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Nov 5, 2012

कुछ फिल्म, कुछ जिंदगी

तमाम फिल्मी गानों के बीच

रूमानियत प्रेम सद्भाव स्नेह ममता विछोह

हर गीत ने हर बार अपनी जिंदगी की फिल्म ही चला दी


आसान तो होता ही है किसी दूसरे की फिल्म को देखना

रात में खाना खाकर

पान के साथ उसे चबा जाना


किसी दूसरे के आंसू, बेचारगी, विद्रूपता, षड्यंत्र

सभी को

मजे से पचा लेना

और सिनेमा हाल की कुर्सी से हाथ पोंछ कर

बाहर निकल आना


पॉपकॉर्न के साथ हजम कर जाना

फिल्म में दिखता अपमान, चालाकी और धूर्तता

और अगली सुबह फिर अपने अंदर के अपराधी को जगाकर

सच को पूजा की थाली के नीचे छिपा

दफ्तर चले आना


फिर चाय के साथ पकौड़ों की तरह

बात कर लेना उस फिल्म पर

और अखबार में पढ़ी समीक्षा और उसमे टंके सितारों पर भी

जमा देना

अपनी एक छोटी सी टिप्पणी


पर दोस्त

जिंदगी फिल्म कहां होती है

और उसका अंत भी कहां होता है इतनी सहजता से


जिंदगी फिल्म की पहली रील भी नहीं

जिसमें सेंसर बोर्ड का ठप्पा लगा हो

और न ही वह विराम

जो पल भर के लिए बीच में चल आए कि

आप कर सकें फिर कुछ संवाद, मतलब- बेमतलब के

और हॉल में सिंदूर लगाए बैठी पत्नी के उस पार

गर्ल फ्रेंड से अगले मिलन की तारीख तय कर आएं


जिंदगी में कहां होती है 35 एमएम की रील

तीन घंटे की फिल्म के बाद

जब पुराने नेपकिन को फेंक आते हैं

उस डस्टबिन में

तो जिंदगी के बाकी बचे अंश

फिल्म के किसी दरकते हिस्से के साथ चिपके हुए

साथ आते तो जरूर हैं

पर कार की खुली खिड़की,

मन के बंद दरवाजों

और बुने जाते सतत फंदों के बीच

वो सारा धुंआ कहीं उड़ जाता है


मन के पंछी को रोक कर

और नकली संवादों को डस्टर से मिटा कर

कभी अपनी जिंदगी पर

एक सच्ची फिल्म बना कर देखा है क्या


बस, वही एक फिल्म होगी

जो ब्लॉकबस्टर होगी

इस ख्याल को

लॉक किया जाए क्या
श्रद्धांजलि
श्रद्धांजलियां सच नहीं होतीं हमेशा
जैसे जिंदगी नहीं होती पूरी सच
तस्वीर के साथ
समय तारीख उम्र पता
यह तो सरकारी सुबूत होते ही हैं
पर
यह कौन लिखे कि
मरने वाली
मरी
या
मारी गई
श्रद्धांजलि में फिर
श्रद्धा किसकी, कैसे, कहां
पूरा जीवन वृतांत
एक सजे-सजाए घेरे में?
यात्रा के फरेब
षड्यंत्र
पठार
श्रद्धांजलि नहीं कहती
वो अखबार की नियमित घोषणा होती है
एक इश्तिहार
जिंदगी का एक बिंदु
अफसोस
श्रद्धांजलि जिसकी होती है
वो उसका लेखक नहीं होता
इसलिए श्रद्धांजलि कभी भी पूर्ण होती नहीं
सच, न तो जिंदगी होती है पूरी
न श्रद्धांजलि
बेहतर है
जीना बिना किसी उम्मीद के
और फिर मरना भी
परिभाषित करना खुद को जब भी समय हो
और शीशे में अपने अक्स को
खुद ही पोंछ लेना
किसी ऐतिहासिक रूमाल से
प्रूफ की गलतियों, हड़बड़ियों, आंदोलनों, राजनेताओं की घमाघम के बीच
बेहतर है
खुद ही लिख जाना
अपनी एक अदद श्रद्धांजलि

Oct 16, 2012

बाजार और मनोरंजन के बीच ख़बर

1977 में इमरजेंसी के दौरान भारतीय प्रेस सदमे की स्थिति में आ गया। खबरों में दिलचस्पी रखने वाले जानकार यह जानते हैं कि इमरजेंसी के खात्मे के बाद भारत में अखबारों के प्रचार-प्रसार में तेजी से इजाफा हुआ। खबरों के भूखे लोग अखबारों की तरफ लपके, वो सब जानने के लिए जिससे वे इस दौरान महरूम रहे थे। जाहिर है इस दौर ने अखबारों की सेहत एकाएक चमका दी।
लेकिन एक अखबार ऐसा भी था जिसके लिए इमरजेंसी फायदेमंद रही।  पंजाब के शहर जालंधर से छपने वाले पंजाब केसरी ने इमरजेंसी के दौरान सारे रिकार्ड तोड़ दिए। वो इकलौता ऐसा अखबार साबित हुआ जिसने इमरजेंसी की पहरेदारी के बीच भी अपना तिजोरी को भरने में कामयाबी पा ली। इमरजेंसी के दौरान पंजाब केसरी की सर्कुलेशन दोगुनी हो गई ( 60,000 से सीधे 1 लाख 20,000)। इसके लिए पंजाब केसरी ने जो फार्मूला अपनाया, वो आसान भी था, अनूठा भी।

इमरजेंसी में एतराज था खबर के छपने से। तो इस दौरान पंजाब केसरी ने पहले पन्ने पर खबर नहीं छापी, लेकिन बाकी सब छापा। अखबार गोल-गप्पों की तरह स्वादिष्ट बना दी गई, पहले पन्ने को मैगजीन का रूप दे दिया गया, उसे चटखारेदार बना दिया गया। नतीजतन उस ब्लैकआउट के बीच भी अखबार भरपूर बिका। पंजाब केसरी के संस्थापक लाला जगत नारायण के पोते और अखबार के दिल्ली संस्करण के संपादक अश्विनी कुमार इसकी वजह कुछ इस तरह से बयान करते हैं -

ऐसा कई वजहों से हुआ। एक तो इमरजेंसी के दौरान मेरे दादा को गिरफ्तार किया गया था, साथ ही अखबार की बिजली भी काट दी गई थी। स्थानीय लोग जानते थे कि हम हर स्तर पर संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए जब हमने अखबार के पहले पन्ने पर मैगजीन देनी शुरू कर दी तो पाठक को सीधे तौर पर यही संदेश गया वे हमें खबर छापने नहीं दे रहे, इसलिए हम आपको मैगजीन दे रहे हैं।

इस फार्मूले ने आने वाले कई सालों के लिए अखबारों का जैसे एजेंडा ही तय कर दिया। पचास के दशक में डी आर मानेनकर ने कहा ने पाया था कि हमारे यहां की पत्रकारिता अभी इतनी सक्षम नहीं हुई है कि चारों तरफ फैले पाठकों के इतने बड़े संसार को थाम सके। लेकिन अगले कुछ सालों में स्थिति तेजी से करवटें लेती गई। पुरानी गलतियों और घिसती जा रही परिपाटियों से सबक लिए जाने लगे। अब 57,000 से ज्यादा अखबारें और पत्रिकाएं छापने वाले इस देश में नव साक्षरों की वजह से अक्षरों की दुनिया के प्रति एक स्वाभाविक रूझान बन रहा है। दूसरे, भारत की 65 प्रतिशत आबादी की उम्र 35 साल से कम है। तीसरे, उदारवाद के चलते पाठक पूरी दुनिया को जानने के लिए अतिरिक्त उत्सुक हो चला है। यह दुनिया का इकलौता देश है जो इस समय इतना युवा है। हमारा मध्यम वर्ग अमरीका की कुल जनसंख्या के बराबर है। जनसंख्या के हिसाब से भारत में कई आस्ट्रेलिया भी हैं और कई नाइजीरिया भी।


