आह ओढ़नी
ओढ़नी में रंग थे, रस थे, बहक थी
ओढ़नी सरकी
जिस्म को छूती
जिस्म को लगा कोई अपना छूकर पार गया है
ओढ़नी का राग, वाद्य, संस्कार, अनुराग
सब युवती का श्रृंगार
ओढ़नी की लचक सहलाती सी
भरती भ्रमों पर भ्रम
देती युवती को अपरिमित संसार
यहां से वहां उड़ जाने के लिए।
दोनों का मौन
आने वाले मौसम
दफ्न होते बचपन के बीच का पुल है
ओढ़नी दुनिया से आगे की किताब है
कौन पढ़े इसकी इबारत
ओढ़नी की रौशनाई
उसकी चुप्पी में छुपी शहनाई
उसकी सच्चाई
युवती के बचे चंद दिनों की
हौले से की भरपाई
ओढ़नी की सरकन अल्हड़ युवती ही समझती है
उसकी सरहदें, उसके इशारे, उसकी आहें
पर ओढ़नी का भ्रम टूटने में भला कहां लगती है कोई देरी (थी, हूं, रहूंगी कविता संग्रह से)
औरत खुद में रंग है..तमाम रंगों का एक कैनवास। पर इनमें सर्वोपरि है – उल्लास का रंग। वो रचती है। परिवार बसाती है। संगीत उपजाती है और जिंदगी को गतिमान बनाती है। सृष्टि ने उसके रूप में एक चितेरे को पैदा किया है। महिला दिवस इसी चितेरे को सम्मान देने की एक कोशिश है। यह कोशिश पूरी नहीं है। यह भी एक सच है। पूरी होती तो आधी आबादी की हर दूसरी औरत किसी जख्म को छिपाने को मजबूर न होती और न ही उसके आंसू उसकी ओढ़नी के पीछे छिपे होते।
औरत के साथ जो सच हमेशा चले, उनमे उसके लिए तयशुदा कुछ परिभाषाएं भी हैं। सब कुछ सटीक, सार्थक, करीनेदार और दोषमुक्त हो, आदर्शवाद की परिभाषा काफी हद तक इसके आस-पास ही घूमती है। आदर्श जिंदगी के उस मानचित्र की तरह रेखांकित किया जाता है जहां कमी, ग़लत या गफ़लत की कोई गुंजाइश ही नहीं। यह एक अंदरूनी शक्ति के जागृत होने का संकेत है जो इंसान को बेहतरीन करने के लिए ऊर्जावान बना सकता है। यह एक ऐसे रास्ते पर चलने और उस पर टिके रहने की उत्कंठा भी हो सकती है जो दूसरों को भी वैसा ही होने के लिए प्रेरित भी कर दे और वातावरण को खुशनुमा बयार से भर दे।
इस लिहाज़ से आदर्श होने या आदर्श जैसा होने की कोशिश करने में मुझे कोई बुराई नहीं दिखती। किसी भी समाज के लिए इससे आदर्श स्थिति क्या होगी कि उसके समाज में लोग बेहतरीन होने की कोशिश करें और रामराज्य को साकार कर दें लेकिन मजे की बात यह है कि आदर्श की ऐसी तमाम उम्मीदें आम तौर पर महिलाओं से ही की जाती हैं और वे उस पर काफी हद तक खरी भी उतरती हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि एक लड़की शुरू से ही भाव के साथ बड़ी होती है कि उसके पास समय कम है, फिर चाहे वो समय उसके बचपन का हो या फिर यौवन का। यही वजह है कि वह धीरे-धीरे आदर्श की पाठशाला-सी बनती चली जाती है। दरअसल औरत की रगों में जो खून बहता है, उसके पैदा होने से ही, वो उसमें आदर्श होने के तत्व को भरे रखता है। औरत की रूल बुक से नियम कटते नहीं बल्कि नए जुड़ते चले जाते हैं। उसके काम कभी खत्म नहीं होते और जिम्मेदारियों की