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Sep 28, 2011

नमस्ते फेसबुक

क्या सचमुच फेसबुक ने लोगों को जोड़ा है

प्रिय फेसबुक,

बुरा मानना। अब कुछ दिनों तक तुमसे एक दूरी बनाने की सोची है। एक हफ्ते में दो घटनाएं हुईं-तुम्हारी वजह से। पहले तो बंगलौर की 23 साल की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली। यह लड़की आईआईएम की विद्यार्थी थी और इस बात से आहत हो गई थी कि उसके पुरूष मित्र ने उससे संबंध तोड़ कर सारी कहानी को फेसबुक पर डाल दिया था। मालिनी मुरमू का इस घटना से ऐसा दिल टूटा कि उसने खुद को फंदा लगा लिया। इस तरह से एक चमकता सितारा महज एक सोशल नेटवर्किंग साइट की वजह से अस्त हो गया।   

दूसरी घटना पटना विधानसभा से आई। यहां दो लोगों को निलंबित कर दिया गया। उनका गुनाह यह था कि उन्होंने अपने फेसबुक अकाउंट पर अपने ही राज्य के मुख्यमंत्री पर कुछ तीखी टिप्पणियां कर दीं थीं और विभाग के भ्रष्टाचार पर अपने कमेंट जारी कर दिए थे। आखिरकार यह भारत है भाई। वे भूल गए कि यहां पर राजनेता कुछ भी कर सकते हैं लेकिन सरकारी कर्मचारी की कई हदें हैं, कई सरहदें।

इससे पहले भी एक के बाद एक बहुत कुछ ऐसा हुआ जब लगा कि फेसबुक भूले-बिछुड़े नातों को जोड़ तो रहा है लेकिन यहां की गर्माहट कई बार ठंडेपन और फिर आहत करने के स्तर पर उतर आती है। अमरीका में ही 2007 में स्टीफेनी पेंटर जब फेसबुक की वजह से अपने प्रिय दोस्त को खुद से दूर होते देखती हैं तो एक रात वो फेसबुक के अपने 121 दोस्तों को विदाई का मैसेज भेजती हैं और अपनी जिंदगी का अंत कर लेती हैं। उनके दोस्त को उनके 121 दोस्तों में से कई लोगों से एक असुरक्षा का भाव महसूस होता है और जब यह निजी संबंधों को टूटन और बेहद तनाव की तरफ खींचने लगता है तो वे को गले लगा लेती हैं।

वैसे कहने को तो फेसबुक अकाउंट पर अनगिनत दोस्त बनाए जा सकते हैं लेकिन क्या वे वाकई में दोस्त और हमदर्द हैं, यह अपने आप में एक सवाल है। अमरीका में ही एक महिला जब अपने फेसबुक वॉल पर लिखती है कि वह अपनी जिंदगी से तंग गई है और कुछ ही देर में आत्महत्या करने वाली है तो लोग उस स्टेट्स को लाइक तो कर देते हैं पर एक भी शख्स, यहां तक कि पड़ोसी भी, उसे संबल देने नहीं जाता। वह महिला कुछ देर बाद वाकई आत्महत्या कर लेती है और फेसबुक से उसका जुड़ा पड़ोसी सोसायटी में पुलिस को आते देखता है तो उसे स्टेट्स में लिखे शब्दों का यथार्थ पता चलता है।

यह है फेसबुक। बेशक इस समय फेसबुक अपने उफान पर है। आधुनिक युवा सामाजिक संपर्कों के नाम पर इस पर सबसे ज्यादा समय खर्च करने लगा है। भले ही अमरीका भी जोर-शोर से तुम्हें पूरी तरह से सफल और क्रांतिकारी कह रहा हो और नई पीढ़ी के लिए तुम अलादीन का चिराग बन गए हो, लेकिन दोस्त, कहीं ठहर कर कुछ सोचने की जरूरत भी है।