इन सबने मिलकर 230 साल से ज्यादा पुराने प्रिंट मीडिया और 50 साल पुराने जन सेवा माध्यम और करीब 18 साल पहले पैदा हुए निजी टेलीविजन को अपनी सोच और कलेवर को बदलने के लिए जैसे मजबूर ही कर डाला है। अखबारें और टेलीविजन समेत सभी संचार माध्यम एक तरह से प्रोडक्ट बन गए हैं। सभी को अपने सामान को बाजार में बेचना है और इसलिए यहां एक ऐसी प्रयोगशाला बना दी गई है जो चौबीसों घंटे प्रयोग करती है। नए संस्करण लाने, नई तकनीक को अपनाने और फीडबैक के मुताबिक खुद को नए सांचे में ढालने में इसे कोई आपत्ति नहीं है।


सोचने की बात यह है कि युवा मीडिया से आखिर चाहता क्या है सिर्फ खबर या कुछ और भी। दरअसल जब से पश्चिम की तरफ से खिड़कियां खुल गई हैं, भारतीय युवा की सोच का दायरा भी विस्तृत हो गया है। वह लंबी उड़ान भरना चाहता है और बोरियत से बाहर आने को आतुर है। सालों तक मीडिया में राजनीति हावी रही।  अकेली राजनीति न तो अब उसे लुभाती है और न ही बहुत सम्मानित भी लगती है। वह प्रयोगधर्मी होना चाहता है और ऐसा मीडिया चाहता है जो उसके युवापने में बोरियत के बजाय रंग भरे, उसे नए विकल्प सुझाए और उसका साथी बने। इसलिए अब मीडिया को अपना मैन्यू बदलना पड़ा है। उसे कोने-कोने में बनने वाले नए पकवान और स्वाद इनमें शामिल करना पड़ रहा है और यह भी कोशिश करनी पड़ रही है कि इन प्रयोगों का खर्च कहीं और से आए।

यही वजह है कि भारत में न्यूज और मनोरंजन उद्योग इस समय अपने उफान पर है। 2006 में यह उद्योग 43,700 करोड़ के मुहाने पर खड़ा था और इस साल के मध्य तक इसके फैलाव में 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी के आसार दिखाई दे रहे हैं। मनोरंजन अब न्यूज मीडिया मे रचता-बसता जा रहा है। अखबार या न्यूज चैनल को देखते हुए कई बार उसमें से खबर को ढूंढना तक मुश्किल हो जाता है। बालीवुडाईजेशन और मैगजीनीफिकेशन ने मीडिया को एक नए मंच पर लाकर खड़ा कर दिया है। अब कंटेट इज दी किंग नहीं है। किंग विज्ञापन से आने वाला पैसा है और किंग मेकर युवा।  

जरा खबरों की दुनिया पर गौर कीजिए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 14 मार्च, 2010 को रविवारीय अखबार के साथ फ्लेमैंट नाम का एक मैगजीन निकाला। हिंदुस्तान टाइम्स की तुलना में लंबे और चौड़े इस अंक की कवर थीम थी सेलिब्रेटिंग इंटरनेशनल फैशन। पूरी तरह से विज्ञापित इस मैगजीन में रंग और पेड लेख भरे हुए थे। इसे देखकर मशहूर पत्रकार और मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित पी.साईंनाथ की उस टिप्पणी का याद आना वाजिब था जिसमें उन्होंने कहा था कि इस देश में डिजाइनर कपड़े पहनने वाले लोग 0.5 प्रतिशत हैं लेकिन तब भी जब कोई फैशन वीक होता है तो उसे कवर करने पत्रकारों की फौज जाती है जबकि किसान की आत्महत्या को कवर करने के लिए पत्रकारों की गुहार लगाने पर भी पत्रकार नहीं मिलते।    

अब हिंदुस्तान टाइम्स के ब्रंच को ही लीजिए। 1924 को महात्मा गांधी ने जब हिंदुस्तान टाइम्स का लोकार्पण किया था तो बाकी अखबारों की तरह इस अखबार ने भी मिशन और जन हित की ही बात की थी। आज अखबार रोजाना रंगीन सप्लीमेंट छापता है जिसमें फैशन, मनोरंजन, फिल्म, संगीत, खाना, मेकअप,सेक्स, क्रिकेट वह सब कुछ है जिसमें युवा की दिलचस्पी होती है। इस सप्लीमेंट के आधे से ज्यादा हिस्से पर सीधे तौर पर विज्ञापनों का राज दिखता है। दिल्ली के ये दोनों ही बड़े अखबार अब ऐसे कार्यक्रम आयोजित करने की भी होड़ लगाने लगे हैं जो कि पाठक को खींच सकें। अखबार में सेलिब्रिटीज की फोटो छापी जाती हैं और उन्हें वेबसाइट पर देखने का पता भी दिया जाता है। खबर भले ही छोटी करनी पड़े या छोड़नी पड़े लेकिन बाजार में आ रहे नए प्रोडक्ट्स के कसीदे गाने और सेलिब्रिटीज के नाज-नखरों की खबर छापने में कोई कोताही नहीं बरती जाती। नई कारों के आने से पहले उसके पेड लेख जोर-शोर से छप जाते हैं। कौन-सी क्रीम कितनी चमका सकती है और सिर पर नए बाल कैसे चिपकाए जा सकते हैं इस पर मैगी नूडल्स स्टाइल में तुरत-फुरत लुभावने लेख छपते रहते हैं।

इसी तरह दैनिक हिंदुस्तान, प्रभात खबर, नई दुनिया, भास्कर सभी ने अपने-अपने तरीके से अखबारों को मनोरंजनमय बनाया है। ईनाडू, आनंद बाजार पत्रिका और सकाल तमाम अन्य भाषाओं के अखबार अपने स्वाद को बदलने में जुट गए। तमाम अखबारों ने लोकल बाजार को समझने की कोशिश की और अखबार को एक ग्लोकल चेहरा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। वह मॉडर्न दिखना चाहता है, थोड़ा पारंपरिक भी रहना चाहता है और पूरी तरह से स्वीकार्य होना चाहता है। इसमें एक भली बात यह भी हुई है कि नीति-निर्धारकों से लेकर पेज थ्री के राजकुमार-राजकुमारियां अब क्षेत्रीय अखबारों और चैनलों की भूमिका को बखूबी समझने लगे हैं। गजिनी के बाद थ्री ईडियट्स के प्रचार के लिए आमिर खान जब दक्षिणी राज्यों में जाकर प्रचार करने लगते हैं तो शाहरूख खान भी अपने बंगले मन्नत में क्षेत्रीय मीडिया को बुलाकर माई नेम इज खान के लिए एक्सक्लूजिव इंटरव्यू देने लगते हैं। इन सबके बीच नए फिल्मकारों की पीपली लाइव भी अच्छी बाजी मार ले जाती है क्योंकि उसे अपनी पहली पारी में ही समाज की नब्ज समझ में आ जाती है। वह किसी स्टार को फिल्म से जोड़ता नहीं और एक गांव का नत्था ही उसे सफलता का ऐसा सेहरा पहना जाता है कि बाकी की उदासी देखते ही बनती है। 