फेहरिस्त कभी छोटी होती नहीं। वह एक काम निपटाती है तो दूसरा किसी नए कोने से उग कर चला आता है। कामों की यह लंबी लिस्ट उसे समय का प्रबंधन, तनाव पर नियंत्रण और बेहतरीन काम करते जाने की सीख देती चलती है। वह मल्टी टास्किंग करने लगती है। एक साथ कई काम पूरे करीने से करने में वह महारत हासिल करती जाती है। यह एक बड़ी कला है। वह उस चींटी की तरह है जो अपने वज़न से कई गुणा ज्यादा बोझ उठाने में सक्षम है। वह इस सक्षमता को छुटपन में ऐसा आत्मसात करती है कि खुद उसे मालूम नहीं होता कि वो अपने आप में दुर्गा है।
21वीं सदी के इन 11 सालों ने महिला को एक गज़ब के आत्मविश्वास से भर दिया है। सदियों से तमाम षड्यंत्रों के बावजूद महिलाएं लगातार अपने मुक़ाम तय करती चली गईं हैं और अब वे ऐसे मंच भी बनाने लगी हैं जहां उनकी बात कहीसुनी जा सके। महिलाएं अब रूदन की शैली से बाहर आकर ताकत का पर्याय बनती दिखने लगी हैं। इतने बदलावों के बीच अब अगर आदर्शवाद को लादा भी जाता है तो वह स्त्री-पुरूष दोनों ही के लिए कुछ नियम-कायदे लेकर आएगा, कम-से-कम इसका माहौल तैयार होता तो दिख ही रहा है।
फिर महिला ने अब अपने लिए जगह खुद बनानी शुरू कर दी है। बरसों हाशिए पर रहने की आदी रही है वह। उसने समझ लिया कि इसी हाशिए से उसे अपने लिए एक खिड़की बनानी होगी। इसलिए उसने उसे बना डाला। इस खिड़की से वह बाहरी आकाश को देती है और जब चाहती है, अपने पंख पसार कर आकाश को छू आती है। वह हिम्मत का संसार रच रही है। इसमें इंटरनेट के उड़नखटोले ने उसकी भरपूर मदद की है। उसे अपनी आवाज को सामने लाने का मौका मिला है। यहां वह मालिक भी खुद है और संपादक भी।
फिर कानून की नई हदें भी तय हुईं हैं। घरेलू हिंसा के कानून ने खास तौर पर उन महिलाओं के लिए नई जमीन तैयार की है जिन्हें उनके पति घर से बाहर फेंक कर आराम से मुस्कुराया करते थे। घरों से उपेक्षित, कमरों में पिटती और बेटों से अपमानित होती औरत के लिए कानून ने एक छोटे आश्रय का इंतजाम करने की कुछ कोशिश तो की है।
पर इतने भर से ही औरत की जिंदगी खुशहाल नहीं होती। परिवार, समाज या नौकरी में रंगों के संतुलन को बनाए रखने के लिए उसे हर कदम पर एक बड़ी कीमत अदा करनी पड़ती है। औरत को कोई भी रंग मुफ्त में नहीं मिलता पर जब वह सृष्टि को कोई रंग लौटाती है तो खुद वो कोई सौदा नहीं कर पाती। सौदेबाजी न करने की उसकी यह अदा ही उसे अलग बनाती है। दुखों के तमाम पठारों के बीच औरत का टिके होना कोई मजाक नहीं।
इसलिए होली के साथ घुल कर आए इस महिला दिवस में गुलाल का एक टीका उस औरत के नाम पर भी लगाइएगा जिसमें अदम्य शक्ति है, लय, ताल और संगीत है। दुख के विराट मरूस्थल बनाकर देते पुरूष को स्त्री का इससे बड़ा जवाब क्या होगा कि मारे जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुस्कुरा कर कह दे - थी. हूं.. रहूंगी...।