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Sep 12, 2008

मीडिया, विकास और सच

भूत-पिशाच, फिल्म, हास्य, धर्म, राजनीति, खेल और सेंसेक्स- इन सबके मिले-जुले पिटारे का नाम है- इलेक्ट्रानिक न्यूज मीडिया। इस पिटारे से अक्सर वही चीज सबसे ज्यादा छूटी हुई दिखती है, जिसे गोद में लेकर भारत में टेलीविजन के सपने को साकार किया गया था। वह है- विकास पत्रकारिता। विकास पत्रकारिता यानी वह पत्रकारिता जो समाज के विभिन्न पहलुओं के उत्थान और विकास से जुड़ी हुई है और एक साथ आगे बढ़ने का सुखद एहसास देती है। मीडिया के फैलाव के साथ ही यह विश्वास भी जगा था कि अब मीडिया देश के हर छोर के विकास की सुध लेगा, लेकिन जो हुआ और जो हो रहा है, वह काफी हद तक उस सपने से परे है। पिछले एक दशक में भारत में जिस रफ्तार से टीवी का विकास हुआ है, उतनी तेजी से शायद किसी और का नहीं। पर इसके बावजूद विकास की चहलकदमी काफी हद तक टीवी के परदे से दूर ही दिखाई दी। मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी साईंनाथ मानते हैं कि साल 1991 से लेकर 1996 तक मीडिया ने मोटापा घटाने से जुड़ी इतनी खबरें दिखाईं और विज्ञापन छापे कि उसमें यह सच पूरी तरह से छिप गया कि 100 करोड़ भारतीयों को हर रोज 74 ग्राम से भी कम खाना मिल पा रहा था। ऐसे वक्त में मीडिया मोटापा घटाने के लिए खुली तथाकथित दुकानों पर ऐसा केन्द्रित हुआ कि वह उन लोगों को भूल गया जो अपना बचा-खुचा वजन बचाने की कोशिश कर रहे थे। साईंनाथ का मानना है कि एक ऐसा देश जिसमें दुनिया की एक तिहाई ऐसी जनसंख्या मौजूद है, जिसे भरपूर मात्रा में पानी नहीं मिल पाता, जिसकी आबादी का पाँचवाँ हिस्सा विकास परियोजनाओं की वजह से बेघर है, जिनमें से ज्यादातर लोग टीबी और कोढ़ से पीड़ित हैं, वहाँ आज भी ग्रामीण इलाकों और विकास कार्यों के कवरेज के लिए अलग से पत्रकारों की नियुक्ति नहीं की गई है। आंकड़े यह भी कहते हैं कि मौजूदा दौर में एक औसत ग्रामीण परिवार को एक दिन में महज 437 ग्राम अनाज ही मिल पाता है जबकि 1991 में यह मात्रा 510 ग्राम थी। इसी तरह 90 के दशक में भारत में नई गाड़ियों के आगमन पर जितनी स्टोरीज की गईं, उतनी भारत में साइकिलों के गिरते या थमते व्यापार पर नहीं हुईं। 2008 में टाटा की नैनो भी सभी की आंखों का तारा बनी। नैनो की रिपोर्टिंग ने पहले पन्ने पर जगह पाई क्योंकि इसमें बड़े उद्योग की जोरदार खनक थी लेकिन चूँकि भारत में साइकिल ग्रामीण विकास का द्योतक माना जाता है, इस पर सोचने की भी जरूरत महसूस नहीं की गई। दरअसल भारत में आज भी विकास पत्रकारिता सिर्फ एक सपना भर है। अखबारों के पन्ने बढ़ने और टीवी पर 24 घंटे के समय के व्यापक विस्तार के बावजूद विकास जैसा मुद्दा आश्चर्यजनक रूप से पिछड़ा हुआ दिखाई देता है। भारत में दूरदर्शन के शुरूआती दिनों में साइट नामक परियोजना की शुरूआत की गई थी ताकि भारत में खाद्य के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके। यह भारत के विकास की दिशा में एक बड़ा कदम था। इस सामुदायिक टीवी के जरिए आम इंसान को विकास से जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसे लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सका। 