Dec 17, 2008

क्यों लोकप्रिय हो रहे हैं धार्मिक चैनल

राम और सीता की आरती उतारते दर्शक। वनवास गमन की घटना देखते ही गमगीन होते दर्शक और राम की हर जीत को देखने को बेकरार। खाली सड़कें, लोगों से लदे-फदे टीवी लगे कमरे। यह तस्वीरें उस दौर में आम थीं जब रामायण धारावाहिक दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। अब रामायण के लिए पूरे हफ्ते के इंतजार की जरूरत नहीं और न ही शांति की तलाश में रविवार दर रविवार नए आश्रमों की खोज करने की। अब ये सब रिमोट में बंद हैं। भला हो उन चैनलों का जो आध्यात्म को चौबीसों घंटे परोसने लगे हैं। इन्हें देखने वाली जनता के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या होगा कि ईश्वर-भजन कभी भी सुनने को मिल जाए! मीडिया पर पैनी नजर रखने वाले विश्लेषकों के लिए यह शायद हैरानी की बात रही कि जब वे न्यूज मीडिया को राजनीति, अपराध, खेल और व्यापार के बदलते समीकरणों के हिसाब से भरने में लगे थे तो बाजार के दूसरे छोर में अध्यात्म लहर तेजी से बह गई। अभी 2005 की ही बात है जब एक नामी आध्यात्मिक चैनल ने बाबा रामदेव को अपने चैनल का अमिताभ बच्चन बताया था। जिस दौर में न्यूज मीडिया अपने हथियारों को पैना और खुद को सबसे तेज-स्मार्ट साबित करने में मशगूल रहा, उसी दौर में हौले-हौले एक नए अवतार का जन्म हुआ जिसका नाम था-आध्यात्म। 2005 में ही अमरीका की बेहद प्रतिष्ठित डिजिटल टेलीविजन सर्विस प्रोवाइडर- डायरेक्ट टीवी, इंक ने भारत के एक आध्यात्मिक चैनल को डायरेक्ट टीवी चैनल पर उपलब्ध कराने की बहुत धूमधाम से घोषणा की। इस मौके पर डायरेक्ट टीवी के उपाध्यक्ष का बयान था कि इस तरह के चैनल अमरीका में बसे लेकिन दक्षिण एशिया से किसी भी तरह का सरोकार रखने वाले लोगों को वहां की संस्कृति और समाज से जोड़े रखने के लिए सेतु का काम कर सकते हैं लेकिन तब कौन जानता था कि सात समंदर पार ही नहीं बल्कि पास के गली-मोहल्लों में चौपाल लगाए लोगों से लेकर पेज थ्री की थिरकती बालाओं का भी इन चैनलों पर अपार प्रेम उमड़ आएगा। आंकड़ों का खेल भी इन चैनलों के ऊपर चढ़ते ग्राफ को साबित करता है। टैम की ताजा रिपोर्ट कहती है कि 2004 की तुलना में 2005 में आध्यात्मिक चैनलों की दर्शक-संख्या में पांच गुना बढ़ोतरी हुई। म्यूजिक चैनलों की तरह आध्यात्मिक चैनलों के दर्शक राष्ट्रीय स्तर पर कम से कम एक प्रतिशत तो हैं ही। जहां तक विज्ञापनों का सवाल है तो अप्रैल 2005 से मार्च 2006 के बीच अकेले आस्था चैनल के विज्ञापनों में ही 75 प्रतिशत तक का इजाफा रिकार्ड हुआ। ज्यादातर आध्यात्मिक चैनलों के प्राइम टाइम(सुबह 4 से 9 बजे) स्लाट के विज्ञापनों की दर भी 200 रूपए प्रति 10 सेकेंड से बढ़ कर 600 रूपए तक आ पहुंची है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें देखने वाले पके बालों और झड़े दांतों वाले ही हैं। शोध कहते हैं कि इनके 55 प्रतिशत दर्शकों की उम्र 35 पार है लेकिन बाकी का आयु वर्ग 15 से 24 का ही है। मजे की बात यह कि इन चैनलों को देखते हुए दर्शक बाकी चैनलों की तरह हड़बड़ाहट से भरे नहीं दिखते। मिसाल के तौर पर सबसे लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक राम कथा 4 घंटे लंबा कार्यक्रम है। जाहिर है कि यह अवधि बालीवुड की किसी फिल्म से भी ज्यादा है। इसके बावजूद बड़ी तादाद में एक समर्पित वर्ग टिककर इसे देखता-सराहता है। संकेत साफ हैं। बाजार का स्वाद, दशा और दिशा बदल रही है। धर्म और आध्यात्म टीआरपी की कतार में दिखने लगे हैं। लोगों की रूचियां बदली हैं और एक ही परिपाटी में पकाए जा रहे समाचारों, कार्यक्रमों और धारावाहिकों से जनता का मन ऊबने लगा है। जाहिर है कि न्यूज और व्यूज से घिरे मीडिया के लिए अध्यात्म की ये नई दुकानें एक अनोखी चुनौती लेकर सामने आई हैं। अभी कुछ साल पहले तक धर्म और आध्यात्म के बंधे-बंधाए मायने थे। फार्मूला आसान था- भजन-कीर्तन, माथे पर टीका और हाथ में कमंडल। उम्र के आखिरी स्टेशन पर आकर उस परमशक्ति को मन भर याद करने की पुरातनी परंपरा। कम से कम भारतीय युवा पीढ़ी के लिए तो धर्म इसी परिधि के आस-पास की चीज थी। लेकिन अब नई सदी में धर्म के तयशुदा मुहावरे पलट दिए गए हैं। अब धर्म आधुनिक हुआ है और उसके तौर-तरीके भी। 50 साल पहले भारत में जन्मे बुद्दू बक्से ने जब सुबह से लेकर शाम की दिनचर्या ही बदल डाली तो धर्म का भी अछूता रहना मुश्किल तो था ही। जिस तरह खान-पान सिर्फ दाल-चावल तक सीमित नहीं रह गया है, उसी तरह टेलीविजनी धर्म भी अपना अपना दायरा बढ़ा कर आस्था, संस्कार, साधना, जीवन,सत्संग, मिराकल नेट, अहिंसा, गाड टीवी, सुदर्शन चैनल, अम्मा, क्यूटीवी, ईटीसी खालसा जैसे कई नाम लेने लगा है। आध्यात्मिक चैनलों का दावा है कि इस समय ढाई करोड़ से ज्यादा आबादी इन्हें देखती है जो कि इस देश में केबल कनेक्शन वाले घरों का करीब आधा है। आस्था जैसे चैनल गंगोत्री से लेकर दक्षिण भारत तक धार्मिक यात्राओं को कवर कर रहे हैं तो आस्था अंताक्षरी जैसे कार्यक्रमों पर बात कर रहै है। संस्कार जैसे चैनल दावा कर रहे हैं कि उसकी दर्शक संख्या 1 करोड़ के आंकड़े को कब की पार कवर कर चुकी है। लक्स, ईमामी, अजंता समेत 43 ब्रांड उसके साथ भागेदारी कर रहे हैं। आस्था की किट्टी में 40 गुरूओं का जमावड़ा है। सबके अपने-अपने साज, अपने-अपने राग हैं और इसके चलते चैनल को मजे से रोजाना 18 घंटे की खुराक मिल जाती है जोकि कोई खेल नहीं। बाहरी प्रवचनों के अलावा अब यह चैनल अब इन-हाउस नए भजनों को बनाने-बजाने को खूब तरजीह देने लगा है। जागरण चैनल खुद को सामाजिक-आध्यात्मिक चैनल साबित करने की होड़ में है। इनके पास अयूर जैसे विज्ञापनदाता भी हैं और मसाले बनाने वाले भी। इनकी सूची में ओशो, श्री सत्यसाईं बाब, मुरारी बापू, गुरू मां और मृदुल कृष्णजी का नाम काफी ऊपर आता है। इनकी रूचि धार्मिक फिल्में दिखाने में भी है। 2003 से चल रहा गाड चैनल ईसाइयों से जुड़े कार्यक्रमों को अहमियत देता है। 2002 में शुरू किया गया मिराकल नेट ट्रनिटी ब्राडकास्टिंग नेटवर्क की उपज है। बेनी हिन और केनेथ कोपलैंड यहां खूब देखे-सुने जाते हैं। इनका मानना है कि सेहत और समृद्धि सभी का अधिकार हैं। बाइबल में विश्ववास रखने वाले यह प्रचारक वर्ड फेथ थियोलाजी में अटूट विश्वास रखते हैं। इनका मानना है कि आंतरिक विश्वास के जरिए ईश्वर से अपनी सभी इच्छाएं पूरी करवाई जा सकती हैं। ईसाई आध्यात्मिक जरूरत पर आधारित गुड न्यूज टीवी तमिलनाडु में खासा लोकप्रिय है। इसमें बच्चों के लिए भी आध्यात्मिक डोज है। ऐसा नहीं है कि यह चैनल धर्मगुरूओं के दायरे तक ही सीमित बल्कि अब इन चैनलों ने नए तरह के कार्यक्रम भी तैयार करने शुरू कर दिए हैं। यहां धार्मिक एनिमेशन से लेकर ध्याननगाने की विधियां, व्रत का खान-पान, सात्विक भोजन से लेकर शांत जीवन तक पर कार्यक्रम और डाक्यूमेंटरी देखी जा सकती हैं। और तो और यहां फिल्मी सितारों की भी कमी नहीं। इन चैनलों पर अब कुंभ मेले, गणेश चतुर्थी, नवरात्रे से लेकर गुरूबाणी और गरबे तक तरह-तरह के लाइव टेलीकास्ट की भरमार देखी जा सकती है। गौर की बात यह भी कि इन्हें देखने वाले चैनल की तकनीकी कमियों को आराम से नजरअंदाज कर देते हैं। यहां भक्ति सर्वोपरि रहती है, खामियां नहीं। ईटीवी मराठी जब अष्टविनायक दर्शन कराते हुए दर्शकों के नाम से अभिषेक करवाता है तो दर्शक उसमें झूम उठता है और घंटों बिना रिमोट बदले उनमें लीन रहते हैं। मामला यहीं नहीं सिमटता। एक टेलीकाम कंपनी मोबाइल फोन पर आध्यात्मिक चैनल शुरू करने जा रही है। इसके जरिए व्यस्त उपभोक्ता मोबाइलपर ही पूजा-अर्चना कर सकेंगें। इसमें हनुमान, गणेश, थिरूपति बालाजी से लेकर राम, लक्ष्मी, सरस्वती, ईसा मसीह, गुरू नानक और साईंबाबा तक सभी के संदेशों का समावेश होगा। इस हैंडसेट में हर भगवान के लिए अलग रंग औऱ अलग तस्वीर का प्रावधान होगा ताकि अपनी पसंद(या अपने काम के) भगवान की गूंज को डाउनलोड किया जा सके। यानी दिनभर भागते-भागते पूजा भी कीजिए और पुण्य भी कमाइए(पैसा कमाने का काम कंपनी पर छोड़ दीजिए। अब हाईटेक शादियों पर भी काम होने लगा है। टीवी पर ही अपनी कुंडली मिलवाइए और नक्षत्रों तक को फुसलाकर शादी करवा लीजिए।सबके पैकेज तैयार हैं। हर चैनल के पास अपनी तरकीबें हैं। एक चैनल ने एसएमएस के जरिए आशीर्वाद देने का चलन शुरू किया। किसी खास दिन की शुरूआत या शादी की बात करने से पहले आप अपने पसंदीदा गुरू से जानना चाहते हैं कि वह दिन कैसा है तो आप एक खास नंबर पर एसएमएस कीजिए और अपने प्रिय गुरू से फटाफट अपने दिन का रिपोर्ट कार्ड ले लीजिए। कई चैनल यह दावा करते हैं कि ऐसी तकनीकों वाले कार्यक्रमों के लिए उन्हें एक दिन में आम तौर पर 20,000 एसएमएस तक आते हैं। ऐसे कार्यक्रमों की धमक अब अमरीका और यूरोप में भी सुनाई देने लगी है। जी जागरण ने 2006 में राम वनवास पर जांह जांह राम चरण चलि जांहि एक डाक्यूमेंटी बनाई। 25 वैन रामायण धारावाहिक के राम अरूण गोविल के साथ देश के 11 शहरों में अभियान चला। लोगों से राम से जुड़े सवाल पूछे गए और प्रतियोगिता जीतने वालों के लिए ईनाम में दी गई- राम चरण पादुका जिसके बारे में दावा किया गया कि इसे अयोध्या की माटी से बनाया गया है। इसी तरह कुछ चैनलों में भजनों और देश भक्ति के गानों की अंताक्षरी भी चलती है। लेकिन साथ ही बदलाव भी होते रहते हैं। अब कुछ चैनल अपने को आर्ट आफ लिविंग से जोड़ रहे हैं तो कुछ अपने को आध्यात्मिक लाईफ स्टाइल चैनल कहलाने की तैयारी कर रहे हैं। अभी एक दशक पहले ही टेलीविजन पर जब आध्यात्म के प्रयोग की बात उठी थी तो लोगों ने इसे धार्मिक गायन से जोड़ कर एक बोरिंग अवधारणा मान लिया था। लेकिन एकाएक गुरूओं की ऐसी स्मार्ट फौज उपजी कि धर्म का बाजार एकाएक अत्याधुनिक दिखाई देने लगा। अब बहुत से घरों में बुजुर्ग खाली समय में विनोम-अनुलोम करते दिखते थे। पेज थ्री की बालाएं भी योग के नुस्खे आजमाने का कोई अवसर नहीं छोड़तीं। आध्यात्म के इस नए फंडे ने रोजगार के अवसर चौगुने कर दिए हैं। फेंगशुई से लेकर वास्तुशास्त्र, स्टोन, धातुओं और ग्रहों के नौसिखिए विशेषज्ञों की दुकानें भीचमकने लगी हैं।जनता के पास इनकी डिग्रीयां तक देखने का समय नहीं हैं। अंग्रेजी के वर्चस्व वाले बेसिर-पैर के संगीत बेचने वाले म्यूजिक स्टोरों में भी राक की टेप के साथ विराजमान दिखता है- योग का हिंदी और अंग्रेजी में अनुवादित टेप। यानी धर्म अब फास्टफूड की तरह जायका बदलने का साधन बनने लगा है। यह एक ऐसी लालीपाप है जिसे चूसने के फायदे ही फायदे हैं।मजे की बात यह कि अब हाई सोसायटी में भी काफी हद तक योग की बात होने लगी है। स्पा और मसाज सेंटरों की शौकीन किट्टीपार्टीनुमा रबड़-सी घिसी महिलाएं भी अब बाबा लोगों की हिंदी को समझ कर इसे थोड़ा-बहुत अपनाने लगी हैं। यानी इससे हिंदी का भी उद्धार हुआ है। लेकिन सोचने की बात यह है कि अचानक इसकी लहर चली कैसे और यह बाजार हिट क्यों हुआ? दरअसल मामला है- पैकेजिंग और सही जरूरत पर वार करने का। छरहरी काया के लिए हिंदुस्तानी बाजार में सब कुछ चलता है। दुबलापन दिलाने का दावा करने वाली कई असली-नकली कंपनियों के कारोबार के बीच यह योग महारथी समझ गए हैं कि यह आम भारतीय की सबसे कमजोर नब्ज है। फिर बारी आती है- दिल, दिमाग और खान-पान की चुस्ती की। योग के फारमूले वही रहे लेकिन टारगेट बना- दिल, मोटापी, मधुमेह या फिर रक्तचाप। फिर बाबाओंने अपना मेकओवर किया। वे संस्कृतनिष्ठ, गुस्सैलस नखरेवाले नहीं बल्कि स्मार्ट, अंग्रेजी समझने-बोलनेवाले,टीवी की जरूरत के अनुरूप तेजी से अपनी बात कह देने वाले हंसमुख और मदमस्त पैकेज के रूप में सामने आए तो बस मैदान पर फतह पाते ही गए। फास्टफूड की तरह जिंदगी के सुख भी आसानी से हासिल कर लेने की तरकीबें बताई गईं, खुलकर हंसना सिखाया गया, अपने शरीर से प्रेम के पाठ दोबारा याद कराए गए। सदियों से प्रमाणित योग को आसमान की बुलंदी छूते जरा देर न लगी। गुरू लोग समझ गए कि सास-बहू की चिकचिक से ऊब रही जनता के लिए आध्यात्म एक हिट नुस्खा है। भारत में आध्यात्मिक चैनलों ने 2001 में कदम रखा। एक तरफ मनोरंजन प्रधान या न्यूज प्रधान चैनलों को शुरू करने में जहां करीब 200 करोड़ रूपए की लागत आती है, आध्यात्मिक चैनल करीब 10 करोड़ की लागत पर ही शुरू किए जा सकते हैं। जाहिर है इन चैनलों को आकार देने में बड़ी पूंजी का निवेश नहीं करना पड़ता। यह एक ऐसी नई दुकान है जो कि टीवी न्यूज चैनलों पर भारी पड़नेलगी है(इसलिए याद कीजिए न्यूज चैनलों पर अबये गुरू खूब दिखाई देते हैं और दिखती है उनसे जुड़ी न्यूज भी लेकिन क्या आप कभी आध्यात्मिक चैनलोंमें न्यूज चैनलवालों का एक अंश भी देख पाते हैं? इससे साबित होता है-न्यूज वालों को इनकी जरूरत हो सकती है लेकिन इन्हें न्यूज वालों की शायद वैसी जरूरत नहीं। ) मिशन और कमीशन के बीच झूलते ये चैनल सामाजिक प्रतिष्ठा बटोरनेके साथ ही तिजोरी भरने में भफरूर सफल रहे हैं। इसलिए ये नए प्रयोगों से डरते नहीं, उन्हें तुरंत लपकते हैं। लेकिन यहां यह भी दिलचस्प है कि इन चैनलों पर छाने के लिए ज्यादातर धर्मगुरूओं को चैनल को अच्छी-खासी रकम देनी पड़ती है। शुरूआती दौरमें ही चैनल मालिकों ने दलील दी कि हमारे दर्शक धर्म की गूढ़ बातों के बीच में विज्ञापनों की भीड़ देखना पसंद नहीं करेंगें। धर्म में व्यावधान जितना न हो, उतना ही अच्छा। इसलिए विज्ञापनों की एक सीमा होगी। ऐसे में गुरूओं को अपनी फीस ।चुकानी होगी। इसलिए रातोंरात स्टार बने दिखते बहुतसे गुरूओं ने इस स्टारडम की मोटी दक्षिणा भी दी है और इस दक्षिणा में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन इन गुरूओं की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। तकरीबन हर गुरू के पास अपना जनसंपर्क अधिकारी है, वेबसाइट है और दुनियाभर में सक्रिय भक्त हैं जो उनके कार्यक्रम भी आयोजित करते रहते हैं। लेकिन नए जमाने के स्टार बने रहने के लिए इन्हें 24 x 7 कई पापड़ भी बेलने पड़ते हैं और बेहद तनाव में भी आध्यात्मिक मुस्कान को बिखेरना पड़ता है। सत्संग के अलावा इन्हें कई साइड बिजनेस करने पड़ते हैं। जैसे कि चुनावी सभाओं में पाया जाना, सत्ताधारियों के साथ जैसे-तैसे टीवी पर दिखना, बालीवुड वालों को अपने आश्रम में बुलवाकर मीडिया से ठीक-ठाक तरीके से फोटू खींचवाना वगैरह। लेकिन इस चक्कर में कभी-कभार ये साधुबाबा विवादों में भी घिर जाते हैं जैसे कि कर्नल पुरोहित(एटीएस मामला) का एक धर्मगुरू के आश्रम में आना माथे पर त्यौरियां चढ़ाने का काम करता है। इसी तरह दवाओं में इस्तेमाल होने वाली हड्डियों की कथित मौजूदगी को लेकर एक वामपंथी महिलानेता और एक आध्यात्मिक गुरू में तो जुबानी दंगल तक की नौबत आ जाती है। कुछ आश्रमों में बाल-श्रम को लेकर भी कई सवाल उठते रहे हैं। इसलिए यह मान लेना कि आध्यात्म की डोज देने वालों की कुटिया में राम-नाम ही सर्वौपरि है, शायद पूरी तरह से सही नहीं होगा। यहां भी तमाम तरह के डर हैं। झूठ-फरेब, दावों की रस्साकशी और गुरूओं की कंपीटीशन है। दूसरे से सफेद दिखने की कोशिश। पीआरएजेंसियां इन्हें नामी-गिरामी होने के हर्बल फार्मूले देती रहती हैं। पूरी कोशिश रहती है कि दूसरे स्टार इनकी छांव में बैठें और वो फोटू टीवी-अखबारों में ढंग से दिखें जरूर। चाहे शिल्पा हों या मल्लिका या हास्य बेचनेवाले कलाकार-गुरू हमेशा चर्चा में रहें, इस काम को मुस्तैदी से करने के लिए पीआर कर्मी दिन-रात जुगत भिड़ाते हैं। इन सबके बीच चैनल मालिक चाहे दावा करें कि अध्यात्म का बाजार प्रतियोगिता से अछूता है और वह सिर्फ भक्ति भाव से आध्यात्म परोसने का काम कर रहे हैं, हजम नहीं हो सकता। सच यही है कि तिजोरी भरने की जल्दी में वे भी हैं क्योंकि अध्यात्म के कथित बाजार की प्रतियोगिता ही निराली है। शुरूआती दिनों में औसतन 20,000 रूपए से शुरू हुआ यह व्यवसाय अब पहली सीढ़ी पर ही ढाई लाख की मांग करता है।एक चैनल का हाल तो यह है कि वह अभी हाल के दिनों तक चैनल के मुखिया के घर से ही चलता था और मालिक अकेला ही पीएन से लेकर जीएम तक का सारा काम करता था। लिहाजा कई चैनलों में एक-दो कमरे के दफ्तर औऱ सीमित संसाधनों से ही जनता को प्रभु-दर्शन करवा दिया जाता है। जो भी हो, अध्यात्म वेव उफान पर है। इन चैनलों का टारगेट पूरी दुनिया है। प्रवासी भारतीय इनमें अपनी माटी की महक खोजते हैं। 33 करोड़ देवी-देवताओं के इस देश में बाबा रामदेव, आसाराम बापू, सुखबोधानंद महाराज, श्री श्री रविशंकर और सुधांशु महाराज नए अवतार बन गए हैं। योग की लहर ने हर धर्म और तबके को छूकर राष्ट्रीय एकता में भी योगदान दिया है। इनकी बदौलत न्यूज चैनलों ने भी अब भक्ति भाव के चैनलों को विशेष तवज्जो देनी शुरू कर दी है। वे समझ गए हैं चुनावों-धमाकों-अपराधों के इस देश में बाकी सब भले ही फीका पड़ जाए, अध्यात्म की भूख कभी फीकी नहीं पडे़गी। (यह लेख 17 दिसंबर, 2008 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)

