- मीडिया और अपराध की परिभाषाजर्मन समाजशास्त्री जर्गन हैबरमास ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के मीडियाई विकास के सोपानों को गौर से पढ़ा और पाया कि इसके बीज लंदन, पेरिस और तमाम यूरोपीय देशों में पब्लिक स्फीयर के आस-पास विकसित हुए। यहां के कॉफी हाउस और सैलून से पब्लिक डीबेट परवान चढ़े लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति का मंचन संसद और मीडिया में होता है जबकि जनता के हितों पर आर्थिक हित हावी हो जाते हैं। यह माना गया कि जनता की राय विचारों के आदान-प्रदान के खुले प्रवाह के जरिए नहीं बल्कि बड़े लोगों के प्रभाव और तोड़ने-मरोड़ने के अंदाज पर निर्भर करती है। जाहिर है कि अक्सर कवायद जिस जनता के नाम पर की जाती है, वह असल में आत्म-सुख से प्रेरित होकर दिमागी ताने-बाने का शिकार होती है।अपराध के नाम से तेजी से कटती फसल भी इसी अंदेशे की तरफ इशारा करते दिखती है। करीब 225 साल पुराने प्रिंट मीडिया और 60 साल से टिके रहने की जद्दोजहद कर रहे इलेक्ट्रानिक मीडिया की खबरों का पैमाना अपराध की बदौलत अक्सर छलकता दिखाई देता है। खास तौर पर टेलीविजन के 24 घंटे चलने वाले व्यापार में अपराध की दुनिया खुशी की सबसे बड़ी वजह रही है क्योंकि अपराध की नदी कभी नहीं सूखती।
- पत्रकार मानते हैं कि अपराध की एक बेहद मामूली खबर में भी अगर रोमांच, रहस्य, मस्ती और जिज्ञासा का पुट मिला दिया जाए तो वह चैनल के लिए आशीर्वाद बरसा सकती है। लेकिन जनता भी ऐसा ही मानती है, इसके कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं।बुद्धू बक्सा कहलाने वाला टीवी अपने जन्म के कुछ ही साल बाद इतनी तेजी से करवटें बदलने लगेगा, इसकी कल्पना आज से कुछ साल पहले शायद किसी ने भी नहीं की होगी लेकिन हुआ यही है और यह बदलाव अपने आप में एक बड़ी खबर भी है। मीडिया क्रांति के इस युग में हत्या, बलात्कार, छेड़-छाड़, हिंसा- सभी में कोई न कोई खबर है। यही खबर 24 घंटे के चैलन की खुराक है। अखबारों के पेज तीन की जान हैं। इसी से मीडिया का अस्तित्व पल्लवित-पुष्पित हो सकता है। नई सदी के इस नए दौर में यही है- अपराध पत्रकारिता और इसे कवर करने वाला अपराध पत्रकार भी कोई मामूली नहीं है। हमेशा हड़बड़ी में दिखने वाला, हांफता-सा, कुछ खोजता सा प्राणी ही अपराध पत्रकार है जो तुरंत बहुत कुछ कर लेना चाहता है। पिछले कुछ समय में मीडिया का व्यक्तित्व काफी तेजी के साथ बदला है। सूचना क्रांति का यह दौर दर्शक को जितनी हैरानी में डालता है, उतना ही खुद मीडिया में भी लगातार सीखने की ललक और अनिवार्यता को बढ़ाता है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि इस क्रांति ने देश भर की युवा पीढ़ी में मीडिया से जुड़ने की अदम्य चाहत तो पैदा की है लेकिन इस चाहत को पोषित करने के लिए लिखित सामग्री और बेहद मंझा हुआ प्रशिक्षण लगभग नदारद है। ऐसे में सीमित मीडिया लेखन और भारतीय भाषाओं में मीडिया संबंधी काफी कम काम होने की वजह से मीडिया की जानकारी के स्रोत तलाशने महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मीडिया के फैलाव के साथ अपराध रिपोर्टिंग मीडिया की एक प्रमुख जरुरत के रुप में सामने आई है। बदलाव की इस बयार के चलते इसके विविध पहलुओं की जानकारी भी अनिवार्य लगने लगी है। असल में 24 घंटे के न्यूज चैनलों के आगमन के साथ ही तमाम परिभाषाएं और मायने तेजी से बदल दिए गए हैं। यह बात बहुत साफ है कि अपराध जैसे विषय गहरी दिलचस्पी जगाते हैं और टीआरपी बढ़ाने की एक बड़ी वजह भी बनते हैं। इसलिए अब इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह भी माना जाता है कि अपराध रिपोर्टिंग से न्यूज की मूलभूत समझ को विकसित करने में काफी मदद मिलती है। इससे अनुसंधान, संयम, दिमागी संतुलन और निर्णय क्षमता को मजबूती भी मिलती है। जाहिर है जिंदगी को बेहतर ढंग से समझने में अपराधों के रुझान का बड़ा योगदान हो सकता है। साथ ही अपराध की दर पूरे देश की सेहत और तात्कालिक व्यवस्था का भी सटीक अंदाजा दिलाती है। अपराध रिपोर्टिंग की विकास यात्राअपराध के प्रति आम इंसान का रुझान मानव इतिहास जितना ही पुराना माना जा सकता है। अगर भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों को गौर से देखें तो वहां भी अपराध बहुतायत में दिखाई देते हैं। इसी तरह कला, साहित्य, संस्कृति में अपराध तब भी झलकता था जब प्रिंटिग प्रेस का अविष्कार भी नहीं हुआ था लेकिन समय के साथ-साथ अपराध को लेकर अवधारणाएं बदलीं और मीडिया की चहलकदमी के बीच अपराध एक 'बीट' के रुप में दिखाई देने लगा। अभी दो दशक पहले तक दुनिया भर में जो महत्व राजनीति और वाणिज्य को मिलता था, वह अपराध को मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर धीरे-धीरे लंदन के समाचार पत्रों ने अपराध की संभावनाओं और इस पर बाजार से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं को महसूस किया और छोटे-मोटे स्तर पर अपराध की कवरेज की जाने लगी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के आस-पास टेबलॉयड के बढ़ते प्रभाव के बीच भी अपराध रिपोर्टिंग काफी फली-फूली। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि दुनिया भर में आतंकवाद किसी न किसी रूप में हावी था और बड़ा आतंकवाद अक्सर छोटे अपराध से ही पनपता है, यह भी प्रमाणित है। इसलिए अपराधों को आतंकवाद के नन्हें रुप में देखा-समझा जाने लगा। अपराध और खोजी पत्रकारिता ने जनमानस को सोचने की खुराक भी सौंपी। वुडवर्ड और बर्नस्टन के अथक प्रयासों की वजह से ही वाटरगेट मामले का खुलासा हुआ था जिसकी वजह से अमरीका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अपना पद तक छोड़ना पड़ा था। इसी तरह नैना साहनी मामले के बाद सुशील शर्मा का राजनीतिक भविष्य अधर में ही लटक गया। उत्तर प्रदेश के शहर नोएडा में सामने आए निठारी कांड की गूंज संसद में सुनाई दी। जापान के प्रधानमंत्री तनाका को भी पत्रकारों की जागरुकता ही नीचा दिखा सकी। इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस ने बरसों पहले कमला की कहानी के जरिए यह साबित किया था कि भारत में महिलाओं की ख़रीद-फरोख़्त किस तेज़ी के साथ की जा रही थी। यहां तक कि भोपाल की यूनियन कार्बाइड के विस्फोट की आशंका आभास भी एक पत्रकार ने दे दिया था। इस तरह की रिपोर्टिंग से अपराध और खोजबीन के प्रति समाज की सोच बदलने लगी। कभी जनता ने इसे सराहा तो कभी नकारा। डायना की मौत के समय भी पत्रकार डायना के फोटो खींचने में ही व्यस्त दिखे और यहां भारत में भी गोधरा की तमाम त्रासदियों के बीच मीडिया के लिए ज्यादा अहम यह था कि पहले तस्वीरें किसे मिलती हैं। इसी तरह संसद पर हमले से लेकर आरुषि मामले तक घटनाएं एक विस्तृत दायरे में बहुत दिलचस्पी से देखी गई। धीरे-धीरे अपराध रिपोर्टिंग और खोजबीन का शौक ऐसा बढ़ा कि 90 के दशक में, जबकि अपराध की दर गिर रही थी, तब भी अपराध रिपोर्टिंग परवान पर दिखाई दी। हाई-प्रोफाइल अपराधों ने दर्शकों और पाठकों में अपराध की जानकारी और खोजी पत्रकारता के प्रति ललक को बनाए रखा। अमरीका में वाटर गेट प्रकरण से लेकर भारत में नैना साहनी की हत्या तक अनगिनित मामलों ने अपराध और खोजबीन के दायरे को एकाएक काफी विस्तार दिया।टेलीविजन के युग में अपराध पत्रकारिता अखबारों के पेज नंबर तीन में सिमटा दिखने वाला अपराध 24 घंटे की टीवी की दुनिया में सर्वोपरि मसाले के रुप में दिखाई लगा। फिलहाल स्थिति यह है कि तकरीबन हर न्यूज चैनल में अपराध पर विशेष कार्यक्रम किए जाने लगे हैं। अब अपराध को मुख्य पृष्ठ की खबर या टीवी पर पहली हेडलाइन बनाने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता। मीडिया मालिक यह समझने लगे हैं कि अब दर्शक की रूचि राजनीति से कहीं ज्यादा अपराध में है। इसलिए इसके कलेवर को लगातार ताजा, दमदार और रोचक बनाए रखना बहुत जरुरी है। लेकिन अगर भारत में टेलीविजन के शुरुआती दौर को टटोलें तो वहां भी प्रयोगों की कोशिश होती दिखती है। 1959 में भारत में टेलीविजन का जन्म सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक था। तब टीवी का मतलब विकास पत्रकारिता ज्यादा और खबर कम था। वैसे भी सरकारी हाथों में कमान होने की वजह से टीवी की प्राथमिकताओं का कुछ अलग होना स्वाभाविक भी था।भारत में दूरदर्शन के शुरुआती दिनों में इसरो की मदद से साइट नामक परियोजना की शुरुआत की गई थी ताकि भारत में खाद्य के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके। यह भारत के विकास की दिशा में एक ठोस कदम था। इसने सामुदायिक टीवी के जरिए आम इंसान को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसे लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सका। 1983 में पी सी जोशी ने भारतीय ब्राडकास्टिंग रिपोर्ट में कहा था कि हम दूरदर्शन को गरीब तबके तक पहुंचाना चाहते हैं। दूरदर्शन ने इस कर्तव्य को निभाने के प्रयास भी किए लेकिन सेटेलाइट टेलीविजन के आगमन के बाद परिस्थितियां काफी तेजी से बदल गईं।90 का दशक आते-आते भारत में निजी चैनलों ने करवट लेनी शुरु की और इस तरह भारत विकास की एक नई यात्रा की तरफ बढ़ने लगा। जी न्यूज ने जब पहली बार समाचारों का प्रसारण किया तो इन समाचारों का कलेवर उन समाचारों से अलग हटकर था जिन्हें देखने के भारतीय दर्शक आदी थे। नए अंदाज के साथ आए समाचारों ने दर्शकों को तुरंत अपनी तरफ खींच लिया और दर्शक की इसी नब्ज को पकड़ कर टीवी की तारों के साथ नए प्रयोगों का दौर भी पनपने लगा। वैसे भी न्यूज ट्रैक की वजह से भारतीयों को सनसनीखेज खबरों का कुछ अंदाजा तो हो ही गया था। 80 के दशक में जब खबरों की भूख बढ़ने लगी थी और खबरों की कमी थी, तब इंडिया टुडे समूह के निर्देशन में न्यूज ट्रैक का प्रयोग अभूतपूर्व रहा था। न्यूज ट्रैक रोमांच और कौतहूल से भरी कहानियां को वीएचएस में रिकार्ड करके बाजार में भेज देता था और यह टेपें हाथों-हाथ बिक जाया करती थीं। भारतीयों ने अपने घरों में बैठकर टीवी पर इस तरह की खबरी कहानियां पहली बार देखी थीं और इसका स्वाद उन्हें पसंद भी आया था।