दिल्ली का लवर्स पैराडाइज यानी नेहरू पार्क। शाम के 6 बजे हैं। झुरमुटों के आस-पास कई युगल दिखते हैं। कोई किसी की गोद में लेटा, कोई प्रेमिका की आंखों की भाषा को बांचता तो कोई भविष्य और वर्तमान के झूले में झूलता। सबके कुछ सपने हैं। लेकिन डर एक जैसा। कहीं पुलिस वाला या चौकीदार न देख ले। अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से संकट से निपटने के लिए जेब के कोने एक पुराना नोट भी छिपा पड़ा है।
इस तस्वीर के साथ साल न भी बताया जाए तो कोई फर्क नहीं पडे़गा क्योंकि सालों से तस्वीर में कोई बड़ा फर्क नहीं आया है। बस नोट का आकार थोड़ा बड़ा हो गया है। मुंबई हादसे के बाद पार्क में आकर प्यार के गोते लगाने वालों की जिंदगी उसी रफ्तार से कायम है। वही किस्से-वही उलहाने-वही उत्साह-वही मीठा सा प्यार।
इस पार्क के आस-पास के डिप्लोमैटिक औरब्यूरोक्रैटिक इलाके में गाड़ियों में सन-शेड से छिपाए चेहरों में वही प्रेम-रस और पहचाने जाने की आशंका है। गाड़ियों में घूमते ये मध्यमवर्गीय जोड़े कभी समाज के पारिभाषित दायरे में हैं और कभी उसके बाहर।
नजदीक ही पांच सितारा ताज से लेकर कनाट प्लेस तक बिछे पांच सितारा होटलों में जानेवालों में बहुत कुछ थम-सा गया है। इस पर अब तक किसी ने गौर ही नहीं किया।
दरअसल प्यार-मोहब्बत करने वालों के कई वर्ग और स्तर हैं। प्रेम हो जाना एक बात है लेकिन प्रेम को सींचने के लिए तो चाहिए ही समय,जगह और पैसा - बड़ा या छोटा।
तो आम तौर पर स्तर तीन हैं। एक, पार्क में जाकर कोनों में छिपकर चांद-सितारों को तोड़ने की बात करने वालों का। दूसरा, कार में बैठकर स्टीयरिंग की छांव और ब्रेकनुमा कबाब में हड्डी के बीच सिमट कर प्रेम के इजहार करने वालों का और तीसरा, पांच सितारा होटलों में जाकर शामें गुजारने का।
मुंबई हादसे का पहली श्रेणी पर कोई असर नहीं पड़ा है। वे पहले भी जिन पार्कों में पाए जाते थे, आगे भी वहीं पाए जाएंगे। सर्दी में शॉल की ओट और गर्मी में दुपट्टे की नरमाहट उन्हें सुख देगी। पास से गुजरता एक रूपए की चाय और 10 रूपए की कोल्ड ड्रिंक देने वाला जब उन्हें कई दिन वहीं देखता रहेगा और समझने लगेगा कि ये भी सच्चे आशिकों की श्रेणी वाले हैं, तो आते-जाते कान में फुसफुसा कर बता भी देगा कि चौकीदार कब वहां आ सकता है और कहां दिखा था उसे कोई पुलिस वाला। यह स्थानीय इंतजाम है जिस पर राजनीतिक या आतंकी घटनाओं की रेखाएं अपना असर नहीं खींच सकतीं। यह प्रकृति की गोद में पल रहा प्रेम है और अपनी रक्षा के लिए भी यह किसी सुरक्षा एजेंसी पर नहीं बल्कि प्रकृति पर ही निर्भर करते हैं।
