अपने से
पराये से
किसी पराये अपने से
बीचों बीच रौशनी के बुझने
सुरंग के लंबे खिंच जाने
मायूसी की लंबी लकीर के बीच
ठगे जाने के मुहावरे हमेशा पुराने होते हैं
लेकिन ठगा गया इंसान नया
और उससे निकला सबक भी
क्या सचमुच फेसबुक ने लोगों को जोड़ा है
प्रिय फेसबुक,
बुरा न मानना। अब कुछ दिनों तक तुमसे एक दूरी बनाने की सोची है। एक हफ्ते में दो घटनाएं हुईं-तुम्हारी वजह से। पहले तो बंगलौर की 23 साल की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली। यह लड़की आईआईएम की विद्यार्थी थी और इस बात से आहत हो गई थी कि उसके पुरूष मित्र ने उससे संबंध तोड़ कर सारी कहानी को फेसबुक पर डाल दिया था। मालिनी मुरमू का इस घटना से ऐसा दिल टूटा कि उसने खुद को फंदा लगा लिया। इस तरह से एक चमकता सितारा महज एक सोशल नेटवर्किंग साइट की वजह से अस्त हो गया।
दूसरी घटना पटना विधानसभा से आई। यहां दो लोगों को निलंबित कर दिया गया। उनका गुनाह यह था कि उन्होंने अपने फेसबुक अकाउंट पर अपने ही राज्य के मुख्यमंत्री पर कुछ तीखी टिप्पणियां कर दीं थीं और विभाग के भ्रष्टाचार पर अपने कमेंट जारी कर दिए थे। आखिरकार यह भारत है भाई। वे भूल गए कि यहां पर राजनेता कुछ भी कर सकते हैं लेकिन सरकारी कर्मचारी की कई हदें हैं, कई सरहदें।
इससे पहले भी एक के बाद एक बहुत कुछ ऐसा हुआ जब लगा कि फेसबुक भूले-बिछुड़े नातों को जोड़ तो रहा है लेकिन यहां की गर्माहट कई बार ठंडेपन और फिर आहत करने के स्तर पर उतर आती है। अमरीका में ही 2007 में स्टीफेनी पेंटर जब फेसबुक की वजह से अपने प्रिय दोस्त को खुद से दूर होते देखती हैं तो एक रात वो फेसबुक के अपने 121 दोस्तों को विदाई का मैसेज भेजती हैं और अपनी जिंदगी का अंत कर लेती हैं। उनके दोस्त को उनके 121 दोस्तों में से कई लोगों से एक असुरक्षा का भाव महसूस होता है और जब यह निजी संबंधों को टूटन और बेहद तनाव की तरफ खींचने लगता है तो वे त को गले लगा लेती हैं।
वैसे कहने को तो फेसबुक अकाउंट पर अनगिनत दोस्त बनाए जा सकते हैं लेकिन क्या वे वाकई में दोस्त और हमदर्द हैं,
यह अपने आप में एक सवाल है। अमरीका में ही एक महिला जब अपने फेसबुक वॉल पर लिखती है कि वह अपनी जिंदगी से तंग आ गई है और कुछ ही देर में आत्महत्या करने वाली है तो लोग उस स्टेट्स को लाइक तो कर देते हैं पर एक भी शख्स, यहां तक कि पड़ोसी भी, उसे संबल देने नहीं जाता। वह महिला कुछ देर बाद वाकई आत्महत्या कर लेती है और फेसबुक से उसका जुड़ा पड़ोसी सोसायटी में पुलिस को आते देखता है तो उसे स्टेट्स में लिखे शब्दों का यथार्थ पता चलता है।
यह है फेसबुक। बेशक इस समय फेसबुक अपने उफान पर है। आधुनिक युवा सामाजिक संपर्कों के नाम पर इस पर सबसे ज्यादा समय खर्च करने लगा है। भले ही अमरीका भी जोर-शोर से तुम्हें पूरी तरह से सफल और क्रांतिकारी कह रहा हो और नई पीढ़ी के लिए तुम अलादीन का चिराग बन गए हो, लेकिन दोस्त, कहीं ठहर कर कुछ सोचने की जरूरत भी है।
नहीं,
