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Jail Radio: Ambala

Sep 24, 2008

बाढ़ क्या संवेदना भी बहा ले जाती है ?

बात 1989 की है। उस साल हम फिरोजपुर में थे। एक दिन सुना कि फिरोजपुर के आस-पास के गांवों को बाढ़ ने घेर लिया है। अब बारी अपने शहर की है। लेकिन जैसी की इंसानी फितरत है, ऐसी बातों पर तब तक यकीन नहीं होता जब तक कि वे सच नहीं हो जातीं। तो बात एक खास शाम की है। हमने सुना वाकई बाढ़ आ रही है। हमारे बंगले से आगे, जहां रेलवे के इन सरकारी बंगलों की शुरूआत होती है, वहां बाढ़ का पानी पहुंच गया है। पिछले एकाध दिन में हम घर का सामान वैसे तो कुछ ऊंचाई पर कर ही चुके थे लेकिन तब भी बाढ़ आएगी, ऐसा विश्वास नहीं था। खैर जब खबर सुनी तो मैं अपनी मां के साथ बंगले से बाहर आई। देखा कि कुछ दूरी पर एक सफेद सी चीज दिख रही है। समझ में आया कि अरे यह तो पानी ही है। हम भाग कर घर के अंदर आए और पांच-दस मिनट में ही हमारा घर भी बाढ़ के पानी से भरने लगा। हम लोग खाने-पीने का थोड़ा-बहुत सामान लेकर तुरंत घर की छत पर चले गए। अब हम ऊपर थे, पानी नीचे। चिंता भी थी कि पानी बहुत भर न जाए। चूंकि हमारा घर ठीक-ठाक ऊंचाई पर था और घर का मैदान नीचा तो पानी का ज्यादा फैलाव मैदान के हिस्से ही आया। अब छत की रात का किस्सा पढ़िए। हम चार और हमारे पड़ोस के तीन लोग -कुल सात-एक बड़ी छत पर। ऊपर से देख रहे हैं - पानी चारों तरफ भाग रहा है। हम दोनों बहनें छोटी ही थीं। बाढ़ को पहली बार देख रहे थे। इसलिए हैरान थे और थोड़े डरे भी। लेकिन अब भूख भी लगने लगी थी। मिलकर खाना बनाने लगे तो देखा कि सूखा आटा तो नीचे ही छूट गया। तो वो रात आदिमानवों की तरह कच्चा-पक्का खा कर पानी की बदमाश हिचकियों के बीच गुजरी। सुबह हम जैसे-तैसे नीचे उतरे लेकिन शाम होते-होते हालात ऐसे हो गए कि फिर छत का आश्रय लेना ही पड़ा। इस बार हम सात लोगों के साथ सूखा आटा भी आया। देखते ही देखते बदबू हर तरफ फैल गई और दिखने लगे -हर तरफ ऐसे लंबे सांप जो इससे पहले कभी नहीं देखे थे। हम छत से देखते कि सांप तेज बहते पानी के साथ झुंड के झुंड में बह रहे हैं। कई सांप पेड़ों पर आपस में गुत्मगुत्था होते रहते और बेपरवाह पसरते। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे उतरने लगा पर मैदान पर पानी कई दिनों तक पसरा रहा। इस बीच आस-पास के गांवों में बहुत कुछ बह गया। महीनों लगे बाढ़ के बाद जिंदगी को अपनी लय में लौट आने में। लेकिन इस बाढ़ ने लाजवाब सबक दिए। इस बेधड़क बहते पानी ने हमें सिखाया कि पानी को किसी व्याकरण में बांधा नहीं जा सकता। बेशक बांध बनाकर अपना तुष्टीकरण जरूर किया जा सकता है। बाढ़ ने सिखाया कि कानाफूसी जब चारों तरफ सुनाई देने लगे तो उस पर गौर करना चाहिए और बाढ़ ने सिखाया कि अपना वही है जो यह पल है। बाढ़-तूफान-भूचाल-बम-किसी का पता नहीं। फिर किस बात का दंभ? समय की समझ भी उस उफनते पानी ने ऐसी दी कि आज तक नहीं भूली है। यही वजह है कि आज भी जिंदगी का हर दिन आखिरी दिन मान कर काम पूरा कर लेने की इच्छा होती है। यही वजह है कि आज भी किसी पल को हंसी में उड़ाया ही नहीं जाता। यह वह समय था जब पंजाब में आतंकवाद जोरों पर था। आतंकवाद को लेकर राजनीतिक-गैर-राजनीतिक राय जो भी रही हो लेकिन