नहीं, कहने का यह मतलब कतई नहीं कि तुम सिर्फ परेशानियों का पिटारा लेकर आए हो या फिर तमाम त्रासदियों के लिए तुम ही जिम्मेदार हो। मैं जानती हूं तुमने सोशल नेटवर्किंग का एक बड़ा सुनहला दरवाजा खोला है। यहां पल भर में पूरी दुनिया से जुड़ा जा सकता है। यह संपर्कों की तिजोरी को खोलता है और कई मामलों में जादुई भी है। तुम्हारी वजह से कई पुरानी गलियां गलबहियां डाल रही हैं। लंगोटिया यार सालों बाद एक-दूसरे के दिलों के करीब रहे हैं। दुनिया पूरी तरह से जैसे एक मुट्ठी में समा गयी है। हां, माउस के एक क्लिक से इंसान दुनिया के किसी भी छोर तक जा पहुंचता है।तुमने आवाज और दृश्य की गति को कई कल्पना से भी आगे ले जाकर बढ़ा दिया है। इसके लिए निश्चित तौर पर तुम बधाई के पात्र हो।

शायद तुम सीधे तौर पर इसके लिए जिम्मेदार हो क्योंकि तुम शायद आए किसी सकारात्मक मकसद से ही थे लेकिन जैसा कि हर तकनीक के साथ होता है, यहां भी तकनीक कई काले साये साथ लेकर चली आई है।

हां, तो मैनें महसूस किया कि तुम एक उस दौर में पनपे हो जब मीडिया का दखल तो खूब है लेकिन मीडिया की साक्षरता अब भी नदारद। इसलिए तुमने जिस खुले मंच को एकाएक महैया करा दिया है, वह चुंधियाती रौशनी के साथ आया है। यह मंच हैरान करता है। हाथ के संपर्क में की बोर्ड होता है और सामने होता है –एक खुला आकाश – एक गलतफहमी देता हुआ कि यहां कभी भी, कुछ भी कहा जा सकता है। एक अड्डा जहां कुछ भी कहा-लिखा-पोस्ट किया जा सके। अपनी भड़ास निकाली जा सकती है, संबंधों को उधेड़ा, निचोड़ा और फायदेमंद बनाया जा सके।एक –दूसरे की फ्रेंड लिस्ट में झांकते लोग उस पड़ोसी से भी बदतर हो जाते हैं कई बार जिन्हें दीवारों से कान लगाकर बात सुनने की आदत होती है। यह एक ऐसा मंच बन गया है जहां कोई रोक नहीं। कोई बंदिश और कोई सजा नहीं। यहां बहुत कुछ किसी मतलब से शुरू होता है और उसी पर खत्म भी होता है।

मुझे लगने लगा है कि नेटवर्किंग के बहाने तुम्हारा मंच कई चालाकियों के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है। यह रिश्तों की एक कच्ची जमीन है। माउस के एक क्लिक से लोग फ्रेंड बनते हैंफिर अन-फ्रेंड भी होते हैं। फिर भी कोई किसी का नहीं। कंधों का सहारा ढूंढते कि जाने कौन काम जाए। हांजब संवेदनाएंखुशियां या सच बंटते हैंसुकून मिलता है। पर ऐसा कम होता है। इस पिलपिली और स्वार्थी जमीन पर अब मैं रोज नहीं आउंगी। यह मैने तय किया है। ऐसी ही कई वजहें रही होंगी कि पिछले कुछ महीनों में कई लोगों ने अपने फेसअकाउंट बंद कर दिए। पर मैं ऐसा नहीं कर रही। मैं सिर्फ कुछ दूरी से अब तुम्हारी रफ्तार को देखना और समझना चाहती हूं।

वैसे यह भी लगता है कि मौजूदा पोस्ट-मॉर्डन सोसायटी यह मौका तो देती ही है कि आजाद हस्तक्षेप किया जा सके। इसलिए इस टिप्पणी को सकारात्मक रूप से लेना।

हां, फिलहाल मैं कुछ समय के लिए तुमसे दूर जा रही हूं।

एक फेसबुक यूजर

वर्तिका नन्दा

(एक छोटा अंश 28 सितंबर, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित)