कहने का यह मतलब कतई नहीं कि तुम सिर्फ परेशानियों का पिटारा लेकर आए हो या फिर तमाम त्रासदियों के लिए तुम ही जिम्मेदार हो। मैं जानती हूं तुमने सोशल नेटवर्किंग का एक बड़ा सुनहला दरवाजा खोला है। यहां पल भर में पूरी दुनिया से जुड़ा जा सकता है। यह संपर्कों की तिजोरी को खोलता है और कई मामलों में जादुई भी है। तुम्हारी वजह से कई पुरानी गलियां गलबहियां डाल रही हैं। लंगोटिया यार सालों बाद एक-दूसरे के दिलों के करीब आ रहे हैं। दुनिया पूरी तरह से जैसे एक मुट्ठी में समा गयी है। हां, माउस के एक क्लिक से इंसान दुनिया के किसी भी छोर तक जा पहुंचता है।तुमने आवाज और दृश्य की गति को कई कल्पना से भी आगे ले जाकर बढ़ा दिया है। इसके लिए निश्चित तौर पर तुम बधाई के पात्र हो।
शायद तुम सीधे तौर पर इसके लिए जिम्मेदार न हो क्योंकि तुम शायद आए किसी सकारात्मक मकसद से ही थे लेकिन जैसा कि हर तकनीक के साथ होता है, यहां भी तकनीक कई काले साये साथ लेकर चली आई है।
हां, तो मैनें महसूस किया कि तुम एक उस दौर में पनपे हो जब मीडिया का दखल तो खूब है लेकिन मीडिया की साक्षरता अब भी नदारद। इसलिए तुमने जिस खुले मंच को एकाएक महैया करा दिया है, वह चुंधियाती रौशनी के साथ आया है। यह मंच हैरान करता है। हाथ के संपर्क में की बोर्ड होता है और सामने होता है –एक खुला आकाश – एक गलतफहमी देता हुआ कि यहां कभी भी, कुछ भी कहा जा सकता है। एक अड्डा जहां कुछ भी कहा-लिखा-पोस्ट किया जा सके। अपनी भड़ास निकाली जा सकती है, संबंधों को उधेड़ा, निचोड़ा और फायदेमंद बनाया जा सके।एक –दूसरे की फ्रेंड लिस्ट में झांकते लोग उस पड़ोसी से भी बदतर हो जाते हैं कई बार जिन्हें दीवारों से कान लगाकर बात सुनने की आदत होती है। यह एक ऐसा मंच बन गया है जहां कोई रोक नहीं। कोई बंदिश और कोई सजा नहीं। यहां बहुत कुछ किसी मतलब से शुरू होता है और उसी पर खत्म भी होता है।
मुझे लगने लगा है कि नेटवर्किंग के बहाने तुम्हारा मंच कई चालाकियों के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है। यह रिश्तों की एक कच्ची जमीन है। माउस के एक क्लिक से लोग फ्रेंड बनते हैं, फिर अन-फ्रेंड भी होते हैं। फिर भी कोई किसी का नहीं। कंधों का सहारा ढूंढते कि जाने कौन काम आ जाए। हां, जब संवेदनाएं, खुशियां या सच बंटते हैं, सुकून मिलता है। पर ऐसा कम होता है। इस पिलपिली और स्वार्थी जमीन पर अब मैं रोज नहीं आउंगी। यह मैने तय किया है। ऐसी ही कई वजहें रही होंगी कि पिछले कुछ महीनों में कई लोगों ने अपने फेसअकाउंट बंद कर दिए। पर मैं ऐसा नहीं कर रही। मैं सिर्फ कुछ दूरी से अब तुम्हारी रफ्तार को देखना और समझना चाहती हूं।
वैसे यह भी लगता है कि मौजूदा पोस्ट-मॉर्डन सोसायटी यह मौका तो देती ही है कि आजाद हस्तक्षेप किया जा सके। इसलिए इस टिप्पणी को सकारात्मक रूप से लेना।
हां, फिलहाल मैं कुछ समय के लिए तुमसे दूर जा रही हूं।
एक फेसबुक यूजर
वर्तिका नन्दा
(एक छोटा अंश 28 सितंबर, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित)