तलाश सब जगह की
लेकिन तुम मठ में मिले
नदी की धार में
गुफा की ओट में
हवा की सरकन में
ओस की बूंद में
हथेली में चुपके उस आंसू में
जो सिर्फ तुम्हारी वजह से ही ढलका था
फिर तलाश क्यों की
भीड़ में इतने साल
खुद भीड़ बन कर
अकेले होकर, अकेले बनकर, अकेलेपन में समाकर
कितने ही मानचित्र घुमड़ आते हैं अंदर
इतने गीले दिन, इतनी सूखी रातें, इतने श्मशान, इतने गट्ठर
अपने अंदर उठाकर चलने की वाकई जरूरत थी क्या
हिम्मत का न होना
न बांध पाना सब्र
संवाद का न बना पाना कोई पुल
दबे-दबे से कितने दबावों में
सबको खुश रखने की कोशिश
ख्वाहिशों को जीतने की जद्दोजहत
खींच ले गई है कितने ही साल
झुर्रियां पीछे छोड़कर
इतना सब होने पर भी पिलपिले होते कागज
उस फूल को अब तक सीने से लगाए धड़क क्यों रहे हैं
जो दशकों पहले के
किसी नर्म अहसास की पुलक थे
इतने साल जीकर भी
जीना सीखा कहां
कब्र पर पांव लटके
तो ख्याल आया
अरे, जाना भी तो था
लेकिन ये जाना भी कोई जाना हुआ
न नगाड़े बजे, न मन की मांग भरी
न पहना कभी खुशी का लहंगा
चलो, जाने से पहले क्यों न
जी लिया जाए एक बार, एक आखिरी शाम
2 comments:
बेहद शानदार।।
बहुत अच्छे
Ajay joshi
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