दरअसल तब तक भारतीय दूरदर्शन देख रहे थे। इसलिए टीवी का बाजार यहां पर पहले से ही मौजूद था लेकिन यह बाजार बेहतर मापदंडों की कोई जानकारी नहीं रखता था क्योंकि उसका परिचय किसी भी तरह की प्रतिस्पर्द्धा से हुआ ही नहीं था। नए चैनलों के लिए यह एक सनहरा अवसर था क्योंकि यहां दर्शक बहुतायत में थे और विविधता नदारद थी। इसलिए जरा सी मेहनत, थोड़ा सा रिसर्च और कुछ अलग दिखाने का जोखिम लेने की हिम्मत भारतीय टीवी में एक नया इतिहास रचने की बेमिसाल क्षमता रखती थी। जाहिर है इस कोशिश की पृष्ठभूमि में मुनाफे की सोच तो हावी थी ही और जब मुनाफा और प्रतिस्पर्द्धा- दोनों ही बढ़ने लगा तो नएपन की तलाश भी होने लगी। दर्शक को हर समय नया मसाला देने और उसके रिमोट को अपने चैनल पर ही रोके रखने के लिए समाचार और प्रोग्रामिंग के विभिन्न तत्वों पर ध्यान दिया गया जिनमें पहले पहल राजनीति और फिर बाद में अपराध भी प्रमुख हो गया। वर्ष 2000 के आते-आते चैनल मालिक यह जान गए कि अकेले राजनीति के बूते चैनलनुमा दुकान को ज्यादा दिनों तक टिका कर नहीं रखा जा सकता। अब दर्शक को खबर में भी मनोरंजन और कौतुहल की तलाश है और इस चाह को पूरा करने के लिए वह हर रोज सिनेमा जाने से बेहतर यही समझता है कि टीवी ही उसे यह खुराक परोसे। चैनल मालिक भी जान गए कि अपराध को सबसे ऊंचे दाम पर बेचा जा सकता है और इसके चलते मुनाफे को तुरंत कैश भी किया जा सकता है। अपराध में रहस्य, रोमांच, राजनीति, जिज्ञासा, सेक्स और मनोरंजन- सब कुछ है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसके लिए न तो 3 घंटे खर्च करने की जरूरत पड़ती है और न ही सिनेमा घर जाने की। वास्तविक जीवन की फिल्मी कहानी को सिर्फ एक या डेढ़ मिनट में सुना जा सकता है और फिर ज्यादातर चैनलों पर उनका रिपीट टेलीकॉस्ट भी देखा जा सकता है। भारत में अपराध रिपोर्टिंग के फैलाव का यही सार है। भारत में निजी चैनल और बदलाव की लहरभारत में 90 के दशक तक टीवी बचपन में था। वह अपनी समझ को विकसित, परिष्कृत और परिभाषित करने की कोशिश में जुटा था। खबर के नाम पर वह वही परोस रहा था जो सरकारी ताने-बाने की निर्धारित परिपाटी के अनुरुप था। इसके आगे की सोच उसके पास नहीं थी लेकिन संसाधन बहुतायत में थे। इसलिए टीवी तब रुखी-सूखी जानकारी का स्त्रोत तो था लेकिन एक स्तर के बाद तमाम जानाकरियां ठिठकी हुई ही दिखाई देती थीं। यह धीमी रफ्तार 90 के शुरुआती दशक तक जारी रही। इमरजेंसी की तलवार के हटने के बाद भी मीडिया की रफ्तार एक लंबे समय तक रुकी-सी ही दिखाई दी।1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली में रैली का एलान किया तो दूरदर्शन को सरकार की तरफ से कथित तौर पर यह निर्देश मिला कि रैली का कवरेज कुछ ऐसा हो कि वह असफल दिखाई दे। इस मकसद को हासिल करने के लिए दूरदर्शन ने पूरजोर ताकत लगाई। दूरदर्शन के कैमरे रैली-स्थल पर उन्हीं जगहों पर शूट करते रहे जहां कम लोग दिखाई दे रहे थे। रात के प्रसारण में दूरदर्शन ने अपनी खबरों में रैली को असफल साबित कर दिया लेकिन उसकी पोल दूसरे दिन अखबारों ने खोल दी। रैली में लाखों लोग मौजूद थे और तकरीबन सभी अखबारों ने अपार जनसमूह के बीच जेपी को संबोधित करते हुए दिखाया था।तब अपराध नाम का एजेंडा शायद दूरदर्शन की सोच में कहीं था भी नहीं। तब कवरेज बहुत सोच-परख कर की जाती थी। इसके अपने नफा-नुकसान थे लेकिन पंजाब में जब आतंकवाद अपने चरम पर था, तब दूरदर्शन का बिना मसाले के खबर को दिखाना काफी हद तक फायदेमंद ही रहा। जिन्हें इसमें कोई शक न हो, वो उन परिस्थितियों को निजी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज करने की हड़बड़ाहट की कल्पना कर समझ सकते हैं। इसी तरह इंदिरा गांधी और फिर बाद में राजीव गांधी की हत्या जैसे तमाम संगीन और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी घटनाओं को बेहद सावधानी से पेश किया गया। खबरों को इतना छाना गया कि खबरों के जानकार यह कहते सुने गए कि खबरें सिर्फ कुछ शॉट्स तक ही समेट कर रख दी गई और शाट्स भी ऐसे जिनकी परछाई तक विद्रूप न हो और जो सामाजिक या धार्मिक द्वेष या नकारात्मक विचारों की वजह न बनते हों। विवादास्पद और आतंक से जुड़ी खबरों को बहुत छान कर अक्सर या तो बिना शाट्स के ही बता दिया जाता या फिर ज्यादा से ज्यादा 10 से 15 सेंकेंड की तस्वीर दिखा कर ख़बर बता दी जाती। कोशिश रहती थी कि खबर सिर्फ एक खबर हो, आत्म-अभिव्यवक्ति का साधन नहीं। टीवी के पर्दे पर छोटे अपराध तो दिखते ही नहीं थे। ऐसी खबरें तो जैसे 'पंजाब केसरी' सरीखे अखबारों के जिम्मे थीं जो एक लंबे समय तक भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार बना रहा। इसी तरह एक समय में मनोहर कहानियां भी अपने इसी विशिष्ट कलेवर की वजह से एक अर्से तक भारतीय पत्रिकाओं की सरताज बनी रही थी। लेकिन सरकारी तंत्र के लिए इस तरह के प्रयोग करना अपने आप में एक बड़ी खबर थी। अति उत्साह में दूरदर्शन अपराध की तरफ झुका तो सही लेकिन एक सच यह भी है कि तब तमाम मसलों की कवरेज में कहीं कोई कसाव नहीं था। बेहतरीन तकनीक, भरपूर सरकारी प्रोत्साहन और धन से लबालब भरे संसाधनों के बावजूद सरकारी चैनल पर तो अक्सर गुणवत्ता दिखाई ही नहीं देती थी। इसी कमी को निजी हाथों ने लपका और टीवी के रंग-ढंग को ही बदल कर रख दिया। यहीं से टेलीविजन के विकास की असली कहानी की शुरुआत होती है। प्रतियोगिता ने टेलीविजन को पनपने का माहौल दिया है और इसे परिपक्वता देने में कुम्हार की भूमिका भी निभाई है। इसी स्वाद को जी टीवी ने समझा और भारतीय जमीन से खबरों का प्रसारण शुरु किया। पहले पहल जी टीवी ने हर रोज आधे घंटे के समाचारों का प्रसारण शुरु किया जिसमें राष्ट्रीय खबरों के साथ ही अतर्राष्ट्रीय खबरों को भी पूरा महत्व दिया गया। समाचारों को तेजी, कलात्मकता और तकनीकी स्तर पर आधुनिक ढंग से सजाने-संवारने की कोशिश की गई। आकर्षक सेट बनाए गए, भाषा को चुस्त किया गया, हिंग्लिश का प्रयोग करने की पहल हुई और नएपन की बयार के लिए तमाम खिड़कियों को खुला रखने की कोशिश की गई। इन्हीं दिनों दिल्ली में एक घटना हुई।टीवी पर अपराध रिपोर्टिंग यह घटना 1995 की है। एक रात नई दिल्ली के तंदूर रेस्तरां के पास से गुजरते हुए दिल्ली पुलिस के एक सिपाही ने आग की लपटों को बाहर तक आते हुए देखा। अंदर झांकने और बाद में पूछताछ करने के बाद यह खुलासा हुआ कि दिल्ली युवक कांग्रेस का एक युवा कार्यकर्ता अपने एक मित्र के साथ मिलकर अपनी पत्नी नैना साहनी की हत्या करने बाद उसके शरीर के टुकड़े तंदूर में डाल कर जला रहा था। यह अपनी तरह का अनूठा और वीभत्स अपराध था। जी ने जब इस घटना का वर्णन किया और तंदूर के शॉटस दिखाए तो दर्शक चौंक गया और वह आगे की कार्रवाई को जानने के लिए बेताब दिखने लगा। यह बेताबी राजनीतिक या आर्थिक समाचारों को जानने से कहीं ज्यादा थी और दर्शक आगे की खबर को नियमित तौर पर जानना भी चाहता था। इस तरह की कुछेक घटनाओं ने टीवी पर अपराध की कवरेज को प्रोत्साहित किया।बेशक इस घटना ने टीवी न्यूज में अपराध के प्रति लोगों की दिलचस्पी को एकदम करीब से समझने में मदद दी लेकिन दर्शक की नब्ज को पकड़ने में निजी चैनलों को भी काफी समय लगा। 90 के दशक में अक्सर वही अपराध कवर होता दिखता था जो प्रमुख हस्तियों से जुड़ा हुआ होता था। सामाजिक सरोकार और मानवीय संवेदनाओं से जुड़े आम जिंदगी के अपराध तब टीवी के पर्दे पर जगह हासिल नहीं कर पाते थे। विख्यात पत्रकार पी साईंनाथ के मुताबिक साल 1991 से लेकर 1996 तक मीडिया ने मोटापा घटाने से संबंधित इतनी खबरें दीं और विज्ञापन दिखाए कि उसमें यह तथ्य पूरी तरह से छिप गया कि तब 1000 मिलियन भारतीयों को हर रोज 74 ग्राम से भी कम खाना मिल पा रहा था। एक ऐसे वक्त में मीडिया मोटापा घटाने के लिए खुली तथाकथित दुकानों पर ऐसा केंद्रित हुआ कि वह उन लोगों को भूल गया जो अपना बचा-खुचा वजन बचाने की कोशिश कर रहे थे। इस माहौल में वही अपराध टीवी के पर्दे पर दिखाए जाने लगे जो कि ऊंची सोसायटी के होते थे या सनसनी की वजह बन सकते थे। चुनाव के समय भी अपराध को छानने की प्रक्रिया तेज हो जाती थी ताकि इसके राजनीति से जुड़े तमाम पहलुओं को आंका जा सके। जाहिर है कि ऐसे में अपराध की कवरेज ज्यादा मुश्किल और जोखम भरी थी और इसलिए अपराध रिपोर्ट करने में इच्छुक पत्रकार को खोजना अपराध की जानकारी रखने से ज्यादा मुश्किल माना जाता था। इसी कड़ी में 1995 में जी टीवी ने इंडियाज़ मोस्ट वांटेड नामक कार्यक्रम से एक नई शुरुआत की। इसके निर्माता सुहेल इलियासी ने इस कार्यक्रम की रुपरेखा लंदन में टीवी चैनलों पर नियमित रुप से प्रसारित होने वाले अपराध जगत से जुड़ी खबरों पर आधारित कार्यक्रमों को देख कर बनाई। यह कार्यक्रम अपने धमाकेदार अंदाज के कारण एकाएक सुर्खियों में आ गया। कार्यक्रम के हर नए एपिसोड में दर्शकों को पता चलता था कि जिस अपराधी का हुलिया और ब्यौरा सुहेल ने दिखाया था, वह अब सलाखों के पीछे है, तो वह टीवी की वाहवाही करने से नहीं चूकता था। यह बात यह है कि सुहेल की कार्यशैली हमेशा विवादों में रही।नए परिदृश्य में बदलाव का दौर21वीं सदी के आगमन के साथ ही परिदृश्य भी बदलने लगा। एनडीटीवी, आज तक, स्टार न्यूज, सहारा जैसे 24 घंटे के कई न्यूज चैनल बाजार में उतर आए और इनमें से किसी के लिए भी न्यूज बुलेटिनों को चौबीसों घंटे भरा-पूरा और तरोताजा रखना आसान नहीं था। इसके अलावा अब दर्शक के सामने विकल्पों की कोई कमी नहीं थी। दर्शक किसी एक चैनल की कवरेज दो पल के लिए पसंद न आने पर वह दूसरे चैनल का रुख कर लेने के लिए स्वतंत्र था। दर्शक की इस आजादी, बेपरवाही और घोर प्रतियोगिता ने चैनलों के सामने कड़ी चुनौती खड़ी कर दी। ऐसे में दर्शक का मन टटोलने की असली मुहिम अब शुरु हुई। बहुत जल्द ही वह समझने लगा कि दर्शक को अगर फिल्मी मसाले जैसी खबरें परोसी जाएं तो उसे खुद से बांधे रखना ज्यादा आसान हो सकता है। इसी समझ के आधार पर हर चैनल नियमित तौर पर अपराध कवर करने लगा। फिर यह नियमितता डेढ़ मिनट की स्टोरी से आगे बढ़ कर आधे घंटे के कार्यक्रमों में तब्दील होती गई और हर चैनल ने अपराध रिपोर्टरों की एक भरी-पूरी फौज तैयार करनी शुरु कर दी जो हर गली-मोहल्ले की खबर पर नजर रखने के काम में जुट गई। चैनल यह समझ गए कि ऐसे कार्यक्रमों के लिए टीआरपी, विज्ञापन और दर्शक सभी आसानी से मिल जाते हैं। अब खबरों की तलाश और उन्हें दिखाने का तरीका भी बेहद तेजी से करवट बदलने लगा। वर्ष 2000 में मंकी मैन एक बड़ी खबर बना। एक छोटी सी खबर पर मीडिया ने हास्यास्पद तरीके से हंगामा खड़ा किया। खबर सिर्फ इतनी थी कि दिल्ली के पास स्थित गाजियाबाद के कुछ लोगों का यह कहना था कि एक अदृश्य शक्ति ने एक रात उन पर हमला किया था। एक स्थनीय अखबार में यह खबर छपी जिसे बाद में दिल्ली की एक-दो अखबारों ने भी छापा। हफ्ते भर में ही दिल्ली के विभिन्न इलाकों से ऐसी ही मिलती-जुलती खबरें मिलने लगीं। ज्यादातर घटनाओं की खबर ऐसी जगहों से आ रही थीं जो पिछड़े हुए इलाके थे। टीवी रिपोर्टरों ने खूब चाव से इस खबर को कवर किया। आज तक और एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से मोहल्ले के मोहल्ले रात भर जाग कर चौकीदारी कर रहे हैं ताकि वहां पर 'मंकी मैन' न आए। फिर मीडिया को कुछ ऐसे लोग भी मिलने लगे जिनका दावा था कि उन्होंने मंकी मैन को देखा है। ऐसे में टीवी पर एक से बढ़कर एक रोचक किस्से सुनाई देने लगे। हर शाम टीवी चैनल किसी बस्ती से लोगों की कहानी सुनाते जिसमें कोई दावा करता कि मंकी मैन चांद से आया है तो कोई तो दावा करता कि मंगल ग्रह से। कुछ लोग अपनी चोटों और खरोंचों के निशान भी टीवी पर दिखाते। टीवी चैनलों ने इस अवसर का पूरा फायदा उठाया। एक चैनल ने तो एनिमेशन के जरिए इस कथित मंकी मैन का चित्र ही बना डाला और टीवी पर बताया कि अपने स्प्रिंगनुमा पंजों से मंकी मैन एक साथ कई इमारतें फांद लेता है। फिर एक कहानी यह भी आई कि शायद इस मंकी मैन के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। मंकी मैन एक, कहानियां अनेक और वह भी मानव रुचि के तमाम रसों से भरपूर! यह कहानी महीने भर तक चली और एकाएक खत्म भी हो गई। मीडिया दूसरी कहानियों में व्यस्त हो गया और मंकी मैन कहीं भीड़ में खो-सा गया। बाद में दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट ने भी किसी अदृश्य प्राणी और खतरनाक शक्ति की मौजूदगी जैसी कहानियों की संभावनाओं को पूरी तरह से नकार दिया।