नौएडा में एनटीपीसी के ग्रुप ए के इंजीनियरों के एक समूह को उनके चयन की प्रक्रिया के दौरान छोटे शहरों पर टीवी के प्रभावों पर बोलने के लिए कहा गया तो एक बात बहुत जोर से उभर कर आई कि टीवी ने जानकारियां के संसार को तो खोला ही है लेकिन उससे भी बड़ा काम यह किया है कि उसने लोगों के आत्मविश्वास को बढ़ा दिया है।
इस बात की पुष्टि आंकड़े कुछ इस तरह से करते हैं कि छोटे शहरों में टीवी की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार ऊपर की तरफ चढ़ रहा है। हाल ही में ट्राई की तरफ से किया गया सर्वे इसी की तरफ इशारा करता है। सर्वे के मुताबिक जमेशदपुर, रायपुर और कोच्चि में दर्शक करीब 15 चैनल देखते हैं जबकि कटक और गोवाहाटी में एक दिन में 14 चैनल में देखे जाते हैं। अब जरा इनकी तुलना बड़े शहरों से करिए। यह पाया गया है कि बैंगलूरू और दिल्ली के दर्शक आमतौर पर 8 ही चैनल देखते है जबकि चेन्नई में 9 चैनल देखे जाते हैं। इस सर्वे को करते हुए ट्राई की टीम ने अप्रैल में 22 शहरों के 4,400 घरों में जाकर बात की।
दरअसल यह आंकड़े इस बात का संकेत भी देते हैं कि आने वाले समय में शायद टीवी के दर्शकों का दायरा भारत के छोटे शहरों में ही सिमट कर रह जाएगा। इसके साथ ही एक छिपा हुआ संदेश यह भी है कि टीवी के व्यवसाय से जुड़े लोगों को अब टीवी कार्यक्रमों से लेकर खबर तक के चयन में अब इस हिस्से को केंद्र में रखकर ही नीतियां तय करनी होंगीं। इसके लिए चुने हुए लोगों को तो एक खास तरह का मानसिक प्रशिक्षण देना भी होगा, चैनल मालिकों को भी खुद को तैयार करना होगा। टीवी का दर्शक रोज नए तरीके से साक्षर हो रहा है। वह टीवी की शब्दावली और कार्यक्रमों को तैयार करने में होने वाले ड्रामों को बखूबी समझने लगा है। दर्शक यह देख कर हंसता है तो कभी कोफ्त महसूस करता है कि टीवी धारावाहिकों की नायिकाएं रात में भी महंगी साड़ी-ब्लाउज में सोती दिखती हैं, उनके शरीर पर गहने लदे-फदे होते हैं और एक बाल तक अपनी जगह से हिला नहीं होता। वे पूरे मेकअप में होती हैं और हर हाल में हसीन दिखती हैं। ये नायिकाएं रसोई में दिखाई नहीं देतीं और अगर दिख भी जाएं तो वे रसोई के किसी सामान से ज्यादा कुछ लगती नहीं।
तो टीवी के दर्शक के ज्ञान का संसार अब चौड़ा हो रहा है। उसकी मांगें और अपेक्षाएं बढ़ रही हैं। वो खुल कर बोलता है और जानता है कि कौनसी चीज किस खेल के तहत उसे दिखाई जा रही है। इसलिए काम इतना आसान भी नहीं है। ट्राई ने यह तो बता दिया है कि छोटे शहर वाले टीवी खूब देने लगे हैं लेकिन हमारा ध्यान शायद इस तरफ नहीं गया है कि जो चीज अति के करीब होने लगती है, जितनी ज्यादा देखी-सुनी जाती है, उसी में कमियां निकालने की प्रवृत्ति भी बढ़ती है। अब वह समय गया जब दर्शक क्योंकि सास भी कभी बहू थी के प्रमुख नायक मिहिर के मरने पर ऐसा जार-जार होकर रोया था कि एकता कपूर को धारावाहिक में मिहिर की एंट्री दोबारा करानी पड़ी थी(यह बात अलग है कि इसके पीछे टीआरपी की शतरंत की बिसात बिछी थी)। अब दर्शक किसी के आने से उत्सव नहीं मनाता और न ही किसी का जाना उसके शोक की वजह बनता है। दर्शक की चमड़ी अब मोटी होने लगी है और अब उसे एक सीमा के बाद फुसलाया भी नहीं जा सकता।
बहरहाल विज्ञापन के संसार ने तो बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि छोटे शहर का उपभोक्तावाद और तिलस्मीपना कमाल का होता है। इनकी जेब से खूब सिक्के निकाले जा सकते हैं बशर्ते दिखाए जा रहे सपने उनके एकदम करीब हों। न्यूज मीडिया ने इस सच को बेढंगेपन से समझा और वो नाग-नागिन नचाने लगा। मनोरंजन के चैनलों ने भी इस सच को अपनी तरह से समझा लेकिन यहां अभी काफी हद तक गुड़-गोबर ही है।
ट्राई की रिपोर्ट, हो सकता है, समझदारी के कुछ नए दरवाजे खटखटा जाए। कम से कम उम्मीद तो कीजिए ही।
(यह लेख 20 जुलाई, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)