Dec 16, 2008

रेडियो की रफ्तार

खबर है कि देश में इस समय 38 सामुदायिक रेडियो सक्रिय हैं। इनमें से सिर्फ दो को गैर-सरकारी संस्थाएं चलाते हैं जबकि बाकी का लाइसेंस शैक्षिक संस्थाओं को दिया गया है। इस साल 30 नवंबर तक नए सामुदायिक रेडियो खोलने के लिए सूचना और प्रसारण मंत्रालय तक 297 आवेदन आ चुके हैं जिनमें से 105 शैक्षिक संस्थाएं हैं और 51 कृषि विश्वविद्यालय। यह आंकड़ा खुशी की एक वजह लगता है। खुशी इसलिए कि अब भारत में भी सामुदायिक रेडियो की उपयोगिता को समझने की धीमी शुरूआत होने लगी है लेकिन साथ ही यह भी साफ है कि टीवी और प्रिंट के उत्साहवर्धन माहौल वाले देश में रेडियो की रफ्तार को लेकर गंभीरता का माहौल अभी भी पनप नहीं सका है। यह ताज्जुब की बात ही है कि संचार के तमाम बेहद लोकप्रिय साधनों में रेडियो की पैदाइश काफी पहले हुई और विकास काफी कम। रेडियो की पहचान हाल के सालों में जो बनी भी, वह कमर्शियल रेडियो के तौर पर ज्यादा दिखी जिसका काम मनोरंजन देना था, अक्सर बहुत गंभीर खुराक देना नहीं। पर एक सच यह भी है कि टीवी चैनलों की भीड़ ने जिस संवेदनहीन रिपोर्टिंग को बढ़ावा दिया, उसमें जनसरोकार के मुद्दे आम तौर पर सबसे पिछड़े ही दिखाई दिए हैं। शायद यही वजह है कि छोटे से इलाके में अपनी छोटी-छोटी दिक्कतों को आवाज देने के लिए सामुदायिक रेडियो की ताकत ने बहुतों को लुभाया और प्रेरणा दी। इस व्यवस्था से उत्साहित लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि सामुदायिक रेडियो का दायरा बेहद छोटा होता है। कहीं 20 किलोमीटर तो कहीं 50। इस रेडियो को चलाने और इससे फायदा पाने वाले भी बेहद आम और स्थानीय होते हैं और यहां परोसी जाने वाली सामग्री भी उन्हीं के इस्तेमाल की होती है। ये लोग जानने लगे हैं कि इस रेडियो की ताकत असीम है क्योंकि इसका संचालक, कार्यकर्ता और उपभोक्ता वह वर्ग है जो इस देश की चुनाव प्रक्रिया में सबसे महती भूमिका निभाता है। दरअसल भारत में सामुदायिक रेडियो की लहर 90 के दशक में आई। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 'रेडियो तरंगें जनता की संपत्ति हैं।' यह एक शुभ समाचार था लेकिन शुरूआती दौर में सिर्फ शैक्षिक स्तर पर ही ऐसे स्टेशनों को खोलने की इजाजत दी गई। इस दिशा में चेन्नई स्थित अन्ना एफएम पहला कैंपस सामुदायिक रेडियो बना जिसे आज भी एजुकेशन एंड मल्टीमीडिया रीसर्च सेंटर चलाता है और इसके तमाम कार्यक्रमों को अन्ना विश्वविद्यालय के छात्र ही तैयार करते हैं। लेकिन परिस्थितियों में तेजी से बदलाव नवंबर 2006 से आना शुरू हुआ जब भारत सरकार ने एक नई नीति के तहत गैर-सरकारी संस्थानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं को भी सामुदायिक रेडियो शुरू करने की इजाजत दे दी। नई नीति के तहत कोई व्यक्ति विशेष या फिर आपराधिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि की संस्थाओं के अलावा कोई भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्था सामुदायिक रेडियो के लिए आवेदन दे सकती है लेकिन चूंकि ऐसे रेडियो स्टेशनों के लिए केंद्र के स्तर से फंड नहीं मिल पाता और इनके लिए फंड जुटाने को लेकर कई कडे नियम भी हैं, ऐसे में सामुदायिक रेडियो के लिए लाइसेंस पाना भले ही आसान हो लेकिन उसे लंबे समय तक चला पाना किसी परीक्षा से कम नहीं। वैसे भी इसका लाइसेंस ऐसी संस्थाओं को ही मिल सकता है जो कम से कम तीन साल पहले रजिस्टर हुई हों और जिनका सामुदायिक सेवा का ' प्रामाणित ट्रैक रिकार्ड ' रहा हो। पर गौरतलब है कि लाइसेंस मिलने के बाद भी दिक्कतें कम नहीं होतीं। 12 किलोमीटर के दायरे की सीमा तक में बंधे सामुदायिक रेडियो के साथ यह शर्त भी जुड़ी होती है कि उसके करीब 50 प्रतिशत कार्यक्रमों में स्थानीयता हो और जहां तक संभव हो, वे स्थानीय भाषा में हों। एक घंटे में 5 मिनट के विज्ञापनों की छूट तो है लेकिन स्पांसर्ड (प्रोयोजित) प्रोग्रामों की अनुमति नहीं है( वे केंद्र या राज्य द्वारा प्रायोजित हों तो बात अलग है।) दरअसल सामुदायिक रेडियो पर सबसे ज्यादा बातें सुनामी के समय हुईं। उस समय जबकि प्रसारण के तमाम हथियार ढीले पड़ गए थे, सामुदायिक रेडियो के जरिए हो रही उद्घघोषणाओं के चलते ही अंडमान निकोबार द्वीप समूह में करीब 14,000 लापता लोगों को आपस में जोड़ा जा सका था। यह भी कम हैरानी की बात नहीं कि दुनिया के कई देशों में सामुदायिक रेडियो काफी पहले से ही सक्रिय रहा है। अकेले लेटिन अमरीका में ही इस समय 2000 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो सक्रिय हैं और अमरीका में 2500 से ज्यादा गैर व्यावसायिक रेडियो स्टेशन अपनी सेवाएं दे रहे हैं। कनाडा में भी 70 के दशक में सामुदायिक रेडियो की शुरूआत हो गई थी। 50 के दशक में कनाडा ने फार्म पर आधारित रेडियो कार्यक्रमों को प्रसारित कर जोरदार सफलता हासिल की थी। तब से अब तक कनाडा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। इसी तरह श्रीलंका, नेपाल (नेपाल में 1997 में रेडियो सागरमाथा की शुरूआत हुई थी) और बांग्लादेश जैसे छोटे देश भी एक अर्से पहले ही इस माध्यम की शक्ति को पहचान कर काफी आगे बढ़ चुके हैं लेकिन भारत को सीख लेने में काफी समय लगा। सामुदायिक रेडियो की एक खासियत यह है कि इसमें कार्यक्रम तैयार करते समय स्थानीय भाषा या रूचियों के साथ समझौते नहीं किए जाते। इनमें वह सब शामिल करने की कोशिश की जाती है जो स्थानीय लोगों के विकास और सेहमतमंद मनोरंजन के लिए जरूरी है। देश के कई छोटे-छोटे गांवों में चल रहे ऐसे अभियान भारतीयों का संचार के इस नए चेहरे से साक्षात्कार करा रहे हैं। आम तौर पर तकनीकी उपकरणों के नाम पर इन गांवों के पास एक टेप रिकार्डर और माइक से ज्यादा कुछ नहीं होता। यह अपने रिपोर्टरों की टीम खुद बनाते हैं, रनडाउन( स्टोरीज का क्रम) तैयार करते हैं और प्रसारण से जुड़े फैसले लेते हैं। यानी निर्माण के लिए कच्चे माल को तैयार करने से लकेर इन्हें तकनीकी रूप से अंतिम आकार देने तक-हल कड़ी में संबद्ध गांववालों की सीधी भूमिका और पहरेदारी बनी रहती है। ऐसी टोलियों में भले ही निरक्षरों की तादाद काफी ज्यादा हो लेकिन कुछ नया सीखने से इन्हें परहेज नहीं। इस तरह के प्रयोगों ने भारत के कई गांवों की जिंदगी का रूख ही जैसे बदल डाला है। बेशक भारत में सामुदायिक रेडियो का भविष्य सुनहरा है लेकिन स्थाई सफलता के लिए जरूरी होगा कि सामुदायिक रेडियो जैसे विकास के वाहनों के साथ ऐसे लोगों को जोड़ा जाए जो इस तरह की कोशिशों का हिस्सा बनने की इच्छा रखते हों क्योंकि किसी भी बड़े सपने के लिए तकनीकी और आर्थिक जरूरतें भले ही बाहर से बटोरी जा सकती हैं लेकिन आंतरिक ऊर्जा को तो खुद ही पनपाना होगा। इसके अलावा भारत में भी वर्ल्ड एसोसिएशन आफ कम्यूनिटी रेडियो ब्राडकास्टर्स जैसी संस्थाओं के अनुभवों को आत्मसात करने की कोशिशें होनी चाहिए। इसकी स्थापना 1983 में हुई थी और 110 देशों के 3000 देश इसके सदस्य बन चुके हैं। इस संस्था का एक मुख्य मकसद कम्यूनिटी रेडियो के प्रोत्साहन के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जमीन तैयार करना है। लेकिन इन सबसे ज्यादा जरूरी होगा सरकारी और सामाजिक सोच को बदलना। जरा सोचिए। इस देश में चौबीसों घंटे बजनेवाले चैनलों को कभी भी, कहीं भी औऱ कुछ भी कहने की अनकही छूट दे दी गई और समाचारों का आकाश उनके लिए खोल दिया गया है लेकिन एक ऐसा माध्यम जो पैसे के खेल से परे है, वहां आज भी न्यूज के संसार को खोलने में सरकार को डर लगता है। उद्दंड़ता पर उतर आए मीडिया को जन्म देने के बाद अब सरकार एक बच्चे को फर वाला खिलौना देने में भी घबराती है। वैसे भी सामुदायिक रेडियो फैशनेबल नहीं है, न ही धन-उगाही का साधन। इसलिए इस पर बड़ी चर्चाएं नहीं होतीं और न ही इन पर ज्यादा लिखा जाता है। अगर सोच की खिड़कियां कुछ खुल जाएं और इनके लिए माहौल बनाया जाए तो सनसनी फैलाते मीडिया से परे विकास का एक नया संसार सजाया जा सकता है। इसे फिलहाल तो एक सपना ही मीनिए। (यह लेख 16 दिसंबर, 2008 को जनसत्ता में प्रकाशित हुआ)

मुंबई कांड-जाग गया हिंदुस्तान

मुंबई के बहाने एकजुटता का मौसम शुरू हो गया है। संसद में आवाज उठी है कि हमलावरों ने किसी का धर्म देख कर उसे नहीं मारा। हमने इससे पहले भी आतंकवाद को कई बार सहा है लेकिन इस बार यह बताया जाना जरूरी हो गया है कि हम सब एक हैं।

यह शाबाशी की बात है। शाहरूख खान भी जब यह कहते हैं कि हमलावर भले ही मुसलमान थे लेकिन वे इस्लाम नहीं जानते थे, तो वे भी शायद भारतीयता के उसी जज्बे को जगाने की कोशिश करते हैं। शाबाश इंडिया।

लेकिन इस शाबाशी के एक बड़े हकदार हैं – वे दो परिवार जिन्होंने हमले के बाद यह संदेश को दिया कि चले जाइए आप हमारे घर से। नहीं चाहिए हमें आपकी हमदर्दी, नहीं चाहते हम आपकी सांत्वना का कोई बाउंस हुआ चैक। इस सच ने बहुत दिनों बाद दिल को सुकून दिया। सुकन यह सोच कर मिला कि आखिरकार जाग गया हिंदुस्तान क्योंकि सच को कहने के लिए हिम्मत का होना जरूरी है। हिम्मत चाहिए यह कहने की कि राजनीति की गद्दारी हमें समझ में आ रही है, इसलिए अब हमें आपकी कोई जरूरत नहीं।

मुंबई के बहाने इस बार जनता ने बहुत कुछ देखा। इस बार एक साथ ऐसी कई चीजें देखीं जो अब तक टुकड़ों में नसीब होती थीं। जनता ने देखा कि सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग भी वही है और अब सबसे निर्णायक भी। पहले बात राजनीति की। आतंकवादी हमला हुआ और ताबड़तोड़ शुरू हुई राजनीति। देश के नाकाबिल गृह मंत्री को अपने पद से हटाने के लिए सरकार ने लंबा मौन साधा। जब कुछ जानें गईं, दबाव बढ़ा तो दस जनपथ जागा और देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन मंत्री को किसी तरह विदाई दी गई। लेकिन क्या यह सब पहले नहीं किया जा सकता था?

फिर आए बयान। विलासराव देशमुख कह देते हैं-बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं हो ही जाया करती हैं। वे बोलते कुछ इस अंदाज में हैं कि मानो खेल-खेल में बच्चों के महज दो-चार खिलौने ही टूटे हों। ऐसा नहीं है कि अपने इस बयान के बाद उन्हें कोई शर्म आ गई हो। इसके बाद वे रामगोपाल वर्मा और अपने बेटे रीतेश देशमुख के साथ मौके का जायजा लेने जाते हैं। यह सब कुछ ऐसे अंदाज में कि मानो रात के खाने के बाद आइसक्रीम खाने निकले हों। बेटे और एक फिल्म निर्माता को इसलिए साथ ले गए कि देखो अभी जो लाइव देख रहे थे, उस नजारे को वीआईपी घेरे में अपनी आंखों से देखो और फिर इस पर हारर या फिर कामेडी जैसी कोई भी फिल्म चट-पट बना डालो। धन्य हैं महाराज।

फिर मुख्तार अब्बास नकवी साहब। वे सीधे औरतों की लिप्स्टिक पर वार करते हैं। मजा देखिए। हाथों में दर्जनों चूड़ियां पहन कर बयान बहादुर बनने वाले हमारे राजनीतिक दामादों को जब कोई उपमा नहीं मिलती तो वे सीधे औरत को पकड़ते हैं बिना यह सोचे कि लिप्स्टिक लगाने वाली महिलाएं उन पुरूषों से लाख दर्जे बेहतर हैं जिनमें मर्दानगी कभी पैदी हुई ही नहीं।

लेकिन इन सबके बीच मीडिया ने भी कम करतब नहीं किए। हमारी अपनी बिरादरी के कई जांबाजों ने दुश्मन की भरपूर मदद की। उनका मार्गदर्शन किया कि हेमंत करकरे कहां-कहां जा रहे हैं। ताज के किस फ्लोर पर कौन-कौन फंसा है। एनएसजी कमांडो कहां से आ रहे हैं। यहां तक कि आतंकवादियों के लाइव फोन भी टीवी पर दिखाए गए ताकि आतंकवादियों का हौसला बढ़े। कुल मिलाकर कुछ चैनलों ने भारत की बजाय पाकिस्तान की भरपूर मदद की।

इस दहशत की एक-एक किरचन को भोगा जनता ने और समझा दर्द में तार-तार होना। जनता ने देखा कि जब जरूरत पड़ी तो आग में न नेता उतरे न मीडिया (और दोनों ही जिस हद तक भी उतरे, उसके पीछे उनका अपना स्वार्थ था)। यहां देशभक्ति की भावना सर्वोपरि नहीं थी। यहां ऊपर था-अपना मुनाफा। खुद का टीवी के परदे पर चमकना, कुछ एक्सक्लूयजिव कर जाना।

अब जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हर बार की तरह कुछ चैनलों के हाथों में नाटक भरे नोटिस थमा दिए हैं और केंद्र सरकार ने हल्की-फुल्की सरकारी कवायदें कर दी हैं, एक बात जो किसी के जहन में नहीं आ रही वह यह है कि अब इन पर विश्वास करेगा कौन? वे यह भी नहीं समझ पा रहे कि कविता करकरे जब एक नरेंद्र मोदी से एक करोड़ का चैक लेने से इंकार कर देती है तो उसका क्या मतलब होता है?