एक सच यह भी है कि अखबार को चलाने का 90 प्रतिशत खर्चा विज्ञापन के मोहल्ले  से ही आता है। इसलिए विज्ञापन सर्वेसर्वा है। 1997 में जब प्रिंट मीडिया को मिलने वाला विज्ञापन 1985 की तुलना में 15 प्रतिशत घट गया तो अखबारों ने जाना कि विज्ञापन पाने के लिए वही करना होगा जो युवा चाहेगा। यही वजह है कि अगर किसी दिन किसी अखबार के रंगीन पेज में छपा दिन या महीना बदल भी दें या न दें तो शायद कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा। ग्लोकलाजेशन, बालीवुडाइजेशन, कारपोरेटाइजेशन इस सबने अखबारों के कंटेट में से न्यूज को काफी हद तक निचोड़ दिया है। वैसे भी टीवी, और बाद में कलर टीवी, के आने से अखबार को अपना कलेवर बदलने के लिए काफी हद तक बाध्य होना पड़ा। वो भागती तस्वीरों से मुकाबला नहीं कर सकता था, लेकिन कोई रास्ता तो ईजाद करना ही था। इसलिए भी अखबारें अपने फार्मूले बदलने को बेचैन होती दिखने लगीं। रंगीन तस्वीरों और रंगीन पन्नों ने कागजी खबरों की दुनिया में ताजी हवा भरी। साथ ही अखबारों ने समझा कि टीवी जैसे उछलते माध्यम को टक्कर देने के लिए मनोरंजन के लॉलीपॉप को शामिल करना भी कम जरूरी नहीं।

अखबारों के स्मार्टाइजेशन की होड़ से अखबारों की वेबसाइट भला कैसे पीछे छूटतीं। स्मार्ट होती अखबारों के साथ ही उनकी वेबसाइट भी चमकने लगीं। यहां जनसंवाद ज्यादा मुखर हुआ। फीडबैक की गुंजाइश कई गुना बढ़ गई और लोग खुलकर अपनी बात एक पत्रकार की तरह बताने की कोशिशें करने लगे। सिटिजन जर्नलिज्म ने एक आम जन के हाथों में ताकत के विटामिन भर दिए। यही वजह है कि एक दशक के भीतर ही अखबारों के वेबसाइट भी चटपटे हो चले हैं। यहां विशुद्ध खबर को रोचक बनाने पर जोर है। साथ ही न्यूज के साथ व्यूज, क्रिकेट, सिनेमा, लाइफस्टाइल, फोटो, वीडियो, ब्लाग, शादी इन सभी को साइटों की सांस बना दिया गया है। यहां रंगों की भरमार है। वीडियो फुटेज हैं और जनसर्वे का हिस्सा बनने का मौका। वेबसाइट चलते-फिरते टीवी हो चले हैं।

टीवी का मनोरंजन दूसरे तरह का रहा। 1959 से लेकर 90 की शुरूआत तक दूरदर्शन के नाम पर काफी हद तक सभ्य लेकिन सूखे मनोरंजन का ही राज रहा। साइट की अवधारणा किसानों और साक्षरता की बात के आस-पास ही घूमती रही। मनोरंजन के नाम पर हफ्ते में एक बार फिल्म मिलती थी और साथ में चित्रहार। बस, इसी में पेट भर लेना होता था। उदारवाद की लहर में जब निजी चैनलों का प्रसव हुआ तो टेलीविजन का व्याकरण जैसे बदल ही गया। यहां कभी नागिन के डांस ने सबको नचाया, कभी प्रलय ने डराया और कभी राखी सावंत या राहुल महाजन के स्वयंवर ने रिएलिटी के नाम पर हंसाया। पहली बार भारतीय टीवी पर ही ये प्रयोग हुआ कि न्यूज चैनलों के बीच में हंसगुल्ले यानी की हास्य परोसा जाने लगा। राजू श्रीवास्तव सरीखे एकाएक न्यूज चैनलों की आंखों के तारे बन चले। यहां तक कि फिल्म निर्माता और कलाकार भी जिस छोटे परदे को कभी पिछड़ी जाति जैसा माना करते थे, अब इसकी आरती उतारने लगे। फिल्मों के प्रमोशन के लिए बंटी और बबली के रिलीज होते ही रानी मुखर्जी और अभिषेक बच्चन एनडीटीवी की न्यूज तक पढ़ जाते हैं। आज टीवी को फिल्म से अलग नहीं माना जा सकता। दोनों एक-दूसरे में कब घुल गए, किसी को पता ही नहीं चला।

इसी तरह विवाद भी मनोरंजन की वजह बनने लगे। थ्री इडियट्स का असली लेखक कौन है, इस पर चेतन भगत और राजकुमार हीरानी की तूतू-मैंमैं गंभीरता से कहीं ज्यादा हंसी दिखती है। ऐश्वर्या राय के पेट में टीबी है, इसलिए वे मां नहीं बन पा रहीं, यह खबर एक चैनल पर आधे घंटे का कार्यक्रम बन जाती है ( बाद में आराध्या का जन्म और फिर उसकी एक झलक पाने की होड़ भी खबर बनती रही) कटरीना कैफ के जन्म दिन पर सलमान कब और कहां गए, करीना की शाहिद के साथ दाल नहीं गल रही, शाहरूख और फरहा के पति का झगड़ा होना – यह सब ब्रेकिंग न्यूज के दर्जे में डाला गया। मनोरंजन ऐसा कि जब एक अखबार का पत्रकार पी चिदंबरम पर जूता फेंकने की कोशिश करता है तो मीडिया उसमें भी चुस्कियां लेता दिखता है और जनता भी। वो जूता और वो पत्रकार उस दिन सेलिब्रिटी सरीखे बन जाते हैं। मीडिया ने गंभीरता में मनोरंजन का पुट ऐसा भर दिया है कि गंभीरता भी अब हंसी के लबादे में लिपटी दिखने लगी है और यहां तक कि आध्यात्म भी। एक सर्वेक्षण ने साबित किया कि आध्यात्मिक चैनलों को देखने वालों में युवाओं की तादाद लगातार बढ़ रही है। वे विज्ञापन देखकर अगर सोना बाथ के लिए जाते हैं तो रूद्राक्ष और मोती भी खरीदते हैं। उधर योग गुरू भी अब रोचक होने लगे हैं। वे कपाल भाति करने की विधि हिंग्लिश में समझाते हैं और चुस्त दिखते हैं। अब वे राजनीति की गुगली खेलने लगे हैं।

कई बार लगता यही है कि ऐसे मनोरंजन के कई प्रयोग शायद युवा को पसंद भी आए हैं। शायद इसी का नतीजा है कि फिक्की और केपीएमजी ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा कि 2009 से 2013 के बीच भारतीय टेलीविजन उद्योग में 14.5 प्रतिशत तक का उछाल आना निश्चित है। 2013 तक अकेला टीवी कुल विज्ञापन उद्योग का 41 प्रतिशत अपनी झोली में डालने में समर्थ हो जाएगा।

