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Jul 16, 2008

टीवी एंकर और वो भी तुम.../ फिर मैं क्यों बोलूं..Vartika Nanda: Poetry

टीवी एंकर और वो भी तुम
किसने कहा था तुमसे कि
पंजाब के गांव में पैदा हो
साहित्य में एम ए करो
सूट पहनो
और नाक में गवेली सी नथ भी लगा लो

बाल इतने लंबे रखो कि माथा छिप ही जाए
और आंखें बस यूं ही बात-बिन बात भरी-भरी सी जाएं।

किसने कहा था दिल्ली के छोटे से मोहल्ले में रहो
और आडिशन देने बस में बैठी चली आओ
किसने कहा था
बिना परफ्यूम लगाए बास के कमरे में धड़ाधड़ पहुंच जाओ
किसने कहा था
हिंदी में पूछे जा रहे सवालों के जबाव हिंदी में ही दो
किसने कहा था कि ये बताओ कि
तुम्हारे पास कंप्यूटर नहीं है
किसने कहा था बोल दो कि
पिताजी रिटायर हो चुके हैं और घर पर अभी मेहनती बहनें और एक निकम्मा भाई है
क्यों कहा तुमने कि
तुम दिन की शिफ्ट ही करना चाहती हो
क्यों कहा कि
तुम अच्छे संस्कारों में विश्वास करती हो
क्यों कहा कि तुम
' सामाजिक सरोकारों ' पर कुछ काम करना चाहती हो

अब कह ही दिया है तुमने यह सब
तो सुन लो
तुम नहीं बन सकती एंकर।

तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में
या फिर पंजाब के उसी गांव में
जहां तुम पैदा हुई थी।

ये खबरों की दुनिया है
यहां जो बिकता है, वही दिखता है
और अब टीवी पर गांव नहीं बिकता
इसलिए तुम ढूंढो अपना ठोर
कहीं और।
........................................................

फिर मैं क्यों बोलूं
शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।

न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।

राजनीति और अपराध पर भी
अब बहुत बातें नहीं होतीं।

शहर के लोग शायद अब थकने लगे हैं
या फिर जानने लगे हैं
ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।

इसलिए शहर के लोग अब तब बोलेंगें
जब पांच साल होंगे पूरे
तब तक बोलना
बोलना नहीं
अपने अंदर के सच को काटना ही होगा।
ये दोनों कविताएं 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई हैं.

Jul 9, 2008

बस यूं ही

पानी बरसता है बाहर
अंदर सूखा लगता है
बाहर सूखा
तो अंदर भीगा
हवा चलती है
मन चंचल
कुछ ज्यादा बेचैन हो उठता है।
सियासत होती है
अंदर बगावत हो जाती है
दिक्कत फितरत में है
या बाहर ही कुछ चटक गया है।
(2)
रब से जब भी मिलने गए
हाथ जोड़े
फरमाइश की फेहरिस्त थमा दी
कुछ यूं जैसे
आटे चावल की लिस्ट हो।

मोल भाव भी किया वैसे ही
कि पहली नहीं है
तो दूसरी ही दे दो
नहीं तो तीसरी।
जो दो रहे हो, वो जरा अतिरिक्त देना
और मुझसे लेने के वक्त रखना एहतियात।

रब के यहां डिस्काउंट नहीं लगता
नहीं मिलती सेल की खबर
पर जमीन के दुकानदार तब भी कर ही डालते हैं
अपनी दुकानदारी।

Jul 8, 2008

मीडिया नगरी

किताब में पढ़ लिया
और तुमने मान भी लिया
कि मीडिया सच का आईना है !

तुमने जिल्द पर शायद देखा नहीं
वो किताब तो पिछली सदी में लिखी गई थी
तब से अब तक में 'सच' न जाने कितनी पलटियां ले चुका
और तुम अभी भी यही मान रही हो
कि मीडिया सच को दिखाता है !

सुनो
नई परिभाषा ये है कि
मीडिया सच पर नहीं
टीआरपी पर टिका है

पर एक सच और है

मीडिया मजबूर है
और जो खुद मजबूर है
वो तुम्हें रास्ता क्या-कैसे दिखाए

हां, तुम ठीक कहती हो
हम-तुम दोनों मिलकर एक नए मीडिया की तलाश करते हैं
बोलो, मंगल पर चलें या प्लूटो पर
अब यह तो तुम ही तय करो
लेकिन सुनो
वक्त गुजारने के लिए
ये सपना अच्छा है न!

