एक लोकगायिका, एक अदाकारा और बड़ी गहरी विरासत। लेकिन असल जिम्मेदारी इससे भी कहीं बड़ी। कंधों पर नया थियेटर का काम और हर शो के बाद दर्शकों की खड़े होकर तालियों की भरपूर गूंज के साथ और बेहतर होते जाने की चुनौती। बेहतर होते जाने की यही बेचैनी नगीन तनवीर को सबसे अलग करती है। दिल्ली में संगीत नाटक अकादमी के आयोजित देश पर्व में चरनदास चोर के मंचन के बाद नगीन से विस्तार से बात करने का मौका मिला।
पहली बार चरणदास चोर में उन्होंने जब अपना कौशल दिखाया, तब साल था 1975 और उनकी उम्र थी 10 साल। आज तक वे इस शो के 1000 से ज्यादा रिहर्सल कर चुकी हैं। इसके बावजूद हर मंचन के दौरान वे एक नई ऊर्जा के साथ मंच पर कदम रखती हैं। लेकिन इसके साथ ही महसूस करती हैं कि कुछ ही सालों में थियेटर परिपक्व हुआ है। हर बार नाटक एक नया मजा देते हैं, हर बार नए मुहावरे गढ़े जाते हैं। जैसे कि इस बार चरनदास चोर में कामन वैल्थ गेम्स पर एक जगह टिप्पणी शामिल की गई और एक जगह पेप्सी कोक संस्कृति पर और इस पर लोग खूब गुदगुदाए।
वे कहती हैं कि दर्शक को सामने बैठ कर नाटक को देखना जितना लुभाता है, उन्हें उतना ही लुभाता है – कलाकारों का अनुशासन और संयम। मंच पर आने से पहले सभी कलाकार पूरी तरह अपने में चरित्र में खोए रहते हैं, जरा भी बात तक नहीं होती। तन्मयता का यह माहौल सबमें ताकत भरता है।
समय के साथ नगीन ने नाटक के तमाम पहलुओं में बदलाव होते देखे। यहां तक की कपड़े और जेवर भी बदलते गए। चरणदास चोर में रानी बनने वाली फिदा बाई पहले जो साड़ी पहनती थीं, वो सूती साड़ी छत्तीसगढ़ की हैंडलूम की होती थी। अब वो साड़ी बनती ही नहीं है। अब रानी गोल्डन साड़ी पहनती है और गोल्ड के ही गहने पहनती हैं।
नगीन बार-बार वो समय याद करती हैं जब उनके पिता हबीब तनवीर 1950 में मुंबई से दिल्ली आए और अपने साथ 6 कलाकार लाए। अपनी पत्नी की मदद से कनाट प्लेस के गैराज में नाट्य यात्रा की नीव डाली लेकिन नगीन को अखरता है कि लग बार-बार पिता का नाम लेते हुए यह भूल जाते हैं कि उनकी मां मोनिका मिश्रा नया थियेटर की जान थीं। हबीब पहले शख्स थे जो कि गांव वालों के साथ थिएटर में उतरे और उन्हें अपने हर कलाकार पर पक्का विश्वास था।
पीपली लाइव में चोला माटी के राम की जोरदार कामयाबी के बाद अब वे नाटकों से दूर रहने वाले आम दर्शकों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुकी हैं। वे फिल्म के निर्देशकों अनूशा और महमूद रिज़वी को आभार देते हुए यह भी मानती हैं कि मुंबई से से बुलावा काफी देर से आया। अब अगर अनूशा-महमूद की तरह और भी निर्देशकों को थियेटर की गूंज लुभाती है तो वे उनसे जुड़ने में एतराज नहीं करेंगी।
नगीन अब अपने सपनों पर काम करने में जुटी हैं। इस समय एक तरफ जगदीश चंद्र माथुर के नाटक कोणार्क और मन्ना भावे साठे के नाटक खामोश जुलूस पर काम चल रहा है तो दूसरी तरफ वे अपने पिता की शायरी, उनकी लिखी स्क्रिप्ट और नाटक सजो कर एक किताब का रूप देने में भी लगी हैं। परिवारवाद में न तो कभी उनके पिता का विश्वास था, न उनका है। वे पिता की विरासत को एक साथ सजोने के बाद पूरी तरह से गायकी में उतर जाना चाहती हैं।
(9 अक्तूबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित)
2 comments:
जानकारीपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार ...
... सुन्दर पोस्ट !
Post a Comment