1983 में पी। सी। जोशी ने भारतीय ब्रॉडकास्टिंग रिपोर्ट में लिखा था कि हम दूरदर्शन को गरीब तबके तक पहुँचाना चाहते हैं। दूरदर्शन ने इस कर्तव्य को निभाने की कोशिश भी की लेकिन सैटेलाइट टेलीविजन के आगमन के बाद परिस्थितियाँ काफी तेजी से बदल गईं। सैटेलाइट टीवी ने मनोरंजन और सूचना को परोसा तो तेजी से लेकिन अति व्यावसायीकरण के कारण विकास जैसे मुद्दे काफी पिछड़ गए। यही वजह रही कि मीडिया से विकास को लेकर जितनी आशाएँ रखी गईं थीं, उनके अनुरूप नतीजे नहीं निकल सके। विकास के इस पिछड़ेपन की कई वजहें हैं। पहली वजह तो यह है कि मीडिया मालिकों का मानना है कि गरीबी से जुड़े मुद्दों की चर्चा से विज्ञापनों के जरिए सिक्कों की खनक नहीं पाई जा सकती। इस देश में सौंदर्य प्रतियोगिताएं खबर बनती हैं और इनके लिए विज्ञापनदाता बड़ी से बड़ी रकम चुकाने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन विकास के मुद्दे पर ऐसा नहीं होता। इसी तरह भूत-प्रेतों, पंडितों की सही-गलत भविष्यवाणियों और ऐश्वर्या राय आदि की शादी या फिर सलमान-शाहरूख की लड़ाई जैसे गैर-गंभीर(शायद फालतू भी) और निजी किस्सों पर पलकें बिछाने वाले खरीददार जितनी सुलभता से मिलते हैं, सामाजिक मुद्दों पर नहीं। किसी राज्य के सुदूर गाँव में विकास किस हद तक पहँचा है, इसमें कारपोरेट जगत की आम तौर पर कोई दिलचस्पी नहीं होती। इसके अलावा, समाचार पत्रों को खरीदने वाले लोग भी गरीबों की श्रेणी में नहीं आते( गरीब तबका आज भी एक अखबार को आपस में मिलबांट कर पढने का आदी है)। इसलिए यह माना जाता है कि इनकी परवाह क्यों की जाए और जहाँ तक टीवी का सवाल है, तो यह सर्वविदित है कि टीवी पर भी पेज 3 के लोगों के चेहरे और उनकी प्रतिक्रियाएं ही ज्यादा महत्व रखती हैं। इसके अलावा अगर 90 के दशक पर नजर डालें, तो पता चलता है कि इस दौरान राजनीति, व्यापार और खेल को सबसे ज्यादा अहमियत दी गई। इसके बाद फैशन, ग्लैमर और अपराध को महत्व दिया गया। जनता को भी यह समझाया गया कि यही बिकता है, यही पसन्द किया जाता है और सिर्फ यही विशुद्ध मनोरंजन दे सकता है, इसलिए यही देखा और सराहा जाना जरूरी है। लेकिन इन तमाम दावों और तर्कों के बीच सच कहीं बीच में अटका हुआ है। इसकी मिसाल 2004 के लोकसभा चुनाव में दिखाई दी। ईलीट वर्ग जैसी दिखने वाली कांग्रेस ने खुद को गली-मोहल्लों तक पहुंचाने की कोशिश की और विकास को अपना हथियार बनाया, वहीं भारत उदय के हंगामे और एसएमएस पर चुनाव अभियान ने भाजपा को कहीं पीछे छोड़ दिया। बाकी दलों ने भी अपनी समझ के मुताबिक विकास की ही बात करनी चाही। जाहिर है कि इस बदली सोच की वजह से मीडिया ने भी आम जनता की कुछ सुध ली और तमाम टेलीविजन चैनलों पर जनता की प्रतिक्रियाएँ लेकर अपना कर्त्तव्य पूरा करने की कोशिश की गई लेकिन चुनाव के बाद स्थिति फिर पहले जैसी ही दिखने लगी। एक समय था जब एनडीटीवी पर सरोकार जैसे कार्यक्रम दिखाए जाते थे और कुछ पत्रकार नियमित तौर पर विकास से जुड़ी खबरें ही कवर करते थे लेकिन धीरे-धीरे यह कोशिश भी थमती गई। वैसे भी मीडिया में विकास कवर करने के लिए अलग से पत्रकार न के बराबर ही दिखाई देते हैं, विकास के नाम पर शायद ही कहीं कोई अलग बीट दिखाई देती है जबकि ग्लैमर, फिल्म और फैशन कवर करने के लिए एक दर्जन से ज्यादा पत्रकार रख लिए जाते हैं। खेल (वो भी खास तौर पर क्रिकेट और अब अभिनव बिंद्रा की वजह से शूटिंग) कवर करने के लिए भी पत्रकारों की भीड़ देखी जा सकती है। गोल्फ कवर करने वाले भी विशिष्ट पत्रकार माने जाते हैं और अच्छी तनख्वाह के