Sep 24, 2011

मरजानी - भास्कर में

24 सितंबर, 2011 को दैनिक भास्कर में छपी मरजानी की समीक्षा 

Sep 23, 2011

दुआ सलाम

कुछ शहर कभी नहीं सोते
जैसे कुछ जिंदगियां कभी सोती नहीं
जैसे सड़कें जागती हैं तमाम ऊंघती हुई रातों में भी

कुछ सपने भी कभी सोते नहीं
वे चलते हैं
अपने बनाए पैरों से
बिना घुंघरूओं के छनकते हैं वो
भरते हैं कितने ही आंगन

कुछ सुबहें भी कभी अंत नहीं होतीं
आंतरिक सुख के खिले फूलदान में
मुरझाती नहीं वहां कोई किरण

इतनी जिंदा सच्चाइयों के बीच
खुद को पाना जिंदा, अंकुरित, सलामत
कोई मजाक है क्या

Sep 19, 2011

ब्रोकरिंग न्यूज़

दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनशल सेंटर में पिछले हफ्ते एक फिल्म दिखाई गई ब्रोकरिंग न्यूज। उमेश अग्रवाल की इस फिल्म को देखने के लिए पूरी हाल खचाखच भरा हुआ था और मजे की बात यह कि मीडिया की चिंदी-चिंदी करती इस फिल्म को देखने के लिए मौजूद लोगों में शायद तकरीबन सभी मीडियाकर्मी थे और बाकी थे मीडिया के कुछेक जिज्ञासु छात्र।
फिल्म पेड न्यूज से जूझती हुई आगे बढ़ती है। रूपर्टे मर्डोक के न्यूज ऑफ दी वल्ड प्रकरण से लेकर अशोक चव्हाण और बाद में राडिया तक तमाम तरह की पेड न्यूज को लेकर फिल्म जैसे-जैसे आगे बढ़ती जाती है, वहां मौजूद दर्शकों की प्रतिक्रिया भी एक नए तरह से खींचती है। यह दिल्ली की मीडिया साक्षर प्रबुद्ध जनता है। यह मीडिया को उस लैंस से देखने की आदी है जिस लैंस से सिर्फ वही देख सकते हैं, आम आदमी अब भी उससे काफी हद तक अछूता या शायद अबोध है। इसलिए बरखा दत्त या राजदीप सरदेसाई या प्रभु चावला के शॉट्स या बाइट्स आने पर यह दर्शक जोर की सीटी नहीं बजाता बल्कि एक तीखी हंसी हंसता है और यह इस फिल्म की दर्शनीयता को और भी अलग पुट देती है।
फिल्म में कुरूक्षेत्र के राकेश नाम के एक पत्रकार का जिक्र भी है जो कि पिछले चुनाव के दौरान हिंदी के एक प्रमुख अखबार का पत्रकार था। उनके पास तमाम सुबूत हैं कि कैसे उन सभी से मजबूरन पेड न्यूज करवाई जाती थी- बिना यह जिक्र छापे कि वो पूरी तरह से पेड है। नकारात्मक स्टोरीज को चुना जाता था और उन्हें नए सिरे से गढ़ कर और धारदार बनाया जाता था ताकि आहत लोग और भी पैसा दें। आखिरकार राकेश इस प्रकाशन समूह से इस्तीफा दे देते हैं और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से सारे मामले की पड़ताल की गुहार लगाते हैं।
फिल्म बिजनेस रिपोर्टिंग के दबे झूठों की परतें भी खोलती है। मलाईदार होती बिजनेस रिपोर्टिंग और जनता को पूरी तरह से गुमराह करती कहानियों की बात उस तबके के लिए नई नहीं जो रोज उससे रूबरू होता है।
खैर,मीडिया के मौजूदा बदरंग पड़ते चेहरे को उखाड़ कर जब फिल्म खत्म होती है तो उसका कथ्य बहुत देर तक हॉल में घूमता हुआ महसूस होता है। इस बात पर बहस करने का भी मन होता है कि क्या अब मीडिया में कंटेंट इज दी किंग की जगह विशुद्ध रूप से पैसे ने ले ली है। क्या 19 महीने की जिस इमरजेंसी की बात हम आज भी चिल्लाते हुए करते हैं, वह सिर्फ अतीत है या अब एक नए तरह के जाल की बुनाई हो चुकी है जो मीडिया के गले की घुटन बनने लगा है। क्या राजनीति, अपराध और बिजनेस की रिपोर्टिंग के आस-पास ही मीडिया का दायरा सिमट जाएगा। गांव, गली, कूचे, टूटी सड़कें, कच्ची चरमराती व्यवस्थाएं किसी और और कभी और के लिए रोक कर रख ली जाएंगीं। इन सबके बीच अब जो झूठ के लबादे के बीच छुप कर रिपोर्टिंग आ रही है, उसका भविष्य क्या है। इनमें इस बात पर भी एक आंदोलन सा छेड़ने का मन करता है कि अगर रिपोर्टिंग यही है तो फिर इसकी जरूरत है ही क्या और इसे पत्रकारिता क्यों और कैसे कहा जाए। देश की सरकारें हमेशा ही ऊंचा सुनती रही हैं लेकिन जब भी बात मीडिया की हुई है तो उसके कान दीवार के उस पार तक भी सुन पाए हैं। सरकारें जान गईं हैं कि मीडिया को कदमताल (और अब तो खैर उड़ान के लिए) रोज भरपूर पैसों की जरूरत होती ही है। तिजोरी की इस मजबूरी और सत्ता सुख से मिलने वाले अपार वैभव ने मीडिया मालिकों के पांव में सोने के पायल पहना दिए हैं। यह बात अलग है कि एक आम पत्रकार के हाथ में अब भी एक मामूली पेन और कांपती हुई कच्ची नौकरी ही है।
बहरहाल मजबूर होते पत्रकार और बेदम पड़ती पत्रकारिता पर बहुत दिनों बाद एक सार्थक बहस होती दिखी। यह जरूरत भी उभरती दिखी कि मीडिया की पिटी-पिटाई परिभाषा को अब नए सिरे से गढ़ा जाना ही चाहिए। यह कहना अब झूठ ही होगा कि किसी भी पत्रिका या समाचार की रीढ़ है उसमें परोसी जाने वाली सामग्री, फिर उसकी साज-सज्जा और आखिर में कुछ और। नए जमाने में नए सच पैदा हुए हैं। इस नए सच को उगलना भी मुश्किल है और निगलना भी।