दूसरा वर्ग कार में इश्क फरमाता है। इसके लिए दिक्कत थोड़ी बढ़ेंगी। मध्यम वर्गीय या निम्नवर्गीय जगहों पर कार पार्क करके यह वर्ग प्रेम नहीं करता। यह वर्ग आम तौर पर कुछ वीआईपीनुमा इलाकों के करीब की जगह खोजता है जहां बड़े लोग अपने घरों से पैदल निकलते ही नहीं। यहां कार में शहदनुमा बातें करने का स्वाद ही अलग रहता है। लेकिन मुंबई हादसे की वजह से यह वर्ग भी अब परेशानी में है। जाने कब पुलिस आ जाए और मान ले इन्हें आतंकवादी। इस वर्ग को पहले वर्ग की तुलना में ‘खर्च’ भी ज्यादा देना पड़ता है।
लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत में है - तीसरा वर्ग। यह वर्ग प्रेम के लिए अक्सर बड़े होटलों को चुनता था और इनसे कथित प्रेम करने वाला पार्टनर भी कपड़ों की तरह अक्सर बदला करता था। इनकी प्रेयसी कभी बीस साल की बाला होती थी कभी चालीस की खाला। वो कभी मासूम होती थी, कभी सीधे किसी व्यावसायिक इलाके से लाई गई, लेकिन चूंकि यहां आने वाले लोग मोटी जेब और बड़े रसूख वाले होते थे, इसलिए प्रेमिका को पत्नी जैसा मानने की नाकाम कोशिशें की जाती थीं। इन्हें होटलों में नोटों के धंधे और ड्रग्स की तिकड़में बैठती थीं। अब जब बड़े पांच सितारा के खाक होने पर कुछ सितारे जार-जार होकर रो रहे हैं और कह रहे हैं कि उनकी इन होटलों से हसीन यादें जुड़ी थीं, तो वे सही ही हैं। यादें स्लम से कैसे जुड़तीं। गौर की बात यह कि होटलों में प्रेम-अप्रेम या अध-प्रेम जैसा कुछ भी करते रहने पर पकड़े जाने की कोई आशंका नहीं रहती थी। इसलिए यहां रूकने का खर्च भले ही मोटा होता था लेकिन बचने के लिए पैसे देने का कोई खर्च नहीं।
तो इन होटलों ने प्रेम और प्रेम से कुछ दूर वाले लेटे रिश्तों को बहुत करीब से देखा है। यहां पार्क के पेड़ों के साए वाले काफी हद तक छांवदार रिश्ते भले ही अक्सर न पनपे हों लेकिन ऐसा बहुत कुछ होता रहा है जो समाज से छिपा रहा। इस वर्ग को कथित प्रेम करते न तो पुलिस ने पकड़ा, न पैसे लिए और न ही चाय वाले ने इनके प्रेम को देख कर मंद मुस्कान दी। यहां प्रेम दरअसल प्रेम न होकर बाजार के प्रोडक्ट जैसा ही रहा।
लेकिन यह वर्ग अब जाएगा कहां? खबर है कि बड़े होटलों में अब सीसीटीवी तैनात किए जा रहे हैं। अब हर-आने-जाने-ठहरनेवाले की पूरी तहकीकात की जाएगी। पुलिस तक तमाम तरह की रिपोर्टों पहुंचाई जाएंगी और अगर कोई बार-बार पत्नी का नाम बदल या भूल रहा होगा तो भी सूचना का रिकार्ड बनाया जाएगा। बात पसीना छूटने वाली है। आंतकी इससे डरे न डरें लेकिन यहां आकर तमाम गोरखधंधे करनेवालों की अब शामत आ गई है।
तो क्या उन्हें भी अपने लिए किसी पार्क की तलाश कर लेनी चाहिए और क्या पुलिस को भी पार्क में प्रेम में डूबे शायरों पर नजरें गढ़ाने की बजाय वह काम करना चाहिए जो उन्हें सौंपा गया है?
दोनों सवाल अहम हैं। लेकिन होटल मालिक अब यह बात किससे कहें कि मुंबई की इस सुनामी से चकाचौंध के बीच होने वाले तमाम काले साए जब दरकिनार हो जाएंगे तो उनके प्रेम-व्यवसाय का होगा क्या?
