Featured book on Jail

Jail Radio: Ambala

Sep 10, 2008

मनोरंजन के थाल में गंभीर मसले

एक फिल्मी सितारा हुआ करता था। इन दिनों वह आगरा में तन्हाई की जिंदगी बसर कर रहा है। वह अकेला है, पूछने वाला कोई नहीं। वह निराश-परेशान-बेबस है। भारतीय न्यूज चैनल के लिए इससे बेहतर स्टोरी और भला क्या हो सकता है। स्टोरी की टीआरपी मुग्ध करने वाली ताकत को देखते हुए एक न्यूज चैनल ने तुरंत ही इस पर आधे घंटे का एक विशेष कार्यक्रम करने की ठानी। गेस्ट डेस्क ने अंग्रेजी के एक काफी विश्वानीय माने जाने वाले समाचार पत्र के फिल्म विशेषज्ञ को मान-मुहार करके आमंत्रित किया और लाइव प्रोग्राम शुरू कर दिया। कहानी यहां एक दिलचस्प मोड़ लेती है। कार्यक्रम की शुरूआत उस फिल्मी सितारे के लिए 'परेशान-तन्हा-बेबस' जैसे विश्लेषणों से शुरू होती है, टीवी स्क्रीन पर यह सब बोल्ड में लिखा हुआ भी आता है और शुरूआती भूमिका बांधने के बाद एंकर दर्शकों को सीधे आगरा ले जाता है जहां वह कलाकार लाइव ओबी के लिए मौजूद है। पिटे-पिटाए अंदाज में रिपोर्टर जब 70 के दशक के इस फिल्मी सितारे की आपबीती सुनने के लिए मुखातिब होता है तो सितारा बड़ी साफगोई से कहता है कि वह बेचारा नहीं है। वह अपनी इच्छा से अपनी मां के पास आगरा में रहता है और मजे में है। कार्यक्रम शुरू होते ही खत्म। लेकिन पर्दा कैसे गिरता। चौबीस घंटे बाजा बजाना आसान नहीं, इसलिए जैसे-तैसे शो को खींचा गया। घटना छोटी है लेकिन मीडियाई दर्शन बयान करती है। टीवी न्यूज मीडिया यानी मजबूरी, चिल्लाहट, सनसनाहट और दहशत और इस डर के बीच खबर के न होने पर भी उसे किसी तरह से गढ़ देने की जुगत भिड़ाने की क्रिकेटबाजी। फिर यह भी कि दूसरे की कमीज अपनी कमीज से ज्यादा सफेद न लगे और अपनी कमीज का मार्केटिंग वाले बाजार में सही भाव भी लगा सकें। इतने समझौते के बीच भी न्यूज चटनीनुमा न बने तो चले कैसे? यहां प्रसिद्ध समाज विज्ञानी नील पोस्टमैन की बात याद आती है। कुछ बरस पहले ही उन्होंने कह दिया था कि टीवी गंभीर मसलों को भी मनोरंजन की थाल में सजा कर परोसता है क्योंकि यह उसके स्वभाव में निहित है। वे मानते थे कि प्रिंट मीडिया काफी हद तक एक संतुलित आबादी की जुड़ाव बनाता है जबकि टेलीविजन मूल रूप से मनोरंजन की चाहत रखने वालों के लिए ज्यादा उपयुक्त है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या खबर जैसी गंभीर चीज टेलीविजन मीडिया (खास तौर पर भारतीय संदर्भ में) के हाथ में सर्कसनुमा बनने की तरफ अग्रसित तो नहीं हो रही। कुछ ऐसा ही सरोकार दिल्ली के ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी स्टोर में सराय वालों की एक बैठक में एक सज्जन ने जताया- क्या वाकई हमें इतनी 'न्यूज' की जरूरत है? भारत में न्यूज चैनल थोक के भाव में खोलने का फैशन जोरों पर है। फिक्की की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में इस समय 400 से ज्यादा टीवी चैनल देखे जा सकते हैं। न्यूज चैनलों की तादाद 30 पार कर चुकी है और इस साल भी लाइसेंस की मुराद रखने वाले कम नहीं। