हादसे एक ही बात कहते हैं
मंगलौर में हो या मुंबई में
इंसान के रचे हों
या कुदरत से भुगते
कि सांसों का कोई भरोसा नहीं
सबसे अनजानी, अपरिचित सांसें ही हैं
कभी भी, कहीं भी फिसल सकती हैं
अनुलोम-विलोम के बीच
जब रोकती हूं
सांसों को कुछ पलों के लिए अंदर ही
तो लगता है कई बार
कि जाने ये सांसें
अंदर शरीर में कर रही होंगीं क्या गुफ्तगू
क्या बताती होंगी
दिल को
दिमाग को
पेट को
अंतड़ियों को
कि कब छूटने वाली है
सांसों की गठरी
इन सांसों का क्या भरोसा
हो सकता है
जाने की तैयारी का
एक पल भी न दें
अब इन सांसों से मोह भी नहीं होता
दिखती है हर रोज मौत
कितनी-कितनी बार
इनसे दिल करता है
अब खेलूं
पिट्ठूगरम
टेनिस की बॉल की तरह उठाऊं
उछाल दूं आसमान पर
लिख कर अपना पता
हादसे हर बार खुद अपने करीब ले जाते हैं
रूला जाते हैं
किसी और के हिस्से के आंसू
जब बहते हैं
अपनी आंखों से
तो मन की कितनी परतें जानो कैसे खुल-खुल जाती हैं
कितने दिन रहता है मन मुरझाया सा
हादसे रेतीली जमीन को
और पथरा जाते हैं
मौत से मिला जाते हैं गले
भरोसा नहीं अगले पल का
तब भी इतने सामान का ढोना
मौत के रूदन के सामने
इससे बड़ा हास्य भला और क्या होगा
(यह कविता 30 मई, 2010 को जनसत्ता में प्रकाशित हुई)