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Feb 13, 2012

थी. हूं.. रहूंगी...Year 2012 : Vartika Nanda: Poetry

महिला अपराध पर देश का पहला कविता संग्रह
समर्पण


अपराध से छिलती
फिर भी
उम्मीद की लालटेन थामे
हर औरत के लिए

यह पहला मौका है जब एक अपराध पत्रकार ने अपराध पर ही कविताएं लिखी हैं। एनडीटीवी में बरसों अपराध बीट की प्रमुखता और बाद में बलात्कार पर पीएचडी ने अपराध एक अलहदा संवेदनशीलता से देखने की ताकत दी। इसलिए इन कविताओं को संवेदना के अलावा यथार्थ के चश्मे से भी देखना होगा।

मेरे लिए औरत टीले पर तिनके जोड़ती और मार्मिक संगीत रचती एक गुलाबी सृष्टि है और सबसे बड़ी त्रासदी भी। वह चूल्हे पर चांद सी रोटी सेके या घुमावदार सत्ता संभाले – सबकी आंतरिक यात्राएं एक सी हैं।







इस ग्रह के हर हिस्से में औरत किसी न किसी अपराध की शिकार होती ही है। ज्यादा बड़ा अपराध घर के भीतर का जो अमूमन खबर की आंख से अछूता रहता है। यह कविताएं उसी देहरी के अंदर की कहानी सुनाती हैं। यहां मीडिया, पुलिस, कानून और समाज मूक है। वो उसके मारे जाने का इंतजार करता है और उसके बाद भी कभी-कभार ही क्रियाशील होता है।

हां, मेरी कविता की औरत थक चुकी है पर विश्वास का एक दीया अब भी टिमटिमा रहा है। दुख के विराट मरूस्थल बनाकर देते पुरूष को स्त्री का इससे बड़ा जवाब क्या होगा कि मारे जाने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह मुस्कुरा कर कह दे - थी. हूं.. रहूंगी...।

From News to Infotainment to Tamasha by Dr. Amit Nagpal



Jan 20, 2012

बैगपाइपर पत्रकारिता के बीच


तीन दिनों तक प्रियंका ही खबरों में रहीं। उनकी मुस्कुराहट, उनके कपड़ों का रंग, हंसने की अदा, फुर्ती, हाजिरजवाबी, मन को मोहने वाली बातें, अपनी दादी से मिलता चेहरा, मिलनसारिता, उनके व्यक्तित्व का करिश्मा और भी न जाने क्या-क्या। हालांकि इनमें से किसी भी बात से इंकार नहीं किया जा सकता पर मीडिया की मुग्ध होती रिपोर्टिंग और रसीली एंकरिंग के कुछ पहलुओं पर इंकार जतलाना जरूरी लगता है।

दरअसल गाना गाती यह रिपोर्टिंग चुनावी माहौल में ज्यादा मुखर तरीके से नोटिस में ली जाती है, ली जानी चाहिए भी। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी के चुनावी दौरे के समय तमाम चैनल एक साथ प्रियंकामय हो गए तो बात उनके करिश्मे के साथ ही मीडिया के आचार-व्यवहार और चुनावी सीमाओं के पास भी जाकर पहुंची। माहौल चुनावी न होता तो शायद ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। समझा यही जाता कि मीडिया को भी खबर की अपनी जरूरतों को पूरा करना होता है और टीआरपी देखने होती है पर इस बार बात चुनावों की है। ऐसे में मीडिया की पुरानी किताबों को दोबारा खंगालने की जरूरत भी महसूस हुई। मीडिया आलोचक अडवर्ड एस हरमन और नोम चोमस्की ने 1988 में प्रोपोगेंडा मॉडल पर बात की थी जिसके मुताबिक निष्पक्षता को अगर नजर अंदाज किया जाए तो वह सरकार(सत्ता) और ताकतवर घरानों की तरफदारी की रिपोर्टिंग बन कर रह जाती है। 1957 में टाइम्स के संपादक डिलेन ने कहा था कि पत्रकार का काम एक इतिहासकार जैसा ही होता हैः उसे तथ्यों की बात करनी होती है पर साथ ही सुनिश्चित करना होता है कि सच को उसी रूप में दिखाया जाए जो पूरी तरह से खालिस हो और वहीं खत्म होता हो जहां तक वह जरूरी हो। उसका काम पाठक को स्टेटक्राफ्ट में ढाल कर सच परोसने का नहीं है। न्यूज मीडिया की हदें और सरहदें काफी हद तक तय हैं।

