Dec 19, 2010

2010

 जाते हुए साल से एक पठार मांग लिया है उधार में

पठार होंगें

तो प्रार्थनाएं भी रहेंगी

 

कहा है छोड़ जाए

आंसू की दो बूंदें भी

जो चिपकी रह गईं थीं

एक पुरानी बिंदी के छोर पर

 

कुछ इतिहासी पत्ते भी चाहिए मुझे अपने पास

वो सूखे हुए से

शादी की साड़ी के साथ पड़े

सूख कर भी भीगे से

 

वो पुराना फोन भी

जो बरसों बाद भी डायल करता है

सिर्फ तुम्हारा ही नंबर

 

हां, वो तकिया भी छोड़ देना पास ही कहीं

कुछ सांसों की छुअन है उसमें अब भी

 

इसके बाद जाना जब तुम

तो आना मत याद

न फड़फड़ाना किसी कोने पर पड़े हुए

 

कि इतने समंदरों, दरख्तों, रेगिस्तानों, पहाड़ों के बीच

सूरज की रौशनी को आंचल में भर-भर लेने के लिए

नाकाफी होता है

कोई भी साल

3 comments:

ajay joshi said...

बहुत अच्छा, कुछ नाम तो दो ।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

वो पुराना फोन भी

जो बरसों बाद भी डायल करता है

सिर्फ तुम्हारा ही नंबर

itna yaad aana..........achchha laga.!

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar said...

वर्तिका जी,
इस मुक्तछंद कविता में प्रतीकों-बिम्बों की सुन्दर बुनावट ने भावों को अत्यंत संघनित कर दिया है...अभिधा से दूरी बनाकर रखने का सफल ‘प्रयास’...वो भी ऐसा कि ‘प्रयासहीनता’ झलके...अनुस्यूत/अंतर्गुम्फित सुकोमल भावों, पीड़ा के उष्ण-जलकणों का आँखों से रिसाव, और उस रिसाव से बिन्दी का कमोवेश भीगना, पीर के उन ऐकान्तिक पलों का प्रत्यक्षदर्शी तकिया, आदि की उपस्थिति ने मेरी दृष्टि में इस कविता को महत्त्वपूर्ण बना दिया है...बधाई!

साभिवादन-
जितेन्द्र ‘जौहर’