बहरहाल जनता का विश्वास अब कमांडो पर है। वही कमांडो जिस पर केरल के मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर वो शहीद न होता तो कोई कुत्ता भी वहां न जाता। मुख्यमंत्री जी भूल गए कि कुत्ता मंत्रियों से ज्यादा वफादार होता है। वे वहां जाएं न जाएं, वहां कुत्ते भी जाएंगे और आम जनता भी क्योंकि आखिरकार यही मायने रखते हैं।

तो देश के हुक्मरानों, अब यह जान लीजिए कि सिर्फ उन्नीकृष्णन ने ही अपने घर का दरवाजा आपके मुंह पर नहीं मारा है, यह तमाचा तो अब जनता भी आपके चेहरे पर चिपका चुकी। अब चिपके रहिए अपनी कुर्सी से और बनिए बयान बहादुर। हिंदुस्तान जीता है, जीतेगा –लेकिन आप लोगों की बदौलत नहीं, अपनी बदौलत।

(यह लेख 15 दिसंबर, 2008 को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुआ)

Dec 14, 2008

मुंबई के बाद - जाएं तो जाएं कहां

दिल्ली का लवर्स पैराडाइज यानी नेहरू पार्क। शाम के 6 बजे हैं। झुरमुटों के आस-पास कई युगल दिखते हैं। कोई किसी की गोद में लेटा, कोई प्रेमिका की आंखों की भाषा को बांचता तो कोई भविष्य और वर्तमान के झूले में झूलता। सबके कुछ सपने हैं। लेकिन डर एक जैसा। कहीं पुलिस वाला या चौकीदार न देख ले। अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से संकट से निपटने के लिए जेब के कोने एक पुराना नोट भी छिपा पड़ा है।

इस तस्वीर के साथ साल न भी बताया जाए तो कोई फर्क नहीं पडे़गा क्योंकि सालों से तस्वीर में कोई बड़ा फर्क नहीं आया है। बस नोट का आकार थोड़ा बड़ा हो गया है। मुंबई हादसे के बाद पार्क में आकर प्यार के गोते लगाने वालों की जिंदगी उसी रफ्तार से कायम है। वही किस्से-वही उलहाने-वही उत्साह-वही मीठा सा प्यार।

इस पार्क के आस-पास के डिप्लोमैटिक औरब्यूरोक्रैटिक इलाके में गाड़ियों में सन-शेड से छिपाए चेहरों में वही प्रेम-रस और पहचाने जाने की आशंका है। गाड़ियों में घूमते ये मध्यमवर्गीय जोड़े कभी समाज के पारिभाषित दायरे में हैं और कभी उसके बाहर।

नजदीक ही पांच सितारा ताज से लेकर कनाट प्लेस तक बिछे पांच सितारा होटलों में जानेवालों में बहुत कुछ थम-सा गया है। इस पर अब तक किसी ने गौर ही नहीं किया।

दरअसल प्यार-मोहब्बत करने वालों के कई वर्ग और स्तर हैं। प्रेम हो जाना एक बात है लेकिन प्रेम को सींचने के लिए तो चाहिए ही समय,जगह और पैसा - बड़ा या छोटा।

तो आम तौर पर स्तर तीन हैं। एक, पार्क में जाकर कोनों में छिपकर चांद-सितारों को तोड़ने की बात करने वालों का। दूसरा, कार में बैठकर स्टीयरिंग की छांव और ब्रेकनुमा कबाब में हड्डी के बीच सिमट कर प्रेम के इजहार करने वालों का और तीसरा, पांच सितारा होटलों में जाकर शामें गुजारने का।

मुंबई हादसे का पहली श्रेणी पर कोई असर नहीं पड़ा है। वे पहले भी जिन पार्कों में पाए जाते थे, आगे भी वहीं पाए जाएंगे। सर्दी में शॉल की ओट और गर्मी में दुपट्टे की नरमाहट उन्हें सुख देगी। पास से गुजरता एक रूपए की चाय और 10 रूपए की कोल्ड ड्रिंक देने वाला जब उन्हें कई दिन वहीं देखता रहेगा और समझने लगेगा कि ये भी सच्चे आशिकों की श्रेणी वाले हैं, तो आते-जाते कान में फुसफुसा कर बता भी देगा कि चौकीदार कब वहां आ सकता है और कहां दिखा था उसे कोई पुलिस वाला। यह स्थानीय इंतजाम है जिस पर राजनीतिक या आतंकी घटनाओं की रेखाएं अपना असर नहीं खींच सकतीं। यह प्रकृति की गोद में पल रहा प्रेम है और अपनी रक्षा के लिए भी यह किसी सुरक्षा एजेंसी पर नहीं बल्कि प्रकृति पर ही निर्भर करते हैं।

दूसरा वर्ग कार में इश्क फरमाता है। इसके लिए दिक्कत थोड़ी बढ़ेंगी। मध्यम वर्गीय या निम्नवर्गीय जगहों पर कार पार्क करके यह वर्ग प्रेम नहीं करता। यह वर्ग आम तौर पर कुछ वीआईपीनुमा इलाकों के करीब की जगह खोजता है जहां बड़े लोग अपने घरों से पैदल निकलते ही नहीं। यहां कार में शहदनुमा बातें करने का स्वाद ही अलग रहता है। लेकिन मुंबई हादसे की वजह से यह वर्ग भी अब परेशानी में है। जाने कब पुलिस आ जाए और मान ले इन्हें आतंकवादी। इस वर्ग को पहले वर्ग की तुलना में ‘खर्च’ भी ज्यादा देना पड़ता है।

लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत में है - तीसरा वर्ग। यह वर्ग प्रेम के लिए अक्सर बड़े होटलों को चुनता था और इनसे कथित प्रेम करने वाला पार्टनर भी कपड़ों की तरह अक्सर बदला करता था। इनकी प्रेयसी कभी बीस साल की बाला होती थी कभी चालीस की खाला। वो कभी मासूम होती थी, कभी सीधे किसी व्यावसायिक इलाके से लाई गई, लेकिन चूंकि यहां आने वाले लोग मोटी जेब और बड़े रसूख वाले होते थे, इसलिए प्रेमिका को पत्नी जैसा मानने की नाकाम कोशिशें की जाती थीं। इन्हें होटलों में नोटों के धंधे और ड्रग्स की तिकड़में बैठती थीं। अब जब बड़े पांच सितारा के खाक होने पर कुछ सितारे जार-जार होकर रो रहे हैं और कह रहे हैं कि उनकी इन होटलों से हसीन यादें जुड़ी थीं, तो वे सही ही हैं। यादें स्लम से कैसे जुड़तीं। गौर की बात यह कि होटलों में प्रेम-अप्रेम या अध-प्रेम जैसा कुछ भी करते रहने पर पकड़े जाने की कोई आशंका नहीं रहती थी। इसलिए यहां रूकने का खर्च भले ही मोटा होता था लेकिन बचने के लिए पैसे देने का कोई खर्च नहीं।

तो इन होटलों ने प्रेम और प्रेम से कुछ दूर वाले लेटे रिश्तों को बहुत करीब से देखा है। यहां पार्क के पेड़ों के साए वाले काफी हद तक छांवदार रिश्ते भले ही अक्सर न पनपे हों लेकिन ऐसा बहुत कुछ होता रहा है जो समाज से छिपा रहा। इस वर्ग को कथित प्रेम करते न तो पुलिस ने पकड़ा, न पैसे लिए और न ही चाय वाले ने इनके प्रेम को देख कर मंद मुस्कान दी। यहां प्रेम दरअसल प्रेम न होकर बाजार के प्रोडक्ट जैसा ही रहा।

लेकिन यह वर्ग अब जाएगा कहां? खबर है कि बड़े होटलों में अब सीसीटीवी तैनात किए जा रहे हैं। अब हर-आने-जाने-ठहरनेवाले की पूरी तहकीकात की जाएगी। पुलिस तक तमाम तरह की रिपोर्टों पहुंचाई जाएंगी और अगर कोई बार-बार पत्नी का नाम बदल या भूल रहा होगा तो भी सूचना का रिकार्ड बनाया जाएगा। बात पसीना छूटने वाली है। आंतकी इससे डरे न डरें लेकिन यहां आकर तमाम गोरखधंधे करनेवालों की अब शामत आ गई है।

तो क्या उन्हें भी अपने लिए किसी पार्क की तलाश कर लेनी चाहिए और क्या पुलिस को भी पार्क में प्रेम में डूबे शायरों पर नजरें गढ़ाने की बजाय वह काम करना चाहिए जो उन्हें सौंपा गया है?

दोनों सवाल अहम हैं। लेकिन होटल मालिक अब यह बात किससे कहें कि मुंबई की इस सुनामी से चकाचौंध के बीच होने वाले तमाम काले साए जब दरकिनार हो जाएंगे तो उनके प्रेम-व्यवसाय का होगा क्या?

Dec 2, 2008

मुंबई कांड - जाग गया हिंदुस्तान

शाबाश इंडिया शाबाश। मुंबई की घटना के बाद दो परिवारों ने जिस हिम्मत के साथ इस संदेश को दिया कि चले जाइए आप हमारे घर से। नहीं चाहिए हमें आपकी हमदर्दी, नहीं चाहते हम आपकी सांत्वना का कोई बाउंस हुआ चैक। इस सच ने बहुत दिनों बाद दिल को सुकून दिया। सुकन यह सोच कर मिला कि आखिरकार जाग गया हिंदुस्तान क्योंकि सच को कहने के लिए हिम्मत का होना जरूरी है। हिम्मत चाहिए यह कहने की कि राजनीति की गद्दारी हमें समझ में आ रही है, इसलिए अब हमें आपकी कोई जरूरत नहीं।

मुंबई के बहाने इस बार जनता ने बहुत कुछ देखा। इस बार एक साथ ऐसी कई चीजें देखीं जो अब तक टुकड़ों में नसीब होती थीं। जनता ने देखा कि सबसे बड़ा मूर्ख वर्ग भी वही है और अब सबसे निर्णायक भी। पहले बात राजनीति की। आतंकवादी हमला हुआ और ताबड़तोड़ शुरू हुई राजनीति। देश के नाकाबिल गृह मंत्री को अपने पद से हटाने के लिए सरकार ने लंबा मौन साधा। जब कुछ जानें गईं, दबाव बढ़ा तो दस जनपथ जागा और देश के सबसे महत्वपूर्ण पद पर आसीन मंत्री को किसी तरह विदाई दी गई। लेकिन क्या यह सब पहले नहीं किया जा सकता था?

फिर आए बयान। विलासराव देशमुख कहते हैं-बड़े-बड़े शहरों में छोटी-छोटी घटनाएं हो ही जाया करती हैं। वे बोले कुछ इस अंदाज में कि मानो खेल-खेल में बच्चों के महज दो-चार खिलौने ही टूटे हों। ऐसा नहीं है कि अपने इस बयान के बाद मंत्री जी को कोई शर्म आ गई हो। इसके बाद वे रामगोपाल वर्मा औऱ अपने बेटे रीतेश देशमुख के साथ मौके का जायजा लेने जाते हैं। यह सब कुछ ऐसे अंदाज में कि मानो रात के खाने के बाद आइसक्रीम खाने निकले हों। बेटे और एक फिल्म निर्माता को इसलिए साथ ले गए कि देखो अभी जो लाइव देख रहे थे, उस नजारे को वीआईपी घेरे में अपनी आंखों से देखो और फिर इस पर हारर या फिर कामेडी जैसी कोई भी फिल्म चट-पट बना डालो। धन्य हैं महाराज।

फिर मुख्तार अब्बास नकवी साहब। वे सीधे औरतों की लिप्स्टिक पर वार करते हैं। मजा देखिए। हाथों में दर्जनों चूड़ियां पहन कर बयान बहादुर बनने वाले हमारे राजनीतिक दामादों को जब कोई उपमा नहीं मिलती तो वे सीधे औरत को पकड़ते हैं बिना यह सोचे कि लिप्स्टिक लगाने वाली महिलाएं उन पुरूषों से लाख दर्जे बेहतर हैं जिनमें मर्दानगी कभी पैदी हुई ही नहीं।

लेकिन इन सबके बीच मीडिया ने भी कम करतब नहीं किए। हमारी अपनी बिरादरी के कई जांबाजों ने दुश्मन की भरपूर मदद की। उनका मार्गदर्शन किया कि हेमंत करकरे कहां-कहां जा रहे हैं। ताज के किस फ्लोर पर कौन-कौन फंसा है। एनएसजी कमांडो कहां से आ रहे हैं। यहां तक कि आतंकवादियों के लाइव फोन भी टीवी पर दिखाए गए ताकि आतंकवादियों का हौसला बढ़े। कुल मिलाकर कुछ चैनलों ने भारत की बजाय पाकिस्तान की भरपूर मदद की।

इस दहशत की एक-एक किरचन को भोगा जनता ने और समझा दर्द में तार-तार होना। जनता ने देखा कि जब जरूरत पड़ी तो आग में न नेता उतरे न मीडिया (और दोनों ही जिस हद तक भी उतरे, उसके पीछे उनका अपना स्वार्थ था)। यहां देशभक्ति की भावना सर्वोपरि नहीं थी। यहां ऊपर था-अपना मुनाफा। खुद का टीवी के परदे पर चमकना, कुछ एक्सक्लूयजिव कर जाना।

अब जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने हर बार की तरह कुछ चैनलों के हाथों में नाटक भरे नोटिस थमा दिए हैं और केंद्र सरकार ने हल्की-फुल्की सरकारी कवायदें कर दी हैं, एक बात जो किसी के जहन में नहीं आ रही वह यह है कि अब इन पर विश्वास करेगा कौन? वे यह भी नहीं समझ पा रहे कि कविता करकरे जब एख नरेंद्र मोदी से एक करोड़ का चैक लेने से इंकार कर देती है तो उसका क्या मतलब होता है?

बहरहाल जनता का विश्वास अब कमांडो पर है। वही कमांडो जिस पर केरल के मुख्यमंत्री ने कहा कि अगर वो शहीद न होता तो कोई कुत्ता भी वहां न जाता। मुख्यमंत्री जी भूल गए कि कुत्ता मंत्रियों से ज्यादा वफादार होता है। वे वहां जाएं न जाएं, वहां कुत्ते भी जाएंगे और आम जनता भी क्योंकि आखिरकार यही मायने रखते हैं।
तो देश के हुक्मरानों, अब यह जान लीजिए कि सिर्फ उन्नीकृष्णन ने ही अपने घर का दरवाजा आपके मुंह पर नहीं मारा है, यह तमाचा तो अब जनता भी आपके चेहरे पर चिपका चुकी। अब चिपके रहिए अपनी कुर्सी से और बनिए बयान बहादुर। हिंदुस्तान जीता है, जीतेगा –लेकिन आप लोगों की बदौलत नहीं, अपनी बदौलत।

(http://khabar.josh18.com/blogs/36/131.html)

Nov 29, 2008

आओ कि कर लें सियासत

तलाक़ दे रहे हो नज़रे-कहर के साथ
जवानी भी मेरी लौटा दो मेहर के साथ

कमाल अमरोही से तलाक के बाद मीना कुमारी ने अपने दर्द को इस शेर के जरिए बयान किया था। दर्द कोई भी हो, मन को बेचैन करता है। मुंबई में जो भी हुआ, उस पर सियासत का मौसम अब शुरू हुआ है। लेकिन सियासत करने वाले जिस तवे पर तंदूरी रोटी सेंक कर छप्पन भोगों के साथ खा रहे हैं, वे शायद भूल रहे हैं कि बिलों से बाहर आकर मीडिया से रूबरू होने के अब कोई मायने नहीं। क्या वे लौटा सकते हैं उन जानों को जो इस हादसे में चली गईँ?

शुक्र है नहीं देखा मीडिया ने

आज चुनाव हो गए हैं बाबा-बेबी लोग भी थक गए हैं रिलैक्स करने जाएंगे लंदन इतने दिन कितना कुछ तो मना था रात में तेज गाड़ी चलाना पब में अपने अनूठे अपनों के साथ ड्रिंक करना और लेना कुछ महदोश कश कहीं मीडिया देख लेता तो हार ही जाते पापा अब बाबा लोगों को चैन मिला है मुंबई की वजह से वैसे भी हैं डिस्टबर्ड इसलिए मेंटल शांति के लिए जा रहे हैं विदेश कृपया इन्हें अब अगले पांच साल तक न करें डिस्टर्ब।

सहारनपुर टू मुंबई- आशुतोष महाराज

तीन महीने पहले तक सहारनपुर के उस मोहल्ले के लोग भी शायद आशुतोष कौशिक को नहीं जानते थे जहां वह पले-बढ़े और जो जानते थे, उनके लिए आशु एक ढाबे मालिक से ज्यादा शायद कुछ नहीं था। आज वही आशुतोष एक बड़ा आदमी बन गया है क्योंकि उसने बिग बास में जीत हासिल कर ली है। अब वह पेज तीन का छोरा बन गया है और बहुतों की आंखों का तारा।

पर आशुतोष की यह जीत सिर्फ ढोल-नगाड़ों की धमाधम से कहीं आगे भी सोचने को मजबूर जरूर करती है। ऐसा क्या था इस लड़के में कि वह बहुत से मामलों में अपने से आगे दिख रहे प्रतियोगियों को भी हरा कर एक करोड़ का सेहरा अपने सिर पर बंधा गया ? बेशक यह सिर्फ किस्मत का खेल नहीं बल्कि दर्शक के स्वाद और आम इंसान की रूचियों की भी एक बढ़िया मिसाल है।

दरअसल कलर ने जब बिग बास की शुरूआत की तो कई मीडिया विश्लेषकों के माथे पर बल दिखाई दिए। वजह यह कि 90 दिन तक एक इमारत में बंद इन कलाकारों के जरिए चैनल क्या दिखाना-कहना चाहता है, यह बहुत साफ नहीं था। यह भी लगा कि इसमें कई ऐसे कलाकारों को जुटा दिया गया जो कि नाम-पैसे की मीडिया की दुनिया में तकरीबन गुमनाम होने लगे हैं। दूसरे, बिग बास खाली लोगों को जमावड़ा ज्यादा दिखा और सृजनशीलता का बेहद कम। सही कहें तो यह सास-बहू की किच-किच का लाइव टेलीकास्ट ही था जहां कलाकरों का काम था-एक दूसरे की बुराई करना और बात-बेबात झगड़ा करना। खाली दिमाग के शैतानों के इस घर में खाते-पीते, एक पोटली-सा पर्स लटकाए, चुगली करते कलाकार कई बार टीवी के बेहद कीमती माने जाने वाले एयरटाइम की खिल्ली उड़ाते ही दिखे।

लेकिन इस कार्यक्रम की अवधारणा भी शायद यही सोच कर रची गई। देखना यह था कि ऐसी लाइव किच-पिच दर्शकों को कितना लुभाती है। मजे की बात यह रही कि बिग बास की आलोचना करने वाले कई लोग इसे गौर से देखने भी लगे और जीतने वाले को लेकर तुक्कों की बरसात भी शुरू हो गई। बेशक ज्यादातर तुक्के राहुल महाजन की जीत के आस-पास बुने गए लेकिन आखिर में जीते आशुतोष ही।

आशुतोष की इस जीत ने कई बातें साबित कीं। एक छोटे-से शहर के इस छोरे ने बिना दुराव-छिपाव के शो में कहा कि वह ढाबे वाला है। इसने एक बार फिर साबित किया कि ग्लैमर की चकाचौंध में भी ऐसे लोग जीतने लगे हैं जो अपने छोटे से कुनबे को भूले बिना आगे बढ़ रहे हैं। जो कैमरे के आगे शरमा कर यह नहीं कह रहे कि वे ढाबा नहीं बल्कि एक रेस्त्रां चलाते हैं। जो इसे कहने में हिचक नहीं रहे कि उन्हें अंग्रेजी बोलनी नहीं आती। वे तो ठेठ हिंदी वाले हैं। यह कहने में भी उनकी जुबान तलवे से नहीं चिपकती कि दरअसल इतनी विविधता वाला खाना उन्हें अपने घर पर खाने को नहीं मिलता। वे सहज हैं। शायद इसीलिए वे आसानी से स्वीकार्य भी है। भले ही आशुतोष को बिग बास के शुरूआती चरण में किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी लेकिन वह मायूस नहीं हुआ। वह बेफिक्र रहा और बिंदास भी और अपनी इसी मीठी सहजता के चलते डायना हेडन का चहेता भी बन गया।

वैसे लगता यह भी है कि इस तरह की किच-किच वाला कार्यक्रम इस बार भले ही सफल रहा लेकिन यह प्रयोग अगर बार-बार इसी खाली दिमागधर्मिता के बीच रिपीट होता रहा तो दर्शक इससे भी ऊब सकता है। दर्शक को खींचने के लिए नएपन को चमकीली तश्तरी में सजाना जरूरी है। दूसरे, यह भी कि न्यूज के तनावों के बीच जनता जब इस तरह के चंचल कार्यक्रमों से जुड़ती है तो संदेश यह भी जाता है कि जनमानस को सपनों के सौदागर जितनी आसानी से लुभाते-रिझाते हैं, उतनी आसानी से दिमागी कसरतें नहीं। वैसे भी बरसों पहले ही एक समाज शास्त्री ने यह कह दिया था कि टेलीविजन का काम विशुद्ध रूप से मनोरंजन की खुराक देना ही होना चाहिए( दिमागी मैदान पर बड़ी-बड़ी बातें करने की कोशिश करते ही इलेक्ट्रानिक मीडिया जरा हकलाने तो लगता ही है)।

बहरहाल आशुतोष को एक करोड़ की ईनामी राशि मिली है। छोटे शहर के छोरे की झोली में पैसे झमाझम बरसने का मौसम शुरू हो गया है। वह तय ही नहीं कर रहा कि जीवन में पहली बार मिली इस बड़ी राशि से वो करेगा क्या? लेकिन राशि से बड़ी बात यह है कि इस जीत ने उन करोड़ों के दिलों में सपनों की दीवाली सजा दी है जिनकी धूलभरी पलकों पर आज भी कुछ सपने सजे हैं।

