Jun 8, 2012
Jun 6, 2012
Jun 5, 2012
माह की कवियत्री- वर्तिका नन्दा
सौभाग्यवती भव !
इबादत के लिए हाथ उठाए
सर पर ताना दुपट्टा भी
पर हाथ आधे खाली थे तब भी
बची जगह पर
औरत ने अपनी उम्मीद भर दी
जगह फिर भी बाकी थी
औरत ने उसमें थोड़ी कंपन रखी
मन की सीलन, टूटे कांच
और फिर
आसमान के एक टुकड़े को भर लिया
मेहंदी की खुशबू भी भाग कर कहीं से भर आई उनमें
चूड़ियां भी अपनी खनक के अंश सौंप आईं हथेली में
सी दिए सारे जज्बात एक साथ
उसके हाथ इस समय भरपूर थे
अब प्रार्थना लबों पर थी
ताकत हाथों में
क्या मांगती वो
खट्टा-मीठा
मीठा खाने का मन था आज भी
कुछ खट्टे का भी
अंगूर सा उछलता रहा मन
नमकीन की तड़प भी अजनबी थी
शाम होते-होते
थाल मे नीम के कसौरे थे
कुनबे को परोसने के बाद
स्त्री के हिस्से यही सच आता है
उत्सव
किसी एक दिन की दीवाली
एक होली
एक दशहरा
मैं क्यों जोड़ू अपने सपनों को किसी एक दिन से
एक दिन का फादर्स डे
एक दिन का मदर्स डे
एक दिन की शादी की सालगिरह
मांगे हुए उत्सव
या कैलेंडर के मुताबिक आते उत्सव
सरकारी छुट्टी की कमी भर सकते हैं
खाली पड़े पारिवारिक तकियों में रूई भी
पर अंतस भी भरे उनसे जरूरी नहीं
अपना उत्सव खुद बनना
अपनी होली खुद
अपनी पिचकारी
अपनी रंगोली भी
किसी सूखे पत्ते पर
दो बूंद पानी की डाल
किसी पेड़ की डाल से चिपक कर संवाद
और किसी खाली मन में सपनों के तारे भर कर
बुनी चारपाई पर बैठ
चांद को देखा जो मैनें
तो उत्सव कहीं दूर से उड़ कर
गोद में आ बैठे
मैं जानती हूं
ये उत्सव तब तक रहेंगे
जब तक मेरे मन में रहेगा
सच
आबूदाना
पता बदल दिया है
नाम
सड़क
मोहल्ला
देश और शहर भी
बदल दिया है चेहरा
उस पर ओढ़े सुखों के नकाब
झूठी तारीफों के पुलिंदों के पुल
दरकते शीशे के बचे टुकड़े
उधड़े हुए सच
छुअन के पल भी बदल दिये हैं
संसद के चौबारे में दबे रहस्यों की आवाजें भी
खंडहर हुई इमारतों में दबे प्रेम के तमाम किस्सों पर
मलमली कपड़ों की अर्थी बिछा देने के बाद
चांद के नीचे बैठने का अजीब सुख है
सुख से संवाद
चांद से शह
तितली से फुदक मांग कर
एक कोने में दुबक
अतीत की पगडंडी पर
अकेले चलना हो
तो कहना मत, खुद से भी
खामोश रास्तों पर जरूरी होता है खुद से भी बच कर चलना
इस मरूस्थल में
उन दिनों बेवजह भी बहुत हंसी आती थी
आंसू पलकों के एक कोने में डेरा डालते पर
बाहर आना मुमकिन न था
मन का मौसम कभी भी रूनझुन हो उठता
उन दिनों बेखौफ चलने की आदत थी
आंधी में अंदर एक पत्ता हिलता तक न था
उन दिनों शब्दों की जरूरत पड़ती ही कहां थी
जो शरीर से संवाद करते थे
उन दिनों
सपने, ख्वाहिशें, खुशियां, सुकून
सब अपने थे
उन दिनों जो था
वो इन दिनों किसी तिजोरी में रक्खा है
चाबी मिलती नहीं
पुश्तैनी मकान
सड़क किनारे खड़ी औरत
कभी अकेले नहीं होती
उसका साया होती है मजबूरी
आंचल के दुख
मन में छिपे बहुत से रहस्य
औरत अकेली होकर भी
कहीं अकेली नहीं होती
सींचे हुए परिवार की यादें
सूखे बहुत से पत्ते
छीने गए सुख
छीली गई आत्मा
सब कुछ होता है
ठगी गई औरत के साथ
औरत के पास
अपने बहुत से सच होते हैं
उसके नमक होते शरीर में घुले हुए
किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का
सहारे की तलाश में
मरूस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत
सांस भी डर कर लेती है
फिर भी
जरूरत के तमाम पलों में
अपनी होती है
मरजानी
असल नाम
शादी के कार्ड पर लिखा था
काग़ज़ी ज़रूरतों के लिए
कभी-कभार काम आया
फिर पड़ गया पीला
नाम एक ही था उसका-
मरजानी.!