बेशक खबर अब ठिठोली करने लगी है। बरसों पहले टी एस ईलियट ने जब कहा था कि टीवी का काम मूलत मनोरंजन परोसना ही होना चाहिए तो किसी को शायद तब यह बात समझ में नहीं आई थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हैं। मीडिया ने अब इंडिया और भारत ये दो वर्ग बड़ी सफाई से गढ़ दिए हैं। यहां मनोरंजन के नाम पर अब सपने बेचे जाने लगे हैं या फिर त्रासदी। पहले पन्ने से लेकर आखिरी पन्ने तक, टीवी पर दिखने वाले पहले चैनल से लेकर आखिरी चैनल तक और वेब पन्नों पर भी कोशिश युवा को रिझा लेने की है लेकिन यहां इस सच से आंखें नहीं मूंदने चाहिए कि जैसा राजनीति युवा नाम के वोट बैंक को रिझाने में मस्त रही, कहीं उसी तरह मीडिया भी युवा को किसी बहाने की तरह इस्तेमाल करने का आदी बनने तो नहीं लगा। पूंजी के महल युवा को सोने के सिक्कों की तरह तो देखते हैं जिन्हें तिजारी में भरे रखने के फायदे हैं लेकिन इससे युवाओं को मिलेगा क्या।। बाजार जब तालियां हासिल करता है तो उपलब्धि के सर्टिफिकेट अपने नाम लिखवा लेता है लकिन जब कुछ पटरी से उतरता है तो दोष सीधे युवाओं के सर पर।। कब तक चलेगी यह खो-खो।

संदर्भ ग्रंथ

1. इंडियाज न्यूजपेपर रिवॉल्यूशन, रॉबिन जेफ्री, ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, 2003
2. एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राउट पी साईंनाथ, पेंग्विन बुक्स इंडिया, 2000
3. टेलीविजन और क्राइम रिपोर्टिंग, वर्तिका नन्दा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010



किसका बलात्कार है यह

नीला आसमान वाकई सो गया है। यह बात फिल्मी नहीं है। यह बात सच का वह सिलसिला है जो हर रोज दिखाई दे रहा है ।
जिस देश की सत्ता को अपनी सत्ता बचाने में ही अपनी ताकत और साख का बड़ा हिस्सा लगाना हो और सरकारी विज्ञापनों के जरिए खबर के आकार को संचालित करने की जुगत लगानी हो, वहां असल खबर के जल्दी खो जाने में की हैरानी होनी भी नहीं चाहिए।
फिर भी खबर पूरी तरह से छिपाई भी नहीं जा सकती। यही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की खास पहचान भी है। बलात्कार के मामलों में हरियाणा देश में अव्वल हो गया है, खबर यह है या यह कि ममता बनर्जी मानती हैं कि ज्यादा आजाद माहौल बलात्कारों की वजह है और सोनिया गांधी कहती हैं कि इस देश में सब जगह ही बलात्कार हो रहे हैं। खबर क्या यह है कि बलात्कार से बचने के लिए जल्द से जल्द शादी कर देनी चाहिए या यह भी है कि बलात्कार की शिकार महिला के घर जाने से पहले सियासतदान यह जानना पसंद करते हैं कि उसकी जाति क्या है और उससे कितने फायदे की उम्मीद है या फिर यह भी कि बलात्कार को लेकर यूट्यूब एकाएक सक्रिय हो उठे हैं। बलात्कार की लाइव रिपोर्टिंग के दिनों की शुरूआत हो चुकी है। वैसे इन सबके बीच इस देश की कथित सुचारू संस्थाएं – राष्ट्रीय महिला आयोग, प्रेस आयोग कितनी सक्रिय हैं,खबर शायद यह भी है।

हरित क्रांति और दुग्ध क्रांति का देश और अब भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लैस होता दिखता यह देश बलात्कार की बढ़ती तादाद को लेकर चिंतित है, इसके भयावह संकेत मिल रहे हैं हमें। पहली खबर यहीं से शुरू होती है।
सरकारी आंकड़े कहते हैं कि देश के 35 बड़े शहरों में दिल्ली महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर है। 2010 में दिल्ली में बलात्कार के 414 मामले दर्ज हुए। इसके बाद नंबर आया मुंबई का जहां 194 मामले दर्ज हुए।
इसी तरह दिल्ली में महिलाओं के अपहरण के 1422 मामले सामने ए जो कि 35 शहरों में दर्ज हुए मामलों का 37.7 प्रतिशत है। दहेज के 112 मामले और घरेलू हिंसा के 1273 मामले सामने आए।

और एक बड़ी खबर – पिछले साल दिल्ली में घरेलू हिंसा से बचने के लिए 15,000 महिलाओं ने पुलिस की शरण ली और एक भी मामले का संतोषजनक हल नहीं हो सका।

यानि बड़े शहर असुरक्षा के घेरे में है। देश की राजधानी, जहां से सत्ता संचालित होती है और जिसकी कानून और व्यवस्था की स्थिति को देश की सेहत का बैरोमीटर तक मान लिया जाता है, वहां मामला अटका पड़ा है। आखिर क्यों।

महिला हेल्पलाइन में फोन कीजिए। राष्ट्रीय महिला अपराध शाखा या राज्य की महिला अपराध शाखाओं में फोन कीजिए। अदालतों में जाइए। पीड़ितों से मिलिए और अपराधियों को एक दूरी से देखिए। आप समझ जाएंगे कि इस देश में अपराध के गालों पर गुलाबी चमक क्यों है।

और फिर उसके बाद नए जमाने में अपराध की रिपोर्टिंग। कई बार ऐसा लगता है कि किसी मसेदार फिल्म का लाइव प्रसारण हो रहा हो। सोशल नेटवर्किंग साइट्स की सक्रियता ने अपराध की रिपोर्टिंग को चकाचौंध भरे पंख और लोमड़ी सी फुर्ती भी दे डाली है। गोवाहाटी में बदसलूकी की शिकार होती युवती के लिए पुलिस उबासी लेती ही रह जाती है और उसकी लाइव फुटेज यूट्यूब पर एक फिल्मी नजारा बन जाती है।

यही वजह है कि पीड़ित ज्यादातर मामलों में चुप्पी साधे रहते है। 2003 में सिरीफोर्ट ऑडिटोलियम के बाहर एक स्विस राजनयिक से बलात्कार होता है। पुलिस अपराधी की पहचान तो नहीं कर पाती पर पीड़ित की पहचान मजे से सार्वजिनक हो जाती है। नतीजा – दो दिन बाद वो महिला हमेशा के लिए देश छोड़ कर चली जाती है।

ऐसे नतीजे बहुत से निकले हैं और बार –बार संवेदनहीनता की तरफ इशारा करते रहे हैं। पीले पड़े सरकारी कागजों में हर साल यह भर देना आसान है कि ज्यादातर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में कोई कार्रवाई इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि गवाह नहीं मिलते, क्योंकि पीड़ित खुद पीछे हट जाती हैं, क्योंकि पीड़ित की सड़क पर छांव नहीं होती।

अपराध की कई परतें होती हैं, उसके कई संकेत भी। अपराध का विश्लेषण समाज के कई हिस्सों को उधेड़ कर सामने रखता है। अपराध देश-समाज की दशा-दिशा का सटीक आकलन देता है। इसले वह आंकड़ा भर नहीं है।

अपराध सत्ताओं की ताकत और उनकी नीयत को भी खोल कर सामने रखता है। यह देश के कर्म का रिपोर्ट कार्ड है।

