Apr 10, 2012

बड़े घर की बहू

रानियां सपने नहीं देखतीं
उनकी आंखों में सपने तैरते ही नहीं

वे अधमुंदी भारी पलकों से रियासतें
देखती हैं
सत्ताओं के खेल
राजा की चौसर

वे इंतजार करती हैं
अपने चीर हरण का
या फिर आहुति देने का

वे जानती हैं
दीवार के उस पार से होने वाला हमला
उन्हें ही लीलेगा पहले

पर वे यह भी जानती हैं
गुलाब जल से चमकती काया
मालिशें
खुशबुएं
ये सब चक्रव्यूह हैं

वे जानती हैं
पत्थर की इन दीवारों में कोई रोशनदान
नहीं
और पायल में दम नहीं

चीखें यहीं दबेंगीं
आंसू यहीं चिपकेंगें
मकबरे यहीं बनेगें
तारीखें यहीं बदलेगीं
पर उनकी किस्मत नहीं
रानियां बुदबुदाती हैं
गर्म दिनों में सर्द आहें भरतीं हैं
सुराही सी दिखकर
सूखी रहती हैं – अंदर, बहुत अंदर तक

राजा जानते ही नहीं
दर्द के हिचकोले लेती यही आहें
सियासतों को, राजाओं को
मिट्टी में मिला देती हैं

राजा सोचा करते हैं
दीवारें मजबूत होंगी
तो वे टिके रहेंगें

राजा को क्या पता
रानी में खुशी की छलक होगी
मन में इबादत
हथेली में सच्चे प्रेम की मेहंदी
तभी टिकेगी सियासत

रानियां सब जानती हैं
पर चुप रहती हैं
उनकी आंखों के नीचे
गहरे काले धब्बे
भारी लहंगे से रिसता हुआ खून
थका दिल
रानी के साथ चलता है
तो समय का पहिया कंपकंपा जाता है

सियासतें कंपकंपा जाती हैं
तो राजा लगते हैं दहाड़ने
इस कंपन का स्रोत जानने की नजाकत
राजा के पास कहां है भला

रानियां जो जानती हैं
वे राजा नहीं जानते
न बेटे
न बंदियां

हरम के अंदर के हरम के अंदर हरम
तालों में
सींखचों में
पहरे में

हवा बाहर ठहरती है
सुख भी
परमानंद भी

रानियां सब जानती हैं
पर मुस्कुराती हैं
मुस्कुराहट चस्पां है
बाकी भाव भी बाहर हैं पत्थरों की
दीवारों के
दफन होंगे यहीं

रानियां जानती हैं
चाहे कितने ही लिखे जाएं इतिहास
फटे हुए ये पन्ने उड़ कर बाहर जा नहीं
पाएंगें

रानियों के पास कलम नहीं है
सत्ता नहीं
सुख नहीं

पर उनके पास सच है
सच के तिनकों की चाबी भी
राजा के ही पास है

हां, रानियां
सब जानती हैं

Apr 5, 2012

थी. हूं.. रहूंगी... - पटना पुस्तक मेले में: वर्तिका नन्दा की किताब

आभार। आप सभी का। पटना का। जो प्यार आपने थी हूं रहूंगी को दिया, वह लंबे समय तक याद रहेगा। आप सबने अवसर को यादगार बना दिया। फिर वहां मौजूद पाठक, प्रेस के अपने साथी जिनका स्नेह छू गया।
पटना आकर आशीर्वाद लेना था। आप सबने भरपूर दिया। इसलिए आप सबको नमन।
इस यात्रा में आप सबने कई दीये रख दिए हैं। इसका अहसास बहुत गहरे तक है मुझे। इस यात्रा को आप सबने कई अर्थ दिए हैं। यह अर्थ अब मुझे अपने लिए नई पगडंडियों को तराशने में मदद करेंगें।
राजकमल की पूरी टीम के लिए भी मैं नतमस्तक हूं। कविताएं कुछ पन्नों में बंद ही रह जातीं, अगर आप सब न होते।