Aug 27, 2011

सफ़र में धूप तो होगी, चल सको तो चलो

एकला कोई नहीं चलता
साथ चलते हैं अपने हिस्से के पत्थर
किसी और के दिए पठार
नमक के टीले
जिम्मेदारी से लदे जिद्दी पहाड़
दुखों के गट्ठर

कभी कभी होता ऐसा भी है
साथ चल पड़ते हैं मीठे कुछ ख्याल
किसी के होंठों से फूटती महकती हंसी
सरकती युवा हवा
बारीक लकीर सी कोई खुशी

ये सब आते हैं, कभी भी चले जाते हैं
ठिकाना कभी तय नहीं
खानाबदोशी, बदहवासी, उखड़े कदम
लेकिन इन सबमें टिके रहती है
पैरों के नीचे की जमीन
सर का टुकड़ा आसमान
उखड़ी-संभली सांसें
और एक अदद दिल
एकला कहां, कौन, कैसे

Aug 23, 2011

संडे इडियन-अगस्त, 2011


21वीं सदी की 111 हिंदी लेखिकाएं - संडे इंडियन का ताजा अंक - आभार सहित


http://thesundayindian.com/hi/story/women-writers-in-delhi/7337/

Aug 9, 2011

ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा या दूरदर्शन?

(9 अगस्त, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित)