तो सुनो कि अंत क्या हुआ
कि देखो आख़िर
आज मर ही गई मरजानी
तब भी चैन नहीं
देह से झांक कर देख रही है तमाशा
कुनबुना रहे हैं पति
बेवजह छूट गया दफ़्तर
सोमवार के दिन ही
बच्चों की छटपटाहट-
काश मरतीं कल शाम ही
नहीं करनी पड़ती तैयारी इम्तहान की
अब कौन लाए फूलों की माला
नई चादर, नए कपड़े
इस तपती धूप में
कौन करे फ़ोन कि
आओ मरजानी पड़ी है यहां
देख जाओ जाने से पहले कि
तुम्हें पता लगेगा नहीं
वो मरी कि मारी गई
मरजानी जानती है
नौकरानी को नहीं मिल रहा
हल्दी का नया पैकेट
पति को अपनी बनियान
बेटे को अपनी ही छिपाई सीडी
घर को अपनी रोज की आदतों का सामान
कैसे बताए मरजानी
घर के किन कोनों में
सरकी पड़ी हैं ये सारी ज़रूरतें
मरजानी तो अभी भी है
पुराने कपड़ों में लिपटी हुई
बैठक के एक कोने में पटकी हुई
हां, मौत से पहले
अगर तैयार कर लिया होता ख़ुद ही
बाक़ी का सामान
तो न होता किसी का सोमवार बेकार
कौन जाने
आसान नहीं होता मरजानी होना
नक़ली हंसी हंसते हुए मरना
दीवालियों या नए सालों के बीच मरना
चुपके से मरना
हौले-हौले से मरना
दब-दब कर मरना
और मरना
यह मरना सोमवार को कहां हुआ
मरना तो कब से रोज़-रोज़ होता रहा
मरजानी को ख़बर थी
घर की दीवारों को
रंगों को
चिटकनियों को
बर्तनों को
गीले तकियों को
बस उसे ही ख़बर नहीं थी
जिसका हो गया सोमवार बेकार
कौन हूं मैं
इस बार नहीं डालना
आम का अचार
नहीं ख़रीदनी बर्नियां
नहीं डालना धूप में
एक-एक सामान
नहीं धोने खुद सर्दी के कपड़े
शिकाकाई में डाल कर
न ही करनी है चिंता
नीम के पत्ते
ट्रंक के कोनों में सरके या नहीं
इस बार नींबू का शरबत भी
नहीं बनाना घर पर
कि खुश हों ननदें-देवरानियां
और मांगें कुछ बोतलें
अपने लाडले बेटों के लिए
नहीं ख़रीदनी इस बार
गार्डन की सेल से
ढेर सी साड़ियां
जो आएं काम
साल भर दूसरों को देने में
इस साल कुछ अलग करना है
नया करना है
इस बार जन्म लेना है
पहली बार सलीक़े से
इस बार जमा करना है सामान
सिर्फ़ अपनी ख़ुशी का
थोड़ी मुस्कान
थोड़ा सुकून
थोड़ी नज़रअंदाज़ी और
थोड़ी चुहल
लेकिन यही प्रण तो पिछले साल भी किया था न
कवितागिरी
रोटी बेलते हुए लगा
ज़िंदगी का फ़लसफ़ा गोल है
रोटी जली
तो लगा, बे-स्वाद
रोटी से माटी की ख़ुशबू आई
मन ने कहा, ज़िंदगी जीने की चीज़ है
दरअसल सब कुछ रोटी के क़रीब ही रहा
दिल के भी
बिना दिल के बनी रोटी
जैसे बेमन सांस लेती उतरती ज़िंदगी
यह तो वैसे ही है
जैसे दिमाग़ से लिखना कविता
क्यों भेजूं स्कूल
नहीं भेजनी मुझे अपनी बेटी स्कूल
नहीं बनाना उसे पत्रकार
क्या करेगी वह पत्रकार बनकर
अगर नाम कमा लेगी तो नहीं बन पाएगी पूरी औरत।
तालीम कहां सिखाएगी उसे
कि वह मर्द की जमीन है
उसका आसमान नहीं।
क्यों भेजूं उसे स्कूल
इसलिए कि वह सपनों की रंगीन पतंग उड़ाना सीखे
और पतंग उडने से पहले ही फट जाए।
नहीं, मुझे उसे पढ़ी-लिखी नहीं बनाना
मैं तो उसे खून के आंसू पीना सीखाऊंगी
तालीम यही है
बहूरानी
