Featured book on Jail

Leads in Journalism: REP Notes

Nov 3, 2010

गुल्लक

हवा रोज जैसी ही थी

लेकिन उस रोज हुआ कुछ यूं

कि हथेली फैला दी और कर दी झटके से बंद

हवा के चंद अंश आएं होंगे शायद हथेली में

गुदगुदाए

फिर हो गए उड़नछू वहीं, जहां से आए थे

 

फूल भी क्यारी में रोज की तरह ही थे

लेकिन उस रोज जाने क्यों

एक पत्ते को उंगलियों में लिया

किताब की गोद में सुला दिया

लिख दिया उस पर तारीख, महीना, साल

पत्ता इतिहास हुआ पर दे गया कोई सुकून

कि जैसे

इतिहास को बांध लिया हो किताब की कब्र में

 

पल भी कई बार ऐसे ही समेटे कई बार

याद है शादी का वो अलबम

पहली किलकारी की तस्वीरें

होश में आते दिनों के ठुमकते दिन

 

मौसमों को भी कई बार बाहुपाश में समेटा

सर्द दोपहर की घाघरे सी फैली धूप में

बाहर बैठे

कैसे बातें लिपटती गईं थीं

इतिहास की तह में जाकर भी

वो दोपहरें आबाद थीं

 

जाने क्यों इस जीवन को छोड़ने का मन ही नहीं करता

6 comments:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

जिंदगी को खुशहाल करती कविता...।
सकारात्मक सोच के साथ जीवन को एक उत्सव बनाया जा सकता है। हम तो यही संदेश लेकर जा रहे हैं।

संजय भास्‍कर said...

पसंद आया यह अंदाज़ ए बयान आपका. बहुत गहरी सोंच है

संजय भास्‍कर said...

आपको और आपके परिवार को दीपावली की शुभकामनाएं ....

अजय कुमार झा said...

बहुत ही कमाल की रचना ...गुल्लक को एक नए रूप में दिखाया आपने

vandana gupta said...

बेहद सुन्दरता से भावों को संजोया है। संभाल कर रखियेगा इस यादों की गुल्लक को।
दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar said...

मौसमों को भी कई बार बाहुपाश में समेटा
सर्द दोपहर की घाघरे सी फैली धूप में
बाहर बैठे
कैसे बातें लिपटती गईं थीं
इतिहास की तह में जाकर भी
वो दोपहरें आबाद थीं

जाने क्यों इस जीवन को छोड़ने का मन ही नहीं करता
वर्तिका जी, आपकी कविताओं में अभिव्यक्ति के अनेकों रंग दिखाई पड़ते हैं----शब्दों की सरलता और खूबसूरत बिम्ब उन्हें और आकर्षक बनाते हैं। अच्छी कविता।