फिलहाल बलात्कारों को लेकर सत्ता की सियासत शुरू हो गई है। अखबारें और फेसबुक भी लहलहा रहे हैं। सत्ताएं बयान देने में मशगूल हैं। आंदोलनों और आगामी चुनावों के बीच कभी-कभार फीके पड़ते खबरों के रनऑर्डर में जब सिनेमा और क्रिकेट भी नहीं होता तो अपराध बहुत काम आता है।

अपराध की रिपोर्टिंग और अपराध से जूझते समाज के लिए इससे त्रासद और क्या होगा कि अपराध से खेलता खूंखार अपराधी उसका इस्तेमाल अपने प्रशिक्षण के लिए करता है। समाज में मानसिक भूकंप भी इस स्थिति को बेहतर बना सकता है क्योंकि अपराध के गालों पर गुलाबी चमक है और उसके हाथों में सत्ता की छिपी हुई बंदूक। अब शब्द नहीं, सहयोग चाहिए और उससे भी बढ़कर – एक क्रांति।   
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Oct 12, 2012

विश्व हिन्दी सम्मेलन









विश्व हिन्दी सम्मेलन : जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका : 22 से 24 सितंबर, 2012

Aug 30, 2012

AgVoice | India need more TV rating currencies

As TV in India has evolved from a one broadcast network (Doordarshan) medium to a multi-channel universe, it has gotten increasingly difficult to accurately measure TV audiences. With the coming of TV content to mobile devices and the internet, it’s clear that the old methods aren’t going to work anymore. Because the new methods may involve increased cost for both media and media research, it’s important that advertisers understand the value of the improved accuracy in TV ratings. Improved audience estimates will ultimately allow better calculation of advertising return on investment for TV and other advertiser-supported content viewing devices, and help advertisers better understand what they’re getting for their TV spending.

Ratings is intended for anyone who needs more than a superficial understanding of audience research. This would certainly include many people who work in advertising, the electronic media, and related industries. For them, audience data are a fact of life. Whether they have been specifically trained to deal with research or not, their jobs typically require them to make use of "the numbers" when they buy and sell audiences, or make marketing, programming, and investment decisions.

Unfortunately the Rating Game just took a turn for the worse in India as New Delhi Television Limited (NDTV) has sued The Nielsen Co. for allegedly manipulating TAM ratings data in favor of broadcasters who 'paid' money. NDTV filed a lawsuit against Nielsen, the premier TV rating company and the parent of TAM-India and has sought damages worth a whopping $1.4 Billion.
The lawsuit lists all the wrongdoings of Nielsen-TAM since 2004 right up to 2012 according to NDTV. At every turn NDTV claims to have been the victim and suffered damages. Given this is a legal issue it would be prudent not to pass any comment on the contents of the lawsuit, however, it is highly relevant considering that within the television industry, 34% (INR 116 billion, USD 2.1 billion in 2011) of revenues come from advertising. For news broadcasters such as NDTV, advertising constitutes 70% to 80% of revenues.

As some reports published in media says, the government is planning to launch a probe into the alleged fudging of television viewership data by TAM after receiving several complaints from broadcasters.

We need to understand where TAM is going wrong, is this the lower size of samples or they are not covering cities having population lesser then a lacs. why India is not having other currency to get ratings, why even public broadcaster’s such as Doordarshan is not satisfied with the current modes oprandi of TAM.

As a television viewer, you hear about it all the time; that ratings for one show are, for another show they are down, and because they weren't high enough for a certain demographic that a show has been cancelled. With all of those numbers being thrown around, there is a lot being hidden from the public, a lot of whom have fallen under the false illusion that the ratings are actually fact. Well I am here to tell you that the ratings are not really fact, but the best guesses that the company in charge of deducing television ratings has come up with. That's right, while they may be educated guesses, the television ratings that a lot of people have taken for granted, are in fact just guesses.

The firm in charge of figuring out who is watching what show is the Nielsen Media Company. They work with some television viewers to come up with an estimate on how many people are watching a particular show. In order to do this, they take randomly selected people from the population, and have them either fill out diaries, install television meters on their home television, or have them answer questions over the phone. The random selections are made based on the demographics of viewers, which are broken down by class, sex, age, education, geography and a few other attributes. When one of the selected families accepts the position, they keep track of their shows, or if they are chosen to have a box attached to their TV, they just watch shows as normal, and what they have watched it sent back to Nielsen to help determine ratings.

Let's now take a look at how they come up with the numbers for the Nielsen ratings that are released each day to the public. Keep in mind that these ratings are pretty powerful, because if they are too low, a show is going to get cancelled. The ratings dictate how much advertisers are willing to or have to pay for a commercial during that show, and are thus very important to executives at every network. To come up with the ratings, Nielsen has placed approximately 10,000 metered boxes in households around India. Saying ten thousand sounds like a lot no matter how you say it, until you think about it for a moment and make a comparison to how many houses and televisions there are in India. There are 147 million households with televisions in the country. Now say that one out loud one hundred forty seven thousand households with televisions. Breaking that down even further, it means that less than 0.000001% of the country is measuring the ratings for the other 99.99% of the country. It doesn't even take into account that people in the same house may be watching different shows on different televisions at the same time.

Nielsen equates 1 households to be worth 1,47,000 households, and then works backwards to come up with the top rated television shows for the week. So few people dictating which shows are being watched enough to stay on the air is really bad for television, because it then means that shows which are really good, and could be watched by millions, may not be seen by that select 10,000 people in the pool. That is just a small set to take an example from, but a mere microcosm of what is really wrong with the television ratings industry. It is certainly a big business, but it is something that really needs to be fixed in order to present a more realistic picture of what people are watching on television. By Rajiv Mishra, CEO, Lok Sabha TV

About the writer:

Rajiv Mishra, CEO, Lok Sabha TV is a broadcast/media professional and founder of Electronic Media Rating Council of India. His contribution in TV Ratings methodology in Europe has been recognised by ITU/EBU in 1996 at Geneva. He did Masters in Broadcasting from IAB, Montreux, Switzerland, MBA in Media Management from MCNY, USA and a Graduate Certificate Course in Multi-Media from UCLA, USA.



Source: http://www.adgully.com/agvoice-india-need-more-tv-rating-currencies-51359.html

Aug 10, 2012

आमंत्रण



आप सबकी दुआ से थी हूं रहूंगी को परंपरा ऋतुराज सम्मान 14 अगस्त की शाम को दिया जाना है। कार्यक्रम शाम को इंडिया हैबिटाट सेंटर में होगा। विवरण इस कार्ड पर है। समय जरूर निकालिएगा। आपकी उपस्थिति आशीष का काम करेगी।
सादर
वर्तिका नन्दा

Aug 8, 2012

मैं सब समझती हूं फिजा...