बड़े घर की बहू को कार से उतरते देखा
और फिर देखीं अपनी
पांव की बिवाइयां
फटी जुराब से ढकी हुईं
एक बात तो मिलती थी फिर भी उन दोनों में -
दोनों की आंखों के पोर गीले थे
कविता में इन दिनों- -ओम निश्चल
स्त्री की सत्ता को लेकर अरसे से कविताऍं लिखी जा रही हैं। वर्तिका नंदा ने स्त्री अपराध पर अपनी कविताओं को एकाग्र किया है। पर सच कहा जाए तो वर्तिका उन समस्त परिस्थितियों पर निगाह डालती हैं जो स्त्री के लिए एक कड़वे रसायन का पर्याय बन जाती हैं। कवयत्रियों के बीच वर्तिका नंदा को इन दिनों बेहद उत्सुकता से पढ़ा जा रहा है। लेखनी में माह की कवियत्री की तरह प्रस्तुत सभी कविताऍं उनके हाल के संग्रह 'थी हॅूं रहूँगी' से ली गयी हैं। प्रस्तुत है उसी पुस्तक पर एक नज़र -
थी हूँ रहूँगी
वर्तिका नंदा
राजकमल प्रकाशन,
1 बी, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज , नई दिल्ली
मूल्य: 250 रुपये।
कुछ अरसे से कवियों की जमात में शामिल वर्तिका नंदा की कविताऍं यदा कदा पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को मिलती रही हैं। पेशे से पत्रकारिता से जुड़ी वर्तिका की ऑंखों ने जो कुछ देखा-सुना है, वह उनके लेखन में उतरा है। वे स्तंभ लिखती रही हों, या कविताऍं, उनका ताना बाना आम जिन्दगी को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर केंद्रित रहा है। अरसे से होते चले आ रहे स्त्री विमर्श के बीच उन्होंने महिला अपराध पर केंद्रित कविताओं की एक पूरी पुस्तक ‘थी हूँ रहूँगी’ ही प्रकाशित की है जिसमें उन्होंने जमाने से सताई जाती स्त्री को अपराध के आईने में देखने की कोशिश की है। हालॉंकि ये कविताऍं अपने परिभाषित दायरे का अतिक्रमण भी करती हैं।
एक एक शब्द सूत की तरह कातता है कवि तब कहीं जाकर चित्त को जँचने वाला परिधान बन पाता है। वर्तिका के सुकोमल कवि-चित्त पर यथार्थ की जो खरोचें पड़ी हैं, उन्हें उन्होंने कतरा कतरा सहेजा है। मैं समझता हूँ स्त्री विमर्श के कोलाहल और कलरव के बीच इन कविताओं की अपनी जगह होगी। हमें पता है कि वे जिन सच्चाइयों से रू बरू होती हैं, लोग नहीं होते। वे कैमरे का सच देखते हैं। कैमरे के नेपथ्य की करुणा और ध्वंस का सच कवि की ऑंखें देखती हैं। खबर कविता नही होती। वह महज एक बाइट होती है। कविता न्यूज स्टोरी की तरह क्षणभंगुर नहीं होती, वह हमारी चेतना की भित्ति पर एक अमिट छाप छोड़ जाती है। इतने दिनों की पत्रिकारिता के बीच की दबी छुपी चीख जब कविता में उतरती है तो उसका रंग बदल चुका होता है।हम उन्हीं रंगों से मुतस्सिर होते हैं जो कविता की अपनी अस्थि मज्जा में रच बस कर तैयार होते हैं। वर्तिका की कविताओं में यथार्थ के ऐसे ही रंग हैं।
