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Jan 16, 2009

क्योंकि कविता भी बदलती है

बचपन में कविता लिखी
तो ऐसा उल्लास छलका
कि कागजों के बाहर आ गया।

यौवन की कविता
बिना शब्दों के भी
सब बुदबुदाती गई ।

उम्र के आखिरी पड़ाव में
मौन शून्यता के दरम्यान
मन की चपलता
कालीन के नीचे सिमट आई।

अब उस पर कविता लिखती औरत के पांव हैं
बुवाइयों भरे।

16 comments:

ss said...

बहुत अच्छी कविता| बचपन, यौवन और उम्र के आखिरी पड़ाव को सुंदर तरीके से समेट है आपने|

मोहन वशिष्‍ठ said...

वाह जी वर्तिका जी बेहतरीन बहुत खूब बहुत ही अच्‍छा लिखा है आपने पढकर दिल खुश हो गया आपकी कविता को
धन्‍यवाद इसे पढवाने के लिए

Himanshu Pandey said...

परिपक्व चिन्तन.
सुन्दर रचना के लिये धन्यवाद.

Unknown said...

वाह...वाह...क्या बाद है...बहुत सुन्दर.

Unknown said...

bahut acchi kavita hai ....

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी रचना!! उम्दा भाव!

संगीता पुरी said...

वाह ... बहुत सुंदर लिखा है।

विजय तिवारी " किसलय " said...

सुंदर अभिव्यक्ति है नंदा जी
- विजय

रंजना said...

Waah ! yatharth varnit karti sundar rachna hai.

रोमेंद्र सागर said...

बहुत खूब !
लेकिन फिर आपसे ऐसी परिपक्व अभिव्यक्ति की ही अपेक्षा रहती है...!

ऐसी ही संवेदनाएं उकेरती अभिव्यक्तियो के लिए शुभकामनाएं !

Anonymous said...

सुंदर अभिव्यक्ति

please visit my blog

paraavaani.blogspot.com

राजीव जैन said...

बहुत अच्छी कविता

cg4bhadas.com said...

आपकी कविता स्वच्छ निर्मल चंचल है जेसे हिमालय से गंगा की धारा , पारदर्शी होने साथ साथ आपकी भी छबी इसमे दिखाई देती है
रविकांत
cg4bhadas.com
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Parvesh K Chauhan said...

well..its really a gr8 creation....//

Virendra Singh said...

सुंदर कविता बन पड़ी है. स्त्रीत्व की यात्रा के तीन चरण और प्रत्येक चरण से फूटती कविता के रंग अलग, रूप अलग, विम्ब अलग! आपकी तरह मुझे भी उस दिन का इंतज़ार रहेगा जब स्त्री अपने बुढापे की कविता में भी उल्लसित, मौन की तरह रहस्यमयी और आकर्षक लगे. पैरों की बिवाईयां जबतक स्त्री की नियति बनी रहेगी, तबतक हमें पूर्ण स्त्री के आगमन का इंतज़ार रहेगा.

वीरेंद्र

M VERMA said...

जीवन के विभिन्न पड़ावों और उसकी मनोदशा को बखूबी चित्रित किया है