एक आम नागरिक के नाते, जिसने अपना बचपन दहशत की सुबहों-शामों में जीया, महसूस किया कि बड़े डरों को झेलने के बाद छोटे डर वाकई बौने पड़ जाते हैं। एक बड़ा डर बाकी सभी डरों को चिरमिरा देता है और उसके बाद बिना डर के जीने की कला भी सिखा देता है। वो समय ऐसा था जब 24 घंटे के न्यूज चैनलों की पैदाइश नहीं हुई थी। इसलिए परेशानी में भी अलग तरह की शांति थी और ऐसा होने की भी कोई संभावना नहीं थी कि किसी ने पलों के लिए आंखों का काजल बनाया और फिर उतार दिया। यह भी नहीं हुआ कि टीवी वालों के ओबी लगे हों और उन्होंने चुन-चुन के भरी आंखों वाले थोड़े 'ग्लैमरस' चेहरे खोजे हों और फिर उनसे पूछा हो कि मैडम, पानी में तो आप सब डूब गया। अब आपको कैसा लग रहा है? (कृपया इस पर 30 सेकेंड का एक बयान दें)। बाढ़ का पानी धीमे-धीमे उतरा। बाढ़ पीड़ितों के लिए उपजी भावनाएं भी धीमे-धीमे ही उतरीं। भूलना भी धीमे-धीमे ही हुआ। चैक बटोरने वाले नेता तो तब भी थे लेकिन चूंकि तब चौबीसों घंटे चैनलों की छुपन-छुपाई नहीं थी, इसलिए नाटक भी कम ही हुए। सोचती हूं कि इतने सालों में बाढ़ का चेहरा तो वही है पर उसे देखने-दिखाने का नजरिया बदल गया है। अब बाढ़ प्रोडक्ट ज्यादा है- मानवीय भावनाओं का स्पंदन करता विषय कम। जब तक अगला प्रोडक्ट पैदा नहीं होता(यानी अगली ब्रेकिंग न्यूज नहीं आती), तब तक वह प्रोडक्ट लाइफलाइन बना रहता है लेकिन कुछ 'नया' आते ही पुराने का गैर-जरूरी हो जाना तो तय है। यह मीडियाई मनोविज्ञान ही है कि बड़े विस्फोटों के कुछ घंटों बाद ही फिर से हंसो-हंसाओ अभियान शुरू कर दिए जाते हैं और सास-बहुओं से किसी भी हाल में कोई समझौता नहीं किया जाता। सब अपने स्लाट पर दिखाई देते हैं और सब अलग-अलग रंग भरते हैं ताकि ट्रजेडी में भी बना रहे ह्यूमर और जीए टीआरपी। यहां टी एस ईलीयट की बात याद आती है। उनका मानना है कि टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसे करोड़ों लोग एक साथ देखते हैं, वे एक ही चुटकुले को देखते हैं और उस पर हंसते हैं लेकिन तब भी रहते हैं-अकेले ही। मीडिया शायद इसी अकेलेपन की कहानी है। यहां त्रासदी भी हंसी है, हंसी भी त्रासदी। बहरहाल बाढ़ें आईं हैं, आगे भी आएंगीं। वे व्यापार, राजनीति, मीडिया की दिलचस्पी का फोकस भी बनेंगी लेकिन इनमें से किसी से भी सामाजिक हित में बड़ी उम्मीदें लगा लेना भविष्य में भावनात्मक सूखे को आमंत्रण देने जैसा ही होगा। (यह लेख 24 सितंबर, 2008 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)

5 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सटीक आलेख है।अच्छा लगा।

मीत said...

सच कहा अपने वर्तिका जी!
जब तक अगला प्रोडक्ट पैदा नहीं (जब तक अगली ब्रेकिंग न्यूज नहीं आती), तब तक वह प्रोडक्ट लाइफलाइन बना रहता है लेकिन कुछ 'नया' आते ही पुराने का गैर-जरूरी हो जाना तो तय है।
सराहनीय लेख...
उम्दा जारी रहे कलम का हथियार...

Udan Tashtari said...

आभार इस आलेख को पढ़वाने का.

अविनाश वाचस्पति said...

बाढ़ का काम

बहाना है

बहा ना नहीं।


क्‍या संवेदना

क्‍या संवेद

हां।

Anonymous said...

vartika,sahi me mahsus kiya hai barh ko, Aage jo bhi likha hai bah bhi gajay ka hai, lekhan me nikhar aata hi ja raha hai.