आभार। आभार। आभार
वर्तिका नन्दा

Apr 4, 2012

लोकजीवन, बाजार और मीडिया

-संजय द्विवेदी
लोकमीडिया के लिए एक डाउन मार्केट चीज है। लोकका बिंब जब हमारी आंखों में ही नहीं है तो उसका प्रतिबिंब क्या बनेगा। इसलिए लोक को मीडिया की आंखों से देखने की हर कोशिश हमें निराश करेगी। क्योंकि लोकजीवन जितना बाजार बनाता है, उतना ही वह मीडिया का हिस्सा बन सकता है। लोक मीडिया के लिए कोई बड़ा बाजार नहीं बनाता, इसलिए वह उसके बहुत काम का नहीं है। मीडिया के काम करने का अपना तरीका है, जबकि लोकजीवन अपनी ही गति से धड़कता है। उसकी गति, लय और समय की मीडिया से संगति कहां है। अगर मीडिया लोकजीवन में झांकता भी है तो कुछ कौतुक पैदा करने या हास्य रचने के लिए। वह लोकजीवन में एक कौतुक दृष्टि से प्रवेश करता है, इसलिए लोक का मन उसके साथ कहां आएगा। लोक को समझने वाली आँखें और दृष्टि यह मीडिया कहां से लाएगा। लोकको विद्वान कितना भी जटिल मानें, उत्तरआधुनिकतावादी उसे अश्पृश्य मानें, किंतु उसकी ताकत को नहीं नकारा जा सकता।
बाजार की ताकतों के लिए यह लोक एक चुनौती सरीखा ही है। इसलिए वह सारी दुनिया को एक रंग में रंग देना चाहता है। एक भाषा, एक परिधान, एक खानपान, एक सरीखा पश्चिम प्रेरित जीवन आरोपित करने की कोशिशों पर जोर है। यह सारा कुछ होगा कैसे ? हमारे ही लोकजीवन को नागर जीवन में बदलकर। यानि हमला तो हमारे लोक पर ही है। सारी दुनिया को एक रंग में रंग देने की यह कोशिश खतरनाक है। राइट टू डिफरेंटएक मानवीय विचार है और इसे अपनाया जाना चाहिए। हम देखें तो भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँवों यानि हमारे लोकजीवन में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार और हमारा लोकजीवन एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकजीवन में स्थापित लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारत का लोकजीवन और हमारे गांव अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं। मीडिया विश्लेषक जगदीश्वर चतुर्वेदी इस खतरे का इशारा करते हैं- लोककला में दैनिक जीवन के अनुभवों की गहरी छाप होती है।यह पूर्व औद्योगिक समाज की संस्कृति है। यह सामूहिक कला है। इसमें विभिन्न पाठान्तरों और रूपांतरों की अभिव्यक्ति मिलती है। औद्योगिक सभ्यता के कारण इसे गंभीर क्षति का सामना करना पड़ा। औद्योगिक सभ्यता के युग में लोकसंस्कृति का क्षय अनिवार्य एवं अपरिहार्य है। इसमें लोकवादी संस्कृति के प्रतिरोध करने की क्षमता नहीं है। 1
आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ लोक की संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। लेखक अभिज्ञात लिखते हैं-लोकतत्व का इधर बाजार को ध्यान में रखकर पूरी दुनिया में अध्ययन हो रहा है। वह दुनिया भर के बाजारों के लिए ग्लैमर का विषय है। दुनिया भर के बाजार जानना चाहते हैं कि देश किस प्रांत का लोकजीवन क्या है। उसके सपने और आकांक्षाएँ क्या हैं। क्योंकि यही तो वह है जिसकी ओर उनकी निगाह है। वहां क्या बेचा जा सकता है और वहां से सस्ता क्या उगाहा जा सकता है। ”2
नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत और लोकजीवन की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि भारत के लोकजीवन में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय लोकजीवन समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्योंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय लोकजीवन की भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह लोकजीवन एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं। भारत के लोकजीवन में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?
बावजूद इसके कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो लोकमें ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। प्रो. कुंवरपाल सिंह लिखते हैं- हिंदी में लोक और कविता का गहरा संबंध रहा है। कविता को कुलीन बनाने के भी बराबर प्रयास होते रहे हैं। दरबारी काव्य को हम कुलीन और भद्रजनों के साहित्य की श्रेणी में रखते हैं। लोक काव्य और कुलीन काव्य के बीच निरंतर संघर्ष रहा है। यह अध्ययन दिलचस्प है कि अपने समय में कुलीन साहित्य ने लोकसाहित्य को हमेशा हाशिए पर रखने का प्रयास किया है। उसके ऊपर प्रचारवादी, कलाहीन, विद्वेष फैलाने वाले आरोप बराबर लगते रहे हैं।3 भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या पिछले सालों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। हबीब तनवीर जैसे लोगों ने लोक की इस ताकत को पहचाना। वे कहते हैं-विश्वग्राम की कल्पना में पूरे संसार को एक ही लाठी से हांककर विकास के रास्ते पर दौड़ाना ठीक नहीं है। हर देश की तासीर अलग होती है, जीने की, आगे बढ़ने की जुदा शर्तें होती हैं। भारत के पास तो हर तरफ प्रगति करने के परंपरागत सांस्कृतिक संसाधन हैं। ज्ञान और प्रतिभा में इस मुल्क की भला किसी से क्या तुलना हो सकती है।.....भूमंडलीकरण से होने वाले सांस्कृतिक आघात से दो-दो हाथ करने में हम आज भी नाटक का इस्तेमाल कर रहे हैं। हमारे सारे औजार लोक की जमीन से तैयार हुए हैं।4
जाहिर तौर पर लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोकका हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविरायकहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोकको नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बोनाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। मीडिया विश्लेषक प्राजंल धर कहते हैं- आज संस्कृति का लोकपक्ष कुछ द्वंदों से ग्रसित है। इसमें गांव और शहर के द्वंद, शिक्षित-अशिक्षित के द्वंद तथा भारतीय लोकभाषाओं व तथाकथित ग्लोबल भाषा अंग्रेजी के द्वंद कुछ प्रमुख द्वंद हैं। वास्तव में हमारे पश्चिमीकरण ने पश्चिम की अनाप-शनाप बातों तक को प्रोत्साहित किया है और अपनी सुंदरतम शैलियों तक को त्याज्य घोषित किया है।5
आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोककी उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।
संदर्भः
1.चतुर्वेदी जगदीश्वरः जनमाध्यम और मास कल्चरः1996 सारांश प्रकाशन, दिल्ली, पेज-49
2.अभिज्ञातः लोकतत्वः कुछ नोट्सः मड़ईः2009,बिलासपुर संपादकः कालीचरण यादव, पेज-37
3. सिंह कुंवरपालः संप्रेषण (15), पेजः 136-137
4. उपाध्याय विनय( हबीब तनवीर से संवाद पर आधारित लेख)- नए वक्ती दौर से हमें अपना सांस्कृतिक आत्मविश्वास ही उबारेगाः मड़ईः2009, बिलासपुर, संपादकः कालीचरण यादव, पेज 138
5. धर प्रांजलः लोकसंस्कृति और उसका विमर्शः मड़ईः2009,बिलासपुर संपादकः कालीचरण यादव, पेज-09
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)