आंकड़े बहुत कुछ कहते हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो और यूपी पुलिस के आंकड़ों ने इस बार जो तस्वीर पेश की है, वह चौंकाने वाली भी है और चेताने वाली भी। आंकड़ों के मुताबिक बलात्कार और घरेलू हिंसा के मामलों में उत्तर प्रदेश अव्वल है। खास तौर पर गौर करने की बात यह है कि रिपोर्ट में पाया गया है कि हालांकि देश भर में 2006 की तुलना में 2007 में महिला अपराध में 12.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन अपराधों के उफान के मामले में भाषी राज्य पहले नंबर पर हैं।
लेकिन अपराध के आंकड़ों के ग्राफ की सेहत के मद्देनजर यह टटोलना बेहद जरूरी लगता है कि समाज में अपराध ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है या फिर अपराध को लेकर संवेदनहीनता।इस तरह की संवेदनहीनता दहेज हत्याओं के मामले में तो दिखती ही रही है लेकिन पिछले एक दशक में बलात्कार भी इस श्रेणी में शामिल होता जा रहा है। वैसे भी बलात्कार की कवरेज स्वाद और टीआरपी के मुनाफे के चलते कई परतों से होकर तो गुजरती ही है।
मिसाल के तौर पर अभी हाल ही में दिल्ली से सटे नौएडा में जब दिनदहाड़े बलात्कार की घटना हुई तो एक बार फिर यह सवाल उचल कर सामने आ गया। हालांकि इस बार उत्तर प्रदेश पुलिस ने अतिरिक्त सतर्कता दिखाते हुए 24 घंटे के भीतर ही आरोपियों को पकड़ कर मामले को तत्काल ‘ सुलझा ’ लिया लेकिन फिर भी अपराध को लेकर सामाजिक प्रशासनिक नजरिया बहुत आश्वस्त करता दिखाई नहीं दिया।
इस पूरे घटनाक्रम में कुछ बातें साफ तौर पर उभर कर आईं हैं। पहली बात तो यह कि मीडिया ने खुलकर यह बताया कि बलात्कार पीड़ित लड़की कहां की रहने वाली थी, वह कहां पढ़ती थी, जिस युवक के साथ वह शॉपिंग कांपलेक्स में गई थी, उसका नाम क्या था और उसके पिता दिल्ली पुलिस में क्या करते हैं वगैरह। कहने का मतलब यह कि इस घटना की रिपोर्टिंग करते समय टीवी चैनलों ने तो अपने जाने-माने स्वभाव के मुताबिक कोई एतिहात नहीं बरती लेकिन साथ ही प्रिंट मीडिया भी पत्रकारिता के मूलभूत उसूलों से भटकता हुआ झटपट रिपोर्टिंग करता हुआ दिखा।
वैसे पत्रकारिता की बुनियादी पढ़ाई में ही इन दिनों भी कम से कम एकाध बार तो यह सबक बताया ही जाता है कि बलात्कार और बाल-अपराध के मामलों की रिपोर्ताज करते समय किन तत्वों को ध्यान में रखा जाना चाहिए लेकिन यह भी सच है कि निजी चैनलों की आपसी आगे निकलो प्रतियोगिता के चलते ऐसे संवेदनशील मु्द्दे भी बाजारू रिपोर्टिंग के खतरे के शिकार होते चले गए हैं।
दूसरा मुद्दा है - मीडिया का अपराध और अपराधी के प्रति रवैया। घटना के अगले ही दिन दिल्ली से प्रकाशित होने वाला एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक उस गांव के सरपंच का इंटरव्यू छापता है जहां यह आरोपी रहते थे। इंटरव्यू का मर्म यह है कि ये लड़के निर्दोष हैं क्योंकि उन्होंने सिर्फ बलात्कार ही किया है। यह भी कहा जाता है कि असल में बलात्कार तो लड़की के दोस्त ने किया था लेकिन चूंकि तब ये लड़के क्रिकेट खेल कर पास से ही गुजर रहे थे, इसलिए इन्हें ही फंसा दिया गया। इंटरव्यू में बताया गया है कि यह युवक अमीर परिवारों के हैं और गांव में इनके बड़े-बड़े घर हैं। इस पूरी कहानी को अखबार के पहले पन्ने पर प्रमुखता के साथ छापा गया है।
दरअसल अपराध होने असामान्य न माना जाना एक फितरत है लेकिन इस फितरत के आगे जाकर अपराध को जायकेदार और एक-पक्षीय बनाए जाने की कोशिश खतरनाक जरूर है। यही हो रहा है। एक तो मीडिया पढ़ाने वाले ज्यादातर दुकान सरीखे संस्थान नई फौज को पत्रकारिता के नाजुक मामलों और उससे जुड़े कानून को बताने में समय खर्च करना नहीं चाहते और दूसरे चैनलों में नौकरी पाने के बाद मुनाफे की होड़ में सब कुछ जल्द करवाने का ऐसा दबाव बना रहता है कि सही-गलत की लक्ष्मण रेखा पर विचार ही नहीं किया जाता।
एक बात और। भारत में आज भी महिला पत्रकारों की तादाद 15 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी नहीं है। इनमें भी प्रमुख बीट पाने वाली महिलाएं बहुत ही कम हैं। इस में कोई शक हो ही नहीं सकता कि अगर महिलाओं को ऐसे नाजुक मामलों की रिपोर्टिंग दी जाती है तो वे खबर से काफी हद तक न्याय कर पाती हैं लेकिन उन्हें इस मौके को देने की कमान फिर एक पुरूष के हाथ ही होती है और मर्जी न होने पर उन्हें संवेदनशील घटना की रिपोर्टिंग का मौका मिल ही नहीं पाता। पर यह भी सच है कि जो पुरूष खुद बलात्कार करता है, उसकी कलम ऐसी घटना को रिपोर्ट करते समय संवेदनशीलता जगेगी, इसकी उम्मीद करना बहुत मायने नहीं रखता।
इसलिए मामला सिर्फ यह नहीं कि अपराधों को लेकर नेशनल क्राइम रिकार्ट ब्यूरो क्या आंकड़े देता है। ब्यूरो तो 70 के दशक से ही आंकड़े तश्तरी में सजाने का औपचारिक काम कर ही रहा है। मामला तो यह है कि जिस देश में 1970 से लेकर अब तक अपराध दर में 7000 प्रतिशत का इजाफा हो गया हो, वहां आज भी अपराध को लेकर एक सख्त सोच पनप ही नहीं पाई है। लगता यही है कि भारतीय समाज अपराध होने की इंतजार ज्यादा करता है और उसे न घटने देने की कोशिश कम।
यह त्रासदी ही है कि एक ऐसा देश जहां भारत में हर साल बलात्कार के 19000 से ज्यादा मामले दर्ज होते हैं और हर तीन मिनट में एक महिला पर किसी न किसी तरह का अपराध किया जाता है, वहां आज भी वलात्कार की रिपोर्टिंग को लेकर कोई खाका तैयार ही नहीं किया गया है। यह वही देश है जहां महिला आयोग समय-समय पर चीखता दिखाई देता है लेकिन यह चीख इस मामले में कोई ठोस काम नहीं कर सकी है। यह वही देश है जहां भारतीय प्रेस परिषद का गठन इस वादे के साथ किया गया था कि यह प्रेस की अनियमितताओं पर नजर रखेगा लेकिन नजर रखने के अलावा इस पर हुआ क्या? बेशक पेज थ्री की रिपोर्टिंग में हमने झंडे गाढ़ दिए हैं और टीवी और अखबारों में कॉरपोरेट और विज्ञापन-प्रेरित खबरों के पेट का आकार भी बढ़ा है लेकिन बलात्कार की रिपोर्टिंग के लिए अभी भी मानवीय भावनाएं जग नहीं सकी हैं। बलात्कार की रिपोर्टिंग का किस्मत भी शायद वही है जो भारत की एक औसत महिला की है। लेकिन सोचना चाहिए कि सड़क पर हुए एक बलात्कार के बाद जब मीडिया अपने कैमरों और कलम से दोबारा बलात्कार करता है तो उस पर कोई धारा क्यों नहीं लगती?
(यह लेख 20 जनवरी, 2009 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)