तो बात फिर प्रियंका की रिपोर्टिंग की। तीन साल बाद अचानक रायबरेली-अमेठी जाने पर प्रियंका को पलकों में बिठाया गया है। यहां इस शिकायत पर ज्यादा तवज्जो नहीं है कि वे अब तक अपने पारिवारिक क्षेत्र से इतने दिनों तक दूर क्यों रहीं। वे राजनीति में आने के बारे में सीधा और खाली जवाब क्यों नहीं देतीं और यह कि इस बात के मायने क्या हैं कि वे राहुल बाबा के कहने पर यहां आईं हैं। क्या किसी चुनावी क्षेत्र का दौरा सिर्फ अपने भाई की खुशी और सफलता की दरकार पर ही किया जाता है। इसके अलावा यह महिमामंडित प्रचार क्या पूरी तरह से चुनावी आचार संहिता के अंतर्गत आता है। सवाल कई हो सकते हैं। एक सवाल यह भी कौंधता है कि रिपोर्टिग का जो सुर हमने इन तीन दिनों में सुना और देखा, क्या यह वही होता अगर किसी और राजनीतिक चेहरे ने अरसे बाद अपने इलाके की सुध ली होती। क्या मीडिया तब भी गुड़ वाली गजकी पत्रकारिता करता और ओबी वैन भगा-भगा कर अपने स्टार पत्रकारों के जरिए प्रियंका को स्टार कैंपेनर कहता।

प्रियंका के जादू से किसी को इंकार नहीं और न ही उनकी संवेदना से भरपूर भारतीय जनता पर पकड़ को किसी भी तरह से नकारा जा सकता है पर सवाल हमारा अपना है। क्या मीडिया का काम जादू की रिपोर्टिंग करना है। क्या उसका काम व्यक्ति केंद्रित होना है, क्या उसका काम (खास तौर पर चुनाव के समय पर) कौंधती रौशनी से नहाए किसी एक हिस्से को पूरी तरह से सर्वोपरि बना देना है। क्या मीडिया का काम असंतुलित होकर जागरण में बैठ जाना है। क्या आने वाले दिनों में रिपोर्टिंग को लेकर कई मापदंड तय किए जाएंगे और अगर हां, तो उन्हें कौन, कब करेगा। बैग पाइपर जर्नलिज्म को क्या जर्नलिज्म माना जाना चाहिए? मेरा सवाल यहीं से शुरू होता है।

Jan 1, 2012

अधूरी कविता

थके पांवों में भी होती है ताकत
देवदारों में चलते हुए
ये पांव
झाड़ियों के बीच में से राह बना लेते हैं
गर
भरोसा हो
सुबह के होने का
सांसों में हो कोई स्मृति चिन्ह
मन में संस्कार
और उम्मीदों की चिड़िया
जिंदा है अगर
तो जहाज के पंछी को
खूंटे में कौन टांग सकता है भला

Dec 10, 2011

ठगिनी माया

सफर ठगे जाने के बाद शुरू होता है
अपने से
पराये से
किसी पराये अपने से

बीचों बीच रौशनी के बुझने
सुरंग के लंबे खिंच जाने
मायूसी की लंबी लकीर के बीच

ठगे जाने के मुहावरे हमेशा पुराने होते हैं
लेकिन ठगा गया इंसान नया
और उससे निकला सबक भी