वैसे ताजा खबर यह है कि वे अब चुनाव प्रचार के मैदान पर उतर आए हैं।

(यह लेख 27 नवंबर, 2008 को जनसत्ता में प्रकाशित हु्आ)

Nov 16, 2008

नए जमाने का मीडिया-कम्यूनिटी रेडियो

हाल ही में जब छत्तीसगढ़ के गांव छेछर में 71 वर्षीय एक महिला सती हुई तब आंध्र प्रदेश के मछनूर गांव की कुछ दलित महिलाएं खुद समाचार बन रहीं थीं। इन महिलाओं ने नरसम्मा के नेतृत्व में एक सामुदायिक रेडियो की शुरूआत कर डाली। आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मछनूर गांव में संगम रेडियो का उद्घघाटन सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस पी बी सावंत ने किया( इन्हीं जस्टिस सावंत ने 1995 में प्रसारण तरंगों पर से राज्य के नियंत्रण को हटाने का महत्वपूर्ण फैसला दिया था)। गौरतलब यह भी है कि संगम रेडियो को एशिया का पहला ऐसा सामुदायिक रेडियो होने का गौरव हासिल हो गया है जो कि पूरी तरह से महिलाएं चलाती और संभालती हैं और इस रेडियो में बातें सौंदर्य या खान-पान की नहीं बल्कि ईको-कृषि, पर्यावरण,भाषा,संस्कृति, खेतों में महिला अधिकार जैसे गंभीर मुद्दों पर होती हैं। इस रेडियो की गूंज 25 किलोमीटर के क्षेत्र में सुनी जा रही है और यह आस-पास के 100 गांवों को कवर कर रहा है जिनकी आबादी करीब 50,000 है। पर इस सच से परे एक सच यह भी है कि भारत की एक बड़ी आबादी सामुदायिक रेडियो के नाम से भी परिचित नहीं है। एक ऐसे समय में, जबकि फिक्की यह कह रहा है कि भारत में एंटरटेंनमेंट मीडिया 19 प्रतिशत की वार्षिक दर से छलांगें भर रहा है, सामुदायिक रेडियो पर ज्यादा बातें नहीं होतीं। वजहें कई हैं। एक तो सामुदायिक रेडियो का दायरा बेहद छोटा होता है। कहीं 20 किलोमीटर तो कहीं 50। दूसरे इसे चलाने और इससे फायदा पाने वाले भी बेहद आम और स्थानीय होते हैं और यहां परोसी जाने वाली सामग्री भी उन्हीं के इस्तेमाल की होती है लेकिन यहां यह नहीं भूला जाना चाहिए कि इस रेडियो की ताकत असीम है क्योंकि इसका संचालक, कार्यकर्ता और उपभोक्ता वह वर्ग है जो इस देश की चुनाव प्रक्रिया में सबसे महती भूमिका निभाता है। दरअसल भारत में सामुदायिक रेडियो की लहर 90 के दशक में आई। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 'रेडियो तरंगें जनता की संपत्ति हैं।' यह एक शुभ समाचार था लेकिन शुरूआती दौर में सिर्फ शैक्षिक स्तर पर ही ऐसे स्टेशनों को खोलने की इजाजत दी गई। इस दशा में चन्नई स्थित अन्ना एफएम पहला कैंपस सामुदायिक रेडियो बना जिसे आज भी एजुकेशन एंड मल्टीमीडिया रीसर्च सेंटर चलाता है और इसके तमाम कार्यक्रमों को अन्ना विश्वविद्यालय के छात्र ही तैयार करते हैं। लेकिन परिस्थितियों में तेजी से बदलाव नवंबर 2006 से आना शुरू हुआ जब भारत सरकार ने एक नई नीति के तहत गैर-सरकारी संस्थानों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं को भी सामुदायिक रेडियो शुरू करने की इजाजत दे दी। इस समय भारत में 6000 से ज्यादा सामुदायिक रेडियो खुल चुके हैं। नई नीति के तहत कोई व्यक्ति विशेष या फिर आपराधिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि की संस्थाओं के अलावा कोई भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी संस्था सामुदायिक रेडियो के लिए आवेदन दे सकती है लेकिन चूंकि ऐसे रेडियो स्टेशनों के लिए केंद्र के स्तर से फंड नहीं मिल पाता और इनके लिए फंड जुटाने को लेकर कई कडे नियम भी हैं, ऐसे में सामुदायिक रेडियो के लिए लाइसेंस पाना भले ही आसान हो लेकिन उसे लंबे समय तक चला पाना किसी परीक्षा से कम नहीं। वैसे भी इसका लाइसेंस ऐसी संस्थाओं को ही मिल सकता है जो कम से कम तीन साल पहले रजिस्टर हुई हों और जिनका सामुदायिक सेवा का ' प्रमाणित ट्रैक रिकार्ड ' रहा हो। लेकिन लाइसेंस मिलने के बाद भी दिक्कतें कम नहीं होतीं। 12 किलोमीटर के दायरे की सीमा तक में बंधे सामुदायिक रेडियो के साथ यह शर्त भी जुड़ी होती है कि उसके करीब 50 प्रतिशत कार्यक्रमों में स्थानीयता हो और जहां तक संभव हो, वे स्थानीय भाषा में हों। एक घंटे में 5 मिनट के विज्ञापनों की छूट तो है लेकिन स्पांसर्ड प्रोग्रामों की अनुमति नहीं है( वे केंद्र या राज्य द्वारा प्रायोजित हों तो बात अलग है और वहां से स्पांसरशिप मिलना अपने में टेढ़ी खीर।) लेकिन तमाम दबावों के बीच सामुदायिक रेडियो से जुड़े कार्यकर्ताओं ने एक अनौपचारिक फोरम का गठन कर डाला है और मजे की बात यह है कि देश भर के कई टीवी पत्रकारों को जितने मेल सामुदायिक रेडियो से जुड़े इस फोरम से मिलते हैं, उतने मीडिया के किसी भी दूसरे माध्यम से नहीं। दरअसल सामुदायिक रेडियो पर सबसे ज्यादा बातें सुनामी के समय हुईं। उस समय जबकि प्रसारण के तमाम हथियार ढीले पड़ गए थे, सामुदायिक रेडियो के जरिए हो रही उद्घघोषणाओं के चलते ही अंडमान निकोबार द्वीप समूह में करीब 14,000 लापता लोगों को आपस में जोड़ा जा सका था। बहरहाल भारत के पिटारे में एक और सामुदायिक रेडियो जुड़ गया है। यह रेडियो फिलहाल हर रोज 90 मिनट का प्रसारण ही देगा लेकिन दिन-पर दिन इसका प्रसारण समय भी बढ़ेगा और इसकी ताकत भी क्योंकि सामुदायिक रेडियो जैसे 'अनाकर्षक' दिखने वाले माध्यम में बाजार के सीधे दखल और दबाव के बढ़ने के आसार अभी कम ही हैं। (यह लेख 16 नवंबर, 2008 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Nov 6, 2008

कुछ बात है कि हस्ती मिट नहीं सकती

ऐसे मौके विरले ही आते हैं जब अखबारों की सुर्खियां वे चेहरे बनते हैं जिन्हें देखते ही सम्मान जगे।

बहुत पहले किसी ने सीख दी थी। करियर में बदलाव लाना हो तो तब लाओ जब वो शीर्ष पर हो। अनिल कुंबले के संन्यास ने इसी बात को पुख्ता किया है। कुंबले ने एक ऐसे समय पर क्रिकेट को अलविदा कहा है जब उन पर ऐसा करने का न तो कोई दबाव था और न ही कोई मजबूरी। अपनी मर्जी से वे एक दिवसीय क्रिकेट से पहले ही संन्यास ले चुके थे और यह साफ था कि टैस्ट क्रिकेट भी वे अब ज्यादा दिन खेलने वाले नहीं हैं। वे जब तक खेले, शान और अदब के साथ खेले। दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान पर कुंबले की वह पारी हमेशा याद की जाएगी जब उन्होंने पाकिस्तानी टीम के दसों विकट गिरा दिए थे।

कुंबले के पास सफलता रही लेकिन ग्लैमर की चाश्नी कभी साथ नहीं चिपकी। इस मामले में वे सचिन तेंदुलकर या सुनील गावस्कर जैसे खिलाड़ियों से बहुत अलग रहे। वे ललचाती-लपलपाती जीभ लटकाते ऐसे खिलाड़ी के तौर पर कभी भी नहीं देखे गए जो हर समय किसी भी स्तर का विज्ञापन कर तिजोरी भरने के मौके की फिराक में रहे। उन्होंने जो भी किया, उसे भरपूर जीया। क्रिकेट के मैदान पर वे डूबे अंदाज में खेलते दिखे और बाद में फोटोग्राफी करते। एक ऐसे समय में, जबकि क्रिकेटर क्रिकेट कम और पैसे बनाने के दूसरे करतब करते ज्यादा नजर आते हैं, कुंबले ने अपनी छवि की गंभीरता को करीने से बनाए रखा।

कुंबले के पास आने वाले समय के लिए न तो मौकों की कमी है और न ही काबिलियत की। उनका शुमार भारतीय क्रिकेट टीम के अतिशिक्षित खिलाड़ियों में होता है। उनके पास बाकायदा इंजीनियरिंग की डिग्री है, आवाज में प्रोफेशनल सधाव है और भाषा पर पूरा अधिकार भी। इसके अलावा है- 132 टेस्ट खेलने का अनुभव। अपनी व्यवहार-कुशलता की वजह से उनके पास भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सहयोग और खिलाड़ियों का साथ भी है। यह एक ऐसी संपदा है जो उन्हें अब तक के रूतबे से कहीं आगे ले जाने की कुव्वत रखती है। वैसे संभावना यह भी है कि वे उदीयमान खिलाड़ियों के लिए एक अकादमी खोलेगें और कोच की जिम्मेदारी निभाएंगें। इसके अलावा अपने हुनर से वे क्रिकेट पर एक सॅाफ्टवेयर भी तैयार कर सकते हैं जिसकी जरूरत एक लंबे अरसे से महसूस की जा रही है।

लेकिन यहां एक बात पर गौर जरूर किया जाना चाहिए। आज कुंबले के सामने जो अपार संभावनाएं बन रहीं हैं, उनकी इकलौती वजह उनका खेल-अनुभव या व्यवहार-कुशलता ही नहीं है बल्कि एक वजह उनके पास पर्याप्त शिक्षा का होना भी है। यह बात जोर देकर कही जानी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मौजूदा दौर में टीवी की दुनिया की चकाचौध नई पीढ़ी के मन में यह गलतफहमी भरने लगी है कि पढ़ना शायद बेहद जरूरी नहीं। इसकी दो मिसालें हैं- एक तो टीवी चैनलों पर शिक्षा से जुड़े कार्यक्रमों का एकदम न के बराबर दिखना( याद कीजिए कितने टीवी चैनलों पर आपको क्विज दिखाए देते है? ऐसा कथित बोरियत का काम सरकारी भोंपू दूरदर्शन के ही पास सुरक्षित कर दिया गया है लेकिन अब उसने भी शिक्षा की बात कभी-कभार के लिए समेट दी है) और दूसरे संगीत के तमाम सर्कसनुमा अ-गंभीर कार्यक्रमों में शिक्षा से जुड़े सरोकार जगाते सवालों का तकरीबन न पूछा जाना। मीडिया सेक्टर से जुड़े लोग बखूबी जानते हैं कि रातों-रात लता मंगेश्कर और माइकल जैक्सन बनने की ख्वाहिश रखने वाले कई युवा बड़ी गलतफहमियों के चलते अपनी पढ़ाई अधूरी छोड़ मुंबई जा बसे हैं। ( मीडिया यह नहीं बताता कि कैसे बुनियादी शिक्षा छोड़ देने और बाद में कैरियर के भी न बनने पर किस तरह उनका भविष्य दांव पर लग जाता है)

तो बात कुंबले की हो रही थी। कुंबले ने एक राजा की विदाई पाई है। 2 नवंबर को फिरोजशाह कोटला मैदान में उनके साथियों और प्रशंसकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। उनके लिए जो तालियां बजीं, उसकी गूंज बहुत दूर तक सुनाई दी। अगले दिन उनकी तस्वीरें सभी प्रमुख अखबारों के मुख पृष्ठ पर छपी। ऐसा बहुत दिनों बाद हुआ कि अखबारों में खुशी और गर्व एक साथ झलका- वह भी बिना किसी सियासती दांव-पेंच के। मीडिया ने उनके इस कदम को सलाम किया।

दरअसल कुंबले अपने लिए महानता का सर्टिफिकेट खुद लिख गए हैं। गौर करने की बात यह है कि अपने इस कदम से वे अपने वर्तमान और अपनी अतीत की उपलब्धियों से कहीं आगे की चहलकदमी पर निकल गए हैं। जैसी विदाई उन्हें मिली, वैसी तो सुनील गावस्कर के हाथ भी नहीं आई और उन्हें पलकों के आचल पर बिठाकर यह विदाई सिर्फ इसलिए भी नहीं दी गई कि वे 619 विकेट लेने वाले भारत के सबसे सफल गेंदबाज थे। वे ईमानदार खिलाड़ी भी थे। वे 18 साल मैदान पर बने रहे और उनका नाम उस खिलाड़ी के तौर पर दर्ज है जिसने भारत को सबसे ज्यादा बार जिताया। उन्होंने यह साबित किया कि वे सबसे महान स्पिनर हैं। अपनी पसंदीदा टोपी पहने खेल के मैदान पर खेलते वे अब नहीं दिखेंगें लेकिन यह एक सीमित सोच है। जो दस्तक सुनाई पड़ रही है, वह यही कहती है कि अब एक नए कुंबले से साक्षात्कार का समय आ गया है। यह नया कुंबले खिलाड़ी कुंबले से कहीं ज्यादा प्रभावशाली और सफल होगा।

अब जबकि कई क्रिकेटर फैशन शो में रैंप पर थिरक रहे हैं, फिल्मी शोज में बहूदे ढंग से मटक रहे हैं या फिर बेतुके चुटकुले पर दहाड़ें मार कर हंस रहे हैं, कुंबले जैसे खिलाड़ी सम्मान और गरिमा की एक मिसाल तो हैं ही।वैसे सच कहें तो वे क्रिकेटरों की जमात से भी बड़ी मिसाल उन राजनेताओं के लिए हैं जो अपनी रिटायमेंट की उम्र लांघने के दशकों बाद भी रिटायर होना नहीं चाहते। सच ही है। किसी बदलाव को गरिमा और आत्म-सम्मान के साथ आमंत्रित करना और उसे बारीकी से समेटना बिना मानसिक ताकत और हिम्मत के संभव ही नहीं।

Nov 4, 2008

भारतीय मीडिया- समय दिशा-निर्धारण का

36 खरबपतियों और 36 करोड़ बेहद गरीब लोगों के इस देश में मीडिया एक महाशक्ति का आकार लेने लगा है। दुनिया के नक्शे पर अब भारत की पहचन सिर्फ एक बड़ी आबादी वाले 60 वर्षीय आजाद देश के रूप में ही नहीं है। लगातार सक्रियता के बाद अब वह एक ताकत के रूप में उभर रहा है और इसकी एक वजह यह भी है कि दुनिया के सबसे ज्यादा युवाओं वाले इस देश की गिनती उन विरले देशों में भी होती है जिसका मीडिया सबसे ज्यादा सक्रिय, विस्तृत और ऊर्जावान है। फिक्की की ताजा रिपोर्ट इस विश्वास को और पुख्ता करती है। रिपोर्ट कहती है कि मीडिया के मामले में फिलहाल भारत का कोई सानी नहीं। मीडिया का विज्ञापन बाजार 22 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। टेलीविजन की विकास दर 17 प्रतिशत है जबकि रेडियो की 24 प्रतिशत। प्रिंट मीडिया 16 प्रतिशत की दर से अपनी सेहत बना रहा है जो कि दुनिया में सबसे ज्यादा है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में निजी पंखों के आने के बाद बदलाव की एक बयार चली है। साठ या सत्तर के दशक का दर्शक खबर की सुर्खियां और थोड़ी-बहुत फुटेज देख कर परम सुख अनुभव कर लेता था। उसकी सोच की खिड़कियां छोटी थीं और उनसे उसे बाहर की जो सिमटी हुई सीमित तस्वीर मिलती थी, वह उसे ही काफी मान लेता था क्योंकि उसका इससे बेहतर विकल्पों से सामना हुआ ही नहीं था। कई बार खास मौकों पर उसके जहन में यह विचार जरूर आता था कि काश वह इससे ज्यादा कुछ जान-देख पाता लेकिन चूंकि वह प्रतियोगिता का दौर नहीं था और न ही दुनिया भर के दूसरे विकल्पों की सुलभ जानकारी थी, वह कुंए के मेंढक की तरह जो दिया गया, उसी में भक्ति-भाव से लीन रहा। लेकिन इससे एक और बात साबित होती है। भारतीय दर्शक की भूख और ललक अब कई गुना बढ़ गई है। इंदिरा गांधी की हत्या के समय उसे एक सफदरजंग से एक जगह चिपका-से गए कैमरे से शॅाट्स दिखाए गए। कैमरा जब थोड़ा-बहुत अंदर-बाहर घूमा तो से कुछ विवधता दिखी, वह उसी में धन्य हो गया। चर्चित हस्तियों पर बरसों उसे बहुत सामग्री नहीं मिली। शायद इसीलिए वह प्रभावशाली लोगों से जरा भयभीत भी रहा। प्रिंट मीडिया जरूर समय-समय पर उसे खबरों के नए-नए पकवान परोसता रहा लेकिन टेलीविजन की दुनिया का पिछड़ापन लंबे समय तक बना रहा। लेकिन तकनीक बदलती गई। खाड़ी युद्ध घर की बैठक में बैठकर देख भारतीय दर्शक की जो आंखें खुलीं, वो उसके लिए एक नए अध्याय की शुरूआत थी। मैकलुहान ने बरसों पहली अपनी चर्चित किताब में जिस ग्लोबल विलेज की बात कही थी, वह आज पूरे विस्तार के साथ साकार होती दिख रही है। अब रिमोट का बटन उसे यह विश्वास दिलाता है कि यह दुनिया वाकई एक छोटा गांव है। एक आम भारतीय घर बैठकर टीवी के जादुई रिमोट से अंतरिक्ष की सैर कर आता है, वह देखता है कि उसके जैसे लोग स्टूडियो में माइक लगाए बड़ी-बड़ी बातें कह डालते हैं। अब न हिचक है, न रोक। इलेक्ट्रानिक मीडिया ने एकाएक उसे ताकतवर, बेताब और बेबाक बना डाला है। वह अब सबकी खबर लेता है लेकिन इस बेबाकी के बावजूद एक सच यह भी है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया जिस समाज के लिए ज्यादा फिक्रमंद दिख रहा है, वह मध्यम वर्ग है क्योंकि भारत के मध्यम वर्ग की आबादी अमरीका की कुल जनसंख्या से भी ज्यादा है। इसलिए उसे लुभाना लाजमी भी है और फायदेमंद भी। और इस फायदे के फंदे में मीडिया लगातार जकड़ता जा रहा है। ग्लोकल, लोकल और फोकल हुआ मीडिया नए जमाने के साथ भाग रहा है। लेकिन मीडिया की दिशा क्या हो, इस पर आज भी न तो आम सहमति बन पाई है और न ही कोई सीधा रास्ता। दूरदर्शन आज भी जनहित सेवा प्रसारण की अपनी छवि पर कायम है। उसे आज भी बोरियत भरे सरकारी प्रवक्ता के रूप में देखा जाता है और माना जाता है कि जो सत्ता में होगा, वह उसी का महिमामंडन करेगा। दूसरी तरफ निजी इलेक्ट्रानिक मीडिया आज भी काफी हद तक पैने दांतों वाले माध्यम के तौर पर देखा जा रहा है जिसके बारे में जनता मानती है कि वह कभी भी किसी को काट सकता है। जनता अब सरकारी दफ्तरों में अपनी फरियाद देने की बजाय अब अक्सर पत्रकारों के करीब जाकर अपनी बात कहने लगी है। लेकन यह तस्वीर का एक सीमित पहलू है। दूसरा पहलू है- चैनलों में राजनीतिक हस्तक्षेप की राजनीति। इसके साथ ही चैनलों की विज्ञापनों पर निर्भरता ने जन सेवा की मूल धारणा को काफी हद तक हाशिए पर धकेल दिया है। यही वजह है कि पत्रकारों का एक बड़ा कुनबा यह विश्वास करने लगा है कि मीडिया मिशन नहीं, कमीशन है। भारत में इस समय मीडिया 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से फैल रहा है। अब टीवी न्यूज चैनल देश के चप्पे-चप्पे में पहुंचने के काफी करीब हैं लेकिन इस पहुंच से सिर्फ व्यापार साधने की मंशा रही तो इसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहने से पहले सोचना होगा। इसलिए लगता यही है कि दुनिया के इस सबसे सक्रिय माध्यम के लिए अब नीति तय करने का समय आ गया है। वह पूरी तरह से जनसेवक भले ही न बन पाए लेकिन अगर जनसेवा के लिए एक तयशुदा हिस्सा तय कर लिया जाए तो मीडिया की विकास की दर सामाजिक विकास के लिए भी मील का एक पत्थर साबित हो सकेगी। इससे पहले कि न्यूज मीडिया बोरियत की सीमा के करीब आ जाए और जन सेवा एक 'आउट डेटिड' शब्द बन जाए, मीडिया की रूपरेखा पर कुछ बुनियादी चिंतन हो ही जाना चाहिए।

Nov 1, 2008

अब क्या करेंगें हम लोग ?