धुले-धुले बालों को अपने हाथ से झटकती, चांद के साथ किसी चांदनी की तरह सिमटी और शाल ओढ़े मुस्कुराती उस बेहद सुंदर फिजा के बारे में मैं चंडीगढ़ के अपने दोस्तों से अक्सर पूछा करती थी। अगले महीने चंडीगढ़ जाकर उससे मिलने का इरादा भी था।

अभी शायद एक महीने पहले ही तहलका के एक पत्रकार ने फेसबुक पर बताया कि फिजा अब अकेलेपन की जिंदगी बसर कर रही हैं। मैं कुछ लिख रही थी और मेरा मन था कि मैं जाकर फिजा से कहूं फिजा, मैं सब समझ सकती हूं, फिजा।

फिजा की हत्या ज्यादा और आत्महत्या कम के बारे में जिस समय पता चला, मुझे हैरानी से कहीं ज्यादा दुख हुआ लेकिन दुख का यह भाव रात होते-होते कई गुना बढ़ गया। फेसबुक और ट्विटर पर जो भी कमेंट पढ़े, वे फिजा को दोषी ठहराते हुए थे। टीवी की चिल्लाती हुई वार्ताएं भी गीतिका और फिजा पर अंगुली उठाती हुई थीं, पूरी तरह से चरित्र हनन करतीं, तस्वीरों को कई कोणों से दिखाती हुईं, उनके अति महत्वाकांक्षी होने की छवि गढ़तीं और अनकहा अट्टाहास करतीं।

एक युवा और सुंदर लड़की की हत्या कई दृष्टियों से चीजों को खोलकर और उधेड़ कर रख देती है। फिजा का चांद से शादी करना मीडिया ने कुछ इस अंदाज में बयान किया कि जैसे फिजा ही चांद को गोद में लेकर भगा ले गई थी। उनका धर्म को बदलना, उनका सफल होना, नामी होना, कथित बड़े लोगों को जानना, खबर तो बस उनके चरित्र के पन्नों को उधेड़ने पर ही आकर रुक गई। खबर वहां पहुंची ही नहीं जहां उसे पहुंचना चाहिए था।

खबर को उनका एकाकीपन नहीं दिखा। उसकी उदासी, बेबसी, दुख, मातृत्व का अभाव और प्रेमी बनाम पति का विछोह। मीडिया को कहां दिखा कि अगर उनके जिगर में भरे-लदे प्रेम का भाव न होता तो वे एकाकी रहती ही क्यों। मीडिया को यह भी समझ में नहीं आया कि दूसरी पत्नी होना आसान नहीं होता। किसी और के बच्चों की अनकही, अस्वीकृत मां बनना तो और भी नहीं।

मीडिया अंदाजा नहीं लगा सका कि औरत होने की कीमत एक बार नहीं, हर बार अदा की जाती है और ‘दूसरी’ होने पर इसकी कीमत और सजा भी कुछ और होती है। मीडिया जब उनकी जिंदगी के गीले पन्ने उधेड़ रहा था, मैं उस शोर के बीच चांद के लिए उसकी चुप्पी को अपनी हथेली पर तोल रही थी। चांद को लेकर जिस संजीदगी से आरोपों की फेहरिस्त खुलनी और छीली जानी चाहिए थी, मीडिया ने उस उफान को उठने ही नहीं दिया बल्कि वह तो फिजा के मरने को तार्किक मनवाने में जुट गया और इस शोर में उसका साथ देने के लिए उसे कई बंसी बजाने वाले बड़ी आसानी से मिल गए।

ठीक ही हुआ एक तरह से। औरत को थकाते इस समाज में शायद पीड़िता के लिए कोई जगह है भी नहीं। वह भोग्या हो सकती है, परित्यक्ता, बिखरी हुई और पराजित पर उसकी जुबान नहीं होनी चाहिए। वह या तो हाथ में कलम थामे, कुछ बोले, कानून के पास जाए या फिर मर जाए या मारी जाए। सबसे आसान है आखिरी रास्ता ही।

फेसबुक पर जब कुछ सवाल मैंने उछाले तो किसी ने मुझसे कहा- फिजा बोली क्यों नहीं। मेरा जवाब था जो बोलती हैं, उनके साथ क्या होता है, क्या यह जानते हैं आप। बोलने का अपराध अमूमन चुप रहने से भी ज्यादा मारक होता है खासतौर पर जब अपराधी शातिर हो और राजनीति या पुलिस से ताल्लुक रखता हो।

यकीन न हो तो घरेलू हिंसा, बलात्कार, मानहानि का केस दायर करने वाली किसी भी महिला का हश्र पूछकर जान लीजिए या फिर जाइए देश के किसी भी बड़े शहर की महिला अपराध शाखा में। केस दर्ज होने से पहले और फिर बाद में तो स्वाभाविक तौर पर ही अपराधी पूरी तरह से महिला को दोषी साबित करने में जुट जाता है।

वह जायदाद की लोभिनी, पागल, क्रूर, अपराधिनी, शोषिणी वगैरह के तौर पर देखी जाने लगती है जो घर पर कब्जा जमाना चाहती है और मार-पीट करती है। (यह बात अलग है कि असल में जिन विश्लेषणों और अपराधों का ठीकरा औरत पर फोड़ा जाता है, वो असल में उसी अपराधी के होते हैं)

हां, समाज, प्रशासन, पुलिस, कार्यकर्ता, कथित दोस्त एक थकी औरत को श्मशान तक पहुंचाने में बड़ी मदद करते हैं। ऊंचा सुनता कानून, धीमी चलती पुलिस, साजिश रचती राजनीति, शातिर अपराधी और फैसले सुनाता फेसबुक भी - औरत को थकाने और हराने के लिए काफी होता है इतना-सा सामान।

लेकिन औरत हमेशा मरजानी नहीं होती। यह बात इस पूरे समाज को जान लेनी चाहिए। कई बार जब दुखों का अंबार बहुत बड़ा हो जाता है तो सब्र के बांध टूटते भी हैं। समाज अक्सर भूल जाता है कि जो भी औरत मारे जाने से बच जाती है, वह बदल जाती है। जिस दिन उसकी आंखों के आंसू सूखकर एक लाल अंगारे में तब्दील हो जाते हैं, समाज की कई पथरीली पगडंडियां बदल जाती हैं। इन करमजलियों को मारने वालों को समाज सजा दे या न दे, एक अदृश्य शक्ति इनका साथ जरूर देती है और हमेशा देगी।

कानून एकाएक नहीं बदलेगें और लोकपाल बिल जैसे वायदे या घरेलू हिंसा के हांफते अक्षरों की जमात, भ्रष्ट तंत्र में काम करते कथित प्रोटेक्शन ऑफिसर और असंवेदनशीलता को मोहर लगाते राष्ट्रीय या राज्य के महिला आयोग भी औरत को एक खुली सड़क दे सकेंगें, ऐसा बहुत लगता नहीं।

हर औरत को अपनी रक्षा के हथियार खुद बनाने होंगे, उनकी धार को तेज करना होगा और सबसे बड़ी बात उसे दूसरी औरत का साथ देना होगा और न देना हो तो चुप्पी साधनी होगी।

इतना ही हो सका तो औरत को मारने वालों को कई बार सोचना तो होगा ही। दुर्गा बनी हुई औरत से अपराधी तो क्या खुद सृष्टि भी डरा ही करती है।

फिजा के जाने के बाद लगा कि चुप्पी को तोड़ने का समय आ गया है। अपराध की शिकार हर औरत एक दिन अपनी तकदीर को नए सिरे से लिखेगी जरूर और कहेगी - मैं थी, हूं और रहूंगी।

बाहरी लिंक

Jul 12, 2012

लोकसभा टीवी – वाद, विवाद, प्रतिवाद

लोकसभा टीवी पर पिछले 3 साल में बाबू जगजीवन राम पर 6 फिल्में बनीं। एक अंग्रेजी अखबार ने हाल ही में इस पर रिपोर्ट छापी तो कई माथों पर शिकन के निशान दिखाई दिए। एक बार फिर यह बहस भी उठी कि पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर की उपयोगिता असल में होती क्या है और भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश में वह क्या महज राजनीतिक पूर्ति का एक सफेद हाथी है है या फिर उस पर शान के साथ घोड़े की सवारी भी की जा सकती है।। क्या इन फिल्मों का निर्माण कुछ संकेतों की तरफ ले जाता है या फिर यह महज एक इत्तफाक भर ही था।

