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Leads in Journalism: REP Notes

Jan 2, 2011

नव वर्ष में

चलो एक कोशिश फिर से करें

घरौंदे को सजाने की

मैं फिर से चोंच में लाऊंगी तिनके

तुम फिर से उन्हें रखना सोच-विचार कर

 

तुम फिर से पढ़ना मेरी कविता

और ढूंढना अपना अक्स उसमें

 

मैं फिर से बनाउंगी वही दाल, वही भात

तुम ढूंढना उसमें मेरी उछलती-मचलती सरगम

 

मैं फिर से ऊन के गोले लेकर बैठूंगी

फंदों से बनाउंगी फिर एक कवच

तुम तलाशना उसमें मेरी सांसों के उतार-चढ़ाव

 

आज की सुबह ये कैसे आई

इतनी खुशहाल

कुछ सुबहें ऐसी ही होती हैं

जो मंदिर की घंटियां झनझना जाती हैं

 

लेकिन रात का सन्नाटा

फिर क्यों साफ कर जाता है उस महकती स्लेट को

 

चलो, छोड़ो न

छोड़ो ये सब

चलो, किसी पहाड़ी के एक सिरे पर दुबक कर

फिर से सपनों को मुट्ठी में भर लें

चूम लें पास से गुजरते किसी खरगोश को

सरकती हवा को

गुजरते पल को

 

चलो, एक कोशिश और करें

एक बार और   

1 comment:

राजेश उत्‍साही said...

सचमुच कोशिश तो करनी ही चाहिए।