नवंबर का महीना भारत के सबसे पॅापुलर माने जाने वाले टीवी सीरियल क्योंकि सास भी कभी बहू थी की विदाई लेकर आ रहा है। दरअसल 1984 और 2000- ये दोनों साल भारतीय एंटरटेंनमेंट मीडिया के यादगार सालों के रूप में दर्ज रहेंगें। 1984 में दूरदर्शन पर हम लोग का आगाज हुआ और 2000 में स्टार प्लस पर क्योंकि सास भी कभी बहू थी की शुरूआत । 80 के दशक में घिसटते अंदाज मे चल रहे दूरदर्शन के लिए मनोहर श्याम जोशी का लिखा धारावाहिक हम लोग मील का पत्थर साबित हुआ था क्योंकि कृषि दर्शन सरीखे एक ढर्रे पर चले आ रहे कार्यक्रम देख कर आजिज हो चुकी जनता का इस धारावाहिक के जरिए तकरीबन पहली बार खुद अपने से वास्ता पड़ा था। यह उस दौर का पहला ऐसा धारावाहिक था जो 13 एपिसोडों में समेटने की बजाय 17 महीनों तक चला और इसे भारत की करीब 70 प्रतिशत जनता ने देखा। मतलब यह कि इसके हर एपिसोड को करीब 5 करोड़ लोग देखा करते थे। आम लोगों के लिए बुना गया यह धारावाहिक जनता से जुड़ा था और बिना नसीहत देते हुए इसने जनहित से जुड़े मुद्दों को बड़े करीने से जनता के सामने रखा। जनसंख्या विस्फोट, शराबखोरी, अशिक्षा, अंधविश्वास, भ्रूण हत्या, बेरोजगारी, अपराध, बाल विवाह जैसे तमाम मु्द्दों को इस धारावाहिक में पिरोया गया था और हर धारावाहिक के अंत में आते थे - खुद अशोक कुमार और तमाम सामाजिक सरोकारों के बाद उनकी आखिरी पंक्ति हुआ करती थी- अब क्या करेंगें हम लोग। बेशक आज के संदर्भों में धारावाहिक की प्रोडक्शन क्वालिटी को चौपट कहा जा सकता है लेकिन यह एक ऐसा कछुआ साबित जरूर हुआ जो धीमा और अनाकर्षक होते हुए भी रेस में जीत गया। इसका एक सबूत यह भी है कि इस धारावाहिक ने टीवी सेट खरीदने वालों की भीड़ ही लगा दी। उन दिनों भारत की आबादी करीब 800 मीलियन थी और टीवी सेट था - महज 10 प्रतिशत आबादी के पास।धारावाहिक के दौरान और उसके बाद भारत में टीवी खरीदने वालों की जैसे बाढ़ ही आ गई। अब बात बालाजी टेलीफिल्म्स के धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थी की। आठ साल की लंबी पारी खेलने के बाद यह धारावाहिक नवंबर में सिमटने जा रहा है। एकता कपूर के इस धारावाहिक को गुजरात के विरानी परिवार के आस-पास पिरोया गया। हम लोग ने जहां बसेसर राम, भागवंती, लल्लू, बड़की, छुटकी और नन्हे को सुपर स्टार बनाया, वहीं क्योंकि ने तुलसी, मिहिर, सविता और गायत्री को दर्शकों का प्रिय बना दिया। क्योंकि ने भी कई मुद्दों को उठाया- विवाहेतर संबंध, अनचाहे गर्भपात, भटकते युवा और टूटती वर्जनाओं को इस धारावाहिक में बखूबी दिखाया गया लेकिन साथ ही आलोचक यह भी कहते सुने गए कि यह धारावाहिक इन्हें रोकने के बजाय इन्हें अपनाने के लिए प्रेरित करता हुआ ज्यादा दिखा। फिर हकीकत से परे होने के संकेत भी दिखे। हम लोग के लोग आम थे और दिखते भी आम थे। इसकी नायिका भागंवती घर में जगह की कमी की वजह से रसोई में सोती थी जबकि क्योंकि कारपोरेट परिवार का सीरियल रहा। इसकी नायिकाएं अव्वल तो रसोई में दिखती नहीं थीं और अगर गलती से दिख भी जातीं तो पूरे मेकअप और भारी गहनों के साथ। इस धारावाहिक ने मृत्यु के बाद किरदार को लौटा लाने की परंपरा भी शुरू की जिसके आगे भी अपनाए जाने के आसार हैं। जहां हम लोग भारत का पहला ऐसा धारावाहिक बना जिसे विज्ञापन मिला और जब तक क्योंकि की बारी आई, भारतीय सोप ओपेरा विज्ञापनों की धूम में पूरी तरह से नहाए दिखने लगे। लेकिन इन दोनों धारावाहिकों में एक तथ्य आम रहा। वह था - संयुक्त परिवार की परंपरा। दोनों ही धारावाहिकों ने भारतीय परिवारों के इस टूट रहे हिस्से पर ही अपने पूरे कथानक को खड़ा किया। बहरहाल हम लोग की तरह अब क्योंकि के बिस्तर समेटने की बारी है। लेकिन यह साफ है कि क्योंकि की विदाई यह भी साबित करती है कि बिकता वही है, जो जनता चाहती है और जनता के लिए अहम है - परिवार। लेकिन सच यह भी है कि जनता अब सास-बहू की किचकिच से कहीं आगे जाने की तैयारी करने लगी है। इसलिए अब बारी धारावाहिक लेखकों और निर्माताओं के सोचने की है।

Oct 24, 2008

यात्रा से सुनाई देते हैं मन के मंजीरे

यात्रा से सुनाई देते हैं मन के मंजीरे मैनें अभी दुकान का दरवाजा खोला ही है कि दुकान में बैठे युवक ने तपाक से कह दिया है कि इस छोटी सी दुकान में बड़ी खुशी के साथ आपका स्वागत है।

यह ब्रसल्स है। बेल्जियम की राजधानी। यूरोपीयन यूनियन का गढ़। यहां किसी को शुद्ध हिंदी में बोलते देख कर खुशी का होना स्वाभाविक ही है। मैं इस समय ब्रसल्स के मशहूर ग्रैंड स्केयर पर चाकलेटों की दुकानें देख रही हूं। यहां की चाकलेटें पूरी दुनिया में मशहूर हैं और ढेर वैरायिटी के बीच मनमाफिक को ढूंढना और भी मुश्किल।इस दुकान को चलाने वाला युवक बताता है कि वह पंजाब के एक गांव टांडा उड़मुड़ का रहने वाला है। मैं उसे बताती हूं कि अपने पंजाब प्रवास के दौरान मेरा वहां से अक्सर गुजरना होता था। यह सुनकर उसका चेहरा और भी खिल उठता है। वह बताता है कि करीब 10 साल पहले वह अपने किसी दोस्त के साथ नौकरी के लिए यहां आया और तब से यहीं रह रहा है।

कहना न होगा कि जिस कीमत पर जिस क्वालिटी की चाकलेट उसने मुझे और मेरी दोस्त को दी(सिर्फ इसलिए कि हम हिंदु्स्तानी भी थे और उसके गांव की मामूली पहचान भी रखते थे), उसकी मैं बार-बार तारीफ करने से नहीं थकती।यहीं पर ब्रसल्स के राजा के शाही भवन के पास तीन लड़कियां दिखती हैं। वे जैसे ही हमें देखती हैं हिंदी गाने पूरे सुर के साथ गाने लगती हैं। सुनने पर एकबारगी तो हैरानी हुई, फिर ऐसा भी लगा कि ये सभी हिंदुस्तानी हैं। लेकिन ऐसा नहीं था। तीनों बेल्जियम की ही रहने वाली थीं और रोज शाम को स्थानीय भाषाओं में गाने गा-गाकर अपनी एक संस्था के लिए चंदा इकट्ठा किया करती थीं। लेकिन इन तीनों ने जब हमें देखा और पहचाना कि हम भारतीय हैं तो वे हिंदु्स्तानी गाने पूरी शिद्दत के साथ गाने लगीं। पता लगता है कि वे हिंदी फिल्मों की शौकीन हैं और उन्होंने हिंदी फिल्में देख कर ही ये गाने सीखे हैं। अपने मुल्क में भले ही मेरा नाम जोकर या काबुलीवाला फिल्म के गाने सुनकर झूमने का मौका न मिलता हो लेकिन दूसरी जमीन पर अपना संगीत सुनना मन के तारों को झंकृत जरूर कर देता है।

यह भी एक अनूठा भाव है। पराए देस में सब बेगाने अपने से लगने लगते हैं। हवाई जहाज से जहां अपने मुल्क की सीमा को छोड़ा, वहीं अपनेपन की भाषा बुनी-सुनी जानी शुरू। सब एक दूसरे की मदद को तैयार, एक-दूसरे को सुनने को तैयार।फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर सामान की तालाशी के दौरान जब मेरी एक साथी के सामान को लेकर कुछ देर लग रही थी तो मैनें उसके करीब जाकर पूछा कि क्या हुआ? तो उसके कुछ कहने से पहले सामान देख कर सिक्योरटी आफिसर ने मुस्कुरा कर कहा- कुछ नहीं। अब ये जा सकती हैं। बेहद सुखद लगा। यहां मीलों दूर पराए देश के एयरपोर्ट पर कोई अपनी भाषा में बतियाने की सफल कोशिश कर रहा है। यहां पर एक युवक मिला जो पेशे से बावर्ची था। उत्तराखंड का रहने वाला। एयरपोर्ट पर उसके वीसा को लेकर कुछ पल उलझन के आए तो मैनें देखा कि हम 8 का उससे कोई सीधा सरोकार न होने पर भी सरोकार का भाव न जाने कहां से उग आया।

यात्राएं सबसे बड़ी यही बात सीखाती हैं। यात्रा जोड़ती है और अंदर बनी गांठें खोलती है। पराए मुल्क में अपने देस की भाषा भीनी लगती है और बेहद स्वादिष्ट लगती है अपने घर की वही दाल भी जिसे घर में रोज खाते हुए उसकी अहमियत समझ में ही नहीं आती। यह हिंदुस्तान ही है कि खाने के साथ मुफ्त में मिल जाए काले नमक वाला प्याज, चटनी और साथ ही सॉस भी। लेकिन पहुंचिए विकसित देशों में और समझ में आता है कि हम जिस देश में रहते हैं, वो तो वाकई दिलवालों का है। यहां सादा पानी भी मुफ्त मिलता है(बिसलेरी लेना हो तो बात दूसरी है)। यहां रेस्त्रां में मेजबानी ऐसी होती है कि लगे कि जैसे रेस्त्रां मालिक से कोई पुरानी रिश्तेदारी ही निकल आई हो।लेकिन ताज्जुब यह कि यह दिल यहां रहते हुए अपने देस के लिए नहीं थिरकता। वो नदियों, जातियों और वर्गों के बंटवरों को देखकर नहीं मचलता। इस मुल्क में रहते हुए अपने मुल्क की भाषा शायद खुद हमारे तक सही अंदाज में पहुंच ही नहीं पाती। यहां रास्ते में इतनी रूकावटें हैं कि हमें पड़ जाती है दुभाषिए की जरूरत।

यात्रा से लौटने पर लगा कि जिंदगी की लय को समझने के लिए जमीन से जुड़े होना जरूरी है और कभी-कभी आसमान पर लटक जाना भी क्योंकि सरहदों को पार करने के बाद चश्मे पर चिपके धूल के कण खुद-ब-खुद ही साफ हो जाते हैं। यही है यात्रा की ताकत। शायद यही है यायावरी का मंत्र भी।

Oct 20, 2008

पकती खबर में अधकचरे सच

खबर है कि उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के एक स्कूल में एक प्रधानाध्यापिका ने अपने स्कूल के बच्चों को एक कमरे में कई घंटों तक बंद करके रखा। वजह थी-उसके पर्स से 200 रूपयों का गायब होना। खबर में बताया गया कि स्कूल यातना के शिविर बन रहे हैं और बच्चों के साथ वहशियाना रवैया अपनाया जाता है। पढने में यह स्टोरी यही जतलाती है कि देश भर के स्कूल बच्चों को सिवाय यातना के कुछ नहीं देते और मौजूदा टीचर किसी खौफ से कम नहीं। ताली बजाने के लिए यह विषय रोचक, सटीक और स्वादिष्ट लगता है। एक आम पाठक शायद इस बात से सहमत न हो लेकिन इस स्टोरी को पढकर लगा यही कि यह कहानी पूरी तरह एकतरफा थी। वैसे भी एकतरफा खबरें देना मीडिया की आदत बनती जा रही है और साथ ही पोलिटिकली करेक्ट बातें कहना भी। इसकी मिसालें यहां दी जा रही हैं- हाल ही में दिल्ली के एक बेहद प्रतिष्ठित स्कूल में एक टीचर का काउंस्लर के रूप में चयन हुआ। चयन के कुछ ही दिनों बाद वे स्कूल की चेयरमेन से मिलने गईं और उन्होंने कहा कि एक विशेष क्लास के कुछ बच्चे काफी गैर-अनुशासित हैं और बेहतर होगा कि स्कूल की तरफ से कोई कारर्वाई की जाए ताकि पूरी क्लास का माहौल न बिगड़े। चेयरमैन ने बात को बीच में ही काटा और कहा- इग्नोर दैम( यानी नजरअंदाज कीजिए)। एक और वाक्या याद आता है। एक टीवी न्यूज चैनल में इसी तरह यातना के रस से भरपूर स्टोरी आई। जिस वीडियो एडिटर को वह स्टोरी एडिट करने के लिए दी गई, उसने टेप में एक आश्चर्जनक चीज पाई। उसने देखा कि माइक के सामने आने से पहले बच्चा और उसका परिवार मजे से मुस्कुरा रहा है( वे नहीं जानते थे कि उनके शाट्स लिए जा रहे थे) लेकिन जैसे ही बच्चे के सामने माइक आया, वह जार-जार होकर रोने लगा और साथ ही चिल्लाने-से लगे पिता यह कहते हुए कि कल ही उनके बेटे की किस बेरहमी से पिटाई की गई और क्लास में उसे दुत्कारा गया। उसकी गलती सिर्फ इतनी थी कि उसने अपना होम वर्क पूरा नहीं किया था ( और क्लास में वह मोबाइल पर बात कर रहा था) लेकिन न्यूज चैनल में वही सच दिखाया गया जो बच्चे ने माइक के सामने बताया था(क्योंकि चैनल का फायदा इसी में था। ऐसी फुटेज दर्शकों को खींचती जो है) अब आगे पढ़िए। महीनों बाद यह बात सामने आई कि दरअसल यह एक नाटक था, वह भी इसलिए कि स्कूल में बच्चे की छोटी बहन को एडमीशन नहीं दी जा रही थी। पर इस पर कोई स्टोरी नहीं की गई। इसी तरह ऐसे कई मामले देखने में आते रहे हैं जहां बच्चों या उनके माता-पिता ने जोरदार तरीके से बच्चे की मेंटल हैरासमेंट के आरोप लगाए हैं। यह मानसिक कष्ट बच्चे की जाति या उसके कपड़ों के ब्रांड किसी पर भी हो सकता है। लेकिन क्या कभी गौर किया गया है कि इस तरह की शिकायतें आम तौर पर बड़े शहरों से ही क्यों आती हैं? ठीक है यह कहा जा सकता है कि यह सब दूसरे शहरों में भी होता होगा लेकिन उनकी रिपोर्ट हो नहीं पाती होगी लेकिन क्या इसका एक कारण यह भी नहीं है कि अर्बन ईलीट इन मामलों में कुछ ज्यादा ही 'सक्रियता' दिखाने का आदी हो चुका है। इसमें कोई शक नहीं कि मीडिया की जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी नाजुक बच्चों की जमात को पैदा कर रही है। रिएलिटी शो में हिस्सा लेने वाला बच्चा कई बार यह सहन नहीं पर पाता कि उसके साथ खड़ा दूसरा लड़का उससे ज्यादा वोट कैसे पा गया। वह पसंद नहीं करता कि वह सेकेंड आए। वह पसंद नहीं करता कि दूसरे की तारीफ की जाए या फिर दूसरे के पास उससे बेहतर ब्रांड की कोई चीज मौजूद हो। इन शोज में जज बच्चों के शैक्षिक रूझानों की बात करते देखे नहीं जाते। एंटरटेंनमेंट मीडिया शायद यह साबित करने की कोशिश करता है कि पढ़ाई जरूरी है ही नहीं लेकिन मीडिया यह नहीं बताता कि जिन बच्चों ने इस चकाचौंध के चक्कर में अपना सब कुछ छोड़ दिया और आकर बस गए मुंबई में, उनका आखिर बना क्या? दरअसल मामला पॅालीटिकल खबरों को पकाने, दिखाने और उससे सही टारगेट आडयंस को लुभाने का है। मीडिया छोट-छोटे बच्चों के दिमाग में यह तो भर देता है कि उन्हें बात-बेबात टीचर, स्कूल या प्रिंसिपल को 'सू' करने (उन पर केस करने) का अधिकार है लेकिन यह बताने की जहमत नहीं उठाना चाहता कि अधिकारों के साथ कुछ कर्तव्य भी चिपके होते हैं। बेशक टारगेट आडियंस बच्चे हैं। बच्चे के हाथ में लॅालीपॅाप देने के फायदे बेशुमार है। टीचर के हाथ में झुनझुना देकर उसकी तरह भाषण देने का भला क्या फायदा? खुद सोचिए टीवी पर कितने प्रोग्राम टीचर के आसपास बुने हुए दिखाई देते हैं? मीडिया मालिक की तिजोरी को फायदा बच्चे से ही है। इसलिए उनसे कोई भी बुरा बनना नहीं चाहेगा। यहां दो बाते हैं। पहला, जे के रालिंग का कथन। वे कहती हैं- पत्रकारिता का काम है-सही और आसान में फर्क करना। यही काम मुश्किल है। दूसरा किसी समाज शास्त्री का यह कहना कि रिपोर्टर जितना देखता है,उससे ज्यादा बोलता है, जितना जानता है, उससे ज्यादा लिखता है। और इन दोनों बातों के बीच में इस सच को भी रखा जा सकता है कि अब कोशिश 'पोलिटिकली अपरूव्ड' सच को बोलने की होती है। इस अतिवादी रिपोर्टिंग से टीआरपी की आईस-पाईस में फायदा मिल सकता है लेकिन समाज को नहीं। (यह लेख 19 अक्तूबर, 2008 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)

