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Jan 17, 2010

अपराध और हंसी

एक हंसी भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरू की थी। फांसी पर हंसते-हंसते झूल गए। एक हंसी राठौर की है। बकौल राठौर उन्होंने मुश्किल में हंसना नेहरू से सीखा लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि फलां-फलां काम उन्होंने किससे सीखा।

खैर, जिस दिन राठौर हंसी देखी, एक और तल्ख हंसी याद गई। यह हंसी 1999 में देखी थी। लेकिन असल घटना घटी थी जनवरी 1996 में।

उस दिन संतोष सिंह दिल्ली के एक घर में घुस कर वहां अकेली मौजूद 22 वर्षीय प्रियदर्शिनी मट्टू से बलात्कार करता है और उसे बिजली की तारों और मोटर साइकिल के हेलमेट से मार डालता है। प्रियदर्शिनी दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून की छात्रा थी और कई बार पुलिस से शिकायत कर चुकी थी कि उसका सहपाठी संतोष उसे परेशान करता है। पुलिस खामोश रहती है क्योंकि संतोष के पिता उस समय दिल्ली के ज्वाइंट कमिश्नर आफ पुलिस थे।

प्रियदर्शिनी की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उस पर चोट के 19 निशान पाए गए। चेहरा पहचान से परे था। संतोष शायद आसानी से बच जाता लेकिन मीडिया की वजह से दिल्ली पुलिस और बाद में सीबीआई को मुस्तैदी दिखानी पड़ती है और संतोष गिरफ्तार होता है। फोरंसिक साइंस लैब भी मानता है कि सबूतों के साथ जानबूझकर बरती गई लापरवाही से आरोपी को लाभ मिलने के आसार पनपे। मौके पर पड़ा हैलमेट टूटे हुए सेफ्टी ग्लास में पाया गया। उंगलियों के निशान बेतरतीब थे। पुलिस ने दावा किया कि संतोष को हत्या से ठीक पहले देखने वाले नौकर का कोई सुराग नहीं मिल रहा है( जबकि कुछ ही दिनों बाद एक पत्रकार उस नौकर को बिहार के एक गांव में खोज कर उसका इंटरव्यू भी छाप देता है)

खैर, निचली अदालत में जज जी पी थरेजा 453 पन्नों के फैसले में कहते हैं, 'लगता है कि कानून के रखवालों के बच्चों पर कोई कानून लागू नहीं होता ...मैं जानता हूं कि संतोष ही वह व्यक्ति है जिसने यह अपराध किया है लेकिन तब भी मैं सबूतों की कमी के आधार पर उसे बरी कर रहा हूं। 'तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने इस फैसले पर टिप्पणी की कि न्याय के मंदिर अब कसीनों में तब्दील होने लगे हैं।

उस दोपहर फैसला सुनने से पहले संतोष हंसते हुए दाखिल हुआ और फिर दोगुनी हंसी के साथ बाहर आया। वो खुशी से हाथ हिला रहा था। मैं उस समय एनडीटीवी में थी और हमारे सिवा आज तक को भी उस क्रूर हंसी के शाट्स मिले थे। उसी शाम स्टोरी के चलते प्रियदर्शिनी के घर गई तो पता चला कि उसका परिवार वहां से जा चुका है।

बाद में अक्तूबर 2006 को दिल्ली उच्च न्यायालय संतोष सिंह को रेप और हत्या का दोषी पाया जाता है। उसे सजाए मौत सुनाई जाती है। इस समय तक शादीशुदा संतोष एक वकील बन चुका होता है। देश में पहली बार रेप मामले में नियमित सुनवाई से महज 42 दिनों में फैसला सुना दिया जाता है।

 बाद में संतोष की अपील पर फरवरी 2007 में मौत की सजा को स्थगित कर दिया जाता है लेकिन बलात्कार की सजा बने रहती है। इस बीच प्रियदर्शिनी को न्याय दिलाने की दरकार करते हुए इंडिया गेट के पास मोमबत्तियां भी जलती हैं लेकिन ताज्जुब की बात यह कि संतोष की उस विद्रूप हंसी के शॉट्स उस तेजी से बार-बार देखने को नहीं मिलते जैसा कि राठौर के मामले में हुआ।

लेकिन हंसने वाला राठौर अकेला नहीं है। याद कीजिए गोलियां चलाते, झूठ बोलते कसाब की हंसी। याद कीजिए रोमेश शर्मा, हर्षद मेहता, सुशील शर्मा, लालू यादव,पप्पू यादव की हंसी। कहीं अपराध से बच निकलने की हंसी तो कहीं कानून के साथ कामेडी करने की हंसी।

इस बार मीडिया की सक्रियता और विजिलेंट जनता की वजह से राठौर चपेट में आए हैं। लेकिन उन भ्रष्टाचारों-बलात्कारों का क्या जो बस्तियों-मुहल्लों में होते हैं। ये अपमान मीडिया लैंस से दूर हैं, इसलिए न्याय से भी। ये पार्ट टाइम अपराधी भी राठौर की हंसी ही हंसते हैं। छोटा राजन की पार्टी में शरीक हुए पुलिस वाले भी हंस रहे थे। इन लोगों में हंसी की हिम्मत इसलिए आती है क्योंकि इनके अंदर अपने कुकर्मों का अट्ठाहस बहुत ऊंचा है और मीडिया की पहुंच कम। इनके खिलाफ इंडिया गेट में मोमबत्तियां नहीं जलतीं। अगर याद हो तो मनु शर्मा के हाल के पांच सितारे के हंगामे के मामले में दिल्ली पुलिस आयुक्त के बेटे की मौजूदगी पर भी सवाल उठे थे लेकिन उन्हें दबा दिया गया। कानून के रखवाले अपने मचान से यह सब देख हंस कर लोटपोट होते रहते हैं।

थ्री इडियट्स में जब एक छात्र टीचर के कड़े अनुशासन के चलते आत्महत्या कर लेता है तो रैंचो धीमे से उस टीचर को याद दिलाता है कि यह आत्महत्या नहीं, हत्या है। हमें भी जरूरत रैंचो की ही है जो सच को सच कह सके। लेकिन फिलहाल तो लगता यही है कि  इस हंसी को देखकर रावण भी किसी कोने में बैठा शर्मसार हो रहा होगा।

(यह लेख 17 जनवरी, 2010 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

6 comments:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

saarthak lekha he. akhbaar me padhha tha...fir ek baar..

meriawajsuno said...

Agr is desh me Media na ho to ye administrator, politician or unke bigdel bete aam admi or unki betio ko kcha chba jaye. Halanki media ki ye bhumika b km hi mamlo me njr ati he.loktantr k is 4th piller ko or jida mjbuti or sjgta se kam krna hoga taki loktantr sahi mayno me kayam rhe. -naresh parashar himachal

Sandeep said...

Well written article. While we wait for the judicial system to deliver justice, people like Rathore need to be socially isolated.

vedvyathit said...

aap ki jagrookta srahniy hai
sadhuvad
dr.vedvyathit@gmail.com

दीपक 'मशाल' said...

Sach me jaroorat hai Rancho ki..
jo hum me hi chhupa hai kahin.. har insaan me.. der hai sirf aankh band karke use yaad karne ki .. bahar nikalne ki..
Jai Hind...

के सी said...

एक बेहद खूबसूरत ब्लॉग.