Dec 6, 2011

औरत

सड़क किनारे खड़ी औरत कभी अकेले नहीं होती उसका साया होती है मजबूरी आंचल के दुख मन में छिपे बहुत से रहस्य औरत अकेली होकर भी कहीं अकेली नहीं होती सींचे हुए परिवार की यादें सूखे बहुत से पत्ते छीने गए सुख छीली गई आत्मा सब कुछ होता है ठगी गई औरत के साथ औरत के पास अपने बहुत से सच होते हैं उसके नमक होते शुरीर में घुले हुए किसी से संवाद नहीं होता समय के आगे थकी इस औरत का सहारे की तलाश में मरूस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत सांस भी डर कर लेती है फिर भी जरूरत के तमाम पलों में अपनी होती है

Nov 9, 2011

तीन बहनें

कल जब तुम इस अंगने में लौट के आना, तुम हमें न पाना – आत्महत्या करने से पहले तीनों युवा बहनें अपने घर के आंगन में फुदक रही गौरेया से यही कहती हैं। 1988 की फरवरी में कानपुर की तीन बहनें अपने घर में आत्महत्या कर लेतीं हैं। पढ़ी-लिखी, समझदार, सुंदर तीन लड़कियां खुद को फांसी पर इसलिए लटका लेती हैं कि उनके पिता के पास उन्हें देने के लिए दहेज नहीं।

फिल्म 6 घंटे के घटनाक्रम पर चलती है कि कैसे तीनों बहनों कई उलझनों से जूझती हैं और एक मोड़ पर तो आत्महत्या करने का इरादा ही त्याग देती हैं। लेकिन सामाजिक दबाव, डर और खुद में आत्मविश्वास की गहरी कमी उन्हें जीने नहीं देती। वह यह तो जानती हैं कि बेटी का बाप होना कठिन होता है पर यह भी कहती हैं कि यह मुश्किल बेटी होने से बड़ी नहीं। दहेज की वजह से शादी न हो पाने का दंश आखिर में उनकी बलि चढ़ा ही देता है। पर मरते-मरते भी लड़कियां अपनी जिम्मेदारियां पूरी करके ही जाती हैं। वे बर्तन साफ करती हैं, कपड़े धोती हैं और फिर अपना आखिरी खत लिखती हैं।

और उसके बाद मर ही गईं तीनों बहनें। पीछे छूट गए उनके मां-बाप और दो भाई। भाई जो परिवार की शायद पहली प्राथमिकता थे और आखिरी भी।

88 से आज के भारत ने एक लंबा सफर तय कर लिया है। आप कह सकते हैं हदेज तो अब बीते समय की बात हो वाला है पर ऐसा नहीं है, न ही ऐसा हो सकता है। दहेज लेने के तरीके और लड़की को मारकर बचने के अंदाज अब बदल गए हैं पर मूल समस्या नहीं। समाज आज भी साथ नहीं देता। समाज सुनता है, देखता है पर जुटता मौत के अगले दिन ही है।

दिल्ली में कुंदन शाह की इस फिल्म की विशेष स्क्रीनिंक के समय फिल्म के प्रमुख सहयोगी शेखर हट्टंगड़ी मौजूद थे। फिल्म के एक दृश्य में जब तीनों में से एक बहन कहती है कि बरसों से इस घर का मौसम नहीं बदला है तो लगता है कि जैसे बरसों से हिंदुस्तान का मौसम भी नहीं बदला है।

