पीपली लाइव देखने जाना ही था। वजह फिल्म की चर्चा से कहीं ज्यादा यह थी कि महमूद और अनुषा के साथ मुझे एक लंबे समय तक एनडीटीवी में काम करने का अवसर मिला था। महमूद ने उन दिनों एक स्टोरी में पीटूसी करते हुए शेक्सपीयर के एक बहुत लंबे पद्य को जब मुंहजबानी बोल डाला था, तब मुझमें यह उत्कंठा जाग उठी थी कि यह अलग-सा शख्स है कौन। बाद में पता चला कि आक्सफोर्ड और कैंब्रिज में पढ़े महमूद के पास इतिहास की जानकारी का जैसे खजाना ही है और वह दास्तानगोई में माहिर है। उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी – तीनों भाषाओं में समान अधिकार वाला महमूद हमेशा हैरत में ही डालता था।
अनुषा की पहचान एक खुली सोच की थी। वह प्रोडक्शन में माहिर थी और हमेशा मुस्कुराती हुई मिलती थी। एनडीटीवी की कॉफी मशीन के पास जब वो दिखती, तब उसकी मुस्कुराह़ में सोच घुली हुई दिखती।
खैर, तो इस हफ्ते पीपली लाइव देखी। स्क्रीन में जो दिख रहा था, उससे ज्यादा मजेदार पीछे की सीटों पर घट रहा था। इलेक्ट्रानिक मीडिया का मजाक उड़ाते हर अंश पर पीछे की सीटों पर बैठे युवा खूब खुश होकर मजा लेते, चिल्लाते, हंसते, तालियां बजा कर देखते। उनकी प्रतिक्रिया से बहुत साफ था कि हो न हो, ये लोग मीडिया के ही हैं। खैर पीछे मुड़ कर देखा तो कई पहचाने चेहरे देखे। उनमें से कुछ युवा प्रोडक्शन वाले भी थे लेकिन मजे की बात यह कि वे सब स्क्रीन पर उभरते तमाशाई सच को देखकर भरपूर खुश थे।
फिल्म को देखते हुए, बकरी उठाए नत्था और उसके भाई बुधिया के चेहरे पर बेचारगी का जो भाव उभरता है, वह मीडिया के उस चेहरे को छील कर सामने लाता है जो आत्म केंद्रित, आत्म मुग्धा, आत्म प्रशंसक है। उसके कैमरे का लैंस अपने स्वार्थ से परे कुछ नहीं देखता। नत्था की पत्नी का एक आम भारतीय पत्नी की तरह गरियाना, नत्था का यह कहना कि भाई तुम ही कर लो आत्महत्या और बड़े भाई का छटपटाना कि जाने नत्था कब देगा अपनी जान – फिल्म को असल जिंदगी से जोड़ता है। यह छोटा-सा कुनबा समाज के उस हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है जो जीता घिसट-घसट कर है और जिसके लिए मरना भी आसान नहीं।
लेकिन इस फिल्म का सबसे दमदार कैरेक्टर राकेश नामक पत्रकार इनमें कुछ अलग है। उसकी खबर की समझ दिल्ली वालों से ज्यादा है, उसकी छठी इंद्री ज्यादा विकसित है और वो तत्पर है लेकिन आखिर तक चाहने पर भी उसे बड़े चैनल में नौकरी तो नसीब नहीं होती, गुमनाम मौत जरूर मिल जाती है।
फिल्म कहती चलती है लेकिन साथ ही साथ सवालों के काफिले भी छोड़ती जाती है। पहली ही फिल्म से महमूद और अनुषा का चर्चा में आना काबिलेतारीफ है लेकिन साथ ही यह बात बड़ी गुदगुदाती है कि जो मीडिया कभी अपनी सहनशक्ति खोने लगा था, वो अब बड़े परदे पर अपना बाजा बजता देख कर भी खुश हो रहा है।
असल में यह एक बहुत बड़े बदलाव का सुखद संकेत है। बहुत दिनों के बाद पीपली लाइव के बहाने ही सही, मीडिया के सामने एक बड़ा आईना रखने की हिम्मत की गई है।
लेकिन यह सफर यहां थमना नहीं चाहिए.....