तो फिर यह मंकी मैन था कौन। बाद में जो एक जानकारी सामने आई, वह और भी रोचक थी। जानकारी के मुताबिक मंकी मैन का सारा हंगामा निचली बस्तियों में हो रहा था जहां बिजली की भारी कमी रहती है। गर्मियों के दिन थे और एकाध जगह वास्तविक बंदर के हमले पर जब मीडिया को मजेदार कहानियां मिलने लगीं तो वह भी इसे बढ़ावा देकर इसमें रस लेने लगा। लोग भी देर रात पुलिस और मीडिया की गुहार लगाने लगे। नतीजतन रात भर बिजली रहने लगी और गर्मियां सुकूनमय हो गईं। माना जाता है कि इस सुकून की तलाश में ही मंकी मैन खूब फला-फूला और स्टोरी की तलाश में हड़बड़ाकर मीडिया का दर्शक ने भी अपनी बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया।अपराध और आतंकलेकिन यह कहानी का एक छोटा-सा पक्ष है। बड़े परिप्रेक्ष्य में दिखाई देता है- करगिल। अपराधों की तलाश में भागते मीडिया के लिए 1999 में करगिल 'बड़े तोहफे' के रुप में सामने आया जिसे पकाना और भुनाना फायदेमंद था।
- मीडिया को एक्सक्लूजिव और ब्रेकिंग न्यूज की आदत भी तकरीबन इन्हीं दिनों पड़ी। एक युद्ध भारत-पाक सीमाओं पर करगिल में चल रहा था और दूसरा मीडिया के अंदर ही शुरु हो गया। कौन खबर को सबसे पहले, सबसे तेज, सबसे अलग देता है, इसकी होड़ सी लग गई। हर चैनल की हार-जीत का फैसला हर पल होने लगा। जनता हर बुलेटिन के आधार पर बेहतरीन चैनल का सर्टिफिकेट देने लगी। कुछ चैनलों ने अपनी कवरेज से यह साबित कर दिया कि प्यार और युद्ध में सब जायज है। इस बार भी मुहावरा तो वही रहा लेकिन मायने बदल गए। इस बार यह माना गया कि युद्ध के मैदान में एक्सक्लूजिव की दौड़ में बने रहने के लिए सब कुछ जायज है। यही वजह है कि माना जाता है कि एक भारतीय टीवी चैनल ने इस कदर गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग की कि रिपोर्टर की वजह से चार भारतीय जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यह माना जाती है कि टीवी पत्रकार की रिपोर्टिंग से ही पाकिस्तानी सेना को इस बात का अंदाजा लगा कि एक खास बटालियन की तैनाती उस समय किस दिशा में थी!इसके बाद दो और बड़ी घटनाएं हुईं। 22 दिसंबर 2000 की रात को लश्कर ए तायबा के दो फियादीन आतंकवादी लाल किले के अंदर जा पहुंचे और उन्होंने राजपूताना राइफल्स की 7वीं बटालियन के सुरक्षा गार्डों पर हमला कर तीन को मार डाला। 17वीं सदी के इस ऐतिहासिक और सम्माननीय इमारत पर हमला होने से दुनियाभर की नजरें एकाएक भारतीय मीडिया पर टिक गईं। तमाम राजनीतिक रिपोर्टरों ने शायद तब पहली बार समझा कि भारतीय मीडिया पर अपनी पकड़ बनाने के लिए अकेले संसद भवन तक की पहुंच ही काफी नहीं है बल्कि अपराध की बारीकियों की समझ भी महत्वपूर्ण है। फिर 13 दिसंबर 2001 को कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी ने संसद पर हमला कर दिया। यह दुनिया भर के इतिहास में एक अनूठी घटना थी। घटना भरी दोपहर में घटी। तब संसद सत्र चल रहा था कि अचानक गोलियों के चलने की आवाज आई। संसद सदस्यों और कर्मचारियों से लबालब भरे संसद भवन में उस समय हड़बड़ी मच गई। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि उस समय संसद भवन के अंदर और बाहर- दोनों ही जगह पत्रकार मौजूद थे। इनमें तकरीबन सभी प्रमुख चैनलों के टीवी कैमरामैन शामिल थे। पाकिस्तान के 5 आतंकवादियों ने करीब घंटे भर तक संसद में गोलीबारी की। इसमें 9 सुरक्षाकर्मियों सहित 16 अन्य लोग घायल हो गए। अभी संसद में हंगामा चल ही रहा था कि मीडिया ने भी अपनी विजय पताका फहरा दी क्योंकि मीडिया इस सारे हंगामे को कैमरे में बांध लेने में सफल रहा। कुछ कैमरामैनों ने अपनी जान पर खेल कर आतंकवादियों का चेहरा, उनकी भाग-दौड़, सुरक्षाकर्मियों की जाबांजी और संसद भवन के गलियारे में समाया डर शूट किया। एक ऐसा शूट जो शायद मीडिया के इतिहास में हमेशा सुरक्षित रहेगा। संसद में हमले के दौरान ही संसद भवन के बाहर खड़े रिपोर्टरों ने लाइव फोनो और ओबी करने शुरु कर दिए। पूरा देश आतंक का मुफ्त, रोमांचक और लाइव टेलीकास्ट देखने के लिए आमंत्रित था। थोड़ी ही देर बाद नेताओं का हुजूम भी ओबी वैनों की तरफ आ कर हर चैनल को तकरीबन एक सा अनुभव सुनाने लगा। हाथ भर की दूरी पर एक-दूसरे के करीब खड़े टीवी चैनल उस वक्त खुद आतंकित दिखने लगे क्योंकि यह समय खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का था। टीवी पर गोलियों की आवाज बार-बार सुनाई गई। फिर रात में रिपोर्टर ही नहीं बल्कि कुछ चैनल ने तो कैमरामैनों के इंटरव्यू भी दिखाए। यह पत्रकारिता के एक अनोखे युग का सूत्रपात था। हड़बड़ाए हुए मीडिया ने ब्रेकिंग न्यूज की पताका को हर पल फहराया। इस 'सुअवसर' की वजह से इलेक्ट्रानिक मीडिया एक सुपर पावर के रुप में प्रतिष्ठित होने का दावा करता दिखाई देने लगा और फिर ब्रेकिंग न्यूज की परंपरा को और प्रोत्साहन मिलता भी दिखाई दिया लेकिन यहां यह भी गौरतलब है कि मीडिया ने अपनी हड़बड़ी में कई गलत ब्रेकिंग न्यूज़ को भी अंजाम दिया और कई बार आपत्तिजनक खबरों के प्रसारण की वजह से सवालों से भी घिरा दिखाई दिया। जाहिर है कि मीडिया की हड़बड़ी के अंजाम भी मिले-जुले रहे हैं और इलेक्ट्रानिक मीडिया की जल्दबाजी और शायद आसानी से मिलती दिखती शोहरत की वजह से भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बीच बढ़ती दूरियां भी साफ दिखने लगी हैं। मीडिया ने कई बार न्यूज देने के साथ ही रिएल्टी टीवी बनाने की भी कोशिश की जिससे न्यूज की वास्तविक अपेक्षाओं से खिलवाड़ होता दिखाई देने लगा। इसका प्रदर्शन गुड़िया प्रकरण में भी हुआ। वर्ष 2004 में एक अजीबोगरीब घटना घटी। पाकिस्तान की जेल से 2 भारतीय कैदी रिहा किए गए। इनमें से एक, आरिफ़, के लौटते ही खबरों का बाजार गर्म हो गया। खबर यह थी कि आरिफ़ भारतीय सेना का एक जवान था और करगिल युद्ध के दौरान वह एकाएक गायब हो गया था। सेना ने उसे भगोड़ा तक घोषित कर दिया लेकिन अचानक खबर मिली कि वह तो पाकिस्तान में कैद था! अपने गांव लौटने पर उसने पाया कि उसकी पत्नी गुड़िया की दूसरी शादी हो चुकी है और वह 8 महीने की गर्भवती भी है। यहां यह भी गौरतलब है कि आरिफ़ जब लापता हुआ था, तब आरिफ़ और गुड़िया की शादी को सिर्फ 10 दिन हुए थे। अब वापसी पर आरिफ़ का कथित तौर पर मानना था कि गुड़िया को उसी के साथ रहना चाहिए क्योंकि शरियत के मुताबिक वह अभी भी पहले पति की ही विवाहिता थी। इस निहायत ही निजी मसले को मीडिया ने जमकर उछाला और भारतीय मीडिया के इतिहास में पहली बार जी न्यूज के स्टूडियो में लाइव पंचायत ही लगा दी गई। कई घंटे तक चली पंचायत के बाद यह फैसला किया गया कि गुड़िया आरिफ़ के साथ ही रहेगी। इस कहानी को परोसते समय मीडिया फैसला सुनाने का काम करता दिखा जो कि शायद मीडिया के कार्यक्षेत्र का हिस्सा नहीं है।लेकिन इस खबर का दूसरा पहलू और भी त्रासद था। खबर थी कि गुड़िया, आरिफ़ और उसके कुछेक रिश्तेदारों को जी टीवी के ही गेस्ट हाउस में काफी देर तक रखा गया ताकि कोई चैनल गुड़िया परिवार की तस्वीर तक न ले पाए। मीडिया की अंदरुनी छीना-झपटी की यह एक ऐसी मिसाल है जो मीडिया के अस्तिव पर गंभीर सवाल लगाने के लिए काफी है। यह एक ऐसी प्रवृति का परिचायक है जो घटनाओं को सनसनीखेज बनाकर अपराध की प्लेट पर परोस कर मुनाफे के साथ बेचना चाहती है।बदलते हुए माहौल के साथ मीडिया के राजनीतिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक समीकरण भी तेजी से बदलते रहते हैं। अपने पंख फैलाने की इस कोशिश में मीडिया ने कई बार सनसनी फैलाने से भी परहेज नहीं किया है फिर चाहे वह गोधरा हो या कश्मीर। अमरीकी टेलीविजन ने 11 सितंबर की घटना की कवरेज के समय जिस समझदारी से प्रदर्शन किया था, वह सीखने में भारतीय मीडिया को शायद अभी काफी समय लगेगा। अमरीका की अपने जीवनकाल की इतनी बड़ी घटना को भी अमेरीकी मीडिया ने मसाले में भूनकर नंबर एक होने की कोशिश नहीं की। इसकी एक बड़ी मिसाल यह भी है कि घटना की तस्वीरों को बुलेटिन को गरमागरम बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया लेकिन इस मिसाल से भारत सहित और कई देशों ने सबक नहीं लिया है। सितंबर 2004 में जब रुस के एक स्कूल पर हमलावरों ने हमला बोल दिया और 155 स्कूली बच्चों सहित करीब 320 लोगों को मार डाला तो खूनखराबे से भरे शॉट्स दिखाने में कोई परहेज़ नहीं किया गया। इसी तरह मीडिया ने कई बार अपराधियों को भी सुपर स्टार का दर्जा देने में भूमिका निभाई है। वह कभी चंदन तस्कर वीरप्पन को परम शक्तिशाली तस्कर के रुप में स्थापित करता दिखाई दिया तो कभी अपराधियों को पूरे सम्मान साथ राजनीति के गलियारों की धूप सेंकते बलशाली प्रतिद्वंदी के रुप में। जाहिर है- इस समय मीडिया का जो चेहरा हमारे सामने है, वह परिवर्तनशील है। उसमें इतनी लचक है कि वह पलक झपकते ही नए अवतार के रुप में अवतरित हो सकता है। नए युग में अपराध के अंदाज, मायने और तरीके बदल रहे हैं। साथ ही उनकी रोकथाम की गंभीर जरुरत भी बढ़ रही है। मीडिया चाहे तो इस प्रक्रिया में लगातार सार्थक भूमिका निभा सकता है। बेशक मीडिया ने अपराध की कवरेज के जरिए कई बार समाज की खोखली होती जड़ों को टटोला है लेकिन अब भी मीडिया को समाज के प्रति सकारात्मक रवैया रखने की नियमित आदत नहीं पड़ी है। अपराध की संयमित- संतुलित रिपोर्टिंग समाज में चिपक रही धूल की सफाई का कामगर उपकरण बन सकती है। यह कल्पना करना आसान हो सकता है लेकिन यह सपना साकार तभी होगा जब पत्रकार को शैक्षिक, व्यावहारिक और मानसिक प्रशिक्षण सुलभ हो सके। कुल मिलाकर बात प्रशिक्षण और सोच की ही है।
Sep 26, 2008
टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता
Sep 24, 2008
बाढ़ क्या संवेदना भी बहा ले जाती है ?