Sep 26, 2008

टेलीविजन और अपराध पत्रकारिता

  1. मीडिया और अपराध की परिभाषाजर्मन समाजशास्त्री जर्गन हैबरमास ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के मीडियाई विकास के सोपानों को गौर से पढ़ा और पाया कि इसके बीज लंदन, पेरिस और तमाम यूरोपीय देशों में पब्लिक स्फीयर के आस-पास विकसित हुए। यहां के कॉफी हाउस और सैलून से पब्लिक डीबेट परवान चढ़े लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति का मंचन संसद और मीडिया में होता है जबकि जनता के हितों पर आर्थिक हित हावी हो जाते हैं। यह माना गया कि जनता की राय विचारों के आदान-प्रदान के खुले प्रवाह के जरिए नहीं बल्कि बड़े लोगों के प्रभाव और तोड़ने-मरोड़ने के अंदाज पर निर्भर करती है। जाहिर है कि अक्सर कवायद जिस जनता के नाम पर की जाती है, वह असल में आत्म-सुख से प्रेरित होकर दिमागी ताने-बाने का शिकार होती है।अपराध के नाम से तेजी से कटती फसल भी इसी अंदेशे की तरफ इशारा करते दिखती है। करीब 225 साल पुराने प्रिंट मीडिया और 60 साल से टिके रहने की जद्दोजहद कर रहे इलेक्ट्रानिक मीडिया की खबरों का पैमाना अपराध की बदौलत अक्सर छलकता दिखाई देता है। खास तौर पर टेलीविजन के 24 घंटे चलने वाले व्यापार में अपराध की दुनिया खुशी की सबसे बड़ी वजह रही है क्योंकि अपराध की नदी कभी नहीं सूखती।
  2. पत्रकार मानते हैं कि अपराध की एक बेहद मामूली खबर में भी अगर रोमांच, रहस्य, मस्ती और जिज्ञासा का पुट मिला दिया जाए तो वह चैनल के लिए आशीर्वाद बरसा सकती है। लेकिन जनता भी ऐसा ही मानती है, इसके कोई पुख्ता सुबूत नहीं हैं।बुद्धू बक्सा कहलाने वाला टीवी अपने जन्म के कुछ ही साल बाद इतनी तेजी से करवटें बदलने लगेगा, इसकी कल्पना आज से कुछ साल पहले शायद किसी ने भी नहीं की होगी लेकिन हुआ यही है और यह बदलाव अपने आप में एक बड़ी खबर भी है। मीडिया क्रांति के इस युग में हत्या, बलात्कार, छेड़-छाड़, हिंसा- सभी में कोई न कोई खबर है। यही खबर 24 घंटे के चैलन की खुराक है। अखबारों के पेज तीन की जान हैं। इसी से मीडिया का अस्तित्व पल्लवित-पुष्पित हो सकता है। नई सदी के इस नए दौर में यही है- अपराध पत्रकारिता और इसे कवर करने वाला अपराध पत्रकार भी कोई मामूली नहीं है। हमेशा हड़बड़ी में दिखने वाला, हांफता-सा, कुछ खोजता सा प्राणी ही अपराध पत्रकार है जो तुरंत बहुत कुछ कर लेना चाहता है। पिछले कुछ समय में मीडिया का व्यक्तित्व काफी तेजी के साथ बदला है। सूचना क्रांति का यह दौर दर्शक को जितनी हैरानी में डालता है, उतना ही खुद मीडिया में भी लगातार सीखने की ललक और अनिवार्यता को बढ़ाता है। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि इस क्रांति ने देश भर की युवा पीढ़ी में मीडिया से जुड़ने की अदम्य चाहत तो पैदा की है लेकिन इस चाहत को पोषित करने के लिए लिखित सामग्री और बेहद मंझा हुआ प्रशिक्षण लगभग नदारद है। ऐसे में सीमित मीडिया लेखन और भारतीय भाषाओं में मीडिया संबंधी काफी कम काम होने की वजह से मीडिया की जानकारी के स्रोत तलाशने महत्वपूर्ण हो जाते हैं। मीडिया के फैलाव के साथ अपराध रिपोर्टिंग मीडिया की एक प्रमुख जरुरत के रुप में सामने आई है। बदलाव की इस बयार के चलते इसके विविध पहलुओं की जानकारी भी अनिवार्य लगने लगी है। असल में 24 घंटे के न्यूज चैनलों के आगमन के साथ ही तमाम परिभाषाएं और मायने तेजी से बदल दिए गए हैं। यह बात बहुत साफ है कि अपराध जैसे विषय गहरी दिलचस्पी जगाते हैं और टीआरपी बढ़ाने की एक बड़ी वजह भी बनते हैं। इसलिए अब इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह भी माना जाता है कि अपराध रिपोर्टिंग से न्यूज की मूलभूत समझ को विकसित करने में काफी मदद मिलती है। इससे अनुसंधान, संयम, दिमागी संतुलन और निर्णय क्षमता को मजबूती भी मिलती है। जाहिर है जिंदगी को बेहतर ढंग से समझने में अपराधों के रुझान का बड़ा योगदान हो सकता है। साथ ही अपराध की दर पूरे देश की सेहत और तात्कालिक व्यवस्था का भी सटीक अंदाजा दिलाती है। अपराध रिपोर्टिंग की विकास यात्राअपराध के प्रति आम इंसान का रुझान मानव इतिहास जितना ही पुराना माना जा सकता है। अगर भारतीय ऐतिहासिक ग्रंथों को गौर से देखें तो वहां भी अपराध बहुतायत में दिखाई देते हैं। इसी तरह कला, साहित्य, संस्कृति में अपराध तब भी झलकता था जब प्रिंटिग प्रेस का अविष्कार भी नहीं हुआ था लेकिन समय के साथ-साथ अपराध को लेकर अवधारणाएं बदलीं और मीडिया की चहलकदमी के बीच अपराध एक 'बीट' के रुप में दिखाई देने लगा। अभी दो दशक पहले तक दुनिया भर में जो महत्व राजनीति और वाणिज्य को मिलता था, वह अपराध को मिलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। फिर धीरे-धीरे लंदन के समाचार पत्रों ने अपराध की संभावनाओं और इस पर बाजार से मिलने वाली प्रतिक्रियाओं को महसूस किया और छोटे-मोटे स्तर पर अपराध की कवरेज की जाने लगी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के आस-पास टेबलॉयड के बढ़ते प्रभाव के बीच भी अपराध रिपोर्टिंग काफी फली-फूली। इसकी एक बड़ी वजह यह भी थी कि दुनिया भर में आतंकवाद किसी न किसी रूप में हावी था और बड़ा आतंकवाद अक्सर छोटे अपराध से ही पनपता है, यह भी प्रमाणित है। इसलिए अपराधों को आतंकवाद के नन्हें रुप में देखा-समझा जाने लगा। अपराध और खोजी पत्रकारिता ने जनमानस को सोचने की खुराक भी सौंपी। वुडवर्ड और बर्नस्टन के अथक प्रयासों की वजह से ही वाटरगेट मामले का खुलासा हुआ था जिसकी वजह से अमरीका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अपना पद तक छोड़ना पड़ा था। इसी तरह नैना साहनी मामले के बाद सुशील शर्मा का राजनीतिक भविष्य अधर में ही लटक गया। उत्तर प्रदेश के शहर नोएडा में सामने आए निठारी कांड की गूंज संसद में सुनाई दी। जापान के प्रधानमंत्री तनाका को भी पत्रकारों की जागरुकता ही नीचा दिखा सकी। इसी तरह इंडियन एक्सप्रेस ने बरसों पहले कमला की कहानी के जरिए यह साबित किया था कि भारत में महिलाओं की ख़रीद-फरोख़्त किस तेज़ी के साथ की जा रही थी। यहां तक कि भोपाल की यूनियन कार्बाइड के विस्फोट की आशंका आभास भी एक पत्रकार ने दे दिया था। इस तरह की रिपोर्टिंग से अपराध और खोजबीन के प्रति समाज की सोच बदलने लगी। कभी जनता ने इसे सराहा तो कभी नकारा। डायना की मौत के समय भी पत्रकार डायना के फोटो खींचने में ही व्यस्त दिखे और यहां भारत में भी गोधरा की तमाम त्रासदियों के बीच मीडिया के लिए ज्यादा अहम यह था कि पहले तस्वीरें किसे मिलती हैं। इसी तरह संसद पर हमले से लेकर आरुषि मामले तक घटनाएं एक विस्तृत दायरे में बहुत दिलचस्पी से देखी गई। धीरे-धीरे अपराध रिपोर्टिंग और खोजबीन का शौक ऐसा बढ़ा कि 90 के दशक में, जबकि अपराध की दर गिर रही थी, तब भी अपराध रिपोर्टिंग परवान पर दिखाई दी। हाई-प्रोफाइल अपराधों ने दर्शकों और पाठकों में अपराध की जानकारी और खोजी पत्रकारता के प्रति ललक को बनाए रखा। अमरीका में वाटर गेट प्रकरण से लेकर भारत में नैना साहनी की हत्या तक अनगिनित मामलों ने अपराध और खोजबीन के दायरे को एकाएक काफी विस्तार दिया।टेलीविजन के युग में अपराध पत्रकारिता अखबारों के पेज नंबर तीन में सिमटा दिखने वाला अपराध 24 घंटे की टीवी की दुनिया में सर्वोपरि मसाले के रुप में दिखाई लगा। फिलहाल स्थिति यह है कि तकरीबन हर न्यूज चैनल में अपराध पर विशेष कार्यक्रम किए जाने लगे हैं। अब अपराध को मुख्य पृष्ठ की खबर या टीवी पर पहली हेडलाइन बनाने पर किसी को कोई एतराज नहीं होता। मीडिया मालिक यह समझने लगे हैं कि अब दर्शक की रूचि राजनीति से कहीं ज्यादा अपराध में है। इसलिए इसके कलेवर को लगातार ताजा, दमदार और रोचक बनाए रखना बहुत जरुरी है। लेकिन अगर भारत में टेलीविजन के शुरुआती दौर को टटोलें तो वहां भी प्रयोगों की कोशिश होती दिखती है। 1959 में भारत में टेलीविजन का जन्म सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक था। तब टीवी का मतलब विकास पत्रकारिता ज्यादा और खबर कम था। वैसे भी सरकारी हाथों में कमान होने की वजह से टीवी की प्राथमिकताओं का कुछ अलग होना स्वाभाविक भी था।भारत में दूरदर्शन के शुरुआती दिनों में इसरो की मदद से साइट नामक परियोजना की शुरुआत की गई थी ताकि भारत में खाद्य के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जा सके। यह भारत के विकास की दिशा में एक ठोस कदम था। इसने सामुदायिक टीवी के जरिए आम इंसान को जोड़ने की कोशिश की थी लेकिन इसे लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सका। 1983 में पी सी जोशी ने भारतीय ब्राडकास्टिंग रिपोर्ट में कहा था कि हम दूरदर्शन को गरीब तबके तक पहुंचाना चाहते हैं। दूरदर्शन ने इस कर्तव्य को निभाने के प्रयास भी किए लेकिन सेटेलाइट टेलीविजन के आगमन के बाद परिस्थितियां काफी तेजी से बदल गईं।90 का दशक आते-आते भारत में निजी चैनलों ने करवट लेनी शुरु की और इस तरह भारत विकास की एक नई यात्रा की तरफ बढ़ने लगा। जी न्यूज ने जब पहली बार समाचारों का प्रसारण किया तो इन समाचारों का कलेवर उन समाचारों से अलग हटकर था जिन्हें देखने के भारतीय दर्शक आदी थे। नए अंदाज के साथ आए समाचारों ने दर्शकों को तुरंत अपनी तरफ खींच लिया और दर्शक की इसी नब्ज को पकड़ कर टीवी की तारों के साथ नए प्रयोगों का दौर भी पनपने लगा। वैसे भी न्यूज ट्रैक की वजह से भारतीयों को सनसनीखेज खबरों का कुछ अंदाजा तो हो ही गया था। 80 के दशक में जब खबरों की भूख बढ़ने लगी थी और खबरों की कमी थी, तब इंडिया टुडे समूह के निर्देशन में न्यूज ट्रैक का प्रयोग अभूतपूर्व रहा था। न्यूज ट्रैक रोमांच और कौतहूल से भरी कहानियां को वीएचएस में रिकार्ड करके बाजार में भेज देता था और यह टेपें हाथों-हाथ बिक जाया करती थीं। भारतीयों ने अपने घरों में बैठकर टीवी पर इस तरह की खबरी कहानियां पहली बार देखी थीं और इसका स्वाद उन्हें पसंद भी आया था।दरअसल तब तक भारतीय दूरदर्शन देख रहे थे। इसलिए टीवी का बाजार यहां पर पहले से ही मौजूद था लेकिन यह बाजार बेहतर मापदंडों की कोई जानकारी नहीं रखता था क्योंकि उसका परिचय किसी भी तरह की प्रतिस्पर्द्धा से हुआ ही नहीं था। नए चैनलों के लिए यह एक सनहरा अवसर था क्योंकि यहां दर्शक बहुतायत में थे और विविधता नदारद थी। इसलिए जरा सी मेहनत, थोड़ा सा रिसर्च और कुछ अलग दिखाने का जोखिम लेने की हिम्मत भारतीय टीवी में एक नया इतिहास रचने की बेमिसाल क्षमता रखती थी। जाहिर है इस कोशिश की पृष्ठभूमि में मुनाफे की सोच तो हावी थी ही और जब मुनाफा और प्रतिस्पर्द्धा- दोनों ही बढ़ने लगा तो नएपन की तलाश भी होने लगी। दर्शक को हर समय नया मसाला देने और उसके रिमोट को अपने चैनल पर ही रोके रखने के लिए समाचार और प्रोग्रामिंग के विभिन्न तत्वों पर ध्यान दिया गया जिनमें पहले पहल राजनीति और फिर बाद में अपराध भी प्रमुख हो गया। वर्ष 2000 के आते-आते चैनल मालिक यह जान गए कि अकेले राजनीति के बूते चैनलनुमा दुकान को ज्यादा दिनों तक टिका कर नहीं रखा जा सकता। अब दर्शक को खबर में भी मनोरंजन और कौतुहल की तलाश है और इस चाह को पूरा करने के लिए वह हर रोज सिनेमा जाने से बेहतर यही समझता है कि टीवी ही उसे यह खुराक परोसे। चैनल मालिक भी जान गए कि अपराध को सबसे ऊंचे दाम पर बेचा जा सकता है और इसके चलते मुनाफे को तुरंत कैश भी किया जा सकता है। अपराध में रहस्य, रोमांच, राजनीति, जिज्ञासा, सेक्स और मनोरंजन- सब कुछ है और सबसे बड़ी बात यह है कि इसके लिए न तो 3 घंटे खर्च करने की जरूरत पड़ती है और न ही सिनेमा घर जाने की। वास्तविक जीवन की फिल्मी कहानी को सिर्फ एक या डेढ़ मिनट में सुना जा सकता है और फिर ज्यादातर चैनलों पर उनका रिपीट टेलीकॉस्ट भी देखा जा सकता है। भारत में अपराध रिपोर्टिंग के फैलाव का यही सार है। भारत में निजी चैनल और बदलाव की लहरभारत में 90 के दशक तक टीवी बचपन में था। वह अपनी समझ को विकसित, परिष्कृत और परिभाषित करने की कोशिश में जुटा था। खबर के नाम पर वह वही परोस रहा था जो सरकारी ताने-बाने की निर्धारित परिपाटी के अनुरुप था। इसके आगे की सोच उसके पास नहीं थी लेकिन संसाधन बहुतायत में थे। इसलिए टीवी तब रुखी-सूखी जानकारी का स्त्रोत तो था लेकिन एक स्तर के बाद तमाम जानाकरियां ठिठकी हुई ही दिखाई देती थीं। यह धीमी रफ्तार 90 के शुरुआती दशक तक जारी रही। इमरजेंसी की तलवार के हटने के बाद भी मीडिया की रफ्तार एक लंबे समय तक रुकी-सी ही दिखाई दी।1977 में लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद जयप्रकाश नारायण ने दिल्ली में रैली का एलान किया तो दूरदर्शन को सरकार की तरफ से कथित तौर पर यह निर्देश मिला कि रैली का कवरेज कुछ ऐसा हो कि वह असफल दिखाई दे। इस मकसद को हासिल करने के लिए दूरदर्शन ने पूरजोर ताकत लगाई। दूरदर्शन के कैमरे रैली-स्थल पर उन्हीं जगहों पर शूट करते रहे जहां कम लोग दिखाई दे रहे थे। रात के प्रसारण में दूरदर्शन ने अपनी खबरों में रैली को असफल साबित कर दिया लेकिन उसकी पोल दूसरे दिन अखबारों ने खोल दी। रैली में लाखों लोग मौजूद थे और तकरीबन सभी अखबारों ने अपार जनसमूह के बीच जेपी को संबोधित करते हुए दिखाया था।तब अपराध नाम का एजेंडा शायद दूरदर्शन की सोच में कहीं था भी नहीं। तब कवरेज बहुत सोच-परख कर की जाती थी। इसके अपने नफा-नुकसान थे लेकिन पंजाब में जब आतंकवाद अपने चरम पर था, तब दूरदर्शन का बिना मसाले के खबर को दिखाना काफी हद तक फायदेमंद ही रहा। जिन्हें इसमें कोई शक न हो, वो उन परिस्थितियों को निजी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज करने की हड़बड़ाहट की कल्पना कर समझ सकते हैं। इसी तरह इंदिरा गांधी और फिर बाद में राजीव गांधी की हत्या जैसे तमाम संगीन और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी बड़ी घटनाओं को बेहद सावधानी से पेश किया गया। खबरों को इतना छाना गया कि खबरों के जानकार यह कहते सुने गए कि खबरें सिर्फ कुछ शॉट्स तक ही समेट कर रख दी गई और शाट्स भी ऐसे जिनकी परछाई तक विद्रूप न हो और जो सामाजिक या धार्मिक द्वेष या नकारात्मक विचारों की वजह न बनते हों। विवादास्पद और आतंक से जुड़ी खबरों को बहुत छान कर अक्सर या तो बिना शाट्स के ही बता दिया जाता या फिर ज्यादा से ज्यादा 10 से 15 सेंकेंड की तस्वीर दिखा कर ख़बर बता दी जाती। कोशिश रहती थी कि खबर सिर्फ एक खबर हो, आत्म-अभिव्यवक्ति का साधन नहीं। टीवी के पर्दे पर छोटे अपराध तो दिखते ही नहीं थे। ऐसी खबरें तो जैसे 'पंजाब केसरी' सरीखे अखबारों के जिम्मे थीं जो एक लंबे समय तक भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार बना रहा। इसी तरह एक समय में मनोहर कहानियां भी अपने इसी विशिष्ट कलेवर की वजह से एक अर्से तक भारतीय पत्रिकाओं की सरताज बनी रही थी। लेकिन सरकारी तंत्र के लिए इस तरह के प्रयोग करना अपने आप में एक बड़ी खबर थी। अति उत्साह में दूरदर्शन अपराध की तरफ झुका तो सही लेकिन एक सच यह भी है कि तब तमाम मसलों की कवरेज में कहीं कोई कसाव नहीं था। बेहतरीन तकनीक, भरपूर सरकारी प्रोत्साहन और धन से लबालब भरे संसाधनों के बावजूद सरकारी चैनल पर तो अक्सर गुणवत्ता दिखाई ही नहीं देती थी। इसी कमी को निजी हाथों ने लपका और टीवी के रंग-ढंग को ही बदल कर रख दिया। यहीं से टेलीविजन के विकास की असली कहानी की शुरुआत होती है। प्रतियोगिता ने टेलीविजन को पनपने का माहौल दिया है और इसे परिपक्वता देने में कुम्हार की भूमिका भी निभाई है। इसी स्वाद को जी टीवी ने समझा और भारतीय जमीन से खबरों का प्रसारण शुरु किया। पहले पहल जी टीवी ने हर रोज आधे घंटे के समाचारों का प्रसारण शुरु किया जिसमें राष्ट्रीय खबरों के साथ ही अतर्राष्ट्रीय खबरों को भी पूरा महत्व दिया गया। समाचारों को तेजी, कलात्मकता और तकनीकी स्तर पर आधुनिक ढंग से सजाने-संवारने की कोशिश की गई। आकर्षक सेट बनाए गए, भाषा को चुस्त किया गया, हिंग्लिश का प्रयोग करने की पहल हुई और नएपन की बयार के लिए तमाम खिड़कियों को खुला रखने की कोशिश की गई। इन्हीं दिनों दिल्ली में एक घटना हुई।टीवी पर अपराध रिपोर्टिंग यह घटना 1995 की है। एक रात नई दिल्ली के तंदूर रेस्तरां के पास से गुजरते हुए दिल्ली पुलिस के एक सिपाही ने आग की लपटों को बाहर तक आते हुए देखा। अंदर झांकने और बाद में पूछताछ करने के बाद यह खुलासा हुआ कि दिल्ली युवक कांग्रेस का एक युवा कार्यकर्ता अपने एक मित्र के साथ मिलकर अपनी पत्नी नैना साहनी की हत्या करने बाद उसके शरीर के टुकड़े तंदूर में डाल कर जला रहा था। यह अपनी तरह का अनूठा और वीभत्स अपराध था। जी ने जब इस घटना का वर्णन किया और तंदूर के शॉटस दिखाए तो दर्शक चौंक गया और वह आगे की कार्रवाई को जानने के लिए बेताब दिखने लगा। यह बेताबी राजनीतिक या आर्थिक समाचारों को जानने से कहीं ज्यादा थी और दर्शक आगे की खबर को नियमित तौर पर जानना भी चाहता था। इस तरह की कुछेक घटनाओं ने टीवी पर अपराध की कवरेज को प्रोत्साहित किया।बेशक इस घटना ने टीवी न्यूज में अपराध के प्रति लोगों की दिलचस्पी को एकदम करीब से समझने में मदद दी लेकिन दर्शक की नब्ज को पकड़ने में निजी चैनलों को भी काफी समय लगा। 90 के दशक में अक्सर वही अपराध कवर होता दिखता था जो प्रमुख हस्तियों से जुड़ा हुआ होता था। सामाजिक सरोकार और मानवीय संवेदनाओं से जुड़े आम जिंदगी के अपराध तब टीवी के पर्दे पर जगह हासिल नहीं कर पाते थे। विख्यात पत्रकार पी साईंनाथ के मुताबिक साल 1991 से लेकर 1996 तक मीडिया ने मोटापा घटाने से संबंधित इतनी खबरें दीं और विज्ञापन दिखाए कि उसमें यह तथ्य पूरी तरह से छिप गया कि तब 1000 मिलियन भारतीयों को हर रोज 74 ग्राम से भी कम खाना मिल पा रहा था। एक ऐसे वक्त में मीडिया मोटापा घटाने के लिए खुली तथाकथित दुकानों पर ऐसा केंद्रित हुआ कि वह उन लोगों को भूल गया जो अपना बचा-खुचा वजन बचाने की कोशिश कर रहे थे। इस माहौल में वही अपराध टीवी के पर्दे पर दिखाए जाने लगे जो कि ऊंची सोसायटी के होते थे या सनसनी की वजह बन सकते थे। चुनाव के समय भी अपराध को छानने की प्रक्रिया तेज हो जाती थी ताकि इसके राजनीति से जुड़े तमाम पहलुओं को आंका जा सके। जाहिर है कि ऐसे में अपराध की कवरेज ज्यादा मुश्किल और जोखम भरी थी और इसलिए अपराध रिपोर्ट करने में इच्छुक पत्रकार को खोजना अपराध की जानकारी रखने से ज्यादा मुश्किल माना जाता था। इसी कड़ी में 1995 में जी टीवी ने इंडियाज़ मोस्ट वांटेड नामक कार्यक्रम से एक नई शुरुआत की। इसके निर्माता सुहेल इलियासी ने इस कार्यक्रम की रुपरेखा लंदन में टीवी चैनलों पर नियमित रुप से प्रसारित होने वाले अपराध जगत से जुड़ी खबरों पर आधारित कार्यक्रमों को देख कर बनाई। यह कार्यक्रम अपने धमाकेदार अंदाज के कारण एकाएक सुर्खियों में आ गया। कार्यक्रम के हर नए एपिसोड में दर्शकों को पता चलता था कि जिस अपराधी का हुलिया और ब्यौरा सुहेल ने दिखाया था, वह अब सलाखों के पीछे है, तो वह टीवी की वाहवाही करने से नहीं चूकता था। यह बात यह है कि सुहेल की कार्यशैली हमेशा विवादों में रही।नए परिदृश्य में बदलाव का दौर21वीं सदी के आगमन के साथ ही परिदृश्य भी बदलने लगा। एनडीटीवी, आज तक, स्टार न्यूज, सहारा जैसे 24 घंटे के कई न्यूज चैनल बाजार में उतर आए और इनमें से किसी के लिए भी न्यूज बुलेटिनों को चौबीसों घंटे भरा-पूरा और तरोताजा रखना आसान नहीं था। इसके अलावा अब दर्शक के सामने विकल्पों की कोई कमी नहीं थी। दर्शक किसी एक चैनल की कवरेज दो पल के लिए पसंद न आने पर वह दूसरे चैनल का रुख कर लेने के लिए स्वतंत्र था। दर्शक की इस आजादी, बेपरवाही और घोर प्रतियोगिता ने चैनलों के सामने कड़ी चुनौती खड़ी कर दी। ऐसे में दर्शक का मन टटोलने की असली मुहिम अब शुरु हुई। बहुत जल्द ही वह समझने लगा कि दर्शक को अगर फिल्मी मसाले जैसी खबरें परोसी जाएं तो उसे खुद से बांधे रखना ज्यादा आसान हो सकता है। इसी समझ के आधार पर हर चैनल नियमित तौर पर अपराध कवर करने लगा। फिर यह नियमितता डेढ़ मिनट की स्टोरी से आगे बढ़ कर आधे घंटे के कार्यक्रमों में तब्दील होती गई और हर चैनल ने अपराध रिपोर्टरों की एक भरी-पूरी फौज तैयार करनी शुरु कर दी जो हर गली-मोहल्ले की खबर पर नजर रखने के काम में जुट गई। चैनल यह समझ गए कि ऐसे कार्यक्रमों के लिए टीआरपी, विज्ञापन और दर्शक सभी आसानी से मिल जाते हैं। अब खबरों की तलाश और उन्हें दिखाने का तरीका भी बेहद तेजी से करवट बदलने लगा। वर्ष 2000 में मंकी मैन एक बड़ी खबर बना। एक छोटी सी खबर पर मीडिया ने हास्यास्पद तरीके से हंगामा खड़ा किया। खबर सिर्फ इतनी थी कि दिल्ली के पास स्थित गाजियाबाद के कुछ लोगों का यह कहना था कि एक अदृश्य शक्ति ने एक रात उन पर हमला किया था। एक स्थनीय अखबार में यह खबर छपी जिसे बाद में दिल्ली की एक-दो अखबारों ने भी छापा। हफ्ते भर में ही दिल्ली के विभिन्न इलाकों से ऐसी ही मिलती-जुलती खबरें मिलने लगीं। ज्यादातर घटनाओं की खबर ऐसी जगहों से आ रही थीं जो पिछड़े हुए इलाके थे। टीवी रिपोर्टरों ने खूब चाव से इस खबर को कवर किया। आज तक और एनडीटीवी ने दिखाया कि किस तरह से मोहल्ले के मोहल्ले रात भर जाग कर चौकीदारी कर रहे हैं ताकि वहां पर 'मंकी मैन' न आए। फिर मीडिया को कुछ ऐसे लोग भी मिलने लगे जिनका दावा था कि उन्होंने मंकी मैन को देखा है। ऐसे में टीवी पर एक से बढ़कर एक रोचक किस्से सुनाई देने लगे। हर शाम टीवी चैनल किसी बस्ती से लोगों की कहानी सुनाते जिसमें कोई दावा करता कि मंकी मैन चांद से आया है तो कोई तो दावा करता कि मंगल ग्रह से। कुछ लोग अपनी चोटों और खरोंचों के निशान भी टीवी पर दिखाते। टीवी चैनलों ने इस अवसर का पूरा फायदा उठाया। एक चैनल ने तो एनिमेशन के जरिए इस कथित मंकी मैन का चित्र ही बना डाला और टीवी पर बताया कि अपने स्प्रिंगनुमा पंजों से मंकी मैन एक साथ कई इमारतें फांद लेता है। फिर एक कहानी यह भी आई कि शायद इस मंकी मैन के पीछे पाकिस्तान का हाथ है। मंकी मैन एक, कहानियां अनेक और वह भी मानव रुचि के तमाम रसों से भरपूर! यह कहानी महीने भर तक चली और एकाएक खत्म भी हो गई। मीडिया दूसरी कहानियों में व्यस्त हो गया और मंकी मैन कहीं भीड़ में खो-सा गया। बाद में दिल्ली पुलिस की रिपोर्ट ने भी किसी अदृश्य प्राणी और खतरनाक शक्ति की मौजूदगी जैसी कहानियों की संभावनाओं को पूरी तरह से नकार दिया।तो फिर यह मंकी मैन था कौन। बाद में जो एक जानकारी सामने आई, वह और भी रोचक थी। जानकारी के मुताबिक मंकी मैन का सारा हंगामा निचली बस्तियों में हो रहा था जहां बिजली की भारी कमी रहती है। गर्मियों के दिन थे और एकाध जगह वास्तविक बंदर के हमले पर जब मीडिया को मजेदार कहानियां मिलने लगीं तो वह भी इसे बढ़ावा देकर इसमें रस लेने लगा। लोग भी देर रात पुलिस और मीडिया की गुहार लगाने लगे। नतीजतन रात भर बिजली रहने लगी और गर्मियां सुकूनमय हो गईं। माना जाता है कि इस सुकून की तलाश में ही मंकी मैन खूब फला-फूला और स्टोरी की तलाश में हड़बड़ाकर मीडिया का दर्शक ने भी अपनी बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया।अपराध और आतंकलेकिन यह कहानी का एक छोटा-सा पक्ष है। बड़े परिप्रेक्ष्य में दिखाई देता है- करगिल। अपराधों की तलाश में भागते मीडिया के लिए 1999 में करगिल 'बड़े तोहफे' के रुप में सामने आया जिसे पकाना और भुनाना फायदेमंद था। 