‘थी हूँ रहूँगी’ पढ़ते हुए एक कविता ‘कुछ जिन्दगियॉ कभी सोती नहीं’ पर दीठ ठहर गयी। कविता अपने आप कहती है, उसे किसी की बॉंह गहने की जरूरत नहीं होती। यह जीवन संसार का एक ऐसा अलक्षित कोना है जहॉं कवयित्री की निगाह गयी है। यह कोना ऐसी स्त्रियों का है जिनकी नींदें अरसे से उड़ी हुई हैं। वे सोती हुई रातों में भी जागने को विवश हैं जैसे ऊँघती रातों में भी जागती हुई सड़कें। स्त्री और सड़क का यह साझा दुख कवयित्री को सालता है। देखें यह पूरी कविता:
कुछ शहर कभी नही सोते
जैसे कुछ जिन्दगियॉं कभी सोती नहीं
जैसे सड़कें जागती हैं तमाम ऊँघती हुई रातों में भी
कुछ सपने भी कभी सोते नहीं
वे चलते हैं
अपने बनाए पैरों से
बिना घुँघुरुओं के छनकते हैं वे
भरते हैं कितने ही ऑंगन
कुछ सुबहों का भी कभी अंत नहीं होता
आंतरिक सुख के खिले फूलदान में
मुरझाती नहीं वहॉं कोई किरण
इतनी जिन्दा सच्चाइयों के बीच
खुद को पाना जिन्दा, अंकुरित,सलामत
कोई मजाक है क्या।
स्त्री पर लिखने वाले बहुतेरे हैं। गगन गिल की कविताऍं हों या अनीता वर्मा की, सविता सिंह की हों या अनामिका की, उदासियों का संसार यहाँ काफी गुलजार है। कहीं कहीं थोड़ी रुनझुन निर्मला गर्ग और अनामिका के यहॉं मिलती है पर कुल मिला कर जो स्त्रियॉं कविताऍं लिख रही हैं, उनसे बनने वाली स्त्री-समाज की तस्वीर निराश करने वाली है। सदियों से पुरुष वर्चस्व के बीच सॉंस लेती, समझौता करती, घर गिरस्ती सँभालती स्त्री को वह क्षितिज कहॉं मिल सका जहॉं वह पूरी तसल्ली से एक पल की भी विश्रांति पा सके। शहरी स्त्रियॉं हों, या ग्रामीण, वे सुबह होते ही काम में जुत जाती हैं। तालीम और अवसर के तमाम सँकरे रास्तों से गुजरती अपनी शख्सियत की बेहतरी के लिए संघर्ष करती स्त्रियों की संख्या आज भी कितनी कम है। आज भी वे अपने सपने खुद नहीं देखतीं। उन्हें शायद इसका अधिकार भी नहीं। ऐसे हालात में वर्तिका के भीतर की समव्यथी कवयित्री स्त्री अपराध पर समाचार बाइट बटोरते हुए कब कविता की गलियों में बिलम गयी, नहीं मालूम। हॉं, वे भूमिका में लिखती हैं: ‘कविताऍं हमेशा मन के करीब रहीं, साथ साथ चलीं, ओढ़नी बनीं और तकिया भी।...अपराध पर रोज की रिपोर्टिंग के बीच आत्मा भी रोज उधड़ती जाती।‘ सच कहें तो इन कविताओं में आत्मा की सींवनें उधड़ी हुई ही दिखती हैं।
अचरज नहीं, कि हर वक्त भूमंडल में स्त्रियों पर तरह तरह के अत्याचार आजमाए जा रहे हैं। सारी गालियॉ स्त्रियों के नाम पर हैं, कहीं छल से, कहीं बल से, कहीं धर्म से, कहीं अंधविश्वास से उनके आत्मविश्वास को तोड़ने की कार्रवाई चल रही होती है। कुछ कविताएं पढ़ कर हैरानी होती है कि किस तरह अपने आंसुओं को जमींदोज कर कवयित्री ने उन्हें लिखा होगा। जैसे कि निज की पीड़ा भी उनमें अनुस्यूत हो। संग्रह की पहली कविता ‘नानकपुरा कुछ नही भूलता’ तो जैसे इस पूरे संग्रह के मिजाज का आधार वक्तव्य है—सताई जाने वाली स्त्रियों की पीड़ा का गोमुख। अपने ऊपर अत्याचारों की तहरीर के साथ नानकपुरा थाने की महिला अपराध शाखा के बाहर बैठी नाना किस्म के दुखों से त्रस्त इन स्त्रियों को न तो दाम्पत्य का भरोसेमंद क्षितिज मिला, न स्वाभिमान से जीने का