हकदार बनते हैं। इस देश में अमिताभ बच्चन और मायावती का जन्मदिन दिखाने के लिए लाइव कवरेज का इन्तजाम हो सकता है, पैसा पानी की तरह बहाया जा सकता है लेकिन आत्महत्या कर रहे किसानों पर डेढ़ मिनट से ज्यादा समय लगाना मुश्किल हो जाता है। इस माहौल में विकास पर आधारित कोई स्टोरी भले ही कितनी ही मेहनत से तैयार की जाए, एक मामूली सी राजनीतिक या आपराधिक स्टोरी को दिखाने के लिए सबसे पहले विकास पर आधारित स्टोरी को ही ड्रॉप किया जाता है। वैसे भी एक कड़वा सच यह भी है कि विकास पत्रकार के हाथ अक्सर कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं लगती, इसलिए भी उसे कोई खास दर्जा नहीं मिल पाता। मीडिया के दफ्तरों में अक्सर वही पत्रकार हावी हो पाते हैं, जो तेज-तर्रार बीट पर होते हैं। और हंगामे के साथ अपनी स्टोरी को ऊँचे दाम पर बेच लेते हैं। वैसे भी गरीबी या निरक्षरता एक प्रक्रिया है, घटना नहीं। इसलिए एक ऐसी प्रक्रिया, जो वर्षों जारी है, उस पर संसाधन खर्च करने में मीडिया की कोई दिलचस्पी नहीं होती। इसके अलावा, विकास पत्रकार की भी कई मजबूरियाँ होती हैं। वह कई बार अपने प्रबंधक के मुताबिक खबर को तोड़ने या बदलने के लिए विवश होता है। वैसे भी विकास की मिठास भरी स्टोरी को मीडिया मालिक अक्सर पी. आर . यानी जनसंपर्क ही मान लेते हैं। ऐसे में पत्रकार के लिए प्रशासन पर नकारात्मक स्टोरी करना भी जरूरी हो जाता है। यहाँ एक सच यह भी है कि नकारात्मक स्टोरी पर संबंधित तुरंत अपनी तिलमिलाहट जाहिर कर देता है, लेकिन सकारात्मक कोशिश पर पत्रकार को सराहा नहीं जाता। इसका भी पत्रकार के मनोबल पर काफी असर पड़ता है। एक अन्य दिक्कत यह भी है कि विकास को कवर करने वाले पत्रकार भी कई बार खुद जड़ों से जुड़े हुए दिखाई नहीं देते। गाँवों को कवर करने वाले कई पत्रकार हिन्दी न तो ठीक से बोल पाते हैं और न ही लिख पढ़ पाते हैं। ऐसे में दिल्ली स्थिति अपने दफ्तर पर लौट कर जब वे अपनी स्टोरी फाइल करते हैं, तो खुद उनके सहयोगी उन पर ज्यादा विश्वास नहीं कर पाते। एक और वजह है- विकास पत्रकारिता पर खर्च न करने की प्रवृति। गाँवों में हो रहे विकास को कवर करने के लिए अक्सर भरपूर समय, इत्मीनान और गाड़ी और ठहरने के इन्तजाम की कुछ जरूरतें भी होती हैं, जिन पर मीडिया मालिक पैसा खर्च करने से कतराते हैं। वैसे भी यह माना जाता है कि इस देश की 70 प्रतिशत आबादी न्यूज नहीं बनाती। इस रवैये के चलते भी विकास पत्रकारिता को हाशिए के बाहर रखना ही ज्यादा सही माना जाता है। मीडिया हर रोज सेंसेक्स की उछलकूद तो दिखाना पसन्द करता है (यह बात अलग है कि शेयर बाजार पर शायद 1।15 प्रतिशत से ज्यादा आबादी पैसा नहीं लगती) लेकिन बिजली, पानी, रोटी के मसले पर समय और संसाधन का खर्च वह सह नहीं पाता। एक और वजह है- मानसिक कट्टरता। खुद को घोर वामपंथी मानने वाले कई पत्रकार अक्सर एक ही सोच को लेकर चलते हैं। वामपंथ की मूलभूत जानकारी न होने की वजह से उनकी सोच अमीर से लड़ाई से आगे निकल ही नहीं पाती। कई बार पत्रकार व्यवस्था को लेकर ऐसी कड़वाहट का माहौल बनाने लगते हैं कि विकास कार्यों को सच्ची लगन से करने वाली संस्थाएँ और प्रशासन भी उनसे कटने लगता है। यही वजह है कि कई बार सकारात्मक प्रयासों को भी मीडिया सराह नहीं पाता और इस वजह से वहाँ की जनता खुद ही मीडिया को हाशिए से बाहर धकेल भी देती है। जाहिर है ऐसी परिस्थिति