  3. मीडिया को एक्सक्लूजिव और ब्रेकिंग न्यूज की आदत भी तकरीबन इन्हीं दिनों पड़ी। एक युद्ध भारत-पाक सीमाओं पर करगिल में चल रहा था और दूसरा मीडिया के अंदर ही शुरु हो गया। कौन खबर को सबसे पहले, सबसे तेज, सबसे अलग देता है, इसकी होड़ सी लग गई। हर चैनल की हार-जीत का फैसला हर पल होने लगा। जनता हर बुलेटिन के आधार पर बेहतरीन चैनल का सर्टिफिकेट देने लगी। कुछ चैनलों ने अपनी कवरेज से यह साबित कर दिया कि प्यार और युद्ध में सब जायज है। इस बार भी मुहावरा तो वही रहा लेकिन मायने बदल गए। इस बार यह माना गया कि युद्ध के मैदान में एक्सक्लूजिव की दौड़ में बने रहने के लिए सब कुछ जायज है। यही वजह है कि माना जाता है कि एक भारतीय टीवी चैनल ने इस कदर गैर-जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग की कि रिपोर्टर की वजह से चार भारतीय जवानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यह माना जाती है कि टीवी पत्रकार की रिपोर्टिंग से ही पाकिस्तानी सेना को इस बात का अंदाजा लगा कि एक खास बटालियन की तैनाती उस समय किस दिशा में थी!इसके बाद दो और बड़ी घटनाएं हुईं। 22 दिसंबर 2000 की रात को लश्कर ए तायबा के दो फियादीन आतंकवादी लाल किले के अंदर जा पहुंचे और उन्होंने राजपूताना राइफल्स की 7वीं बटालियन के सुरक्षा गार्डों पर हमला कर तीन को मार डाला। 17वीं सदी के इस ऐतिहासिक और सम्माननीय इमारत पर हमला होने से दुनियाभर की नजरें एकाएक भारतीय मीडिया पर टिक गईं। तमाम राजनीतिक रिपोर्टरों ने शायद तब पहली बार समझा कि भारतीय मीडिया पर अपनी पकड़ बनाने के लिए अकेले संसद भवन तक की पहुंच ही काफी नहीं है बल्कि अपराध की बारीकियों की समझ भी महत्वपूर्ण है। फिर 13 दिसंबर 2001 को कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी ने संसद पर हमला कर दिया। यह दुनिया भर के इतिहास में एक अनूठी घटना थी। घटना भरी दोपहर में घटी। तब संसद सत्र चल रहा था कि अचानक गोलियों के चलने की आवाज आई। संसद सदस्यों और कर्मचारियों से लबालब भरे संसद भवन में उस समय हड़बड़ी मच गई। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि उस समय संसद भवन के अंदर और बाहर- दोनों ही जगह पत्रकार मौजूद थे। इनमें तकरीबन सभी प्रमुख चैनलों के टीवी कैमरामैन शामिल थे। पाकिस्तान के 5 आतंकवादियों ने करीब घंटे भर तक संसद में गोलीबारी की। इसमें 9 सुरक्षाकर्मियों सहित 16 अन्य लोग घायल हो गए। अभी संसद में हंगामा चल ही रहा था कि मीडिया ने भी अपनी विजय पताका फहरा दी क्योंकि मीडिया इस सारे हंगामे को कैमरे में बांध लेने में सफल रहा। कुछ कैमरामैनों ने अपनी जान पर खेल कर आतंकवादियों का चेहरा, उनकी भाग-दौड़, सुरक्षाकर्मियों की जाबांजी और संसद भवन के गलियारे में समाया डर शूट किया। एक ऐसा शूट जो शायद मीडिया के इतिहास में हमेशा सुरक्षित रहेगा। संसद में हमले के दौरान ही संसद भवन के बाहर खड़े रिपोर्टरों ने लाइव फोनो और ओबी करने शुरु कर दिए। पूरा देश आतंक का मुफ्त, रोमांचक और लाइव टेलीकास्ट देखने के लिए आमंत्रित था। थोड़ी ही देर बाद नेताओं का हुजूम भी ओबी वैनों की तरफ आ कर हर चैनल को तकरीबन एक सा अनुभव सुनाने लगा। हाथ भर की दूरी पर एक-दूसरे के करीब खड़े टीवी चैनल उस वक्त खुद आतंकित दिखने लगे क्योंकि यह समय खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने का था। टीवी पर गोलियों की आवाज बार-बार सुनाई गई। फिर रात में रिपोर्टर ही नहीं बल्कि कुछ चैनल ने तो कैमरामैनों के इंटरव्यू भी दिखाए। यह पत्रकारिता के एक अनोखे युग का सूत्रपात था। हड़बड़ाए हुए मीडिया ने ब्रेकिंग न्यूज की पताका को हर पल फहराया। इस 'सुअवसर' की वजह से इलेक्ट्रानिक मीडिया एक सुपर पावर के रुप में प्रतिष्ठित होने का दावा करता दिखाई देने लगा और फिर ब्रेकिंग न्यूज की परंपरा को और प्रोत्साहन मिलता भी दिखाई दिया लेकिन यहां यह भी गौरतलब है कि मीडिया ने अपनी हड़बड़ी में कई गलत ब्रेकिंग न्यूज़ को भी अंजाम दिया और कई बार आपत्तिजनक खबरों के प्रसारण की वजह से सवालों से भी घिरा दिखाई दिया। जाहिर है कि मीडिया की हड़बड़ी के अंजाम भी मिले-जुले रहे हैं और इलेक्ट्रानिक मीडिया की जल्दबाजी और शायद आसानी से मिलती दिखती शोहरत की वजह से भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के बीच बढ़ती दूरियां भी साफ दिखने लगी हैं। मीडिया ने कई बार न्यूज देने के साथ ही रिएल्टी टीवी बनाने की भी कोशिश की जिससे न्यूज की वास्तविक अपेक्षाओं से खिलवाड़ होता दिखाई देने लगा। इसका प्रदर्शन गुड़िया प्रकरण में भी हुआ। वर्ष 2004 में एक अजीबोगरीब घटना घटी। पाकिस्तान की जेल से 2 भारतीय कैदी रिहा किए गए। इनमें से एक, आरिफ़, के लौटते ही खबरों का बाजार गर्म हो गया। खबर यह थी कि आरिफ़ भारतीय सेना का एक जवान था और करगिल युद्ध के दौरान वह एकाएक गायब हो गया था। सेना ने उसे भगोड़ा तक घोषित कर दिया लेकिन अचानक खबर मिली कि वह तो पाकिस्तान में कैद था! अपने गांव लौटने पर उसने पाया कि उसकी पत्नी गुड़िया की दूसरी शादी हो चुकी है और वह 8 महीने की गर्भवती भी है। यहां यह भी गौरतलब है कि आरिफ़ जब लापता हुआ था, तब आरिफ़ और गुड़िया की शादी को सिर्फ 10 दिन हुए थे। अब वापसी पर आरिफ़ का कथित तौर पर मानना था कि गुड़िया को उसी के साथ रहना चाहिए क्योंकि शरियत के मुताबिक वह अभी भी पहले पति की ही विवाहिता थी। इस निहायत ही निजी मसले को मीडिया ने जमकर उछाला और भारतीय मीडिया के इतिहास में पहली बार जी न्यूज के स्टूडियो में लाइव पंचायत ही लगा दी गई। कई घंटे तक चली पंचायत के बाद यह फैसला किया गया कि गुड़िया आरिफ़ के साथ ही रहेगी। इस कहानी को परोसते समय मीडिया फैसला सुनाने का काम करता दिखा जो कि शायद मीडिया के कार्यक्षेत्र का हिस्सा नहीं है।लेकिन इस खबर का दूसरा पहलू और भी त्रासद था। खबर थी कि गुड़िया, आरिफ़ और उसके कुछेक रिश्तेदारों को जी टीवी के ही गेस्ट हाउस में काफी देर तक रखा गया ताकि कोई चैनल गुड़िया परिवार की तस्वीर तक न ले पाए। मीडिया की अंदरुनी छीना-झपटी की यह एक ऐसी मिसाल है जो मीडिया के अस्तिव पर गंभीर सवाल लगाने के लिए काफी है। यह एक ऐसी प्रवृति का परिचायक है जो घटनाओं को सनसनीखेज बनाकर अपराध की प्लेट पर परोस कर मुनाफे के साथ बेचना चाहती है।बदलते हुए माहौल के साथ मीडिया के राजनीतिक, सांस्कृतिक और भावनात्मक समीकरण भी तेजी से बदलते रहते हैं। अपने पंख फैलाने की इस कोशिश में मीडिया ने कई बार सनसनी फैलाने से भी परहेज नहीं किया है फिर चाहे वह गोधरा हो या कश्मीर। अमरीकी टेलीविजन ने 11 सितंबर की घटना की कवरेज के समय जिस समझदारी से प्रदर्शन किया था, वह सीखने में भारतीय मीडिया को शायद अभी काफी समय लगेगा। अमरीका की अपने जीवनकाल की इतनी बड़ी घटना को भी अमेरीकी मीडिया ने मसाले में भूनकर नंबर एक होने की कोशिश नहीं की। इसकी एक बड़ी मिसाल यह भी है कि घटना की तस्वीरों को बुलेटिन को गरमागरम बनाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया लेकिन इस मिसाल से भारत सहित और कई देशों ने सबक नहीं लिया है। सितंबर 2004 में जब रुस के एक स्कूल पर हमलावरों ने हमला बोल दिया और 155 स्कूली बच्चों सहित करीब 320 लोगों को मार डाला तो खूनखराबे से भरे शॉट्स दिखाने में कोई परहेज़ नहीं किया गया। इसी तरह मीडिया ने कई बार अपराधियों को भी सुपर स्टार का दर्जा देने में भूमिका निभाई है। वह कभी चंदन तस्कर वीरप्पन को परम शक्तिशाली तस्कर के रुप में स्थापित करता दिखाई दिया तो कभी अपराधियों को पूरे सम्मान साथ राजनीति के गलियारों की धूप सेंकते बलशाली प्रतिद्वंदी के रुप में। जाहिर है- इस समय मीडिया का जो चेहरा हमारे सामने है, वह परिवर्तनशील है। उसमें इतनी लचक है कि वह पलक झपकते ही नए अवतार के रुप में अवतरित हो सकता है। नए युग में अपराध के अंदाज, मायने और तरीके बदल रहे हैं। साथ ही उनकी रोकथाम की गंभीर जरुरत भी बढ़ रही है। मीडिया चाहे तो इस प्रक्रिया में लगातार सार्थक भूमिका निभा सकता है। बेशक मीडिया ने अपराध की कवरेज के जरिए कई बार समाज की खोखली होती जड़ों को टटोला है लेकिन अब भी मीडिया को समाज के प्रति सकारात्मक रवैया रखने की नियमित आदत नहीं पड़ी है। अपराध की संयमित- संतुलित रिपोर्टिंग समाज में चिपक रही धूल की सफाई का कामगर उपकरण बन सकती है। यह कल्पना करना आसान हो सकता है लेकिन यह सपना साकार तभी होगा जब पत्रकार को शैक्षिक, व्यावहारिक और मानसिक प्रशिक्षण सुलभ हो सके। कुल मिलाकर बात प्रशिक्षण और सोच की ही है।

Sep 24, 2008

बाढ़ क्या संवेदना भी बहा ले जाती है ?