इस तस्वीर के साथ साल न भी बताया जाए तो कोई फर्क नहीं पडे़गा क्योंकि सालों से तस्वीर में कोई बड़ा फर्क नहीं आया है। बस नोट का आकार थोड़ा बड़ा हो गया है। मुंबई हादसे के बाद पार्क में आकर प्यार के गोते लगाने वालों की जिंदगी उसी रफ्तार से कायम है। वही किस्से-वही उलहाने-वही उत्साह-वही मीठा सा प्यार।
इस पार्क के आस-पास के डिप्लोमैटिक औरब्यूरोक्रैटिक इलाके में गाड़ियों में सन-शेड से छिपाए चेहरों में वही प्रेम-रस और पहचाने जाने की आशंका है। गाड़ियों में घूमते ये मध्यमवर्गीय जोड़े कभी समाज के पारिभाषित दायरे में हैं और कभी उसके बाहर।
नजदीक ही पांच सितारा ताज से लेकर कनाट प्लेस तक बिछे पांच सितारा होटलों में जानेवालों में बहुत कुछ थम-सा गया है। इस पर अब तक किसी ने गौर ही नहीं किया।
दरअसल प्यार-मोहब्बत करने वालों के कई वर्ग और स्तर हैं। प्रेम हो जाना एक बात है लेकिन प्रेम को सींचने के लिए तो चाहिए ही समय,जगह और पैसा - बड़ा या छोटा।
तो आम तौर पर स्तर तीन हैं। एक, पार्क में जाकर कोनों में छिपकर चांद-सितारों को तोड़ने की बात करने वालों का। दूसरा, कार में बैठकर स्टीयरिंग की छांव और ब्रेकनुमा कबाब में हड्डी के बीच सिमट कर प्रेम के इजहार करने वालों का और तीसरा, पांच सितारा होटलों में जाकर शामें गुजारने का।
मुंबई हादसे का पहली श्रेणी पर कोई असर नहीं पड़ा है। वे पहले भी जिन पार्कों में पाए जाते थे, आगे भी वहीं पाए जाएंगे। सर्दी में शॉल की ओट और गर्मी में दुपट्टे की नरमाहट उन्हें सुख देगी। पास से गुजरता एक रूपए की चाय और 10 रूपए की कोल्ड ड्रिंक देने वाला जब उन्हें कई दिन वहीं देखता रहेगा और समझने लगेगा कि ये भी सच्चे आशिकों की श्रेणी वाले हैं, तो आते-जाते कान में फुसफुसा कर बता भी देगा कि चौकीदार कब वहां आ सकता है और कहां दिखा था उसे कोई पुलिस वाला। यह स्थानीय इंतजाम है जिस पर राजनीतिक या आतंकी घटनाओं की रेखाएं अपना असर नहीं खींच सकतीं। यह प्रकृति की गोद में पल रहा प्रेम है और अपनी रक्षा के लिए भी यह किसी सुरक्षा एजेंसी पर नहीं बल्कि प्रकृति पर ही निर्भर करते हैं।
दूसरा वर्ग कार में इश्क फरमाता है। इसके लिए दिक्कत थोड़ी बढ़ेंगी। मध्यम वर्गीय या निम्नवर्गीय जगहों पर कार पार्क करके यह वर्ग प्रेम नहीं करता। यह वर्ग आम तौर पर कुछ वीआईपीनुमा इलाकों के करीब की जगह खोजता है जहां बड़े लोग अपने घरों से पैदल निकलते ही नहीं। यहां कार में शहदनुमा बातें करने का स्वाद ही अलग रहता है। लेकिन मुंबई हादसे की वजह से यह वर्ग भी अब परेशानी में है। जाने कब पुलिस आ जाए और मान ले इन्हें आतंकवादी। इस वर्ग को पहले वर्ग की तुलना में ‘खर्च’ भी ज्यादा देना पड़ता है।
लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत में है - तीसरा वर्ग। यह वर्ग प्रेम के लिए अक्सर बड़े होटलों को चुनता था और इनसे कथित प्रेम करने वाला पार्टनर भी कपड़ों की तरह अक्सर बदला करता था। इनकी प्रेयसी कभी बीस साल की बाला होती थी कभी चालीस की खाला। वो कभी मासूम होती थी, कभी सीधे किसी व्यावसायिक इलाके से लाई गई, लेकिन चूंकि यहां आने वाले लोग मोटी जेब और बड़े रसूख वाले होते थे, इसलिए प्रेमिका को पत्नी जैसा मानने की नाकाम कोशिशें की जाती थीं। इन्हें होटलों में नोटों के धंधे और ड्रग्स की तिकड़में बैठती थीं। अब जब बड़े पांच सितारा के खाक होने पर कुछ सितारे जार-जार होकर रो रहे हैं और कह रहे हैं कि उनकी इन होटलों से हसीन यादें जुड़ी थीं, तो वे सही ही हैं। यादें स्लम से कैसे जुड़तीं। गौर की बात यह कि होटलों में प्रेम-अप्रेम या अध-प्रेम जैसा कुछ भी करते रहने पर पकड़े जाने की कोई आशंका नहीं रहती थी। इसलिए यहां रूकने का खर्च भले ही मोटा होता था लेकिन बचने के लिए पैसे देने का कोई खर्च नहीं।
तो इन होटलों ने प्रेम और प्रेम से कुछ दूर वाले लेटे रिश्तों को बहुत करीब से देखा है। यहां पार्क के पेड़ों के साए वाले काफी हद तक छांवदार रिश्ते भले ही अक्सर न पनपे हों लेकिन ऐसा बहुत कुछ होता रहा है जो समाज से छिपा रहा। इस वर्ग को कथित प्रेम करते न तो पुलिस ने पकड़ा, न पैसे लिए और न ही चाय वाले ने इनके प्रेम को देख कर मंद मुस्कान दी। यहां प्रेम दरअसल प्रेम न होकर बाजार के प्रोडक्ट जैसा ही रहा।
लेकिन यह वर्ग अब जाएगा कहां? खबर है कि बड़े होटलों में अब सीसीटीवी तैनात किए जा रहे हैं। अब हर-आने-जाने-ठहरनेवाले की पूरी तहकीकात की जाएगी। पुलिस तक तमाम तरह की रिपोर्टों पहुंचाई जाएंगी और अगर कोई बार-बार पत्नी का नाम बदल या भूल रहा होगा तो भी सूचना का रिकार्ड बनाया जाएगा। बात पसीना छूटने वाली है। आंतकी इससे डरे न डरें लेकिन यहां आकर तमाम गोरखधंधे करनेवालों की अब शामत आ गई है।
तो क्या उन्हें भी अपने लिए किसी पार्क की तलाश कर लेनी चाहिए और क्या पुलिस को भी पार्क में प्रेम में डूबे शायरों पर नजरें गढ़ाने की बजाय वह काम करना चाहिए जो उन्हें सौंपा गया है?