क्या दूरदर्शन नहीं मिलेगा दोबारा

क्या दूरदर्शन कोई जोकर है, बेकार का चैनल है, हंसी और दुत्कार की चीज है, बेवजह का सामान है। आप का जवाब जो भी हो, फिल्म जिंदगी न मिलेगी दोबारा में इसका जवाब हां ही है। ऋतिक रोशन जब अपने बाकी के दो दोस्तों को दूरदर्शन की सिग्नेचर ट्यून याद दिलाता है और उसके बाद तीनों उस पर फूहड़ तरीके से हंसते हैं तो अंदर से रोना आता है पर सामने देखती हूं, बहुत सी तालियां और सीटियां बजती हैं। साल 1973 था जब उस्ताद अली अहमद हुसैन ने दूरदर्शन के इस सिग्नेचर ट्यून को सुरों में ढाला। बाद में जो परिष्कृत रूप हमें दिखा, उसमें पंडित रवि शंकर का अहम रोल था। 1959 में जन्मा दूरदर्शन हौले-होले इस देश की कहानी को लिखते-बनते देखता रहा और एक कुशल शिल्पी की तरह उसमें निखार लाता रहा। बरसों लोग इस सिग्नेचर ट्यून का इंतजार किया करते थे। यह प्रसारण के शुरू होने का संकेत था और अपनी घड़ी के सही होने का भी। दूरदर्शन इकलौता टीवी था उस वक्त, जनसेवा प्रसारक भी। लेकिन इस नन्हें शावक को किसी ने गंभीरता से लिया ही नहीं। काले-सफेद टीवी के परदे के सामने बैठ कर दर्शक सत्यम शिवम सुंदरम के उस लोगो को बहुत चाव से देखा-सुना करते थे। यह धुन उन्हें जैसे किसी दूसरी दुनिया में ले जाती थी। उन दिनों दूरदर्शन पर दिखाए जानेवाले गिने-चुने कार्यक्रमों में प्रमुख होता था - कृषि दर्शन। 26 जनवरी, 1966 को शुरू हुआ कृषि दर्शन। इसका मकसद था-किसानों तक कृषि संबंधी सही और जरूरी सूचनाओं का प्रसारण। यह एक प्रयोग था जिसे सबसे पहले दिल्ली और आस-पास के चुने गए 80 गांवों में सामुदायिक दर्शन के लिए विकसित किया गया। यह प्रयोग सफल रहा और यह पाया गया कि हरित क्रांति के इस देश में कृषि दर्शन ने किसानों से बेहद जरूरी जानकारियां बांटने में जोरदार भूमिका निभाई। इसी दौर में शुरू हुआ चित्रहार। चित्रहार लोगों के लिए खुशी का एक अवसर था जो उन्हें घर बैठे-बैठे मिलता था। लेकिन इस कार्यक्रम ने एक बेहद स्मार्ट प्रयोग को भी जन्म दिया। यहां गाने की ही भाषा में सब टाइटलिंग होने लगी। इस कोशिश ने एजुटेंमेंट की बुनियाद रख दी और नव साक्षरों के इस देश में साक्षरता को एक नई ऊंचाई दी। जो नए पढ़ेलिखे थे, वे अपनी पहचान के शब्द देख कर उन्हें पढ़ते-गाते हुए गौरवांवित होते और जो पढ़ना न जानते, वे भी अपने जाने-पहचाने गाने सुनते हुए शब्दों के साथ एक नई तरह की रिश्तेदारी कायम कर लेते। शब्दों के साथ इस नए संबंध को इसी सरकारी दूरदर्शन ने बनाया। समान भाषा में सब-टाइटलिंग( सेम लैंग्वेज सब टाइटलिंग यानी एसएलएस) ने लाखों लोगो को अक्षरों से जोड़ा। दूरदर्शन की इस कोशिश को हकीकी रूप देने में इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट, अहमदाबाद ने भरपूर सहयोग दिया। कहानी यूं बनी कि 2002 में आईएमए ने वल्ड बैंक की ग्लोबल इनोवेशन प्रतियोगिता में एक पुरस्कार जीता। यह महसूस किया गया कि एसएलएसटी के जरिए एक साल तक 50 करोड़ लोगों को महज 3 पैसे प्रति व्यक्ति के खर्च पर साक्षर करने की