बात 1989 की है। उस साल हम फिरोजपुर में थे। एक दिन सुना कि फिरोजपुर के आस-पास के गांवों को बाढ़ ने घेर लिया है। अब बारी अपने शहर की है। लेकिन जैसी की इंसानी फितरत है, ऐसी बातों पर तब तक यकीन नहीं होता जब तक कि वे सच नहीं हो जातीं।
तो बात एक खास शाम की है। हमने सुना वाकई बाढ़ आ रही है। हमारे बंगले से आगे, जहां रेलवे के इन सरकारी बंगलों की शुरूआत होती है, वहां बाढ़ का पानी पहुंच गया है। पिछले एकाध दिन में हम घर का सामान वैसे तो कुछ ऊंचाई पर कर ही चुके थे लेकिन तब भी बाढ़ आएगी, ऐसा विश्वास नहीं था।
खैर जब खबर सुनी तो मैं अपनी मां के साथ बंगले से बाहर आई। देखा कि कुछ दूरी पर एक सफेद सी चीज दिख रही है। समझ में आया कि अरे यह तो पानी ही है। हम भाग कर घर के अंदर आए और पांच-दस मिनट में ही हमारा घर भी बाढ़ के पानी से भरने लगा। हम लोग खाने-पीने का थोड़ा-बहुत सामान लेकर तुरंत घर की छत पर चले गए। अब हम ऊपर थे, पानी नीचे। चिंता भी थी कि पानी बहुत भर न जाए। चूंकि हमारा घर ठीक-ठाक ऊंचाई पर था और घर का मैदान नीचा तो पानी का ज्यादा फैलाव मैदान के हिस्से ही आया।
अब छत की रात का किस्सा पढ़िए। हम चार और हमारे पड़ोस के तीन लोग -कुल सात-एक बड़ी छत पर। ऊपर से देख रहे हैं - पानी चारों तरफ भाग रहा है। हम दोनों बहनें छोटी ही थीं। बाढ़ को पहली बार देख रहे थे। इसलिए हैरान थे और थोड़े डरे भी। लेकिन अब भूख भी लगने लगी थी। मिलकर खाना बनाने लगे तो देखा कि सूखा आटा तो नीचे ही छूट गया। तो वो रात आदिमानवों की तरह कच्चा-पक्का खा कर पानी की बदमाश हिचकियों के बीच गुजरी। सुबह हम जैसे-तैसे नीचे उतरे लेकिन शाम होते-होते हालात ऐसे हो गए कि फिर छत का आश्रय लेना ही पड़ा। इस बार हम सात लोगों के साथ सूखा आटा भी आया।
देखते ही देखते बदबू हर तरफ फैल गई और दिखने लगे -हर तरफ ऐसे लंबे सांप जो इससे पहले कभी नहीं देखे थे। हम छत से देखते कि सांप तेज बहते पानी के साथ झुंड के झुंड में बह रहे हैं। कई सांप पेड़ों पर आपस में गुत्मगुत्था होते रहते और बेपरवाह पसरते।
बाढ़ का पानी धीरे-धीरे उतरने लगा पर मैदान पर पानी कई दिनों तक पसरा रहा। इस बीच आस-पास के गांवों में बहुत कुछ बह गया। महीनों लगे बाढ़ के बाद जिंदगी को अपनी लय में लौट आने में।
लेकिन इस बाढ़ ने लाजवाब सबक दिए। इस बेधड़क बहते पानी ने हमें सिखाया कि पानी को किसी व्याकरण में बांधा नहीं जा सकता। बेशक बांध बनाकर अपना तुष्टीकरण जरूर किया जा सकता है। बाढ़ ने सिखाया कि कानाफूसी जब चारों तरफ सुनाई देने लगे तो उस पर गौर करना चाहिए और बाढ़ ने सिखाया कि अपना वही है जो यह पल है। बाढ़-तूफान-भूचाल-बम-किसी का पता नहीं। फिर किस बात का दंभ? समय की समझ भी उस उफनते पानी ने ऐसी दी कि आज तक नहीं भूली है। यही वजह है कि आज भी जिंदगी का हर दिन आखिरी दिन मान कर काम पूरा कर लेने की इच्छा होती है। यही वजह है कि आज भी किसी पल को हंसी में उड़ाया ही नहीं जाता। यह वह समय था जब पंजाब में आतंकवाद जोरों पर था। आतंकवाद को लेकर राजनीतिक-गैर-राजनीतिक राय जो भी रही हो लेकिन एक आम नागरिक के नाते, जिसने अपना बचपन दहशत की सुबहों-शामों में जीया, महसूस किया कि बड़े डरों को झेलने के बाद छोटे डर वाकई बौने पड़ जाते हैं। एक बड़ा डर बाकी सभी डरों को चिरमिरा देता है और उसके बाद बिना डर के जीने की कला भी सिखा देता है।
वो समय ऐसा था जब 24 घंटे के न्यूज चैनलों की पैदाइश नहीं हुई थी। इसलिए परेशानी में भी अलग तरह की शांति थी और ऐसा होने की भी कोई संभावना नहीं थी कि किसी ने पलों के लिए आंखों का काजल बनाया और फिर उतार दिया। यह भी नहीं हुआ कि टीवी वालों के ओबी लगे हों और उन्होंने चुन-चुन के भरी आंखों वाले थोड़े 'ग्लैमरस' चेहरे खोजे हों और फिर उनसे पूछा हो कि मैडम, पानी में तो आप सब डूब गया। अब आपको कैसा लग रहा है? (कृपया इस पर 30 सेकेंड का एक बयान दें)।
बाढ़ का पानी धीमे-धीमे उतरा। बाढ़ पीड़ितों के लिए उपजी भावनाएं भी धीमे-धीमे ही उतरीं। भूलना भी धीमे-धीमे ही हुआ। चैक बटोरने वाले नेता तो तब भी थे लेकिन चूंकि तब चौबीसों घंटे चैनलों की छुपन-छुपाई नहीं थी, इसलिए नाटक भी कम ही हुए।
सोचती हूं कि इतने सालों में बाढ़ का चेहरा तो वही है पर उसे देखने-दिखाने का नजरिया बदल गया है। अब बाढ़ प्रोडक्ट ज्यादा है- मानवीय भावनाओं का स्पंदन करता विषय कम। जब तक अगला प्रोडक्ट पैदा नहीं होता(यानी अगली ब्रेकिंग न्यूज नहीं आती), तब तक वह प्रोडक्ट लाइफलाइन बना रहता है लेकिन कुछ 'नया' आते ही पुराने का गैर-जरूरी हो जाना तो तय है। यह मीडियाई मनोविज्ञान ही है कि बड़े विस्फोटों के कुछ घंटों बाद ही फिर से हंसो-हंसाओ अभियान शुरू कर दिए जाते हैं और सास-बहुओं से किसी भी हाल में कोई समझौता नहीं किया जाता। सब अपने स्लाट पर दिखाई देते हैं और सब अलग-अलग रंग भरते हैं ताकि ट्रजेडी में भी बना रहे ह्यूमर और जीए टीआरपी।
यहां टी एस ईलीयट की बात याद आती है। उनका मानना है कि टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसे करोड़ों लोग एक साथ देखते हैं, वे एक ही चुटकुले को देखते हैं और उस पर हंसते हैं लेकिन तब भी रहते हैं-अकेले ही। मीडिया शायद इसी अकेलेपन की कहानी है। यहां त्रासदी भी हंसी है, हंसी भी त्रासदी।
बहरहाल बाढ़ें आईं हैं, आगे भी आएंगीं। वे व्यापार, राजनीति, मीडिया की दिलचस्पी का फोकस भी बनेंगी लेकिन इनमें से किसी से भी सामाजिक हित में बड़ी उम्मीदें लगा लेना भविष्य में भावनात्मक सूखे को आमंत्रण देने जैसा ही होगा।
(यह लेख 24 सितंबर, 2008 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)
Sep 19, 2008
खुद की खबर पर खामोश मीडिया
दो साल पहले दिल्ली पब्लिक स्कूल के दो छात्रों का जो अश्लील एमएमएस बना, वह ब्रेकिंग न्यूज थी, देशभर ने वो तस्वीरें देखीं और जनता नैतिकता पर मीडिया की चिल्लाहट की गवाह बनी लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इस जोरदार कुप्रचार से लड़की के पिता इस कदर आहत हुए कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। यह खबर न तो फोनो या ओबी की वजह बनी और न ही किसी अखबार की सुर्खी। जिन चैनलों और अखबारों ने एमएमएस के बहाने टीआरपी के सेहतमंद ग्राफ से अपनी झोली भरी, वे भी आत्महत्या के मामले पर चुप्पी साध गए।
इसी तरह अभी कुछ समय पहले दिल्ली के ही एक पुरुष ने आत्महत्या कर ली क्योंकि मीडिया ने आरोप लगाया कि उसके अपनी साली से अवैध संबंध थे। मीडिया ने फैसला दिया तो अपने अंदर के सच के टूटने पर पुरुष ने अपनी जान देना ही सही समझा। मीडिया के इस झूठे तमाशे से जिन्दगी गई तो मीडिया चुप। अपनी गलती को उसने कालीन के नीचे ढक दिया और वह किसी और खबर के पीछे भागने लगा। लेकिन अब पत्रकार खुद खबर बन रहे हैं। उन्हीं वजहों से जिन पर खबर बनाने में उन्हें खूब मजा आता है। लाइव इंडिया चैनल का एक पत्रकार हाल में खबर कैसे बना, सब जानते हैं, लेकिन दूसरा पत्रकार, जिस वजह से खबर बना, वह अभी सिर्फ पत्रकारों के दायरे तक ही है। किसी ने न उस पर लिखा है, न ही उस पर कोई न्यूज ब्रेक की गई है।
दरअसल इन दिनों एक बड़े टीवी चैनल की महिला एंकर का एमएमएस बाजार में है। देखने वाले भरपूर चस्का लेकर इसे देख रहे हैं। यह एमएमएस भी दो पत्रकारों के बीच ही का है। सारी मीडिया बिरादरी दोनों पत्रकारों को जानती है या जान गई है। लेकिन खबर किसी ने नहीं लिखी और न ही किसी ने एमएमएस के जरिए व्यक्तिगत जीवन पर किए गए इस आक्षेप पर आपत्ति जताई है लेकिन यही मामला अगर अपनी बिरादरी के बाहर हुआ होता तो मीडिया जनता को तमाम जानकारियां रटा चुका होता।
महिला पत्रकार को लेकर बने एमएमएस का शायद यह तीसरा मामला है और मीडिया के अंदर आत्महत्या और हताशा की कहानी भी नई नहीं है। इसमें दो मुद्दे हैं- पहला, मीडिया का खुद खबर बनना- वह भी ऐसे मसले पर, जिस पर वह दूसरे पर कीचड़ उछालने में पल भर न लगाए। दूसरा- मीडिया- खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में टूटती वर्जनाओं का और अपने पेशे में उग रही फूंफूदी को झाड़ने की इच्छा न होने का। पहले मुद्दे पर तो मीडिया चुप है। वह जनता से अपने घर में दीमक लगे होने की बात छिपाने की अदाकारी जानता है लेकिन घर के बैठकर बिरादरी के किस्सों का रस भी ले रहा है। कुछ युवतियों ने एकाध वाक्य में इसे बचकानी हरकत बताया है जबकि कुछ के लिए यह मानिसक झंझावात से कम नहीं क्योंकि वे तरक्की के लिए न तो समझौता करना चाहती हैं न इस पेशे को छोड़ना। कुछ पुरुष पत्रकारों के लिए यह मामला बीयर के साथ स्नैक्स का काम कर रहा है तो कुछ के लिए अपनी कुंठा को निकालने का। वे अपने छोटे से सताए कुनबे में ऐसी कहानियां सुन-सुना रहे हैं जब किसी महिला विशेष की वजह से उन्हें प्रोमोशन नहीं मिल पाई या फिर मनचाही बीट झोली में नहीं आई।
बेशक मीडिया के अंदर छोटे-बड़े कई कैक्टस उगने लगे हैं। पत्रकारिता के कई नर्सरी स्कूल ककहरा पूरी तरह से पढ़ाए बिना ही अधखुले पैराशुट के साथ इन अर्ध-साक्षरों को मीडिया के मैदान में उतार देते हैं। यहां पुराने खिलाड़ी पहले से मौजूद हैं। इनसे खैर बड़ा खतरा नहीं है, न ही खतरा उनसे है जो समझौता करने की बजाए पथरीले रास्ते पर चलने को आमादा हैं। खतरा सिर्फ उनसे है जो यवा तैराक होने के साथ ही सीमाओं के बंधन से परे हैं और चिकने रास्ते के हिमायती।
दरअसल हम एक ऐसे देश की मीडिया का हिस्सा हैं जो जरा-सी पहरेदारी की बात सुनते ही बिदक जाता है। वह आजाद रहना चाहता है लेकिन एक सच यह भी है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का घर शीशे का है। दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने की लत अब छूटे नहीं छूटती। चारित्रिक शब्दकोष के खुद के बिखरे मानदंडों के बीच दूसरों के चरित्र का अवलोकन करने का हथियार मीडिया कब और कैसे पा गया, यह पता ही नहीं चला।