अधिकार। ‘मरजानी’ एक अन्य कविता है जिसमें औरत की मौत किसी की संवेदना में हलचल तक नहीं पैदा करती, शोक मनाने की कौन कहे ! वर्तिका की इन कविताओं के हवाले से तो बल्कि यह कहा जा सकताहै कि भला कौन स्त्री होगी जो किसी भी तरह के अपमान, तिरस्कार ,लांक्षन और बेवफाई से पीड़ित न होगी। दुखों की महीन से महीन आहट को अपने सीने में समेटे स्त्रियों का संसार सुख के एक विश्रांति भरे पल के लिए तड़पता है। सदियों से स्त्री इसी खुशनुमा पल की तलाश में है। उसके दुखों की प्रजाति किस्म किस्म की है। पुरानी बिंदी के छोर पर छलक आए ऑंसुओं के कतरे हों या तकिए में छूट गयी सॉंसों की छुवन, स्त्री का दुख कवयित्री से अदेखा नहीं रहता। उसके सपनों ओर नेलपालिश तक में कहीं न कहीं एक अटूट रिश्ता है।
वह क्या है जिससे वंचित स्त्री किसी सुख के एक नन्हें से कतरे के लिए बेचैन रहती है। वह कौन है जिसके लिए उसके भीतर प्रेम का पारावार भरा होता है, वह क्या है जिसे टांकने के लिए वह कविताओं का आश्रय लेती है। अनामिका की एक कविता कहती है: वह रोटी बेलती है जैसे पृथ्वी। वर्तिका कहती हैं: हर औरत कविता लिखती है और करती है प्रेम/ वो सेंकती है रोटी/ उसमें होता है छंद। बकौल कवयित्री उसकी कविता भले कोई छापे न छापे, वह सीधे रब के पास छपती है। ऑंसुओं की बूँदों के अनेक रूपक वर्तिका ने यहॉं बुने हैं। स्त्री के अंत:पुर की उदासियों का आख्यान इन कविताओं में छिपा है। वर्तिका महसूस करती हैं स्त्री किसी भी ओहदे पर हो, उसका मिजाज बेशक फौलादी हो, पर आखिरकार तो वह औरत ही है। वह देर से जान पाती है कि औरत और आंसू दोनों एक दूसरे के पर्याय हें। स्त्री अपने अतीत को भूल नही पाती,बल्कि उसके साथ जीवन भर सफर करती है। जबकि पुरुष का कोई अतीत नहीं केवल वर्तमान होता है। स्त्री के लिए घरौंदा है, सपने हैं, ऊन के गोले जैसी ख्वाहिशें हैं, नीड़ के निर्माण की फिर-फिर कोशिशें हैं, क्या भूलूँ क्या याद करूँ की कश्मकश है जब कि पुरुष अपने वर्चस्व में सब कुछ भूला हुआ होता है। स्त्री के मन का मानचित्र बहुत दुर्लंघ्य होता है। ‘अन्तस’ की पंक्तियॉं हैं: ‘अपने अंदर झॉंका/ तो कभी प्यार का एवरेस्ट दिखा/ कभी नफरत का आर्केटिक/ कल ही झांका तो चेरापूँजी की बारिश से भीगी/ थोड़ी देर बाद मिली सहारा की तपन।‘ तमाम यात्राओं के बदले उसे दिल के भीतर चलने वाली यात्रा से बड़ी कोई यात्रा नहीं लगती पर वह भी तब, जब दिल में हो प्रेम, होठों पर कविता, तन में थिरकन और सांसों में कल्पना।