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि चैनल खोलने और चलाने वाला है कौन, वह चैनल किस मकसद से और किसके लिए ला रहा है। कहीं बिल्डर और कहीं खान-पान का व्यापार करने वाले तो कहीं संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में दीन-दुनिया की शाब्दिक चिंता करने वाले नेता। जाहिर है गैर पत्रकार पत्रकारिता की कमान अपने हाथों में थामने की कोशिश कर रहे हैं। इनके नीचे काम करने वाले मताहत यह कहने की हिम्मत और औकात नहीं रखते कि जनाब जिसे आप खबर कह रहे हैं, वह खबर है ही नहीं। बेहतर हो कि पहले आप टेलीविजन का ककहारा सीख लें और फिर अपनी दुकान यानी चैनल चलाएं। इन दिनों भारतीय बाजार में पैसा हावी है। इससे कोई परहेज नहीं। लेकिन वह अब मीडिया को अपनी लय में नचाने लगा है। बांसुरी, लय और ताल पूंजीवालों के हाथ में है। संपादकीय तक पूंजीपतियों की भेजी स्याही से लिखे जाने लगे हैं। तमाम बिजनेस चैनलों की कथित पत्रकारिता पूंजी के इसी तमाशे का लाइव चित्रण है। मुनाफे ने उस बुनियादी की दीवारें अब गिरानी शुरू कर दी है जिसका नाम भी कभी जनसत्तीय पत्रकारिता हुआ करता था। जरा सोचिए कितने न्यूज चैनल 1940 के दशक की उस पत्रकारिता के रत्ती भर भी करीब हैं जिसका मकसद मिशन था। हाल ही में सुनने में आया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए के छात्रों को संबोधित करते हुए एक टीवी एंकर ने इस बात पर जोर दिया कि मिशन की परवाह करने वालों को पत्रकार नहीं बनना चाहिए। पत्रकारिता कमीशन है। मुद्दा यह है कि अगर पत्रकारिता भी कमीशन है तो फिर क्या इस सौदे के व्यापार को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने का अधिकार दिया जाना चाहिए। वैसे भी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का काम तो यह देखना था कि देश और सरकारें सही विधान पर सरक रही हैं या नहीं लेकिन अब जिस कदर सत्ता और बाजार का घाल-मेल हुआ है, उसमें मीडिया का पैनापन बहुत निष्पक्ष तो रहा भी नहीं। तो फिर टेलीविजनी खबर के मायने और उपयोगिता है क्या? हाल ही में भारतीय जन संचार केंद्र में विकासशील देशों से आए पत्रकारों से जब मैंने पूछा कि वे भारतीय टेलीविजन न्यूज मीडिया के बारे में क्या राय रखते हैं तो उनमें से एक का कहना था- फन्नी यानी हास्यास्पद। भारतीय मीडिया के ऊबड़-खाबड़ करतब जारी रहे तो वह दिन दूर नहीं जब औसत दर्शक भी भारतीय मीडिया को फन्नी मानने को मजबूर हो जाएगा। (यह लेख १० फरवरी, २००८ को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

2 comments:

रवि रतलामी said...

"क्या वाकई हमें इतनी 'न्यूज' की जरूरत है?..."

कतई नहीं. सुबह-सुबह और बहुत हुआ तो शाम को. रेडियो पर. या फिर दस मिनट के टीवी कैप्सूल के रूप में. इससे ज्यादा तो नॉनसैंस है - इंडियाटीवी द्वारा महाप्रयोग को महाप्रलय नाम देकर तीन दिनों से लगातार खींचा जाना - जाहिर है, ऐसी चीजें बेवकूफ़ लोग देखेंगे और होशियार कोफ़्त के कारण खुदकुशी करने लगेंगे!

Udan Tashtari said...

फन्नी यानी हास्यास्पद-अधिकाधिक अभी भी यही राय है.