(यह लेख 23 सितंबर, 2007 के दैनिक हिंदु्स्तान में प्रकाशित हुआ)
Sep 17, 2008
हिन्दी ने साबित कर ही दी अपनी ताकत
करीब दो साल पहले दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में अंग्रेजी गायन की एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इसमें अंग्रजी के दुर्ग पर अधिकार जताने वाले अंग्रेजी, रेडियो, टीवी, विज्ञापन और जनसंपर्क पत्रकारिता के छात्रों ने हिस्सा लेने की भरपूर तैयारी की। प्रतियोगिता जब होने वाली थी, तो हिन्दी पत्रकारिता के छात्रों का उत्साह भी जगा लेकिन मसला था- अंग्रेजी। अंग्रजी में हाथ तंग छात्र भला इसमें क्या हिस्सा लेते लेकिन वे पीछे हटना भी नहीं चाहते थे। आखिरकार उन्होंने इसमें हिस्सा लेने की ठानी। कैंपस में जिसे भी इसकी सूचना मिली, वह गुदगुदाहट से भर गया। लेकिन यह खबर नहीं है। खबर वह है, जो इसके बाद बनी।
प्रतियोगिता हुई, सबने अंग्रजी गाने गाए और जमकर गाया हिन्दी विभाग भी और ले गया- पहला ईनाम। परम हैरानी! जीत कैसे क्यों हुई? इसलिए कि अंग्रेजी पर एकाधिकार समझने वाले उस गर्व में ऐसे फूले रहे कि कहीं पीछे छूट गए और जिनका अंग्रेजी से नाता नहीं था, वे ऐसा झूम-झूम कर गाए कि निर्णायक समिति ने उन्हें ही पहला स्थान दे दिया। हिन्दी वालों की उस जीत पर उस दिन दिली खुशी हुई।
ऐसी ही खुशी कुछ साल पहले तब हुई थी जब हिन्दी न्यूज चैनलों को शुरू करने की बात चली थी और नीति बनाने वालों ने सवालिया निशान लगाए थे कि आम आदमी की चलताऊ भाषा का चैनल क्या चलेगा! हिन्दी आम आदमी की भाषा हो सकती है, इसमें राष्ट्रीय प्रसारण के दौरान बंधे-बंधाए समय पर एकाध बुलेटिन भी हो सकता है लेकिन हाशिए पर पड़ी इस मुरझाई-हकलाई भाषा को चौबीसों घंटे भला कौन झेलेगा! लेकिन चैनल चला और उसे चलाने वाले भी। हिन्दी के दम ने साबित किया कि इस देश में चलेगा वही जो आम आदमी और उसकी भाषा से जुड़ा होगा।
इसी तरह की खुशी का आभास तब हुआ जब पार्लियामेंट लाइब्रेरी बिल्डिंग में कुछ सांसद हिन्दी सीखते दिखे। इन सांसदों को हिन्दी सिखा रहे थे- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से रिटायर हुए एक प्रोफेसर। स्वाभाविक तौर पर हिन्दी सीखने वालों की सूची में ज्यादातर सांसद दक्षिण भारतीय हैं। लेकिन इसमें गौरतलब है- हिन्दी सीखने की इच्छाशक्ति। प्रांत कोई भी हो, लोग हिन्दी पर अपना अधिकार कायम करना चाहते हैं। यही वजह है कि जापान से लेकर अमेरिका तक ऐसे बहुत लोग है जो हिन्दी ककहरा सीखने में जुटे हैं।
विशेषज्ञ इस बदलाव की कई वजहें गिना सकते हैं लेकिन बतौर पत्रकार निजी अनुभव के आधार पर मुझे लगता है कि यह अचानक नहीं हुआ। आजादी के साठ साल पूरे कर चुके इस देश में हिन्दी को हाशिए पर लाने की कई कोशिशें हुईं, होती रहेंगी, लेकिन हिन्दी ही जीत दिला सकती है, इसे समझने में सबसे ज्यादा तेजी उस तबके ने दिखाई जिसका जनता से सबसे सीधा वास्ता पड़ता है। वह चाहे नेता हो या मीडिया। अब तो जयललिता और राहुल गांधी भी हिन्दी में बतियाने लगे हैं। 2007 में तिरुवनंतपुरम में विधानसभा अध्यक्षों की सालाना बैठक के बाद हर शाम कला संध्या का हिन्दी में ही संचालन हुआ और निमंत्रण भी हिन्दी में छपे। फेहरिस्त लंबी है। बात वोटों की हो या टीआरपी की, जनता को खुद से जोड़ना हो तो मजबूरी में ही सही, भाषा अब उसी की बोली जाए, यह कायदा हुक्मरानों को समझ में आने लगा है।
एक और मिसाल विज्ञापन में दिखती है। विज्ञापनों में या तो शॉट्स तुरंत खींचते हैं या फिर स्क्रिप्ट। वह भी अपनी भाषा में हो तो उसका स्वाद बढ़ जाता है। ऐसा नहीं कि भारतीयों का स्वाद एकाएक बदला है। दरअसल घरों में टीवी रखने की जगह बदल गई है। ड्राइंग रुम में रखे टीवी में पहले अंग्रेजी को टांगे रखना लाजिमी-सा लगता था लेकिन अब नटखट टीवी उछल कर बेडरूम में आ गया है और बेडरूम में नकलीपन भला कौन चाहेगा! यह है हिन्दी की ताकत।
इस ताकत को राजनेता समझने लगे हैं, मीडिया समझ रही है, लेकिन योजना निर्धारक कब समझेंगे, कोई नहीं जानता। दरअसल सरकारी फाइलों पर तो हिन्दी के लिए अदृश्य अनचाहा लाल कालीन 1947 से ही बिछा है लेकिन यथार्थ की धरा पर हिन्दी के कलेवर पर अब भी पैबंद हैं। भाषा समितियां रटे-रटाए तरीके से सरक रही हैं। हिन्दी किताबों के लिए सलीकेदार प्रकाशक ढूंढना आज भी टेढ़ी खीर है। चैनलों में ठेठ हिन्दी वालों की जगह सिमटी है। कसे कपड़ों की तरह कसी अंग्रेजी बोलने वालों का हकलाता हुआ कुनबा तैयार हो रहा है जिसे दैनिक हिन्दुस्तान और हिन्दुतान टाइम्स में फर्क मालूम नहीं। यह वह कुनबा है जो भारत को इंडिया मानकर पृथ्वी की बजाय मंगल ग्रह से रिपोर्टिंग कर रहा है। ऐसे में हिन्दी वाले न्यूयार्क में भले ही ढाल-नगाड़े बजा आएं, पर बात तब बनेगी जब हिन्दी वाले हिन्दुस्तान में सीना तान कर चलना सीख लेंगे।
(यह लेख 22 जुलाई 2007 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)
प्रतियोगिता हुई, सबने अंग्रजी गाने गाए और जमकर गाया हिन्दी विभाग भी और ले गया- पहला ईनाम। परम हैरानी! जीत कैसे क्यों हुई? इसलिए कि अंग्रेजी पर एकाधिकार समझने वाले उस गर्व में ऐसे फूले रहे कि कहीं पीछे छूट गए और जिनका अंग्रेजी से नाता नहीं था, वे ऐसा झूम-झूम कर गाए कि निर्णायक समिति ने उन्हें ही पहला स्थान दे दिया। हिन्दी वालों की उस जीत पर उस दिन दिली खुशी हुई।
ऐसी ही खुशी कुछ साल पहले तब हुई थी जब हिन्दी न्यूज चैनलों को शुरू करने की बात चली थी और नीति बनाने वालों ने सवालिया निशान लगाए थे कि आम आदमी की चलताऊ भाषा का चैनल क्या चलेगा! हिन्दी आम आदमी की भाषा हो सकती है, इसमें राष्ट्रीय प्रसारण के दौरान बंधे-बंधाए समय पर एकाध बुलेटिन भी हो सकता है लेकिन हाशिए पर पड़ी इस मुरझाई-हकलाई भाषा को चौबीसों घंटे भला कौन झेलेगा! लेकिन चैनल चला और उसे चलाने वाले भी। हिन्दी के दम ने साबित किया कि इस देश में चलेगा वही जो आम आदमी और उसकी भाषा से जुड़ा होगा।
इसी तरह की खुशी का आभास तब हुआ जब पार्लियामेंट लाइब्रेरी बिल्डिंग में कुछ सांसद हिन्दी सीखते दिखे। इन सांसदों को हिन्दी सिखा रहे थे- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से रिटायर हुए एक प्रोफेसर। स्वाभाविक तौर पर हिन्दी सीखने वालों की सूची में ज्यादातर सांसद दक्षिण भारतीय हैं। लेकिन इसमें गौरतलब है- हिन्दी सीखने की इच्छाशक्ति। प्रांत कोई भी हो, लोग हिन्दी पर अपना अधिकार कायम करना चाहते हैं। यही वजह है कि जापान से लेकर अमेरिका तक ऐसे बहुत लोग है जो हिन्दी ककहरा सीखने में जुटे हैं।
विशेषज्ञ इस बदलाव की कई वजहें गिना सकते हैं लेकिन बतौर पत्रकार निजी अनुभव के आधार पर मुझे लगता है कि यह अचानक नहीं हुआ। आजादी के साठ साल पूरे कर चुके इस देश में हिन्दी को हाशिए पर लाने की कई कोशिशें हुईं, होती रहेंगी, लेकिन हिन्दी ही जीत दिला सकती है, इसे समझने में सबसे ज्यादा तेजी उस तबके ने दिखाई जिसका जनता से सबसे सीधा वास्ता पड़ता है। वह चाहे नेता हो या मीडिया। अब तो जयललिता और राहुल गांधी भी हिन्दी में बतियाने लगे हैं। 2007 में तिरुवनंतपुरम में विधानसभा अध्यक्षों की सालाना बैठक के बाद हर शाम कला संध्या का हिन्दी में ही संचालन हुआ और निमंत्रण भी हिन्दी में छपे। फेहरिस्त लंबी है। बात वोटों की हो या टीआरपी की, जनता को खुद से जोड़ना हो तो मजबूरी में ही सही, भाषा अब उसी की बोली जाए, यह कायदा हुक्मरानों को समझ में आने लगा है।
एक और मिसाल विज्ञापन में दिखती है। विज्ञापनों में या तो शॉट्स तुरंत खींचते हैं या फिर स्क्रिप्ट। वह भी अपनी भाषा में हो तो उसका स्वाद बढ़ जाता है। ऐसा नहीं कि भारतीयों का स्वाद एकाएक बदला है। दरअसल घरों में टीवी रखने की जगह बदल गई है। ड्राइंग रुम में रखे टीवी में पहले अंग्रेजी को टांगे रखना लाजिमी-सा लगता था लेकिन अब नटखट टीवी उछल कर बेडरूम में आ गया है और बेडरूम में नकलीपन भला कौन चाहेगा! यह है हिन्दी की ताकत।
इस ताकत को राजनेता समझने लगे हैं, मीडिया समझ रही है, लेकिन योजना निर्धारक कब समझेंगे, कोई नहीं जानता। दरअसल सरकारी फाइलों पर तो हिन्दी के लिए अदृश्य अनचाहा लाल कालीन 1947 से ही बिछा है लेकिन यथार्थ की धरा पर हिन्दी के कलेवर पर अब भी पैबंद हैं। भाषा समितियां रटे-रटाए तरीके से सरक रही हैं। हिन्दी किताबों के लिए सलीकेदार प्रकाशक ढूंढना आज भी टेढ़ी खीर है। चैनलों में ठेठ हिन्दी वालों की जगह सिमटी है। कसे कपड़ों की तरह कसी अंग्रेजी बोलने वालों का हकलाता हुआ कुनबा तैयार हो रहा है जिसे दैनिक हिन्दुस्तान और हिन्दुतान टाइम्स में फर्क मालूम नहीं। यह वह कुनबा है जो भारत को इंडिया मानकर पृथ्वी की बजाय मंगल ग्रह से रिपोर्टिंग कर रहा है। ऐसे में हिन्दी वाले न्यूयार्क में भले ही ढाल-नगाड़े बजा आएं, पर बात तब बनेगी जब हिन्दी वाले हिन्दुस्तान में सीना तान कर चलना सीख लेंगे।
(यह लेख 22 जुलाई 2007 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)
Sep 16, 2008
एक था चंचल
चंचल -
यही नाम था उसका
जब दिल्ली में बम फटा तो
उसने अपने कंधों को खून भरे कराहते लोगों को
उठाने में लगा दिया
बाहें उस लड़की को बचाने को मचल उठीं
जो अभी-अभी हरी चूड़ियां खरीद कर
दुकान से बाहर आई थी।
चंचल भागा
एक-एक को उठा सरकारी अस्पताल की तरफ।
वो हांफ गया।
पत्नी का फोन आया इस बीच -
कि ठीक तो हो
वो बोला - हां आज जी रहा हूं
दूसरों को बचाते हुए
सुनाई दे रही है
जिंदगी की धड़कन
इसलिए बात न करो
बस, जज्बातों के लिए बहने दो।
वो खुद खून से लथपथ था।
तभी कैमरे आए
पुलिस भी।
सायरनों के बीच
कोई लपका
चंचल को उठाने
वो बदहवास जो दिखता था!