में समाज की आवाज को प्रस्तुत करना मुश्किल हो जाता है। दरअसल भारत में आज भी मीडिया का सही ढंग से इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। मीडिया सूचना और मनोरंजन परोसते हुए आम तौर पर विकास को भूल ही पाता है। श्रीलंका जैसा छोटा-सा देश भी सामुदायिक रेडियो के जरिए पूरे देश में विकास को प्रचारित कर रहा है, लेकिन भारत में आज भी इस स्तर पर ज्यादा कुछ हासिल नहीं किया जा सका है। आज भी रेडियो की पहुँच टीवी से कहीं ज्यादा है, लेकिन रेडियो की इस सम्भावना को भी टीवी की ही उछलकूद के मुताबिक तेज बनाने की कोशिशें होने लगी हैं। एफ एम के कई कार्यक्रम इसकी ताजा मिसाल है। इसी तरह पूरी दुनिया में इंटरनेट भी एक बड़ी शक्ति के रुप में सामने आया है लेकिन इसका भी विकास अभियानों में समुचित इस्तेमाल नहीं हो पाया है पर इससे जो संभावनाएं उभरी हैं, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। मतलब साफ है। एक ऐसे देश में जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब मौजूद हैं, वहाँ स्टोरी उन अमीरों पर ही होती है जो दुनिया में सबसे ज्यादा अमीर हैं। भारतीय बाजार में किसी भी नई गाड़ी का आना तो एक बड़ी खबर है, लेकिन निरक्षरता या कृषि एक मामूली खबर भी नहीं बन पाती। इस समय दुनिया की 20 प्रतिशत आबादी तमाम उत्पादों के 86 प्रतिशत हिस्से का उपभोग कर रही है और वही आमतौर पर खबर बनती भी है और बनाती भी है। मीडिया के परम विकास के इस दौर में न्यूज, व्यापार, मनोरंजन, खेल और आध्यात्म तक के चैनल भी खुल रहे हैं लेकिन विकास के लिए अब भी न तो समय दिखाई देता है और न ही पैसा। तमाम संसाधन होने के बावजूद इच्छा शक्ति की कमी ने विकास को आज भी प्रमुखता नहीं दिखाई है। लेकिन बहस का मुद्दा यह कतई नहीं होना चाहिए कि भारतीय आबादी के दूसरे बड़े वर्ग यानी निम्न और मध्यम वर्ग की इस रेलमपेल में कहाँ जगह है। सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में मदर टैरेसा जैसा बनने की बातें करने वाले इस देश में विकास हँसी का पात्र न बन जाए, इस पर विचार करने का समय आ गया है। करीब दर्जन भर खरबपतियों और सैंकड़ों लखपतियों के इस देश में गरीबों की तादाद 36 करोड़ के आस-पास है। मजे की बात यह भी कि चाहे राजनीति हो या मीडिया- टिके रहने के लिए दोनों ही आम आदमी के विकास की बात किया करते हैं लेकिन सम्मानित जगह मिलते ही सबसे पहले आम आदमी का मुद्दा ही सिकुड़ जाता है। अच्छा हो कि इसके सिकुड़ने पर चिंता की बजाय ब्राडकास्टिंग कोड के तहत ही कुछ नियम बनाने का एक प्रयोग करके देखा जाए। उस दिन की कल्पना तो की ही जा सकती है जब न्यूज चैनलों पर विकास से जुड़ी खबरों का कुछ प्रतिशत रखा जाना अनिवार्य हो जाए। बिबलियोग्राफी 1) एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राउट - पी।साईंनाथ, पेंग्विन,2006 2) इंडियाज न्यूजपेपर रिवोल्यूशन - राबिन जेफ्री, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2003 3) मेकिंग न्यूज - उदय सहाय, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2006 4) टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता - वर्तिका नन्दा, भारतीय जनसंचार संस्थान, 2005 5) इंडिया आन टेलीविजन-नलिन मेहता, हार्पर कालिन्स, २००८ (यह लेख राजस्थान विश्वविद्यालय की प्रकाशित किताब 'इलेक्ट्रानिक मीडिया' में प्रकाशित हुआ)

