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Dec 16, 2008

मुंबई कांड-जाग गया हिंदुस्तान

मुंबई के बहाने एकजुटता का मौसम शुरू हो गया है। संसद में आवाज उठी है कि हमलावरों ने किसी का धर्म देख कर उसे नहीं मारा। हमने इससे पहले भी आतंकवाद को कई बार सहा है लेकिन इस बार यह बताया जाना जरूरी हो गया है कि हम सब एक हैं।

यह शाबाशी की बात है। शाहरूख खान भी जब यह कहते हैं कि हमलावर भले ही मुसलमान थे लेकिन वे इस्लाम नहीं जानते थे, तो वे भी शायद भारतीयता के उसी जज्बे को जगाने की कोशिश करते हैं। शाबाश इंडिया।

लेकिन इस शाबाशी के एक बड़े हकदार हैं – वे दो परिवार जिन्होंने हमले के बाद यह संदेश को दिया कि चले जाइए आप हमारे घर से। नहीं चाहिए हमें आपकी हमदर्दी, नहीं चाहते हम आपकी सांत्वना का कोई बाउंस हुआ चैक। इस सच ने बहुत दिनों बाद दिल को सुकून दिया। सुकन यह सोच कर मिला कि आखिरकार जाग गया हिंदुस्तान क्योंकि सच को कहने के लिए हिम्मत का होना जरूरी है। हिम्मत चाहिए यह कहने की कि राजनीति की गद्दारी हमें समझ में आ रही है, इसलिए अब हमें आपकी कोई जरूरत नहीं।

मुंबई के बहाने इस बार जनता ने बहुत कुछ देखा। इस बार एक साथ ऐसी कई चीजें देखीं जो अब तक टुकड़ों में नसीब होती थीं। जनता ने देखा कि सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग भी वही है और अब सबसे निर्णायक भी। पहले बात राजनीति की। आतंकवादी हमला हुआ और ताबड़तोड़ शुरू हुई राजनीति। देश के नाकाबिल गृह मंत्री को अपने पद से हटाने के लिए सरकार ने लंबा मौन साधा। जब कुछ जानें गईं, दबाव बढ़ा तो दस जनपथ जागा और देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन मंत्री को किसी तरह विदाई दी गई। लेकिन क्या यह सब पहले नहीं किया जा सकता था?

फिर आए बयान। विलासराव देशमुख कह देते हैं-बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं हो ही जाया करती हैं। वे बोलते कुछ इस अंदाज में हैं कि मानो खेल-खेल में बच्चों के महज दो-चार खिलौने ही टूटे हों। ऐसा नहीं है कि अपने इस बयान के बाद उन्हें कोई शर्म आ गई हो। इसके बाद वे रामगोपाल वर्मा और अपने बेटे रीतेश देशमुख के साथ मौके का जायजा लेने जाते हैं। यह सब कुछ ऐसे अंदाज में कि मानो रात के खाने के बाद आइसक्रीम खाने निकले हों। बेटे और एक फिल्म निर्माता को इसलिए साथ ले गए कि देखो अभी जो लाइव देख रहे थे, उस नजारे को वीआईपी घेरे में अपनी आंखों से देखो और फिर इस पर हारर या फिर कामेडी जैसी कोई भी फिल्म चट-पट बना डालो। धन्य हैं महाराज।

फिर मुख्तार अब्बास नकवी साहब। वे सीधे औरतों की लिप्स्टिक पर वार करते हैं। मजा देखिए। हाथों में दर्जनों चूड़ियां पहन कर बयान बहादुर बनने वाले हमारे राजनीतिक दामादों को जब कोई उपमा नहीं मिलती तो वे सीधे औरत को पकड़ते हैं बिना यह सोचे कि लिप्स्टिक लगाने वाली महिलाएं उन पुरूषों से लाख दर्जे बेहतर हैं जिनमें मर्दानगी कभी पैदी हुई ही नहीं।