दोनों सवाल अहम हैं। लेकिन होटल मालिक अब यह बात किससे कहें कि मुंबई की इस सुनामी से चकाचौंध के बीच होने वाले तमाम काले साए जब दरकिनार हो जाएंगे तो उनके प्रेम-व्यवसाय का होगा क्या?
8 comments:
बडा अहम सवाल उठाया है आपने .
प्रेमी तीन तरह के हो सकते हैं पर प्रेम तो एक ही होता है - सच्चा, सरल, सरस। यदि कपडे बदलने वाले को प्रेमी कहें तो गलत है, वह तो धोबी ही हो सकता है। तभी तो कहा गया है- यह इश्क नहीं आसां ......
सच ही कहा आपने कुछ दिक्कतें तो आऐंगी पर यह हिंदुस्तान यहाँ सब कुछ दिनों में नार्मल हो जाता हैं। गाड़ी फिर से उसी पटरी पर दोड़ जाती हैं। खैर प्यार करने वाले ठैरे प्यार करने वाले वो जगह ढूंढ ही लेंगे। वैसे आपने कुछ हमेशा की तरह इस पर भी अलग लिखा।
आतंक का प्रेम पर पड़ने वाला असर बहुत अच्छी तरह से उकेरा है आपने| शहरों में पनपते प्रेम के आयामों को पढ़कर अच्छा लगा|
एक भारतीय
Udayan P.K. Tuljapurkar
Indian said...
प्रिय वर्तिका नन्दा जी, आपका लेख बहुत अच्छा लगा। लेकिन हकिकत कुछ और ही है। शायद आप भी इससे वाकीफ होंगी। आपके लेख में, आपने जो लिखा है युगल जोडों के बारे में, इसके बारे में मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ कि जादातर युगल (80 से 90 तक) पार्क या ऐसी जगहों पर बातें करने के लिए नहीं जाते, बल्कि और किसी काम के लिए जातें हैं (वह काम होता है, एक दूसरे को स्पर्श करना) ज्यादा कुछ मैं कहना नहीं चाहता। मैं भी दिल्ली में पला बढा हूँ और बहूत सी जगहों पर जा चुका हूँ जहॉं युगल जोडीयॉं जाती हैं। इसलिए आप ये मत कहए कि उनको किसी सिपाही का या कोतवाल का डर होता है। जो लोग सिर्फ बाते करने के लिए वहॉं जाते हैं। उनको किसी का डर नहीं होता। मैं खुद ऐसी कई जगहों पर जा चुका हँ वह भी अपनी होने वाली पत्नी के साथ (शादी से पहले)।
उदयन
वर्तिका जी । आपकी बात बिलकुल सही है। कुछ तो परेशानी होगी ही। ये पैसे वाले लोग हैं।होटल के कमरे की जगह इस काम के लिए कोठी एवं फ्लेट किराए पर लेने लगेंगें। बडें लोगो की समस्या पर मैने एक हांस्य व्यंग हाल मे लिखा है। समय मिले तो देखिएगा। ब्लाग का लिंक नीचे हैं..
http://likhadi.blogspot.com/2008/12/blog-post_07.html
well....very well said maam...
gajendra singh bhati
ये तो रहा मुंबई हमलों का मुहब्बत पर सीधा असर। लेकिन मुश्किलें हैं, तो रास्ते भी हैं। प्रेम अपनी राह ज़रूर ढूंढ़ लेगा।
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