4 comments:

bhuvnesh sharma said...

काफी कुछ जानकारी मिली आपके इस लेख से
शुक्रिया

आजकल टीवी न्‍यूज चैनल्‍स को देखना बंद करने के बावजूद अपने आसपास के वातावरण, लोगों तक पर उसका प्रभाव देखता हूं तो घिन आने लगती है...कुछ किया नहीं जा सकता सिवास टीवी चैनलों का बॉयकॉट करने के अलावा

सुशील छौक्कर said...

कल ही एक कहानी पढ रहा था हंस में। जिसमें हेमंत नाम का एक किरदार ऐसी ही सोच रखने वाला कैसे दम तोड़ रहा था। जो समाजिक सरोकारो की बात करता है वह ऐसे ही क्यों दम तोड्ता है? मेरी समझ में नही आता। जैसा इस लेख में भी कहा गया कि कुछ समय निर्धारित होना ही चाहिए स्वेच्छा से। पर ऐसा होता नही है। यही हमारा दुर्भाग्य हैं।

Unknown said...

vartika ji aap ka yah lekh padha . aap ki baat se sahmat hun mai. acchhi jankariyan mili . dhanyabad aap ko

Manish said...

वर्तिका जी नमस्‍कार
आपका ब्‍लाग मैने पढ़ा। पढ़ कर अच्‍छा लगा कि अब इस तरह की सोच उत्‍पन्‍न होने लगी है। यही सोच अपने उद्देश्‍य से भटक रही मीडिया को कर्त्‍तव्‍यबोध कराएगी। लेकिन सच यह भी है कि क्‍या सिर्फ इस तरह की सोच रखने से बदलाव संभव है। इसके लिए हमें पहल भी करनी होगी।
वर्तिका जी आपसे मेरा विनम्र आग्रह होगा कृपया कर अपने अगले ब्‍लाग में इस बात की चर्चा करें कि यह पहल कैसे संभव है। क्‍या यह संभव है आज की स्थिति में जिस रफ़तार से मीडिया का स्‍वरुप बदल रहा है यह समाज के गरीब, शोषित वर्ग के लिए आवाज उठाएंगे। इसके लिए किन लोगों को आगे आना होगा ताकि मीडिया अपने कर्त्‍तव्‍य का निवार्हन बखूबी कर सके। क्‍या यह संभव है।