रिपोर्टर चांदनी चौक में है और एक दुकानदार के साथ बैठा है। वहां से बताया जा रहा है कि जिस फरसे से राजेश तलवार पर हमला किया गया, वो चांदनी चौक से खरीदा गया था। उसकी कीमत 250 रूपए है। अब पूछा जाता है कि इस फरसे को खरीदा क्यों जाता है। दुकानदार हंसाने वाला जवाब देता है कि इससे सब्जियां काटी जाती हैं, वैसे मांस भी काटा जा सकता है। अगला सवाल है कि क्या ऐसे फरसों का इस्तेमाल हमले करने के लिए भी हो सकता है। अबकी बार जवाब है कि कोई भी किसी भी चीज का इस्तेमाल कैसे भी कर सकता है। यह सब तो इस्तेमाल करने वाले पर निर्भर करता है।
तो राजेश तलवार पर हमले की लाइव तस्वीरें शाम तक चलाने के बाद चैनल साइड स्टोरीज की तरफ जब मुड़ते हैं तो फारसेनुमा कहानियां आने लगती हैं। तलवार पर तीन बार चला फारसा शाम होने तक खबर का केंद्र-सा बनने लगता है, उसका क्लोज अप उसकी विद्रूप धार को दिखा कर डराता है।
ढाई साल से चल रहे आरूषि कांड में यह एक नया मोड़ है। आरूषि की हत्या के बाद परिवार से सहानुभूति, बाद में पिता का नाम उछलने और उन्हें गिरफ्तार किए जाने पर रिश्तों के छिलने, फिर उन्हें रिहा करे जाने पर अपराध बोध और सीबीआई का यह कहकर केस बंद कर देने की अपील कि शक तो पिता पर ही लेकिन पर्याप्त सुबूत नहीं, एक बार फिर रिशेतों के प्रति कड़वे घूंट का अहसास कराते हैं। इन सबके बीच उत्सव का फरसे से हमला करना एक बार फिर तलवार दंपत्ति को सहानुभूति के करीब ले आता है। लोग फारसे को देखते हैं, सहमते तलवार को देखते हैं, पिटते उत्सव को देखते हैं और एक लंबी सांस भरते हैं। अपराध कवरेज का यही मर्म है जो टीवी पर अपराध को बिकाऊ, टिकाऊ और सुखाऊ बनाता है।
उत्सव नेशनल स्कूल आफ डिजाइन का गोल्ड मेडलिस्ट है। पकड़े जाने पर उसने सभी सवालों के जवाब करीने से दिए। राठौर पर हमला करने का बाद भी ऐसा ही हुआ था। तो क्या वो वाकई पागल है।
बेशक अब इस मामले पर दिमागी रस्साकशी होगी लेकिन साथ ही यह घटना यह सोचने के लिए भी कुरचने लगती है कि क्या मीडिया की जरूरत से ज्यादा रिपोर्टिंग, न्याय की बेहद ढिलाई और डर पर पनपता खबर का व्यवसाय सामाजिक सेहत को कमजोर कर रही है। उत्सव पिछले कई दिनों से लगातार न्यूज चैनल देख रहा था। राठौर मामले में भी उसकी गहरी दिलचस्पी रही और बतौर उसकी मां के, वह किसी लड़की पर अत्याचार नहीं देख सकता। एक ऐसा समाज जहां महिला पर अत्याचार फैशन और रोज के खाने जैसा जरूरी कर्म है, वहां उत्सव का यह बयान चौंकाता है।
दरअसल न्यूज मीडिया पहले खबर की तलाश में जुटा रहता है और फिर बड़ी खबर के आने पर और अगली खबर के आने तक मजबूरीवश उसके साथ ऐसा चिपका रहता है कि वह मानस पर हावी ही होने लगता है। जाने कितने उत्सवों ने इस उत्सव का कारनामा देख कर कोई प्रेरणा ली होगी। याद कीजिए बुश, आसिफ अली जरदारी, वेन जियाबाओ, अरूणधति राय और बाद में पी चिदंबरम पर चले जूते। एक जूते ने दुनिया भर में कई लोगों को जूता चलाने का मंत्र सा दे दिया था। बाद में तो हालत यह हो गई कि कई प्रेस कांफ्रेसों में पत्रकारों से अपने जूते बाहर उतारने के लिए कहा जाने लगा। लेकिन जूतों का फेंका जाना पूरी तरह से रूका नहीं और वो डर आज भी बदस्तूर कायम है।
दरअसल जूते हो या फारसे, तस्वीरों के बार-बार के दोहराव से एक मानसिक जमीन को तैयार करते हैं। मीडिया अगर डर के पोषण या डर की तलाश का काम करता है तो जनता भी मीडिया के जरिए अपनी दबी हुई भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति की उम्मीदें पालती है। हताश होता युवा इसका सबसे बड़ा शिकार बनता है क्योंकि उसके पास युवा होने के आई कार्ड के सिवा कुछ नहीं। टीवी पर लगातार दिखने वाली काली तस्वीरें उसे यह मानने के लिए मजबूर करती चलती हैं कि पूरी दुनिया में हर तरफ, हर समय सिर्फ गोरखधंधा ही होता है। यहां शांत करने वाली, सुकून देती, सकारात्मक तस्वीरों की कमी हमेशा रहती है। डर, विद्रोह, विक्षोभ की तस्वीरों का यह पिटारा कभी तो हड़बड़ाते हुए फैसले सुनाए बिना जरा सब्र करे।