लेकिन वो बोला- वो ठीक है
जिंदगी अभी उसके करीब है।
चंचल कुछ घंटे यही करता रहा
उसके पास उसके कंधे थे
और अपना हाथ था जगन्नाथ
एक कैमरे ने खींची उसकी तस्वीर(और छापी भी अगले दिन)
लेकिन चंचल रहा बेपरवाह।
जब उसके हिस्से का काम खत्म हुआ
वो चल निकला।
अब उसने वो खाली-बिखरी जगह
मीडिया, पुलिस और नेताओं के लिए छोड़ दी।
यही नाम था उसका
जब दिल्ली में बम फटा तो
उसने अपने कंधों को खून भरे कराहते लोगों को
उठाने में लगा दिया
बाहें उस लड़की को बचाने को मचल उठीं
जो अभी-अभी हरी चूड़ियां खरीद कर
दुकान से बाहर आई थी।
चंचल भागा
एक-एक को उठा सरकारी अस्पताल की तरफ।
वो हांफ गया।
पत्नी का फोन आया इस बीच -
कि ठीक तो हो
वो बोला - हां आज जी रहा हूं
दूसरों को बचाते हुए
सुनाई दे रही है
जिंदगी की धड़कन
इसलिए बात न करो
बस, जज्बातों के लिए बहने दो।
वो खुद खून से लथपथ था।
तभी कैमरे आए
पुलिस भी।
सायरनों के बीच
कोई लपका
चंचल को उठाने
वो बदहवास जो दिखता था!
लेकिन वो बोला- वो ठीक है
जिंदगी अभी उसके करीब है।
चंचल कुछ घंटे यही करता रहा
उसके पास उसके कंधे थे
और अपना हाथ था जगन्नाथ
एक कैमरे ने खींची उसकी तस्वीर(और छापी भी अगले दिन)
लेकिन चंचल रहा बेपरवाह।
जब उसके हिस्से का काम खत्म हुआ
वो चल निकला।
अब उसने वो खाली-बिखरी जगह
मीडिया, पुलिस और नेताओं के लिए छोड़ दी।
Sep 15, 2008
क्योंकि खबरों में अपराध बिकता है
डब्ल्यू जेम्स पोस्टर ने अपनी चर्चित किताब 'ऑन मीडिया वॉयलेंस' में लिखा है- समाज में मौजूद हिंसा जनता की सेहत की परेशानी की परिचायक है। मीडिया के जरिए हमें लगातार इसकी मौजूदगी का अहसास होता रहता है। मीडिया एक अकेले इंसान से जुड़े अपराधों को रिपोर्ट करता ही रहता है। हिंसा से जुड़ी खबरों का इस्तेमाल कई बार जनता के मनोरंजन के लिए भी बखूबी किया जाता है। इस तरह से मीडिया असल जिंदगी में मौजूद हिंसा के तत्वों को परिभाषित करता है और इन संदेशों को अंतहीन प्रयासों के जरिए हमारी सोच में भरता रहता है।
पोटर ने यह टिप्पणी भले ही अमेरिकी संदर्भ में की हो लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य पर भी यह सटीक लगती है। 90 के शुरुआती दशक में जब भारतीय दरवाजे पर निजी चैनल ने दस्तक दी थी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि कुछ ही साल में भारत में अपराध की कवरेज सर्वोपरि हो जाएगी। 1959 में जब भारत में दूरदर्शन का जन्म हुआ तो 'साइट' की परिकल्पना सामने आई जिसका मकसद भारत के गली-कूचों में विकास की नई कहानी लिखना था। 1975-76 में शुरू हुई साइट परियोजना ने देश के छह राज्यों में आकार लेना शुरू किया। इसमें 20 जिलों के 2340 गांव शामिल किए गए। इसका सबसे आकर्षक पहलू था- सेटेलाइट तकनीक का जनसंचार के प्रभावशाली माध्यम के रूप में इस्तेमाल।
ढीले-ढाले सरकारी तंत्र, कल्पनाहीनता और इच्छा शक्ति की कमी के बीच दूरदर्शन का फैलाव भले ही हुआ लेकिन निजी चैनलों के आगमन ने उसे काफी पछाड़ दिया। आज भी दूरदर्शन का दायरा 90-95 प्रतिशत आबादी तक माना जाता है कि लेकिन औसत भारतीय फिलहाल निजी चैनलों को ही प्राथमिकता देता है लेकिन इसमें एक रोचक कहानी भी है। निजी चैनलों का आगमन भले ही नई स्फूर्ति के साथ हुआ लेकिन एक समय बाद वे बाजारवाद में डूबे दिखने लगे। मीडिया के बुनियादी मकसद - सूचना, मनोरंजन और शिक्षा में निजी चैनल पहले दो मकसद तो पूरे करते दिखे लेकिन शिक्षा के नाम पर वे खाली हाथ ही दिखाई दिए। विशुद्ध बाजारवाद के बीच पिछले पांच साल में अपराध सबसे आगे है। मीडिया का मूलभूत मकसद विकास से परे हटकर टीआरपी और पूंजी पर केंद्रित होने लगा है और ऐसे में मीडिया की नए सिरे से समीक्षा जरूरी लगती है।
भारत में हर घंटे करीब दो बलात्कार होते हैं। यह आंकडा जितना चौंकाने वाला है, उतना ही चौंकाने वाले इसके कवरेज के प्रति रखा जाने वाला रवैया भी है। भारत में निजी चैनलों के आगमन के बाद अपराध को जोरदार महत्व दिया जाने लगा है। इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि दक्षिण एशिया ने सर्वोच्च पद पर पहुँचने वाली महिलाओं के मामले में एक रिकार्ड कायम किया है। इंदिरा गॉधी, भंडारनायके, चंद्रिका कुमारतुंगा, बेगम खालिदा, बेगम हसीना और बेनजीर भुट्टो। लेकिन इसके साथ ही महिला अधिकारों के नाम पर दक्षिण एशिया की स्थिति ही सबसे कमजोर है। भारत जैसे देश में आज 250 से ज्यादा टीवी चैनल देखे जा सकते हैं लेकिन इसके बावजूद आज भी मीडिया में आधी आबादी को आधी जगह तक नसीब नहीं हो पाई है। इसलिए जरूरी है कि महिला अपराध से जुड़े मुद्दों को आधार बना कर मीडिया की भूमिका की विवेचना की जाए। इसके तीन आधार हो सकते हैं।
मीडिया कवरेज - संवेदना या व्यापार
मीडिया विशेषज्ञों के आकलन पर यकीन करें तो महिला अपराध और उसमें भी बलात्कार, कवरेज का श्रेणी में सबसे उपर आता है। इसकी वजह यह है कि महिला अपराध में पुरूष को आकर्षित करने के सबसे ठोस तत्व होते हैं और ये ही पुरूष अपराध कार्यकमों के खास दर्शक भी हैं। रात 11 बजे तक जब महिलाएं सास-बहू की नोक-झोंक को झेलने या फिर उसका रस लेने के बाद थक जाती हैं तो रिमोट पुरूषों के हाथ में आ जाता है। तब वे अपराध या फिर खेल को ही प्राथमिकता देते हैं और अपराध में अगर सेक्स संबंधी मसाला हो तो वही पहला नंबर हासिल कर लेता है। लेकिन यहां सोचने की बात है - मीडिया की कवरेज और उसका महिला अपराध के प्रति रवैया कैसा है? इसका जवाब बहुत संतोषजनक नहीं है। इसके लिए कुछ टेलीविजन चैनलों के हेडलाइनों पर गौर किया जा सकता है। 'बलात्कारियों ने महिला को रौंदा', 'बर्बरता से महिला हवस की शिकार, अपराधी फरार' 'नाबालिगों ने एक अधेड़ को बनाया अपनी भूख का निशाना' वगैरह। टेलीविजन चैनलों पर सुनाई देने वाली ऐसी हेडलाइनें अक्सर अपराधी को एक विशिष्ट सम्मान देती दिखती हैं। लगता है इस देश में हर उम्र की महिला स्थायी तौर पर असुरक्षित है और अपराधी हमेशा ही भाग जाने में कामयाब होता है। इस संदर्भ में ब्रिटेन की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी के छह विशेषज्ञों की हाल में जारी अध्ययन रिपोर्ट को पढ़ा जा सकता है जो खुल कर कहती है कि टेलीविजन पर दिखायी जाने वाली हिंसा बच्चों में आक्रोश बढ़ाने की एक बड़ी वजह है।
जवाबदही और जिम्मेदार मोजेक की प्रथा
एक निजी चैनल के अपराध कार्यक्रम में एक स्टोरी दिखाई जा रही है। घटना दिल्ली के एक निम्न-वर्गीय परिवार की है। परिवार की एक नाबालिग लडकी से दो युवकों ने बलात्कार किया है और वे फरार हो गए हैं। अब पढ़िए कि इस स्टोरी को किस अंदाज में कवर किया गया है। स्टोरी में अपराधी पूरी तरह नदारद है। स्वभाविक है कि वे अभी पकडे़ नहीं गए हैं, युवती का चेहरा मोजैक करके दिखाया गया है (इसके पीछे चैनल का डर है) और इसके अलावा वह सब कुछ है जो युवती के दूर-दराज के सभी परिचितों और लोगों को सूचित करने के लिए काफी है। लड़की के घर का लांग-शॉ़ट और क्लोज-अप दोनों दिखाए गए हैं, लड़की के माँ-बाप का तीन बार फोटो दिखाया गया है, लड़की के बाप का व्यवसाय बताया गया है, मोहल्ले का नाम बताया गया है और कानूनी भाषा में कहें तो भला बताया ही क्या गया? कुछ भी तो नहीं। लड़की का नाम तो बताया ही नहीं।
मीडिया से इससे बड़ी बेईमानी की उपेक्षा नहीं की जा सकती। पूरी कहानी में न तो अपराधी का नाम बताया गया, न उसका फोटो दिखाया गया और न ही परिवार वाले या फिर परिचित दिखाए गए। कहानी इस अंदाज में की गई कि लड़की का जीना दूभर हो जाए और तथाकथित अपराधी को आंच भी न आए। हैरानी की बात यह है कि बात-बात पर बडे़-बडे़ सम्मेलनों में जमा हो जाने वाली महिला आयोग की तमाम वीरांगनाएं इस मुद्दे पर जरा भी आवाज नहीं निकालतीं। इसका संदेश साफ है- आम महिला के साथ हुआ अपराध कोई मायने नहीं रखता। यही वजह है कि बीते कुछ सालों में देखने में आया है कि अब दहेज संबंधी हत्याओं से कहीं ज्यादा महत्व महिला उत्पीड़न को मिलने लगा है। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर साल कम से कम पांच हजार युवतियां दहेज की बलि चढ़ती हैं लेकिन उन पर कितनी रिपोर्ट दिखाई देती हैं या फिर कितने फॉलोअप किये जाते हैं? अंग्रेजी अखबार तो फिर भी बलात्कार को 'मोलेस्टेशन' कह देते हैं लेकिन ज्यादातर हिन्दी अखबार बलात्कार शब्द को ही न्यूज़ी मानते हैं।
भारत में मथुरा बलात्कार कांड के बाद हुए कानूनी संशोधनों में 1983 मे पहली बार भारतीय दंड संहिता की धारा 228 ए में यह प्रावधान किया गया कि पीड़िता के नाम, पता और पहचान को गोपनीय रखा जाए। कानून बना लेकिन क्या ऐसी पीड़ित स्त्रियों के नाम गोपनीय रखे गये? गावों या फिर कस्बों में नाम-पता-पहचान गोपनीय रखना असंभव है। यही नहीं, बहुत बार तो समाचार पत्रों के मुख्य पृष्ठों पर छपी खबरों मे भी नाम गोपनीय नहीं रखे जाते। ऐसा करना दंडनीय अपराध है लेकिन निर्धन और निरक्षर ग्रामीण जनता ऐसा अन्याय होने पर भी कानूनी तौर पर कोई कदम नहीं उठा पाती। इसी वजह से मीडिया की अनुशासनहीनता और संवेदनहीनता भी बढ़ी। निजी चैनलों के आने के बाद नंबर एक पर पहुंचने और वहां पर टिकने की होड़ ऐसी बढ़ी कि पत्रकारिता के मानदंड कहीं पीछे छूट गए। इसी तरह दिल्ली के एक प्रतिष्ठित स्कूल के बच्चों की अश्लील फिल्म को टीवी चैनल पूरी दुनिया में प्रसारित करते हैं। स्थिती इतनी विकट हो जाती है कि लड़की को विदेश भेजना पड़ता है और बाद में लड़की का पिता आत्महत्या कर लेता है लेकिन मीडिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
निष्पक्षता
माना जाता है कि महिला अपराध कवर करने का जिम्मा अगर महिला पत्रकार को दिया जाए तो हालात बेहतर हो सकते हैं लेकिन प्रेस इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के ताजा आंकडों पर यकीन करें तो पता चलता है कि भारत में महिला पत्रकारों की संख्या आज भी बहुत कम है और दूसरी बात कि महिला पत्रकारों की उपस्थिति इस बात की गारंटी नहीं दे सकती कि महिलाओं के मुद्दों के साथ न्याय होगा। इसकी एक बड़ी मिसाल है- भारतीय महिला आयोग समेत कई गैर सरकारी संस्थाएं। इनकी मौजूदगी के बावजूद आज भी भारत में न तो महिलाओं की स्थिति में कोई बड़ा सुधार हुआ है और न ही कवरेज की शैली सुधरी है। कवरेज के हिसाब से तो असल में गिरावट ही आई है और ऐसे मामलों में संस्थाएं सेंसरशिप जैसे मुद्दे उठाने के सिवा ज्यादा कुछ नहीं कर सकी हैं।
इस सिलसिले में यूनिसेफ की रिपोर्ट काफी रोचक है। रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के 193 देशों में से सिर्फ 44 देशों ने ही घरेलू हिंसा के खिलाफ विधेयक लागू किया है। केवल 27 देशों मे यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून हैं जबकि 17 देश ही विवाह के बाद बलात्कार को अपराध के श्रेणी में रखते हैं। जाहिर है कि इस नजरिए के लिए अकेले पुरूषों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ऊंचे पदों पर आने के बाद महिलाएं भी अक्सर ऐसी मुद्दों के प्रति ढीली ही दिखती हैं। इसके अलावा मीडिया में काम कर रही महिलाओं की खुद की स्थिति कई बार इतनी सशक्त नहीं होती कि वे ऐसे बदलाव ला सकें।
लेकिन फिर इस समस्या का हल क्या है? असल में भारत में मीडिया अभी अपरिक्वता के दौर से गुजर रहा है। इसलिए उससे भरपूर समझदारी की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए लेकिन अब समझ आ गया है कि जवाबदेही को लेकर कड़ाई बरती जाए। सबसे जरूरी बात यह है कि संवेदनशील मुद्दों को कवर करने का दायित्व खासतौर पर सिर्फ जाग्रत पत्रकारों को ही सौंपा जाए ताकि न तो पत्रकारिता के ठोस नियमों की अवहेलना हो और न ही पत्रकारिता खुद एक मजाक बने। जहां तक टीआरपी नामक खिलौने को रिझाने के बहानों का सवाल है तो भारतीय मीडिया को 'टाइम्स' लंदन के पूर्व संपादन हेनरी विकहम के इस कथन से सबक लेने की कोशिश करनी चाहिए। वे कहते हैं 'आदर्श समाचार पत्र वही है जो पैसा बनाने के लिए पत्रकारिता के मूल्यों से समझौता किए बिना अपनी रोजी-रोटी कमाए।'
भारतीय प्रेस में कभी ऐसी समझदारी आएगी, ऐसा सपना देखने में भला क्या हर्ज है!