इन तीन बहनों के दो भाई थे। घटना के समय मां-बाप उन दोनों के साथ कानपुर से बाहर एक शादी में शरीक होने गए थे। वे जब लौटे होंगे तो अपनी तीनों बेटियों को फंदे पर लटका हुआ पाकर बहुत रोये होंगे। वो परिवार आज भी कानपुर में रहता है। भाइयों की शादी हो गई होगी। मां-बाप जाने किस हाल में होंगे पर इतना जरूर है कि वे शायद आज भी इस बात से अज्ञान होंगे कि उस आत्महत्या ने देश की कमजोर पड़ती नींव पर कैसे प्रहार किया था। दहेज शादी के रास्ते में एक रूकावट हो सकती है जिसे छिटका जा सकता है पर जिंदगी को छिटकना क्या जरूरी है।।।।

हिंदुस्तानी लड़कियों के लिए मौसम आज भी पूरी तरह से नहीं बदला है पर एक बात जरूर बदली है। लड़कियों की हिम्मत बदली है, कोशिश करने का जज्बा बदला है, सोच बदली है। वे मरने से पहले भी संघर्ष की एक आखिरी कोशिश करने लगी हैं। शादी का एक कमसिन उम्र में होना कोई अनिवार्यता नहीं रहा बल्कि शादी का होना भी अब कोई अनिवार्य बात नहीं। एक संस्था के रूप में शादी को लेकर सोच का दायरा काफी वृहद हुआ है। शादी अब जिंदगी का हिस्सा है पर उसे आक्सीजन मानने वाले अब कम ही हैं। शादी को लेकर मान्यताओं और सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। कानून भी पहले के मुकाबले थोड़ा मजबूत ही हुआ है।

बहरहाल, इस वजह से फिल्म एक पुराने ढर्रे पर बनी जरूर लगी, खास तौर पर 2011 के इस दौर में। पर तब भी यह जरूर है कि सिनेमा के तौर पर फिल्म ने सच की परतों को उधेड़ा।

हां, ऐसी फिल्में आंखें को नम कर जाती हैं लेकिन कई बार आत्मा को भी। जिस देश का मौसम बरसों एक जैसा रहा हो, वहां फिल्म, साहित्य, कला मौसम के रूख को बदलने के लिए कुछ हद तक मजबूर भी कर सकता है। इन समस्याओं का हल सरकारी नहीं, सामाजिक ही हो सकता है। आपसी समझ और साथ के बिना कुछ संभव नहीं। इस सुरंग में रौशनी उसी छोर से आ सकती है।

Oct 26, 2011

इस बार की दीवाली

आंसू बहुत से थे 
कुछ आंखों से बाहर 
कुछ पलकों के छोर पर चिपके 
और कुछ दिल में ही 

सालों से अंदर मन को नम कर रहे थे 
आज सभी को बाहर बुला ही लिया 

आंसू सहमे 
उनके अपने डर थे 
अपनी सीमाएं 
पर आज आदेश मेरा था 
गुलामी उनकी 

हां, आमंत्रण था मेरा ही 
जानती हूं अटपटा सा 
पर आंसुओं ने मन रखा 
तोड़ा न मुझे तुम्हारी तरह 
वे समझते थे मुझे 
और मैं उन्हें एक साथी की तरह 

आज इन्हें हथेली पर रखा 
बहुत देर तक देखा 
लगा 
एक पूरी नदी उछल कर मुझे डुबो देगी 

पर मुझे डर न था 
मारे जाने की सदियों का धमकियों के बीच 
मन ठहरा था आज 

तो देखे आंसू बहुत देर तक मैनें 
फिर पी लिया 
मटमैला, कसैला, उदास, चुप, हैरान स्वाद था 

मेरे अपने ही आंसुओं का 
आज की तारीख 
इनकी मौत है 
पर इनकी बरसी नहीं मनेगी 
कृपया न भेजें मुझे कोई शोक संदेश।

Sep 28, 2011

नमस्ते फेसबुक

क्या सचमुच फेसबुक ने लोगों को जोड़ा है

प्रिय फेसबुक,

बुरा मानना। अब कुछ दिनों तक तुमसे एक दूरी बनाने की सोची है। एक हफ्ते में दो घटनाएं हुईं-तुम्हारी वजह से। पहले तो बंगलौर की 23 साल की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली। यह लड़की आईआईएम की विद्यार्थी थी और इस बात से आहत हो गई थी कि उसके पुरूष मित्र ने उससे संबंध तोड़ कर सारी कहानी को फेसबुक पर डाल दिया था। मालिनी मुरमू का इस घटना से ऐसा दिल टूटा कि उसने खुद को फंदा लगा लिया। इस तरह से एक चमकता सितारा महज एक सोशल नेटवर्किंग साइट की वजह से अस्त हो गया।   

दूसरी घटना पटना विधानसभा से आई। यहां दो लोगों को निलंबित कर दिया गया। उनका गुनाह यह था कि उन्होंने अपने फेसबुक अकाउंट पर अपने ही राज्य के मुख्यमंत्री पर कुछ तीखी टिप्पणियां कर दीं थीं और विभाग के भ्रष्टाचार पर अपने कमेंट जारी कर दिए थे। आखिरकार यह भारत है भाई। वे भूल गए कि यहां पर राजनेता कुछ भी कर सकते हैं लेकिन सरकारी कर्मचारी की कई हदें हैं, कई सरहदें।

इससे पहले भी एक के बाद एक बहुत कुछ ऐसा हुआ जब लगा कि फेसबुक भूले-बिछुड़े नातों को जोड़ तो रहा है लेकिन यहां की गर्माहट कई बार ठंडेपन और फिर आहत करने के स्तर पर उतर आती है। अमरीका में ही 2007 में स्टीफेनी पेंटर जब फेसबुक की वजह से अपने प्रिय दोस्त को खुद से दूर होते देखती हैं तो एक रात वो फेसबुक के अपने 121 दोस्तों को विदाई का मैसेज भेजती हैं और अपनी जिंदगी का अंत कर लेती हैं। उनके दोस्त को उनके 121 दोस्तों में से कई लोगों से एक असुरक्षा का भाव महसूस होता है और जब यह निजी संबंधों को टूटन और बेहद तनाव की तरफ खींचने लगता है तो वे को गले लगा लेती हैं।

वैसे कहने को तो फेसबुक अकाउंट पर अनगिनत दोस्त बनाए जा सकते हैं लेकिन क्या वे वाकई में दोस्त और हमदर्द हैं, यह अपने आप में एक सवाल है। अमरीका में ही एक महिला जब अपने फेसबुक वॉल पर लिखती है कि वह अपनी जिंदगी से तंग गई है और कुछ ही देर में आत्महत्या करने वाली है तो लोग उस स्टेट्स को लाइक तो कर देते हैं पर एक भी शख्स, यहां तक कि पड़ोसी भी, उसे संबल देने नहीं जाता। वह महिला कुछ देर बाद वाकई आत्महत्या कर लेती है और फेसबुक से उसका जुड़ा पड़ोसी सोसायटी में पुलिस को आते देखता है तो उसे स्टेट्स में लिखे शब्दों का यथार्थ पता चलता है।

यह है फेसबुक। बेशक इस समय फेसबुक अपने उफान पर है। आधुनिक युवा सामाजिक संपर्कों के नाम पर इस पर सबसे ज्यादा समय खर्च करने लगा है। भले ही अमरीका भी जोर-शोर से तुम्हें पूरी तरह से सफल और क्रांतिकारी कह रहा हो और नई पीढ़ी के लिए तुम अलादीन का चिराग बन गए हो, लेकिन दोस्त, कहीं ठहर कर कुछ सोचने की जरूरत भी है।