लोकसभा टीवी को लाने का श्रेय लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और सूचना और प्रसारण मंत्रालय के पूर्व सचिव और रिटार्यड आईएएस अधिकारी भास्कर घोष को जाता है। यह दोनों न होते तो यह शायद यह चैनल कभी शुरू भी न हो पाता। चटर्जी चाहते थे कि पार्लियामेंट लाइब्रेरी बिल्डिंग से एक ऐसे चैनल की शुरूआत हो जो सबसे अलग हो। जो विजिटर्स गैलेरी को सीधे दर्शकों तक पहुंचा सके। इससे पहले लोकसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण दूरदर्शन करता था और इसलिए वह साल के 90 दिनों तक ही सीमित था। लोकसभा के चलने पर ही फुटेज दिखाई देती और बाकी समय रंगीन पट्टियां। नतीजा यह होता कि आम दर्शक को भी लगता कि शायद लोकसभा सांसद साल में सिर्फ 90 दिन ही कथित तौर पर काम करते हैं। तिस पर कहानी यह कि संसद में उनका जो आचरण अकसर दिखाई देता, वह उनके सम्मानित होने के वजूद पर ही सवाल लगाता। खैर, 2006 में यह चैनल शुरू हुआ और दुनिया का पहला ऐसा चैनल बना जो संसद का अपना चैनल बना, संसद भवन से ही संचालित और प्रसारित होता हुआ।

भास्कर घोष ने एक टीम का गठन किया। इसमें सुधीर टंडन और वैंकटेश्वर लू के अलावा मैं भी थी। बाद में के जे एस चीमा, भूपिंदर कैंथोला, विनोद कौल, विकास शर्मा, बी बी नागपाल, ज्ञानेंद्र पांडेय, शकील हसन शम्सी वगैरह को भी जोड़ा गया। एक बड़ा समय इस बात पर लगाया गया कि पूरे साल इस चैनल को कैसे चलाया जाए, वह भी न्यूज के बिना। योग्य एंकरों का चयन, प्रोडक्शन की टीम और पूरी तरह से सीलबंद दिखती बिल्डिंग में बुनियादी जरूरतों को जुटाना – सब एक युद्ध लड़ने जैसा ही था पर था रोचक।

चैनल काफी हद तक सफल रहा। बेरंग और नीरस दिखने के बावजूद लोगों का चहेता बना क्योंकि जो उसमें था, वह दूसरे चैनलों में होना तकरीबन नामुमकिन ही था। विजिलेंट पत्रकारिता के इस दौर में लोक सभा टीवी एक सुनहरा अध्याय बन कर सामने आया। चैनल देश का पहला ऐसा चैनल बना जो लोकसभा सचिवालय चला रहा है, जो संसद के भवन के अंदर ही है और जो लोकसभा का पूरा आंखोंदेखा हाल दिखाने में सक्षम है, वह भी सरकारी खर्चे पर। चैनल शुरू हुआ तो सबसे पहले डर यही उपजा कि जनता सांसदों को जब झगड़ते-गलियाते लाइव देखेगी तो क्या सोचेगी। लेकिन इन डरों की परवाह नहीं की गई और चैनल पैदा हो गया। चैनल संसद के सत्र के सिर्फ 90 दिनों तक ही सीमित नहीं रहा, पूरे 365 दिनों का चौबीसी चैनल बना और उसने भी सांसदों के लाइव ड्रामे को दिखा कर जनता को जगरूक किया।

मीरा कुमार के अध्यक्ष बनने के बाद भी लोक सभा टीवी नए प्रयोग करता रहा है और चैनल के प्रति उनकी आस्था और स्नेह भी साफ तौर पर झलका है।

लेकिन इसके बावजूद यह चैनल भी दूरदर्शन की तरह विवादों और सवालों से अछूता नहीं रह सका है। शायद लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह जरूरी भी है पर अगर इनसे सबक न लिए जाएं तो फिर यह घातक स्थिति को आमंत्रण दे सकते हैं। किसी भी पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर से कुछ उम्मीदें होती हैं और वे पूरी तरह से जायज होती हैं। जनता के पैसों पर चलने वाली कोई भी मशीनरी किसी द्वीप में खुद को रख ही नहीं सकती।

इसलिए इस बार जो सवाल खड़े हुए हैं और जो संकेत दिए गए हैं, उन पर गहन विचार होना चाहिए। पब्लिक सर्विस ब्राडकास्टर को जन सेवकों, रोजनेताओं, प्रेरणादायक शख्सियतों पर काम करना ही चाहिए – हर हाल में पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि वे जनता को सुख और तृप्ति का ही भाव दें।

वैसे एक समस्या यह भी दिखती है कि तमाम तरह के सरकारी-अर्ध सरकारी ध्रुवों में सही सलाह देने वाले होते भी नहीं। शीर्ष पर बैठे लोगों के आस-पास मीठी लोरियां सुनाने वाले इस कदर बढ़ जाते हैं कि राजा की नंगई को भी फैशन कह दिया जाता है ताकि राजा मुस्कुराए। राजा अक्सर यह बात भूल जाते हैं कि सत्ता की रेलमपेल जब भी होती है, लोरी वाचक सबसे पहले नदारद हो जाते हैं और यह भी सत्ता के लिए जरूरी होता है कि वह जमीन पर कान लगा कर अंदर होती खुसफुसाहट और आक्रोश के स्वर को गौर से सुने जरूर।।

(इस लेख को यहां भी देख सकते हैं)

http://www.mediakhabar.com/media-article/guest-column/4101-loksabha-tv.html

http://samachar4media.com/content/%E0%A4%B2%E0%A5%8B%E0%A4%95%E0%A4%B8%E0%A4%AD%E0%A4%BE-%E0%A4%9F%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A5%80-%E2%80%93-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6

( 11 जुलाई, 2012)

Jul 3, 2012

A radio broadcaster's dream...

- Sohan Kumar

In the month of May 2012, I went to Iran participate in the 12th International Radio Festival of Iran. Along with this, 4th Radio Forum was also Organized. This festival is organized by IRIB every year from 2000 under the ages of Asian Broadcasting Union.

Baring 2011, this festival has been organized every regularly. This year it was organized from 15th May to 17th May in the city of Zibekenar in the province of Ginnar on the north western part of the Islamic Republic Of Iran, on the sandy banks of biggest natural lake of the earth, that is, Caspian Sea.

From the point of view of a Radio person it is a very big event and it is the dream of every radio programmer to be a part of this event.


Representatives of around forty countries take part in this festival, where entries are invited in various radio formats from member countries of ABU many months before this event. All the entries compete with in its own category and the Producer of first five in all categories are invited as foreign delegates in this festival.


This being my first visit to any foreign country, I was very excited about this. My flight reached Tehran early in the morning on 14th May. As all the details of flight were already sent to the authorities in IRIB so their representatives were present at the airport to receive us. Straight way we were taken to Persian Isteghal Hotel. For the whole day all the foreign delegates stayed in same hotel. For lunch, we were taken to the radio station where officials of IRIB hosted lunch for all the foreign delegates.


Next day, special tourist buses were arranged and we were taken to Zibekenar. Zibekenar city is around 380 km. towards North- West of Tehran. This journey was very enjoyable As opposite to general perception, this region of Iran is full of greenery. We were moving along a river for miles. The road was very broad and it was an express way. There were many long tunnels on the road and a new rail line was being laid.


