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Dec 2, 2010

दिखा क्या ?

जो दिखता है वो होता नहीं

जो होता है, वो होता है और कहीं

परियों की कहानियों

यादों के संदूकों में बंद

कहीं छिपा

 

शहर ही की तरह होता है दिल

बड़ा भी, उतना ही कभी तंगदिल भी

 

मकबरे की तरह शिथिल भी

उत्सव की तरह खिल-खिल भी

 

किताब में जिस पत्ते को 1980 में सहेज रख छोड़ा था

उस दिन की याद में

वैसा ही गुमसुम भी

 

झुरझुरी की तरह निजी भी

उस बाल की तरह जिसकी सफेदी

अभी कालेपन के नीचे दबी है

पर वो भी है एक सच

 

चलो, इस सड़क को जरा खींच लिया जाए

बना दिया जाए यहां एक बांध

खोल दिया जाए तितलियों से भरा एक झोला

इत्र की बोतलों की कई सुरमई खुशियां

 

बस, बात सिर्फ इतनी थी

खुशबुओं की तैराई समझने के लिए

मूंदो तो पलकें पल भर को

रोको सांसें

जिंदगी खुद ही सरक आएगी

आंचल के छोर में बंधने

1 comment:

M VERMA said...

शहर ही की तरह होता है दिल
बड़ा भी, उतना ही कभी तंगदिल भी

दिल तो दिल्लगी करता है