्रण भी हिन्दी में छपे। फेहरिस्त लंबी है। बात वोटों की हो या टीआरपी की, जनता को खुद से जोड़ना हो तो मजबूरी में ही सही, भाषा अब उसी की बोली जाए, यह कायदा हुक्मरानों को समझ में आने लगा है।

एक और मिसाल विज्ञापन में दिखती है। विज्ञापनों में या तो शॉट्स तुरंत खींचते हैं या फिर स्क्रिप्ट। वह भी अपनी भाषा में हो तो उसका स्वाद बढ़ जाता है। ऐसा नहीं कि भारतीयों का स्वाद एकाएक बदला है। दरअसल घरों में टीवी रखने की जगह बदल गई है। ड्राइंग रुम में रखे टीवी में पहले अंग्रेजी को टांगे रखना लाजिमी-सा लगता था लेकिन अब नटखट टीवी उछल कर बेडरूम में आ गया है और बेडरूम में नकलीपन भला कौन चाहेगा! यह है हिन्दी की ताकत।

इस ताकत को राजनेता समझने लगे हैं, मीडिया समझ रही है, लेकिन योजना निर्धारक कब समझेंगे, कोई नहीं जानता। दरअसल सरकारी फाइलों पर तो हिन्दी के लिए अदृश्य अनचाहा लाल कालीन 1947 से ही बिछा है लेकिन यथार्थ की धरा पर हिन्दी के कलेवर पर अब भी पैबंद हैं। भाषा समितियां रटे-रटाए तरीके से सरक रही हैं। हिन्दी किताबों के लिए सलीकेदार प्रकाशक ढूंढना आज भी टेढ़ी खीर है। चैनलों में ठेठ हिन्दी वालों की जगह सिमटी है। कसे कपड़ों की तरह कसी अंग्रेजी बोलने वालों का हकलाता हुआ कुनबा तैयार हो रहा है जिसे दैनिक हिन्दुस्तान और हिन्दुतान टाइम्स में फर्क मालूम नहीं। यह वह कुनबा है जो भारत को इंडिया मानकर पृथ्वी की बजाय मंगल ग्रह से रिपोर्टिंग कर रहा है। ऐसे में हिन्दी वाले न्यूयार्क में भले ही ढाल-नगाड़े बजा आएं, पर बात तब बनेगी जब हिन्दी वाले हिन्दुस्तान में सीना तान कर चलना सीख लेंगे।

(यह लेख 22 जुलाई 2007 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

4 comments:

अनुनाद सिंह said...

वर्तिका जी,
आपके अनुभवों को समेटे हुए ये विचार बहुत उत्साहवर्ध लगे। हिन्दी ने अपनो और परायों - दोनो की बौत उपेक्षा झेला। अब उसे देश-विदेश में स्तापित किये जाने का समय आ गया है।

कृपया कभी लिखिये कि हिन्दी के विकास और प्रसार को और तीव्र करने के लिये कौन से व्यावहारिक कदम उठाने चाहिये? इसमें आम जनता का क्या रोल होगा और सरकारों का क्या?

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' said...

कुछ दिन पहले प्रसुन जी से मेरी मुलाकात हुई और इसी मसले पर लंबी बात चली. उनका कहना था कि हिंदी में कुछ शुरू करने से लोग वैसे ही डरते हैं जैसे रेस्त्रां से नई डिश मंगाने से. भरोसे की कमी है. लेकिन जब ओए बबली जैसे एड अंग्रेजी पर भारी पड़ गये तो बाजार बन गया. हिंदी ज्यादा सहूलियत के साथ लोगों को जोड़ सकती है.
अच्छे लेख के लिए बधाईयां.
देवेश वशिष्ठ खबरी
तहलका

Unknown said...

भारत की सत्ता मे बैठे लोग भारत को ईंडीया मान रहे है। इस सदी के अंत तक ईंडीया फिर से भारत बन जाएगा। लेकिन सभी भारतवाषीयों को अपनी अपनी जगह से सार्थक प्रयास करना होगा।

मीत said...

अच्छा लेख है..!
हमें गर्व है हम हिन्दी हैं...
सुंदर लेख के लिए आभार...
जारी रहे!