We reached our destination around 8.15pm and around 9.00 pm formal inauguration of the function took place. After that a sumptuous dinner was there for all the participants.


Next day was the first day of 4th Radio forum in which delegates from many member countries presented their papers. All papers were either in English or Persian. And translators were there to translate them in to other language.


All the papers which were presented in the radio forum were published in a book which was distributed amongst the participants. Most of the papers were concerning the changing role of Radio in the ever changing world, regarding radio and impact of globalization etc. Many new ideas/concepts were shared in that forum.


Ali Intezari, faculty member at Allmeh Tabatabai University of Iran presented his paper on the topic Radio’s Task in Constructing Polarization as an Alternative Concept for Globalization. One thing which was very much clear from that function was that for them radio is a very serious medium. And their research in the field of radio is very much original. IRIB makes the arrangements of trainers from foreign countries. At the university level so many research projects are under taken especially in the field of radio.


Next day the Radio forums continued and in the evening prize winner in various categories were given trophies and citations along with cash prizes in a very impressive and creatively staged function. Some of the legendary radio drama artists of yesteryears were also honored. The whole function was broadcast live on one channel of TV. On the suggestion of one member, all the foreign delegates planted a tree on the bank of Caspian Sea to commemorate the function.


Being an Islamic country, every function started with national anthem of Iran and recitation of some verses of holy Quran. And unlike us they clap after the completion of national anthem.

On the whole, this was an excellent opportunity to be a participant of this function.

Jun 30, 2012

Kuch Metha Ho Jaye Episode Part 3 2

इंटरनेट पर सेंसरशिप और ऑनलाइन मीडिया के भविष्य पर बड़ी बहस

(प्रवासी दुनिया)
मीडिया से जुड़े लोगों ने ऑनलाइन मीडिया को नियंत्रित करने के सरकार के प्रयास की आलोचना की और आगाह किया कि जल्दबाजी में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाए. नोएडा में बुधवार 27 जून को आयोजित ‘एस पी सिंह स्मृति समारोह 2012’ में मौजूद मीडिया के तमाम लोगों ने सरकार के ऐसे किसी भी प्रयास का विरोध किया.

मीडिया खबर डॉट कॉम की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में ‘इंटरनेट सेंसरशिप और ऑनलाइन मीडिया का भविष्य’ विषय पर चर्चा हुई. कार्यक्रम में आनलाइन मीडिया पर नकेल कसने के सरकार के प्रयासों की निंदा की गई. केंद्र सरकार की ओर से सोशल साइटों को सोनिया गांधी के खिलाफ की गई एक टिप्पणी को हटाने के लिए कहना और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ओर से उनके कार्टून प्रसारित करने वाले एक प्रोफेसर को गिरफ्तार किये जाने पर चिंता व्यक्त की गयी.

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम की पूर्व एडिटर सलमा जैदी ने कहा कि सेंसरशिप की बात तो ठीक है लेकिन एक इंटरनेट वॉच होना चाहिए.

‘इंटरनेट सेंसरशिप और आनलाइन मीडिया का भविष्य’ विषय पर वेब दुनिया के संपादक जयदीप कार्णिक ने कहा कि ऑनलाइन मीडिया ने व्यक्तिगत अभिव्यक्ति को प्लेटफॉर्म दिया है. इंटरनेट पर सेंसरशिप के सवाल पर कार्णिक का कहना था कि ‘बांध नदियों पर बनते हैं, समुद्र पर नही’. आज इंटरनेट एक समुद्र की तरह हो गया है जिस पर किसी प्रकार का सेंसरशिप लगाना अतार्किक और अव्यवहारिक है.

इंटरनेट सेंसरशिप के खिलाफ काम कर रही जर्मनी की कोवैक्स ने अपनी बात रखते हुए कहा कि सोशल एक्सपेटेंस भारत में ज्यादा है ? भारत में बहुत सारे अंतर्राष्ट्रीय प्रावधान पहले से ही भारतीय संविधान में डाले गए गए हैं. जब हम सेंसेरशिप की बात करते हैं तो सिर्फ मीडिया सेंसरशिप की बात नहीं कर रहे हैं, इसके अलावे भी हमें बाकी चीजों पर बात करनी होगी. हमारी बात कहने की कोई जगह नहीं है. मेरा स्पेस नहीं है, लेस प्रोटेक्टेड. ऐसा नही है कि कोई रिस्ट्रिक्शन नहीं होनी चाहिए, लेकिन लेजिटिमेसी की बात है.

दिल्ली यूनिवर्सटी के लेडी श्रीराम कॉलेज की विभागाध्यक्ष डॉ वर्तिका नंदा का इंटरनेट पर सेंसरशिप के बारे में कहना था कि अगर सेंसरशिप का मतलब गला घोटना है तो मैं इसका समर्थन नहीं करती, अगर इसका मतलब एक लक्ष्मण रेखा है जो बताता है कि हर चीज की एक सीमा होती है तो ये गलत नहीं है.

न्यूज़ एक्सप्रेस के प्रमुख मुकेश कुमार ने कहा कि मैं ऑनलाइन और सेंसरशिप की बात को आइसोलेशन में नहीं देखना चाहता. मुझे लगता है कि ये सेंशरशिप माहौल में लगायी जा रही है. सेंसरशिप के और जो फार्म है उस पर भी बात होनी चाहिए. मैं तो देख रहा हूं कि नितिश कुमार भी एक अघोषित सेंशरशिप लगा रहे हैं. एक कंट्रोल मार्केट सेंसरशिप लगायी जा रही है.बाजार सरकार को नियंत्रित और संचालित किया जा रहा है, बाजार का जो सेंसरशिप है, उस पर भी लगाम लगाया जाना चाहिए.

वहीं छत्तीसगढ़ न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस फखरुद्दीन साहब ने ऑनलाइन मीडिया की तारीफ़ करते हुए कहा कि ऑनलाइन ने जो सबसे अच्छी बात की है वो ये कि आईना सामने रख दिया. सच बात मान लीजिए,चेहरे पर धूल, इल्जाम आईने पर लगाना भूल है. हमसे बाद की पीढ़ी ज्यादा जानती है क्योंकि सोशल मीडिया ने ऐसा किया है.

महुआ ग्रुप के ग्रुप एडिटर राणा यशवंत ने इंटरनेट के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज इंटरनेट बहुत जरूरी हो गया है और इसपर किसी भी तरह का सेंसर समाज के लिए ठीक नहीं. वैसे सरकार की मंशा ऐसी रही है. यह लोकतंत्र के बुनियादी अधिकार पर रोक लगाने जैसा है.

इस कार्यक्रम में बीबीसी हिंदी.कॉम की पूर्व एडिटर सलमा जैदी, वेबदुनिया के एडिटर जयदीप कार्णिक, मीडिया विश्लेषक डॉ.वर्तिका नंदा, न्यूज़ एक्सप्रेस चैनल के प्रमुख मुकेश कुमार, महुआ न्यूज़ के ग्रुप एडिटर यशवंत राणा, जर्मनी की कोवैक्स, वेबदुनिया के जयदीप कार्णिक, छत्तीसगढ़ के पूर्व चीफ जस्टिस फखरुद्दीन और इन.कॉम (हिंदी) के संपादक निमिष कुमार शामिल हुए जबकि मंच संचालन युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार ने किया.

बाहरी लिंक - http://www.pravasiduniya.com/internet-censorship-and-the-debate-on-the-future-of-online-media