बात 1989 की है। उस साल हम फिरोजपुर में थे। एक दिन सुना कि फिरोजपुर के आस-पास के गांवों को बाढ़ ने घेर लिया है। अब बारी अपने शहर की है। लेकिन जैसी की इंसानी फितरत है, ऐसी बातों पर तब तक यकीन नहीं होता जब तक कि वे सच नहीं हो जातीं। तो बात एक खास शाम की है। हमने सुना वाकई बाढ़ आ रही है। हमारे बंगले से आगे, जहां रेलवे के इन सरकारी बंगलों की शुरूआत होती है, वहां बाढ़ का पानी पहुंच गया है। पिछले एकाध दिन में हम घर का सामान वैसे तो कुछ ऊंचाई पर कर ही चुके थे लेकिन तब भी बाढ़ आएगी, ऐसा विश्वास नहीं था। खैर जब खबर सुनी तो मैं अपनी मां के साथ बंगले से बाहर आई। देखा कि कुछ दूरी पर एक सफेद सी चीज दिख रही है। समझ में आया कि अरे यह तो पानी ही है। हम भाग कर घर के अंदर आए और पांच-दस मिनट में ही हमारा घर भी बाढ़ के पानी से भरने लगा। हम लोग खाने-पीने का थोड़ा-बहुत सामान लेकर तुरंत घर की छत पर चले गए। अब हम ऊपर थे, पानी नीचे। चिंता भी थी कि पानी बहुत भर न जाए। चूंकि हमारा घर ठीक-ठाक ऊंचाई पर था और घर का मैदान नीचा तो पानी का ज्यादा फैलाव मैदान के हिस्से ही आया। अब छत की रात का किस्सा पढ़िए। हम चार और हमारे पड़ोस के तीन लोग -कुल सात-एक बड़ी छत पर। ऊपर से देख रहे हैं - पानी चारों तरफ भाग रहा है। हम दोनों बहनें छोटी ही थीं। बाढ़ को पहली बार देख रहे थे। इसलिए हैरान थे और थोड़े डरे भी। लेकिन अब भूख भी लगने लगी थी। मिलकर खाना बनाने लगे तो देखा कि सूखा आटा तो नीचे ही छूट गया। तो वो रात आदिमानवों की तरह कच्चा-पक्का खा कर पानी की बदमाश हिचकियों के बीच गुजरी। सुबह हम जैसे-तैसे नीचे उतरे लेकिन शाम होते-होते हालात ऐसे हो गए कि फिर छत का आश्रय लेना ही पड़ा। इस बार हम सात लोगों के साथ सूखा आटा भी आया। देखते ही देखते बदबू हर तरफ फैल गई और दिखने लगे -हर तरफ ऐसे लंबे सांप जो इससे पहले कभी नहीं देखे थे। हम छत से देखते कि सांप तेज बहते पानी के साथ झुंड के झुंड में बह रहे हैं। कई सांप पेड़ों पर आपस में गुत्मगुत्था होते रहते और बेपरवाह पसरते। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे उतरने लगा पर मैदान पर पानी कई दिनों तक पसरा रहा। इस बीच आस-पास के गांवों में बहुत कुछ बह गया। महीनों लगे बाढ़ के बाद जिंदगी को अपनी लय में लौट आने में। लेकिन इस बाढ़ ने लाजवाब सबक दिए। इस बेधड़क बहते पानी ने हमें सिखाया कि पानी को किसी व्याकरण में बांधा नहीं जा सकता। बेशक बांध बनाकर अपना तुष्टीकरण जरूर किया जा सकता है। बाढ़ ने सिखाया कि कानाफूसी जब चारों तरफ सुनाई देने लगे तो उस पर गौर करना चाहिए और बाढ़ ने सिखाया कि अपना वही है जो यह पल है। बाढ़-तूफान-भूचाल-बम-किसी का पता नहीं। फिर किस बात का दंभ? समय की समझ भी उस उफनते पानी ने ऐसी दी कि आज तक नहीं भूली है। यही वजह है कि आज भी जिंदगी का हर दिन आखिरी दिन मान कर काम पूरा कर लेने की इच्छा होती है। यही वजह है कि आज भी किसी पल को हंसी में उड़ाया ही नहीं जाता। यह वह समय था जब पंजाब में आतंकवाद जोरों पर था। आतंकवाद को लेकर राजनीतिक-गैर-राजनीतिक राय जो भी रही हो लेकिन एक आम नागरिक के नाते, जिसने अपना बचपन दहशत की सुबहों-शामों में जीया, महसूस किया कि बड़े डरों को झेलने के बाद छोटे डर वाकई बौने पड़ जाते हैं। एक बड़ा डर बाकी सभी डरों को चिरमिरा देता है और उसके बाद बिना डर के जीने की कला भी सिखा देता है। वो समय ऐसा था जब 24 घंटे के न्यूज चैनलों की पैदाइश नहीं हुई थी। इसलिए परेशानी में भी अलग तरह की शांति थी और ऐसा होने की भी कोई संभावना नहीं थी कि किसी ने पलों के लिए आंखों का काजल बनाया और फिर उतार दिया। यह भी नहीं हुआ कि टीवी वालों के ओबी लगे हों और उन्होंने चुन-चुन के भरी आंखों वाले थोड़े 'ग्लैमरस' चेहरे खोजे हों और फिर उनसे पूछा हो कि मैडम, पानी में तो आप सब डूब गया। अब आपको कैसा लग रहा है? (कृपया इस पर 30 सेकेंड का एक बयान दें)। बाढ़ का पानी धीमे-धीमे उतरा। बाढ़ पीड़ितों के लिए उपजी भावनाएं भी धीमे-धीमे ही उतरीं। भूलना भी धीमे-धीमे ही हुआ। चैक बटोरने वाले नेता तो तब भी थे लेकिन चूंकि तब चौबीसों घंटे चैनलों की छुपन-छुपाई नहीं थी, इसलिए नाटक भी कम ही हुए। सोचती हूं कि इतने सालों में बाढ़ का चेहरा तो वही है पर उसे देखने-दिखाने का नजरिया बदल गया है। अब बाढ़ प्रोडक्ट ज्यादा है- मानवीय भावनाओं का स्पंदन करता विषय कम। जब तक अगला प्रोडक्ट पैदा नहीं होता(यानी अगली ब्रेकिंग न्यूज नहीं आती), तब तक वह प्रोडक्ट लाइफलाइन बना रहता है लेकिन कुछ 'नया' आते ही पुराने का गैर-जरूरी हो जाना तो तय है। यह मीडियाई मनोविज्ञान ही है कि बड़े विस्फोटों के कुछ घंटों बाद ही फिर से हंसो-हंसाओ अभियान शुरू कर दिए जाते हैं और सास-बहुओं से किसी भी हाल में कोई समझौता नहीं किया जाता। सब अपने स्लाट पर दिखाई देते हैं और सब अलग-अलग रंग भरते हैं ताकि ट्रजेडी में भी बना रहे ह्यूमर और जीए टीआरपी। यहां टी एस ईलीयट की बात याद आती है। उनका मानना है कि टीवी एक ऐसा माध्यम है जिसे करोड़ों लोग एक साथ देखते हैं, वे एक ही चुटकुले को देखते हैं और उस पर हंसते हैं लेकिन तब भी रहते हैं-अकेले ही। मीडिया शायद इसी अकेलेपन की कहानी है। यहां त्रासदी भी हंसी है, हंसी भी त्रासदी। बहरहाल बाढ़ें आईं हैं, आगे भी आएंगीं। वे व्यापार, राजनीति, मीडिया की दिलचस्पी का फोकस भी बनेंगी लेकिन इनमें से किसी से भी सामाजिक हित में बड़ी उम्मीदें लगा लेना भविष्य में भावनात्मक सूखे को आमंत्रण देने जैसा ही होगा। (यह लेख 24 सितंबर, 2008 को अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)

Sep 19, 2008

खुद की खबर पर खामोश मीडिया

दो साल पहले दिल्ली पब्लिक स्कूल के दो छात्रों का जो अश्लील एमएमएस बना, वह ब्रेकिंग न्यूज थी, देशभर ने वो तस्वीरें देखीं और जनता नैतिकता पर मीडिया की चिल्लाहट की गवाह बनी लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि इस जोरदार कुप्रचार से लड़की के पिता इस कदर आहत हुए कि उन्होंने आत्महत्या कर ली। यह खबर न तो फोनो या ओबी की वजह बनी और न ही किसी अखबार की सुर्खी। जिन चैनलों और अखबारों ने एमएमएस के बहाने टीआरपी के सेहतमंद ग्राफ से अपनी झोली भरी, वे भी आत्महत्या के मामले पर चुप्पी साध गए। इसी तरह अभी कुछ समय पहले दिल्ली के ही एक पुरुष ने आत्महत्या कर ली क्योंकि मीडिया ने आरोप लगाया कि उसके अपनी साली से अवैध संबंध थे। मीडिया ने फैसला दिया तो अपने अंदर के सच के टूटने पर पुरुष ने अपनी जान देना ही सही समझा। मीडिया के इस झूठे तमाशे से जिन्दगी गई तो मीडिया चुप। अपनी गलती को उसने कालीन के नीचे ढक दिया और वह किसी और खबर के पीछे भागने लगा। लेकिन अब पत्रकार खुद खबर बन रहे हैं। उन्हीं वजहों से जिन पर खबर बनाने में उन्हें खूब मजा आता है। लाइव इंडिया चैनल का एक पत्रकार हाल में खबर कैसे बना, सब जानते हैं, लेकिन दूसरा पत्रकार, जिस वजह से खबर बना, वह अभी सिर्फ पत्रकारों के दायरे तक ही है। किसी ने न उस पर लिखा है, न ही उस पर कोई न्यूज ब्रेक की गई है। दरअसल इन दिनों एक बड़े टीवी चैनल की महिला एंकर का एमएमएस बाजार में है। देखने वाले भरपूर चस्का लेकर इसे देख रहे हैं। यह एमएमएस भी दो पत्रकारों के बीच ही का है। सारी मीडिया बिरादरी दोनों पत्रकारों को जानती है या जान गई है। लेकिन खबर किसी ने नहीं लिखी और न ही किसी ने एमएमएस के जरिए व्यक्तिगत जीवन पर किए गए इस आक्षेप पर आपत्ति जताई है लेकिन यही मामला अगर अपनी बिरादरी के बाहर हुआ होता तो मीडिया जनता को तमाम जानकारियां रटा चुका होता। महिला पत्रकार को लेकर बने एमएमएस का शायद यह तीसरा मामला है और मीडिया के अंदर आत्महत्या और हताशा की कहानी भी नई नहीं है। इसमें दो मुद्दे हैं- पहला, मीडिया का खुद खबर बनना- वह भी ऐसे मसले पर, जिस पर वह दूसरे पर कीचड़ उछालने में पल भर न लगाए। दूसरा- मीडिया- खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में टूटती वर्जनाओं का और अपने पेशे में उग रही फूंफूदी को झाड़ने की इच्छा न होने का। पहले मुद्दे पर तो मीडिया चुप है। वह जनता से अपने घर में दीमक लगे होने की बात छिपाने की अदाकारी जानता है लेकिन घर के बैठकर बिरादरी के किस्सों का रस भी ले रहा है। कुछ युवतियों ने एकाध वाक्य में इसे बचकानी हरकत बताया है जबकि कुछ के लिए यह मानिसक झंझावात से कम नहीं क्योंकि वे तरक्की के लिए न तो समझौता करना चाहती हैं न इस पेशे को छोड़ना। कुछ पुरुष पत्रकारों के लिए यह मामला बीयर के साथ स्नैक्स का काम कर रहा है तो कुछ के लिए अपनी कुंठा को निकालने का। वे अपने छोटे से सताए कुनबे में ऐसी कहानियां सुन-सुना रहे हैं जब किसी महिला विशेष की वजह से उन्हें प्रोमोशन नहीं मिल पाई या फिर मनचाही बीट झोली में नहीं आई। बेशक मीडिया के अंदर छोटे-बड़े कई कैक्टस उगने लगे हैं। पत्रकारिता के कई नर्सरी स्कूल ककहरा पूरी तरह से पढ़ाए बिना ही अधखुले पैराशुट के साथ इन अर्ध-साक्षरों को मीडिया के मैदान में उतार देते हैं। यहां पुराने खिलाड़ी पहले से मौजूद हैं। इनसे खैर बड़ा खतरा नहीं है, न ही खतरा उनसे है जो समझौता करने की बजाए पथरीले रास्ते पर चलने को आमादा हैं। खतरा सिर्फ उनसे है जो यवा तैराक होने के साथ ही सीमाओं के बंधन से परे हैं और चिकने रास्ते के हिमायती। दरअसल हम एक ऐसे देश की मीडिया का हिस्सा हैं जो जरा-सी पहरेदारी की बात सुनते ही बिदक जाता है। वह आजाद रहना चाहता है लेकिन एक सच यह भी है कि लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का घर शीशे का है। दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने की लत अब छूटे नहीं छूटती। चारित्रिक शब्दकोष के खुद के बिखरे मानदंडों के बीच दूसरों के चरित्र का अवलोकन करने का हथियार मीडिया कब और कैसे पा गया, यह पता ही नहीं चला। (यह लेख 23 सितंबर, 2007 के दैनिक हिंदु्स्तान में प्रकाशित हुआ)

Sep 17, 2008

हिन्दी ने साबित कर ही दी अपनी ताकत

करीब दो साल पहले दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में अंग्रेजी गायन की एक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया। इसमें अंग्रजी के दुर्ग पर अधिकार जताने वाले अंग्रेजी, रेडियो, टीवी, विज्ञापन और जनसंपर्क पत्रकारिता के छात्रों ने हिस्सा लेने की भरपूर तैयारी की। प्रतियोगिता जब होने वाली थी, तो हिन्दी पत्रकारिता के छात्रों का उत्साह भी जगा लेकिन मसला था- अंग्रेजी। अंग्रजी में हाथ तंग छात्र भला इसमें क्या हिस्सा लेते लेकिन वे पीछे हटना भी नहीं चाहते थे। आखिरकार उन्होंने इसमें हिस्सा लेने की ठानी। कैंपस में जिसे भी इसकी सूचना मिली, वह गुदगुदाहट से भर गया। लेकिन यह खबर नहीं है। खबर वह है, जो इसके बाद बनी।

प्रतियोगिता हुई, सबने अंग्रजी गाने गाए और जमकर गाया हिन्दी विभाग भी और ले गया- पहला ईनाम। परम हैरानी! जीत कैसे क्यों हुई? इसलिए कि अंग्रेजी पर एकाधिकार समझने वाले उस गर्व में ऐसे फूले रहे कि कहीं पीछे छूट गए और जिनका अंग्रेजी से नाता नहीं था, वे ऐसा झूम-झूम कर गाए कि निर्णायक समिति ने उन्हें ही पहला स्थान दे दिया। हिन्दी वालों की उस जीत पर उस दिन दिली खुशी हुई।

ऐसी ही खुशी कुछ साल पहले तब हुई थी जब हिन्दी न्यूज चैनलों को शुरू करने की बात चली थी और नीति बनाने वालों ने सवालिया निशान लगाए थे कि आम आदमी की चलताऊ भाषा का चैनल क्या चलेगा! हिन्दी आम आदमी की भाषा हो सकती है, इसमें राष्ट्रीय प्रसारण के दौरान बंधे-बंधाए समय पर एकाध बुलेटिन भी हो सकता है लेकिन हाशिए पर पड़ी इस मुरझाई-हकलाई भाषा को चौबीसों घंटे भला कौन झेलेगा! लेकिन चैनल चला और उसे चलाने वाले भी। हिन्दी के दम ने साबित किया कि इस देश में चलेगा वही जो आम आदमी और उसकी भाषा से जुड़ा होगा।

इसी तरह की खुशी का आभास तब हुआ जब पार्लियामेंट लाइब्रेरी बिल्डिंग में कुछ सांसद हिन्दी सीखते दिखे। इन सांसदों को हिन्दी सिखा रहे थे- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से रिटायर हुए एक प्रोफेसर। स्वाभाविक तौर पर हिन्दी सीखने वालों की सूची में ज्यादातर सांसद दक्षिण भारतीय हैं। लेकिन इसमें गौरतलब है- हिन्दी सीखने की इच्छाशक्ति। प्रांत कोई भी हो, लोग हिन्दी पर अपना अधिकार कायम करना चाहते हैं। यही वजह है कि जापान से लेकर अमेरिका तक ऐसे बहुत लोग है जो हिन्दी ककहरा सीखने में जुटे हैं।

विशेषज्ञ इस बदलाव की कई वजहें गिना सकते हैं लेकिन बतौर पत्रकार निजी अनुभव के आधार पर मुझे लगता है कि यह अचानक नहीं हुआ। आजादी के साठ साल पूरे कर चुके इस देश में हिन्दी को हाशिए पर लाने की कई कोशिशें हुईं, होती रहेंगी, लेकिन हिन्दी ही जीत दिला सकती है, इसे समझने में सबसे ज्यादा तेजी उस तबके ने दिखाई जिसका जनता से सबसे सीधा वास्ता पड़ता है। वह चाहे नेता हो या मीडिया। अब तो जयललिता और राहुल गांधी भी हिन्दी में बतियाने लगे हैं। 2007 में तिरुवनंतपुरम में विधानसभा अध्यक्षों की सालाना बैठक के बाद हर शाम कला संध्या का हिन्दी में ही संचालन हुआ और निमंत्रण भी हिन्दी में छपे। फेहरिस्त लंबी है। बात वोटों की हो या टीआरपी की, जनता को खुद से जोड़ना हो तो मजबूरी में ही सही, भाषा अब उसी की बोली जाए, यह कायदा हुक्मरानों को समझ में आने लगा है।

एक और मिसाल विज्ञापन में दिखती है। विज्ञापनों में या तो शॉट्स तुरंत खींचते हैं या फिर स्क्रिप्ट। वह भी अपनी भाषा में हो तो उसका स्वाद बढ़ जाता है। ऐसा नहीं कि भारतीयों का स्वाद एकाएक बदला है। दरअसल घरों में टीवी रखने की जगह बदल गई है। ड्राइंग रुम में रखे टीवी में पहले अंग्रेजी को टांगे रखना लाजिमी-सा लगता था लेकिन अब नटखट टीवी उछल कर बेडरूम में आ गया है और बेडरूम में नकलीपन भला कौन चाहेगा! यह है हिन्दी की ताकत।

इस ताकत को राजनेता समझने लगे हैं, मीडिया समझ रही है, लेकिन योजना निर्धारक कब समझेंगे, कोई नहीं जानता। दरअसल सरकारी फाइलों पर तो हिन्दी के लिए अदृश्य अनचाहा लाल कालीन 1947 से ही बिछा है लेकिन यथार्थ की धरा पर हिन्दी के कलेवर पर अब भी पैबंद हैं। भाषा समितियां रटे-रटाए तरीके से सरक रही हैं। हिन्दी किताबों के लिए सलीकेदार प्रकाशक ढूंढना आज भी टेढ़ी खीर है। चैनलों में ठेठ हिन्दी वालों की जगह सिमटी है। कसे कपड़ों की तरह कसी अंग्रेजी बोलने वालों का हकलाता हुआ कुनबा तैयार हो रहा है जिसे दैनिक हिन्दुस्तान और हिन्दुतान टाइम्स में फर्क मालूम नहीं। यह वह कुनबा है जो भारत को इंडिया मानकर पृथ्वी की बजाय मंगल ग्रह से रिपोर्टिंग कर रहा है। ऐसे में हिन्दी वाले न्यूयार्क में भले ही ढाल-नगाड़े बजा आएं, पर बात तब बनेगी जब हिन्दी वाले हिन्दुस्तान में सीना तान कर चलना सीख लेंगे।

(यह लेख 22 जुलाई 2007 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित हुआ)