लेकिन इन सबके बीच मीडिया ने भी कम करतब नहीं किए। हमारी अपनी बिरादरी के कई जांबाजों ने दुश्मन की भरपूर मदद की। उनका मार्गदर्शन किया कि हेमंत करकरे कहां-कहां जा रहे हैं। ताज के किस फ्लोर पर कौन-कौन फंसा है। एनएसजी कमांडो कहां से आ रहे हैं। यहां तक कि आतंकवादियों के लाइव फोन भी टीवी पर दिखाए गए ताकि आतंकवादियों का हौसला बढ़े। कुल मिलाकर कुछ चैनलों ने भारत की बजाय पाकिस्तान की भरपूर मदद की।

इस दहशत की एक-एक किरचन को भोगा जनता ने और समझा दर्द में तार-तार होना। जनता ने देखा कि जब जरूरत पड़ी तो आग में न नेता उतरे न मीडिया (और दोनों ही जिस हद तक भी उतरे, उसके पीछे उनका अपना स्वार्थ था)। यहां देशभक्ति की भावना सर्वोपरि नहीं थी। यहां ऊपर था-अपना मुनाफा। खुद का टीवी के परदे पर चमकना, कुछ एक्सक्लूयजिव कर जाना।

अब जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हर बार की तरह कुछ चैनलों के हाथों में नाटक भरे नोटिस थमा दिए हैं और केंद्र सरकार ने हल्की-फुल्की सरकारी कवायदें कर दी हैं, एक बात जो किसी के जहन में नहीं आ रही वह यह है कि अब इन पर विश्वास करेगा कौन? वे यह भी नहीं समझ पा रहे कि कविता करकरे जब एक नरेंद्र मोदी से एक करोड़ का चैक लेने से इंकार कर देती है तो उसका क्या मतलब होता है?

बहरहाल जनता का विश्वास अब कमांडो पर है। वही कमांडो जिस पर केरल के मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर वो शहीद न होता तो कोई कुत्ता भी वहां न जाता। मुख्यमंत्री जी भूल गए कि कुत्ता मंत्रियों से ज्यादा वफादार होता है। वे वहां जाएं न जाएं, वहां कुत्ते भी जाएंगे और आम जनता भी क्योंकि आखिरकार यही मायने रखते हैं।

तो देश के हुक्मरानों, अब यह जान लीजिए कि सिर्फ उन्नीकृष्णन ने ही अपने घर का दरवाजा आपके मुंह पर नहीं मारा है, यह तमाचा तो अब जनता भी आपके चेहरे पर चिपका चुकी। अब चिपके रहिए अपनी कुर्सी से और बनिए बयान बहादुर। हिंदुस्तान जीता है, जीतेगा –लेकिन आप लोगों की बदौलत नहीं, अपनी बदौलत।

(यह लेख 15 दिसंबर, 2008 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ)

4 comments:

Anil Pusadkar said...

मुम्बई मे अपनी जान पर खेल कर वतन पर मर मिटने को हमेशा तैयार रहने वाले एने एस जी के एक कमाण्डो का सम्मान करने के लिये हमने भी प्रेसक्लब मे कार्यक्रम् रखा,आधा हाल भी नही भर पाया पत्रकारो से जो सडियल नेताओ या घटिया सेलेब्रेटिज के कार्यक्रमो मे खचाखच भर जाता है.कया हम इसे शाबास मीडिया कह सकते है.

सुशील छौक्कर said...

इन नेताओं में तो अब जंग लग चुका
अब वक्त हैं खुद ही जंग लड़ जाने का।

drdhabhai said...

और वापिस सो भी गया....

indianrj said...

वर्तिका, हिंदुस्तान को जागने के लिए आखिर किसी अनहोनी की ही ज़रूरत क्यों पड़े. आखिर हम वैसे ही क्यों जागरूक नहीं रहते? अपने अधिकारों के लिए और उससे भी ऊपर अपने कर्तव्यों के प्रति?