11 साल पहले एक दिन खबर मिली कि नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास लगे एक टावर पर एक आदमी चढ़ गया है और उतरने का नाम ही नहीं ले रहा। बनारस से दिल्ली आए उसका कहना था कि वह तभी उतरेगा जब उसकी पत्नी मायके से वापिस आकर उसके साथ दोबारा रहने का वादा करेगी, वो भी दुनिया के सामने। उस पुरूष ने अंतर्जातीय विवाह किया था और लड़की के मां-बाप जबरदस्ती लड़की को अपने साथ ले गए थए जिसे यह युवक बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। उसके आस-पास के लोगों ने भी उसकी कोई मदद नहीं की, इसलिए वो दिल्ली चला आया और गाड़ी के स्टेशन आते ही सदमे के चलते सीधे पहुंचा टावर के ऊपर।
हम लोगों के लिए यह मजेदार खबर थी। पहले दिन एक-दो लोग कवर करने पहुंचे। एनडीटीवी(स्टार न्यूज) पर इस खबर को दिखाने का असर यह रहा कि अगले दिन अखबारवालों का हुजूम भी लग गया। सर्दियों के दिन थे।हम टावर के नीचे। टावर वाला ऊपर। कभी पूरा लेटमलेट,कभी अधलेट, कभी उठ कर नमाज अदा करता। जब खास मूड में होता तो हाथ हिलाता,हम सबके नाम पूछता। उस दिन शाम होते-होते उसने सबके लिए पर्चियां फेंकनी शुरू कर दीं। एनडीटीवी के नाम, इंडियन एक्सप्रेस के नाम, पंजाब केसरी के नाम। लिखा यह कि वह राष्ट्रपति से मिलने के बाद ही नीचे उतरेगा क्योंकि उसे किसी पर भरोसा नहीं है। उसे विश्वास था कि सिर्फ राष्ट्रपति ही अब उसे इस वियोग से मुक्ति दिला सकते हैं। खैर स्टोरी लायक चटपटा सामान हम लोगों को रोज नसीब होता रहा।
लेकिन एक दिन सुबह पहुंचे तो देखा टावर वाला न्यूजमेकर गायब। मालूम हुआ कि एक रात रेलवे पुलिस के जवान उसे उतार ले गए। उसके पास से डाई फ्रूट्स के दो झोले भी मिले(वह रोज यही खाता था)। उस दिन स्टोरी ये बनी कि उस टावर के पास पुलिसकर्मी तैनात कर दिए गए हैं ताकि कोई उस पर चढ़ न सके। वाह!
आज 11 साल बाद भी कई बार लोग इस घटना का जिक्र करते हैं। वे जानना चाहते हैं कि वहां से निकल कर वह पागलखाने पहुंचा या अपनी पत्नी के पास। जवाब किसी के पास नहीं है।
यहां से अब जरा एक गंभीर मुद्दे पर आइए। मुद्दा है – फॉलो अप का। मीडिया, खास तौर से इलेक्टॉनिक मीडिया खबर तो दिखाता है लेकिन उसके निष्कर्ष या कुछ सालों में उसमें आए बदलाव को दिखाने में अक्सर चूक जाता है। याद कीजिए प्रियदर्शिनी मट्टू। वो सुंदर कश्मीरी लड़की जिसे एक आईपीएस अधिकारी के बिगड़ैल लड़के संतोष ने बलात्कार के बाद बेदर्दी से मार डाला था। इस घटना की परिणति जनता नहीं जानती। संतोष अपने पिता के प्रभाव की वजह से आखिर में छूट गया या अब भी वो कैद है। मट्टू परिवार अब कहां है। वगैरह।
याद कीजिए हाल की घटना। 30 अगस्त 2008 की दोपहर जब उमा खुराना एक सरकारी स्कूल में रोज की तरह गणित पढ़ा रही थीं और टीवी पर खबर चली थी कि वे लड़कियां मुहैया करवाती हैं। इस खबर की पूरी तफ्तीश हुई नहीं, वो टीवी पर चल गई और पलों में भीड़ ने स्कूल को और फिर उमा को घेर लिया, बदसलूकी की। खैर, बाद में खबर काफी हद तक फर्जी साबित हुई। खुराना की नौकरी बहाल हो गई लेकिन आज वो किस हाल में, कहां हैं, इस एक रिपोर्टिंग ने उनकी और परिवार की सोच को कैसे बदला, कोई नहीं जानता। अगर आपको याद हो, उमा खुराना और आरूषि हत्या की घटनाओं की वजह से ही ब्रांडकास्टिंग कोड को लागू करने की जोरदार बहस छिड़ी थी। इसी तरह नीतिश कटारा मामले की मुख्य गवाह और उसकी प्रेमिका भारती यादव कहां है, मनु शर्मा मामले का अंत कहां हुआ, सत्येंद्र दुबे का परिवार किस हाल में है, बंगारू लक्ष्मण अब क्या करते हैं, सीताराम केसरी का परिवार अब कहां है, जनता नहीं जानती। लेकिन लोग जानना चाहते हैं। आलम यह है कि जिस गुड़िया( वही जिसका पति पाकिस्तान जेल से बरसों बाद लौटा तो गुड़िया दूसरी शादी कर चुकी थी)के लिए मीडिया ने चर्चा की चटपटी दुकानें सजाई थीं, उसकी मौत पर महज एक चैनल उसके घर पहुंचा था और आज तो कोई नहीं जानता कि गुड़िया का बच्चा अब किसके पास है।
तो मीडिया ने खबर के आने पर तस्वीरें तो दिखाईं लेकिन तस्वीर के बाद की तस्वीर दिखाना वो शायद भूल गया। भागते चोर की लंगोटी पकड़ने के चक्कर में सब भागमभाग में छूटता जाता है। दिमाग को तस्वीरें मुहैया कराना इलेक्ट्रानिक मीडिया का काम है लेकिन क्या कोई भी घटना महज चंद तस्वीरें ही है। क्या मीडिया के लिए हर घटना महज एक स्टोरी है और वह सिर्फ एक स्टोरी टेलर। क्या उसका काम कहानी बांचना ही है, परिणति दिखाना नहीं। मीडिया की शायद इसी चंचल, अगंभीर और विश्लेषण से इतर आदत ने उसकी छवि को मसखरे-सा बना डाला है।