कोशिश की जा सकती है। इससे पहले 2000 में इस तकनीक को लंदन स्थित इंस्टीट्यूट आफ सोशल इनवैन्शंस ने उस साल की बेहतरीन खोज का इनाम दिया था। यह इनाम शिक्षा की श्रेणी के लिए ही दिया गया था। बाद में इसी प्रयोग से उत्साहित होकर 1975 में साइट परियोजना की नींव रखी गई। भारत में तकनीक और सामाजिक स्तर पर यह सबसे बड़ी परियोजनाओं मे से एक बना। इसके तहत भारत के 6 राज्यों(राजस्थान, कर्नाटक, उड़ीसा, बिहार, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश) के 2330 गांवों को चुना गया। इसका मकसद था - जरिए गांवों की संचार प्रणाली की प्रक्रिया को समझना, टेलीविजन को शिक्षा के माध्यम के तौर इस्तेमाल करना और ग्रामीण विकास में तेजी लाना था। बेशक बनाए जा रहे कार्यक्रमों में कृषि और परिवार नियोजन को भरपूर तरजीह दी गई। 5 से 12 साल के स्कूली बच्चों के लिए हिंदी, कन्नड, उड़ीया और तेलुगु में 22 मिनट के कई ऐसे कार्यक्रम तैयार किए गए जिससे बच्चों में विज्ञान में दिलचस्पी बढ़ी। इस परियोजनाने यह साबित किया कि दूरदर्शन ग्रामीण शिक्षा और विकास की रफ्तार को बढ़ाने के लिए एक बड़ा हथियार हो सकता है। लेकिन दूरदर्शन कभी भी वह रफ्तार नहीं पकड़ा पाया और न ही ला पाया वह गुणवत्ता जिसकी उससे अपेक्षा थी। बेशक भारत में टेलीविजन की शुरूआत जरा देर से ही हुई। नई दिल्ली में सितंबर, 1959 को पहला केंद्र स्थापित होने के बाद मुंबई में दूसरा केंद्र स्थापित करने में ही सरकार ने 13 साल का समय लगा दिए और रंगीन होने में तो 23 साल ही लग गए। वह भी तब जब भारत में एशियाड खेल आ धमके। दूसरी बार सफलता का मील का पत्थर साबित हुए खाड़ी युद्ध। फिर तो भारतीयों की आंखें ऐसी खुली कि जैसे चुंधिया ही गईं। 1962 में 41 टीवी सेटों से शुरू हुई कहानी फिर ठहरी नहीं। उसने रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों से खूब तालियां और शोहरत तो बटोरी लेकिन यह दोनों ही उसने खुद नहीं बनाए थे। 90 के दशक में जब निजी चैनलों ने दस्तक दी, तब भी दूरदर्शन जाग न पाया। उसके लिए विकास प्राथमिकता तो रहा लेकिन गुणवत्ता की जरूरत उसे तब भी समझ में न आई। हां, पर सच यह भी तो था कि निजी चैनलों ने कभी भी विकास को पहली प्राथमिकता नहीं दी। निजी चैनल रसोईयों में पकवानों की रिसिपी तो सिखाते रहे और कहीं-कहीं किसान भाइयों सरीखे कार्यक्रम भी दिखे लेकिन उनमें पैसा कमाने की भूख ज्यादा हावी रही। मेरा गांव मेरा देश, किसान भाइयों और जय जवान जय किसान जैसे कार्यक्रमों की शुरूआत भी हुई लेकिन नेक नीयती के स्तर पर वे पिछड़ गए। निजी चैनल तिजोरी भरने की ऐसी जल्दी से लदे रहे कि भारत के सच्चे और सुच्चे मुद्दे हाशिए पर ही सिमटे रह गए। लेकिन फिर भी यह सवाल पूछने का मन करता है कि दूरदर्शन पर इस तरह का भद्दा मजाक हुआ कैसे और क्यों। एक ऐसा देश जहां फालतू की बातों पर भी लोग नाराज हो जाया करते थे, जहां रत्ती भर की बात से कथित धार्मिक भावनाएं आहत हो जाती हैं, वहां दूरदर्शन के साथ ऐसी हंसी सरेआम होती है और पत्ता भी नहीं