(यह लेख विदुर के जुलाई-सितंबर,2005 के अंक में प्रकाशित हुआ)
Sep 12, 2008
मीडिया, विकास और सच
भूत-पिशाच, फिल्म, हास्य, धर्म, राजनीति, खेल और सेंसेक्स- इन सबके मिले-जुले पिटारे का नाम है- इलेक्ट्रानिक न्यूज मीडिया। इस पिटारे से अक्सर वही चीज सबसे ज्यादा छूटी हुई दिखती है, जिसे गोद में लेकर भारत में टेलीविजन के सपने को साकार किया गया था। वह है- विकास पत्रकारिता।
विकास पत्रकारिता यानी वह पत्रकारिता जो समाज के विभिन्न पहलुओं के उत्थान और विकास से जुड़ी हुई है और एक साथ आगे बढ़ने का सुखद एहसास देती है। मीडिया के फैलाव के साथ ही यह विश्वास भी जगा था कि अब मीडिया देश के हर छोर के विकास की सुध लेगा, लेकिन जो हुआ और जो हो रहा है, वह काफी हद तक उस सपने से परे है।
पिछले एक दशक में भारत में जिस रफ्तार से टीवी का विकास हुआ है, उतनी तेजी से शायद किसी और का नहीं। पर इसके बावजूद विकास की चहलकदमी काफी हद तक टीवी के परदे से दूर ही दिखाई दी। मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी साईंनाथ मानते हैं कि साल 1991 से लेकर 1996 तक मीडिया ने मोटापा घटाने से जुड़ी इतनी खबरें दिखाईं और विज्ञापन छापे कि उसमें यह सच पूरी तरह से छिप गया कि 100 करोड़ भारतीयों को हर रोज 74 ग्राम से भी कम खाना मिल पा रहा था। ऐसे वक्त में मीडिया मोटापा घटाने के लिए खुली तथाकथित दुकानों पर ऐसा केन्द्रित हुआ कि वह उन लोगों को भूल गया जो अपना बचा-खुचा वजन बचाने की कोशिश कर रहे थे। साईंनाथ का मानना है कि एक ऐसा देश जिसमें दुनिया की एक तिहाई ऐसी जनसंख्या मौजूद है, जिसे भरपूर मात्रा में पानी नहीं मिल पाता, जिसकी आबादी का पाँचवाँ हिस्सा विकास परियोजनाओं की वजह से बेघर है, जिनमें से ज्यादातर लोग टीबी और कोढ़ से पीड़ित हैं, वहाँ आज भी ग्रामीण इलाकों और विकास कार्यों के कवरेज के लिए अलग से पत्रकारों की नियुक्ति नहीं की गई है। आंकड़े यह भी कहते हैं कि मौजूदा दौर में एक औसत ग्रामीण परिवार को एक दिन में महज 437 ग्राम अनाज ही मिल पाता है जबकि 1991 में यह मात्रा 510 ग्राम थी।
इसी तरह 90 के दशक में भारत में नई गाड़ियों के आगमन पर जितनी स्टोरीज की गईं, उतनी भारत में साइकिलों के गिरते या थमते व्यापार पर नहीं हुईं। 2008 में टाटा की नैनो भी सभी की आंखों का तारा बनी। नैनो की रिपोर्टिंग ने पहले पन्ने पर जगह पाई क्योंकि इसमें बड़े उद्योग की जोरदार खनक थी लेकिन चूँकि भारत में साइकिल ग्रामीण विकास का द्योतक माना जाता है, इस पर सोचने की भी जरूरत महसूस नहीं की गई।
दरअसल भारत में आज भी विकास पत्रकारिता सिर्फ एक सपना भर है। अखबारों के पन्ने बढ़ने और टीवी पर 24 घंटे के समय के व्यापक विस्तार के बावजूद विकास जैसा मुद्दा आश्चर्यजनक रूप से पिछड़ा हुआ दिखाई देता है। भारत में दूरदर्शन के शुरूआती दिनों में साइट नामक परियोजना की शुरूआत की गई थी ताकि भारत में खाद्य के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके। यह भारत के विकास की दिशा में एक बड़ा कदम था। इस सामुदायिक टीवी के जरिए आम इंसान को विकास से जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसे लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सका। 1983 में पी। सी। जोशी ने भारतीय ब्रॉडकास्टिंग रिपोर्ट में लिखा था कि हम दूरदर्शन को गरीब तबके तक पहुँचाना चाहते हैं। दूरदर्शन ने इस कर्तव्य को निभाने की कोशिश भी की लेकिन सैटेलाइट टेलीविजन के आगमन के बाद परिस्थितियाँ काफी तेजी से बदल गईं। सैटेलाइट टीवी ने मनोरंजन और सूचना को परोसा तो तेजी से लेकिन अति व्यावसायीकरण के कारण विकास जैसे मुद्दे काफी पिछड़ गए। यही वजह रही कि मीडिया से विकास को लेकर जितनी आशाएँ रखी गईं थीं, उनके अनुरूप नतीजे नहीं निकल सके।
विकास के इस पिछड़ेपन की कई वजहें हैं। पहली वजह तो यह है कि मीडिया मालिकों का मानना है कि गरीबी से जुड़े मुद्दों की चर्चा से विज्ञापनों के जरिए सिक्कों की खनक नहीं पाई जा सकती। इस देश में सौंदर्य प्रतियोगिताएं खबर बनती हैं और इनके लिए विज्ञापनदाता बड़ी से बड़ी रकम चुकाने के लिए तैयार रहते हैं, लेकिन विकास के मुद्दे पर ऐसा नहीं होता। इसी तरह भूत-प्रेतों, पंडितों की सही-गलत भविष्यवाणियों और ऐश्वर्या राय आदि की शादी या फिर सलमान-शाहरूख की लड़ाई जैसे गैर-गंभीर(शायद फालतू भी) और निजी किस्सों पर पलकें बिछाने वाले खरीददार जितनी सुलभता से मिलते हैं, सामाजिक मुद्दों पर नहीं। किसी राज्य के सुदूर गाँव में विकास किस हद तक पहँचा है, इसमें कारपोरेट जगत की आम तौर पर कोई दिलचस्पी नहीं होती। इसके अलावा, समाचार पत्रों को खरीदने वाले लोग भी गरीबों की श्रेणी में नहीं आते( गरीब तबका आज भी एक अखबार को आपस में मिलबांट कर पढने का आदी है)। इसलिए यह माना जाता है कि इनकी परवाह क्यों की जाए और जहाँ तक टीवी का सवाल है, तो यह सर्वविदित है कि टीवी पर भी पेज 3 के लोगों के चेहरे और उनकी प्रतिक्रियाएं ही ज्यादा महत्व रखती हैं।
इसके अलावा अगर 90 के दशक पर नजर डालें, तो पता चलता है कि इस दौरान राजनीति, व्यापार और खेल को सबसे ज्यादा अहमियत दी गई। इसके बाद फैशन, ग्लैमर और अपराध को महत्व दिया गया। जनता को भी यह समझाया गया कि यही बिकता है, यही पसन्द किया जाता है और सिर्फ यही विशुद्ध मनोरंजन दे सकता है, इसलिए यही देखा और सराहा जाना जरूरी है।
लेकिन इन तमाम दावों और तर्कों के बीच सच कहीं बीच में अटका हुआ है। इसकी मिसाल 2004 के लोकसभा चुनाव में दिखाई दी। ईलीट वर्ग जैसी दिखने वाली कांग्रेस ने खुद को गली-मोहल्लों तक पहुंचाने की कोशिश की और विकास को अपना हथियार बनाया, वहीं भारत उदय के हंगामे और एसएमएस पर चुनाव अभियान ने भाजपा को कहीं पीछे छोड़ दिया। बाकी दलों ने भी अपनी समझ के मुताबिक विकास की ही बात करनी चाही। जाहिर है कि इस बदली सोच की वजह से मीडिया ने भी आम जनता की कुछ सुध ली और तमाम टेलीविजन चैनलों पर जनता की प्रतिक्रियाएँ लेकर अपना कर्त्तव्य पूरा करने की कोशिश की गई लेकिन चुनाव के बाद स्थिति फिर पहले जैसी ही दिखने लगी।
एक समय था जब एनडीटीवी पर सरोकार जैसे कार्यक्रम दिखाए जाते थे और कुछ पत्रकार नियमित तौर पर विकास से जुड़ी खबरें ही कवर करते थे लेकिन धीरे-धीरे यह कोशिश भी थमती गई। वैसे भी मीडिया में विकास कवर करने के लिए अलग से पत्रकार न के बराबर ही दिखाई देते हैं, विकास के नाम पर शायद ही कहीं कोई अलग बीट दिखाई देती है जबकि ग्लैमर, फिल्म और फैशन कवर करने के लिए एक दर्जन से ज्यादा पत्रकार रख लिए जाते हैं। खेल (वो भी खास तौर पर क्रिकेट और अब अभिनव बिंद्रा की वजह से शूटिंग) कवर करने के लिए भी पत्रकारों की भीड़ देखी जा सकती है। गोल्फ कवर करने वाले भी विशिष्ट पत्रकार माने जाते हैं और अच्छी तनख्वाह के हकदार बनते हैं। इस देश में अमिताभ बच्चन और मायावती का जन्मदिन दिखाने के लिए लाइव कवरेज का इन्तजाम हो सकता है, पैसा पानी की तरह बहाया जा सकता है लेकिन आत्महत्या कर रहे किसानों पर डेढ़ मिनट से ज्यादा समय लगाना मुश्किल हो जाता है। इस माहौल में विकास पर आधारित कोई स्टोरी भले ही कितनी ही मेहनत से तैयार की जाए, एक मामूली सी राजनीतिक या आपराधिक स्टोरी को दिखाने के लिए सबसे पहले विकास पर आधारित स्टोरी को ही ड्रॉप किया जाता है। वैसे भी एक कड़वा सच यह भी है कि विकास पत्रकार के हाथ अक्सर कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं लगती, इसलिए भी उसे कोई खास दर्जा नहीं मिल पाता। मीडिया के दफ्तरों में अक्सर वही पत्रकार हावी हो पाते हैं, जो तेज-तर्रार बीट पर होते हैं। और हंगामे के साथ अपनी स्टोरी को ऊँचे दाम पर बेच लेते हैं। वैसे भी गरीबी या निरक्षरता एक प्रक्रिया है, घटना नहीं। इसलिए एक ऐसी प्रक्रिया, जो वर्षों जारी है, उस पर संसाधन खर्च करने में मीडिया की कोई दिलचस्पी नहीं होती।
इसके अलावा, विकास पत्रकार की भी कई मजबूरियाँ होती हैं। वह कई बार अपने प्रबंधक के मुताबिक खबर को तोड़ने या बदलने के लिए विवश होता है। वैसे भी विकास की मिठास भरी स्टोरी को मीडिया मालिक अक्सर पी. आर . यानी जनसंपर्क ही मान लेते हैं। ऐसे में पत्रकार के लिए प्रशासन पर नकारात्मक स्टोरी करना भी जरूरी हो जाता है। यहाँ एक सच यह भी है कि नकारात्मक स्टोरी पर संबंधित तुरंत अपनी तिलमिलाहट जाहिर कर देता है, लेकिन सकारात्मक कोशिश पर पत्रकार को सराहा नहीं जाता। इसका भी पत्रकार के मनोबल पर काफी असर पड़ता है।
एक अन्य दिक्कत यह भी है कि विकास को कवर करने वाले पत्रकार भी कई बार खुद जड़ों से जुड़े हुए दिखाई नहीं देते। गाँवों को कवर करने वाले कई पत्रकार हिन्दी न तो ठीक से बोल पाते हैं और न ही लिख पढ़ पाते हैं। ऐसे में दिल्ली स्थिति अपने दफ्तर पर लौट कर जब वे अपनी स्टोरी फाइल करते हैं, तो खुद उनके सहयोगी उन पर ज्यादा विश्वास नहीं कर पाते। एक और वजह है- विकास पत्रकारिता पर खर्च न करने की प्रवृति। गाँवों में हो रहे विकास को कवर करने के लिए अक्सर भरपूर समय, इत्मीनान और गाड़ी और ठहरने के इन्तजाम की कुछ जरूरतें भी होती हैं, जिन पर मीडिया मालिक पैसा खर्च करने से कतराते हैं। वैसे भी यह माना जाता है कि इस देश की 70 प्रतिशत आबादी न्यूज नहीं बनाती। इस रवैये के चलते भी विकास पत्रकारिता को हाशिए के बाहर रखना ही ज्यादा सही माना जाता है। मीडिया हर रोज सेंसेक्स की उछलकूद तो दिखाना पसन्द करता है (यह बात अलग है कि शेयर बाजार पर शायद 1।15 प्रतिशत से ज्यादा आबादी पैसा नहीं लगती) लेकिन बिजली, पानी, रोटी के मसले पर समय और संसाधन का खर्च वह सह नहीं पाता।