नहीं, कहने का यह मतलब कतई नहीं कि तुम सिर्फ परेशानियों का पिटारा लेकर आए हो या फिर तमाम त्रासदियों के लिए तुम ही जिम्मेदार हो। मैं जानती हूं तुमने सोशल नेटवर्किंग का एक बड़ा सुनहला दरवाजा खोला है। यहां पल भर में पूरी दुनिया से जुड़ा जा सकता है। यह संपर्कों की तिजोरी को खोलता है और कई मामलों में जादुई भी है। तुम्हारी वजह से कई पुरानी गलियां गलबहियां डाल रही हैं। लंगोटिया यार सालों बाद एक-दूसरे के दिलों के करीब रहे हैं। दुनिया पूरी तरह से जैसे एक मुट्ठी में समा गयी है। हां, माउस के एक क्लिक से इंसान दुनिया के किसी भी छोर तक जा पहुंचता है।तुमने आवाज और दृश्य की गति को कई कल्पना से भी आगे ले जाकर बढ़ा दिया है। इसके लिए निश्चित तौर पर तुम बधाई के पात्र हो।

शायद तुम सीधे तौर पर इसके लिए जिम्मेदार हो क्योंकि तुम शायद आए किसी सकारात्मक मकसद से ही थे लेकिन जैसा कि हर तकनीक के साथ होता है, यहां भी तकनीक कई काले साये साथ लेकर चली आई है।

हां, तो मैनें महसूस किया कि तुम एक उस दौर में पनपे हो जब मीडिया का दखल तो खूब है लेकिन मीडिया की साक्षरता अब भी नदारद। इसलिए तुमने जिस खुले मंच को एकाएक महैया करा दिया है, वह चुंधियाती रौशनी के साथ आया है। यह मंच हैरान करता है। हाथ के संपर्क में की बोर्ड होता है और सामने होता है –एक खुला आकाश – एक गलतफहमी देता हुआ कि यहां कभी भी, कुछ भी कहा जा सकता है। एक अड्डा जहां कुछ भी कहा-लिखा-पोस्ट किया जा सके। अपनी भड़ास निकाली जा सकती है, संबंधों को उधेड़ा, निचोड़ा और फायदेमंद बनाया जा सके।एक –दूसरे की फ्रेंड लिस्ट में झांकते लोग उस पड़ोसी से भी बदतर हो जाते हैं कई बार जिन्हें दीवारों से कान लगाकर बात सुनने की आदत होती है। यह एक ऐसा मंच बन गया है जहां कोई रोक नहीं। कोई बंदिश और कोई सजा नहीं। यहां बहुत कुछ किसी मतलब से शुरू होता है और उसी पर खत्म भी होता है।

मुझे लगने लगा है कि नेटवर्किंग के बहाने तुम्हारा मंच कई चालाकियों के लिए भी इस्तेमाल होने लगा है। यह रिश्तों की एक कच्ची जमीन है। माउस के एक क्लिक से लोग फ्रेंड बनते हैंफिर अन-फ्रेंड भी होते हैं। फिर भी कोई किसी का नहीं। कंधों का सहारा ढूंढते कि जाने कौन काम जाए। हांजब संवेदनाएंखुशियां या सच बंटते हैंसुकून मिलता है। पर ऐसा कम होता है। इस पिलपिली और स्वार्थी जमीन पर अब मैं रोज नहीं आउंगी। यह मैने तय किया है। ऐसी ही कई वजहें रही होंगी कि पिछले कुछ महीनों में कई लोगों ने अपने फेसअकाउंट बंद कर दिए। पर मैं ऐसा नहीं कर रही। मैं सिर्फ कुछ दूरी से अब तुम्हारी रफ्तार को देखना और समझना चाहती हूं।

वैसे यह भी लगता है कि मौजूदा पोस्ट-मॉर्डन सोसायटी यह मौका तो देती ही है कि आजाद हस्तक्षेप किया जा सके। इसलिए इस टिप्पणी को सकारात्मक रूप से लेना।

हां, फिलहाल मैं कुछ समय के लिए तुमसे दूर जा रही हूं।

एक फेसबुक यूजर

वर्तिका नन्दा

(एक छोटा अंश 28 सितंबर, 2011 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित)