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Jan 4, 2009

नेलपालिश

जब भी सपने बुनने की धुन में होती हूं
गाती हूं अपने लिखे गीत
अपने कानों के लिए
तो लगाने लगती हूं जाने-अनजाने अपने नाखूनों पर नेलपालिश।

एक-एक नाखून पर लाल रंग की पालिश
जब झर-झर थिरकने लगती है
मैं और मेरा मन-दोनों
रंगों से लहलहा उठते हैं।

इसलिए मुझसे
मेरे होठों की अठखेलियों का हक
भले ही लूटने की कोशिश कर लो
लेकिन नेलपालिश चिपकाने का
निजी हक
मुझसे मत छीनना।
नाखूनों पर चिपके ये रंग
मेरे अश्कों को
जरा इंद्रधनुषी बना देते हैं और
मुझे भी लगने लगती है
जिंदगी जीने लायक।

तुम नहीं समझोगे
ये नाखून मुझे चट्टानी होना सिखाते हैं।
इनके अंदर की गुलाबी त्वचा
मन की रूई को जैसे समेटे रखती है।

ये लाल-गुलाबी नेलपालिश की शीशियां
मेरे बचपन की सखी थीं
अब छूटते यौवन का प्रमाण।

ड्रैसिंग टेबल पर करीने से लगी ये शीशियां
मुझे सपनों के ब्रश को
अपने सीने के कैनवास पर फिराने में मदद करती हैं।
ये मेरा उड़नखटोला हैं।
मुझे इनसे खेलने दो।

पत्रकार होने से क्या होता है?
मन को भाती तो
नेलपालिश की महक ही है,
माइक की खुरदराहट नहीं।

(यह कविता जनवरी 2009 के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुई)

4 comments:

sushant jha said...

ohh...so depth...and sooo realistic!!!!

सुजाता said...

पत्रकार होने से क्या होता है?
मन को भाती तो
नेलपालिश की महक ही है,
माइक की खुरदराहट नहीं।
______

अच्छा कहा ।

Darpan said...

Maim main apka blog padha bahut hin achha laga.Aapki Kalam,Aapki awaj or Aapki sonch na jane kis khubshuri se banai gai hai.

Thanks God and You.

PRANAM.
AMRENDRA KUMAR.ETV-NEWS,JAIPUR.

अविनाश वाचस्पति said...

ब्‍लॉग में

वास्‍तव में

विचारों की आग

ही तो धधक रही है।