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Jun 19, 2009

लिखा जो खत मैनें

कोशिश सिर्फ इतनी थी
लिफाफे में बंद कर खत भेजूं
चंद लफ्ज़ हों
चंद कतरे छिटकती जिंदगी के।

बहुत बंद किया लिफाफे को मैनें
लगा दिए तमाम औजार
अपनी शक्ति
पर लिफाफा भारी हो ही गया
उससे झरने लगे
मेरे मन के मलमली पत्ते - यहां-वहां
अब खुला खत कैसे भेजूं ?

6 comments:

श्यामल सुमन said...

कम शब्दों में आपने भरा है कोमल भाव।
आसानी से छोड़ता मन पर बहुत प्रभाव।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर एहसास।
बहुत बढिया!

हें प्रभु यह तेरापंथ said...

वर्तिका नन्दाजी,

"पर लिफाफा भारी हो ही गया

उससे झरने लगे

मेरे मन के मलमली पत्ते - यहां-वहां

अब खुला खत कैसे भेजूं ?"

बहुत ही सुन्दर रचना, पढकर आत्मविभोर हो गया।

आभार।

हे प्रभु यह तेरापन्थ

मुम्बई टाईगर

समयचक्र said...

वर्तिका जी आपकी रचना बेहद अच्छी लगी . आप निरंतर लिखती रहे. धन्यवाद.
आपकी रचना पढ़ कर मुझे ये गाना याद आ गया है .
लिखा जो ख़त तुझे ....वो

M Verma said...

खुला खत कैसे भेजूं ?
ज़ज्बात को इतने करीने से सजाया है. वाह – बहुत खूब

नवनीत नीरव said...

sari batein ek hi khat mein undelna kahan tak tarksangat hai. prayas yahi ho ki khat niyamit antaral par likhe aur bheje jayein.Agar aisa nahi ho paye to phir iski kya ahmiyat rah jayegi........
Achchhi rachna hai aapki. Pasand aayi.
Navnit Nirav