सरकता। क्या दूरदर्शन वाकई ऐसी बोरियत भरी चाज रहा, हमेशा। जिसने इस संवाद को लिखा या जिसने उसे सोचा, उसकी सोच पर तो खैर दुख होता ही है लेकिन साथ ही ऋतिक रौशन को लेकर भी कम चोट नहीं लगती। वे शायद नहीं जानते होंगे कि उस दौर में दूरदर्शन ने खूबसूरत जैसी फिल्म को इतनी बार न दिखाया होता तो उनके पिता राकेश रौशन भी शायद लोकप्रियता के उस चरम पर नहीं पहुंच पाए होते। एक बात और। निजी चैनल के मालिकों और पत्रकारों को भी शायद उस सीन को देखकर जम कर हंसी आई होगी लेकिन वे भी तब अपने गिरेबान में झांक कर यह मानने से चूक गए होंगे कि आज वे जिस भी मुकाम पर हैं, उसमें बड़ा रोल इस दूरदर्शन का ही रहा। दूरदर्शन ने उस दौर में वो जगह और वो मोटा पैसा न दिया होता तो मियां अभी शायद कहीं दिखते भी न। लेकिन यह दूरदर्शन की किस्मत है और बहुत कुछ खुद उसकी करनी भी। दूरदर्शन ने खुद को कभी भी शिकायतों के पिटारे से बाहर लाने की ईमानदार कोशिश नहीं की। नही। वहीं समय ठहर गया लगता है। सफेद हाथी ही हो गया है दूरदर्शन। जो युवा रखे भी गए हैं, वे अनिश्चिचतता के माहौल में टंगे रहते हैं। लाल फीताशाही चरम पर है। आज भी मंत्रियों के नाते-रिश्तेदारों को पीछे के सुनहरे दरवाजे से अंदर भर लिया जाता है। जायज फाइलों को सरकने में महीनों लग जाते हैं। दूरदर्शन की परोसी सरकारी उदघाटन की खबरों से ज्यादा लोग दूरदर्शन में फैले भ्रष्टाचार को याद रखते हैं। लेकिन इसे बावजूद यहां यह पूछने का मन करता है कि क्या यही मजाक किसी निजी चैनल पर करने की हिम्मत भी होती। वहां हालात क्या बहुत आइडियल हैं। वैसे इस देश में बात-बे-बात धरने होते रहते हैं, धार्मिक भावनाओं को किसी इशारे से भी ठेस लग जाती है लेकिन जब बारी एक सरकारी माध्यम की आती है, तो उसकी बात करने वाला कोई दिखता नहीं, खुद सरकारी चैनल भी नहीं। यह मजाक अगर आज तक, एनडीटीवी या किसी भी और चैनल पर किया गया होता तो बात ही कुछ और होती। फिल्में समाज की कहानी भी होती हैं। वे एक माहौल बनाती हैं और जिम्मेदारी के मंच पर खड़ी होती हैं। फिल्मों को देखने वाला हर दर्शक परिपक्व हो, यह कतई जरूरी नहीं। कई बार वह जो देखता है, उस पर अंधविश्वास कर लेता है। मजाक किसी दायरे में हों और हित में तो ही उचित है। वर्तमान इतिहास का मजाक उड़ाए और खुद को समझने लगे शहंशाह। भूल जाए कि उससे उसने पाया क्या था, इसे क्या सिर्फ एक भूल कहा जा सकता है। इतना कहना ही काफी समझें। (यह लेख 9 अगस्त, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)

Aug 3, 2011

सुर

कोई सुर अंदर ही बजता है कई बार
दीवार से टकराता है
बेसुरा नहीं होता फिर भी

कितनी ही बार छलकता है जमीन पर
पर फैलता नहीं

नदी में फेंक डालने की साजिश भी तो हुई इस सुर के साथ बार-बार
सुर बदला नहीं

सुर में सुख है
सुख में आशा
आशा में सांस का एक अंश
इतना अंश काफी है

मेरे लिए, मेरे अपनों के लिए, तुम्हारे लिए, पूरे के पूरे जमाने के लिए
पर इस सुर को
कभी सहलाया भी है ?
सुर में भी जान है
क्यों भूलते हो बार-बार