एक और वजह है- मानसिक कट्टरता। खुद को घोर वामपंथी मानने वाले कई पत्रकार अक्सर एक ही सोच को लेकर चलते हैं। वामपंथ की मूलभूत जानकारी न होने की वजह से उनकी सोच अमीर से लड़ाई से आगे निकल ही नहीं पाती। कई बार पत्रकार व्यवस्था को लेकर ऐसी कड़वाहट का माहौल बनाने लगते हैं कि विकास कार्यों को सच्ची लगन से करने वाली संस्थाएँ और प्रशासन भी उनसे कटने लगता है। यही वजह है कि कई बार सकारात्मक प्रयासों को भी मीडिया सराह नहीं पाता और इस वजह से वहाँ की जनता खुद ही मीडिया को हाशिए से बाहर धकेल भी देती है। जाहिर है ऐसी परिस्थिति में समाज की आवाज को प्रस्तुत करना मुश्किल हो जाता है।
दरअसल भारत में आज भी मीडिया का सही ढंग से इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। मीडिया सूचना और मनोरंजन परोसते हुए आम तौर पर विकास को भूल ही पाता है। श्रीलंका जैसा छोटा-सा देश भी सामुदायिक रेडियो के जरिए पूरे देश में विकास को प्रचारित कर रहा है, लेकिन भारत में आज भी इस स्तर पर ज्यादा कुछ हासिल नहीं किया जा सका है। आज भी रेडियो की पहुँच टीवी से कहीं ज्यादा है, लेकिन रेडियो की इस सम्भावना को भी टीवी की ही उछलकूद के मुताबिक तेज बनाने की कोशिशें होने लगी हैं। एफ एम के कई कार्यक्रम इसकी ताजा मिसाल है। इसी तरह पूरी दुनिया में इंटरनेट भी एक बड़ी शक्ति के रुप में सामने आया है लेकिन इसका भी विकास अभियानों में समुचित इस्तेमाल नहीं हो पाया है पर इससे जो संभावनाएं उभरी हैं, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
मतलब साफ है। एक ऐसे देश में जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब मौजूद हैं, वहाँ स्टोरी उन अमीरों पर ही होती है जो दुनिया में सबसे ज्यादा अमीर हैं। भारतीय बाजार में किसी भी नई गाड़ी का आना तो एक बड़ी खबर है, लेकिन निरक्षरता या कृषि एक मामूली खबर भी नहीं बन पाती। इस समय दुनिया की 20 प्रतिशत आबादी तमाम उत्पादों के 86 प्रतिशत हिस्से का उपभोग कर रही है और वही आमतौर पर खबर बनती भी है और बनाती भी है। मीडिया के परम विकास के इस दौर में न्यूज, व्यापार, मनोरंजन, खेल और आध्यात्म तक के चैनल भी खुल रहे हैं लेकिन विकास के लिए अब भी न तो समय दिखाई देता है और न ही पैसा। तमाम संसाधन होने के बावजूद इच्छा शक्ति की कमी ने विकास को आज भी प्रमुखता नहीं दिखाई है। लेकिन बहस का मुद्दा यह कतई नहीं होना चाहिए कि भारतीय आबादी के दूसरे बड़े वर्ग यानी निम्न और मध्यम वर्ग की इस रेलमपेल में कहाँ जगह है। सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में मदर टैरेसा जैसा बनने की बातें करने वाले इस देश में विकास हँसी का पात्र न बन जाए, इस पर विचार करने का समय आ गया है।
करीब दर्जन भर खरबपतियों और सैंकड़ों लखपतियों के इस देश में गरीबों की तादाद 36 करोड़ के आस-पास है। मजे की बात यह भी कि चाहे राजनीति हो या मीडिया- टिके रहने के लिए दोनों ही आम आदमी के विकास की बात किया करते हैं लेकिन सम्मानित जगह मिलते ही सबसे पहले आम आदमी का मुद्दा ही सिकुड़ जाता है। अच्छा हो कि इसके सिकुड़ने पर चिंता की बजाय ब्राडकास्टिंग कोड के तहत ही कुछ नियम बनाने का एक प्रयोग करके देखा जाए। उस दिन की कल्पना तो की ही जा सकती है जब न्यूज चैनलों पर विकास से जुड़ी खबरों का कुछ प्रतिशत रखा जाना अनिवार्य हो जाए।
बिबलियोग्राफी
1) एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राउट - पी।साईंनाथ, पेंग्विन,2006
2) इंडियाज न्यूजपेपर रिवोल्यूशन - राबिन जेफ्री, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2003
3) मेकिंग न्यूज - उदय सहाय, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2006
4) टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता - वर्तिका नन्दा, भारतीय जनसंचार संस्थान, 2005
5) इंडिया आन टेलीविजन-नलिन मेहता, हार्पर कालिन्स, २००८
(यह लेख राजस्थान विश्वविद्यालय की प्रकाशित किताब 'इलेक्ट्रानिक मीडिया' में प्रकाशित हुआ)
Sep 10, 2008
यूं ही
रंग की मानिंद घुलते
रेत की मानिंद फैलते
पेड़ की मानिंद झूमते
और इंसान की मानिंद भटकते रहने में
असीम सुख है
बशर्ते भटकन
किसी छोर से मिलन कराती हो।
रेत की मानिंद फैलते
पेड़ की मानिंद झूमते
और इंसान की मानिंद भटकते रहने में
असीम सुख है
बशर्ते भटकन
किसी छोर से मिलन कराती हो।
मनोरंजन के थाल में गंभीर मसले
एक फिल्मी सितारा हुआ करता था। इन दिनों वह आगरा में तन्हाई की जिंदगी बसर कर रहा है। वह अकेला है, पूछने वाला कोई नहीं। वह निराश-परेशान-बेबस है।
भारतीय न्यूज चैनल के लिए इससे बेहतर स्टोरी और भला क्या हो सकता है। स्टोरी की टीआरपी मुग्ध करने वाली ताकत को देखते हुए एक न्यूज चैनल ने तुरंत ही इस पर आधे घंटे का एक विशेष कार्यक्रम करने की ठानी। गेस्ट डेस्क ने अंग्रेजी के एक काफी विश्वानीय माने जाने वाले समाचार पत्र के फिल्म विशेषज्ञ को मान-मुहार करके आमंत्रित किया और लाइव प्रोग्राम शुरू कर दिया।
कहानी यहां एक दिलचस्प मोड़ लेती है। कार्यक्रम की शुरूआत उस फिल्मी सितारे के लिए 'परेशान-तन्हा-बेबस' जैसे विश्लेषणों से शुरू होती है, टीवी स्क्रीन पर यह सब बोल्ड में लिखा हुआ भी आता है और शुरूआती भूमिका बांधने के बाद एंकर दर्शकों को सीधे आगरा ले जाता है जहां वह कलाकार लाइव ओबी के लिए मौजूद है। पिटे-पिटाए अंदाज में रिपोर्टर जब 70 के दशक के इस फिल्मी सितारे की आपबीती सुनने के लिए मुखातिब होता है तो सितारा बड़ी साफगोई से कहता है कि वह बेचारा नहीं है। वह अपनी इच्छा से अपनी मां के पास आगरा में रहता है और मजे में है।
कार्यक्रम शुरू होते ही खत्म। लेकिन पर्दा कैसे गिरता। चौबीस घंटे बाजा बजाना आसान नहीं, इसलिए जैसे-तैसे शो को खींचा गया।
घटना छोटी है लेकिन मीडियाई दर्शन बयान करती है। टीवी न्यूज मीडिया यानी मजबूरी, चिल्लाहट, सनसनाहट और दहशत और इस डर के बीच खबर के न होने पर भी उसे किसी तरह से गढ़ देने की जुगत भिड़ाने की क्रिकेटबाजी। फिर यह भी कि दूसरे की कमीज अपनी कमीज से ज्यादा सफेद न लगे और अपनी कमीज का मार्केटिंग वाले बाजार में सही भाव भी लगा सकें। इतने समझौते के बीच भी न्यूज चटनीनुमा न बने तो चले कैसे?
यहां प्रसिद्ध समाज विज्ञानी नील पोस्टमैन की बात याद आती है। कुछ बरस पहले ही उन्होंने कह दिया था कि टीवी गंभीर मसलों को भी मनोरंजन की थाल में सजा कर परोसता है क्योंकि यह उसके स्वभाव में निहित है। वे मानते थे कि प्रिंट मीडिया काफी हद तक एक संतुलित आबादी की जुड़ाव बनाता है जबकि टेलीविजन मूल रूप से मनोरंजन की चाहत रखने वालों के लिए ज्यादा उपयुक्त है। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या खबर जैसी गंभीर चीज टेलीविजन मीडिया (खास तौर पर भारतीय संदर्भ में) के हाथ में सर्कसनुमा बनने की तरफ अग्रसित तो नहीं हो रही। कुछ ऐसा ही सरोकार दिल्ली के ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी स्टोर में सराय वालों की एक बैठक में एक सज्जन ने जताया- क्या वाकई हमें इतनी 'न्यूज' की जरूरत है?
भारत में न्यूज चैनल थोक के भाव में खोलने का फैशन जोरों पर है। फिक्की की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत में इस समय 400 से ज्यादा टीवी चैनल देखे जा सकते हैं। न्यूज चैनलों की तादाद 30 पार कर चुकी है और इस साल भी लाइसेंस की मुराद रखने वाले कम नहीं। लेकिन सोचने की बात यह भी है कि चैनल खोलने और चलाने वाला है कौन, वह चैनल किस मकसद से और किसके लिए ला रहा है। कहीं बिल्डर और कहीं खान-पान का व्यापार करने वाले तो कहीं संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में दीन-दुनिया की शाब्दिक चिंता करने वाले नेता। जाहिर है गैर पत्रकार पत्रकारिता की कमान अपने हाथों में थामने की कोशिश कर रहे हैं। इनके नीचे काम करने वाले मताहत यह कहने की हिम्मत और औकात नहीं रखते कि जनाब जिसे आप खबर कह रहे हैं, वह खबर है ही नहीं। बेहतर हो कि पहले आप टेलीविजन का ककहारा सीख लें और फिर अपनी दुकान यानी चैनल चलाएं।
इन दिनों भारतीय बाजार में पैसा हावी है। इससे कोई परहेज नहीं। लेकिन वह अब मीडिया को अपनी लय में नचाने लगा है। बांसुरी, लय और ताल पूंजीवालों के हाथ में है। संपादकीय तक पूंजीपतियों की भेजी स्याही से लिखे जाने लगे हैं। तमाम बिजनेस चैनलों की कथित पत्रकारिता पूंजी के इसी तमाशे का लाइव चित्रण है। मुनाफे ने उस बुनियादी की दीवारें अब गिरानी शुरू कर दी है जिसका नाम भी कभी जनसत्तीय पत्रकारिता हुआ करता था।
जरा सोचिए कितने न्यूज चैनल 1940 के दशक की उस पत्रकारिता के रत्ती भर भी करीब हैं जिसका मकसद मिशन था। हाल ही में सुनने में आया कि दिल्ली विश्वविद्यालय में एमए के छात्रों को संबोधित करते हुए एक टीवी एंकर ने इस बात पर जोर दिया कि मिशन की परवाह करने वालों को पत्रकार नहीं बनना चाहिए। पत्रकारिता कमीशन है। मुद्दा यह है कि अगर पत्रकारिता भी कमीशन है तो फिर क्या इस सौदे के व्यापार को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने का अधिकार दिया जाना चाहिए। वैसे भी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का काम तो यह देखना था कि देश और सरकारें सही विधान पर सरक रही हैं या नहीं लेकिन अब जिस कदर सत्ता और बाजार का घाल-मेल हुआ है, उसमें मीडिया का पैनापन बहुत निष्पक्ष तो रहा भी नहीं। तो फिर टेलीविजनी खबर के मायने और उपयोगिता है क्या?
हाल ही में भारतीय जन संचार केंद्र में विकासशील देशों से आए पत्रकारों से जब मैंने पूछा कि वे भारतीय टेलीविजन न्यूज मीडिया के बारे में क्या राय रखते हैं तो उनमें से एक का कहना था- फन्नी यानी हास्यास्पद। भारतीय मीडिया के ऊबड़-खाबड़ करतब जारी रहे तो वह दिन दूर नहीं जब औसत दर्शक भी भारतीय मीडिया को फन्नी मानने को मजबूर हो जाएगा।
(यह लेख १० फरवरी, २००८ को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)
Subscribe to:
Posts (Atom)