इन कविताओं में आंसुओं का नमक इतना पुरअसर है कि हर कविता जैसे स्त्री का शोकपत्र हो जिसका वाचन कवयित्री कर रही हो। पर हर शोक कविता बन जाए, हर ऑंसू छंद में ढल पाए जरूरी नहीं, फिर भी इन कविताओं के तलघर में धँसने पर एक भय-सा होता है। यह जो आसपास की आबोहवा में स्त्रियों की खिलखिलाहटों का संसार है वह यहॉं कितना नदारद है। यहॉं तो जैसे समरभूमि में हताहत पड़े निष्कवच सपने हैं, ख्वाहिशें हैं, खिलखिलाहटें हैं---एक नीरवता जैसे यहॉं भीतर के सन्नाटे को रच रही हो। ऐसा तब संभव होता है जब अपना आपा कविताओं में रच बस जाए। किसी कवि ने कहा है कविताएँ ही कवि का वक्तव्य होती हैं। यहॉं कवयित्री भी कुबूल करती है ‘ये कविताऍं नहीं, आत्मकथा है जिसमें उसकी ही आत्मा है, उसका ही कथन। इन्हें प्रकाशक की जरूरत नहीं।‘ ‘बहूरानी’ कविता में नौकरानी और मालकिन दोनो छुपाती हैं अपनी चोटों के निशान ---कहते हुए क्या बखूबी दर्द की निशानदेही की है कवयित्री ने। दोनों में एक सादृश्य है कि दोनों की ऑंखों के पोर गीले हैं। चकित है दु:ख दोनों को देख कर। यों तो और भी कविताऍं हैं यहॉं जो आत्मनेपद की पीड़ा से परे जाकर शादीशुदा स्त्री से किये जाने वाले सवालों(बेमतलब सवाल) और उपेक्षिता उर्मिला(उर्मिला) की बेकदरी पर रंज प्रकट करती हैं। फिर भी कुल मिला कर कवयित्री का यह कहना कि ‘मै अपनी कविता खुद हूँ’---यह जताता है कि कविता कागज पर उतरे न उतरे एक मरहम का काम तो करती ही है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया की अपराध बीट को कवर करने वाले सभी पत्रकार कवि नही होते। वे रिपोर्ट की आत्मा में धँस कर कविता की किरचें नहीं बटोरते। वे दुख को एक उत्पाद के रूप में पेश करने में पेशेवराना रुख अख्ितयार करते हैं। कविता खबर के प्रवाह में कहीं बह जाती है। वर्तिका ने रिपोर्टिंग के दौरान स्त्रियों की जो दुनिया देखी, जिन ऑंसुओं का साक्षात्कार किया, उसे अपने भीतर की स्त्री-संवेदना के साथ जोड़ा तो जैसे परस्पर साधारणीकरण का एक विलक्षण सामंजस्य जान पड़ा। इसीलिए उन प्रसंगों में कवयित्री ने ज्यादा कामयाबी पाई है जिनमें उसके अंत:करण का अपना सुख-दुख भी छलक छलक आया है। कविता कभी अपने बयान में घटित होती है, कभी अपने अहसास में, कभी भाषाई चमत्कार में, कभी एक नाज़ुक-से खयाल में जो साबुन के साथ बह निकलते झाग में अचानक दीख पड़ता है। कवयित्री के ही शब्दों में:
क्या वह भी कविता ही थी
जो उस दिन कपड़े धोते धोते
साबुन के साथ घुल कर बह निकली थी
एक ख्याल की तरह आई
ख्याल ही की तरह
धूप की आँच के सामने पिघल गई
पर बनी रही नर्म ही। (ख्याल ही तो है, पृष्ठ 141)
कहना न होगा, ये कविताएं इसी तरह उन ख्यालों की उपज हैं जिनमें उन स्त्रियों की दुनिया उजागर हुई है जिनके सपने छिन गये हैं। कुनबे भर को परोसने के बाद जो उसकी थाली में आता है, वही एक मामूली स्त्री का सच है। ये कविताऍं हाशिए में पड़ी आधी दुनिया की उस हक़ीकत का सामना करती हैं जो मीडिया की सुदूरभेदी कैमरे से भी ओझल रह जाता है। कुँवर नारायण के एक कथन से अपनी बात कहें तो कहना होगा, दिल के दर्द को दर्ज करने वाली मशीन उस दर्द की भाषा को भला कहां समझ सकती है जिसका ताल्लुक सिर्फ एक ‘आह’ से होता है। इस संग्रह के नेपथ्य से ऐसी ही ‘आह!’ की आहट आती है।
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