Jul 4, 2008

फिर मैं क्यों बोलूं

शहर के लोग अब कम बोलते हैं
वे दिखते हैं बसों-ट्रेनों में लटके हुए
कार चलाते
दफ्तर आते-जाते हुए
पर वे बोलते नहीं।

न तो समय होता है बोलने का
न ताकत
न बोलने-बतियाने का कोई खास सामान।

राजनीति और अपराध पर भी
अब बहुत बातें नहीं होतीं।

शहर के लोग शायद अब थकने लगे हैं
या फिर जानने लगे हैं
ऐसे शब्दों का क्या भरोसा
जो उड़कर नहीं जाते सियासत तक।

इसलिए शहर के लोग अब तब बोलेंगें
जब पांच साल होंगे पूरे
तब तक बोलना
बोलना नहीं
अपने अंदर के सच को काटना ही होगा।

( यह कविता 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है)

Jul 1, 2008

रिएलिटी शो - तमाशा या सच ?

जितनी ज़ोर से इस बात को कहा जाता है कि यह रिएलिटी शो है, उतने ही जोर से मन में यह बात उठती है कि क्या बाकी सब झूठ है। रियलिटी शोज़ की अति दरअसल हमें इसी चौराहे की तरफ ले जा रही है।

जर्मन समाजशास्त्री जर्गन हैबरमास ने 18वीं सदी से लेकर अब तक के मीडियाई विकास के सोपानों को बारीकी से पढ़ा। वे फैंकफर्ट स्कूल आफ सोशल थाट से जुड़े रहे हैं। उन्होंने पाया कि इसके बीज लंदन, पेरिस औरतमाम यूरोपीय देशों में पब्लिक स्फीयर के आस-पास विकसित हुए। यहां के काफी हाउस और सैलून से पब्लिक डीबेट परवान चढ़े लेकिन यह सिलसिला लंबा नहीं चला। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीति का मंचन संसद और मीडिया में होता है जबकि जनता के हितों पर आर्थिक हित हावी हो जाते हैं। कुल मिलाकर जनता की राय विचारों के आदान-प्रदान के खुले प्रवाह के ज़रिए नहीं बल्कि बड़े लोगों के प्रभाव और तोड़ने-मरोड़ने के अंदाज़ पर निर्भर करती है। ज़ाहिर है कि अक्सर जो कवायद जिस जनता के नाम पर की जाती है, वह असल में आत्म-सुख से प्रेरित होकर दिमागी ताने-बाने का शिकार होती है।

इधर भारत में हम जिस किस्म के रिएलिटी शो को देख रहे हैं, उसमें से एक का मर्म मनोरंजन है औरदूसरे का रहस्य, रोमांच, अपराध, सनसनी वगैरह। एक विजेताओं के जीतने की कहानी लाइव दिखाता है और रोमांच के बीच ही कुछ कर गुजरने की प्रेरणा भरता है, दूसरा कभी डराता है, कभी विचलित करता है। काफी हद तक सच दोनों है, मकसद एक-सा है लेकिन दोनों के तरीके अलहदा हैं। दोनों ही तरह के प्रोडक्ट सच के टैगकी मार्केटिंग करते हैं। ऊपरी परत पर सच सर्वापरि दिखता भी है।
लेकिन इस सच की परत ज़रा सी उधेड़ी नहीं कि मामला पलटा हुआ मानिए। इसे खरोंचने पर टीआरपी दिखाई देती है और उसके भीनीचे जाने पर भावनाओं से खेल कर पहले नंबर पर बन जाने की कोशिश।यह रिएलिटी टीवी ही है जिसने दो साल पहले पटियाला के एकदुकानदार के खुद को आग लगा लेने के शाट्स को लाइव की आंच पर भूना था। उस दुकानदार की जान का जाना एक्लूजिव के झंडे को फट से गाढ़ने में काम आया था। इसी रिएलिटी टीवी ने गुडिया का शौहर कौन हो, इस प्रकरण पर चटपटी रोटियां सेकी थीं।मिसालें बहुत सी हो हैं लेकिन यहां बात मानसिकता को टटोलने की हो रही है।
दरअसल इलेक्ट्रानिक मीडिया मजबूरी का नाम है। शुरूआती समय में उसे प्रिंट से जूझना था। बाद में जब प्रिंट ने ही टीवी के साथ जूझना छोड़ दिया तो हार कर (या यूं मान लीजिए कि खुद को खुद ही जीता हुआ मानकर) टीवी दूसरी जंग जीतने चल पड़ा और यह जंगखुद अपनी बिरादरी पर फतह पाने की है। संभलने की बात भी यहीं पर है क्योंकि यहां जीत के लिए कोई निश्चित फार्मूला नहीं है और न ही जीत नाम की चीज स्थाई है। यहां रिजल्ट हर शुक्रवार को आता है और शनिवार को स्याह स्लेट पर फिर से लिखना शुरू होता है।वैसे चैनलों ने अपना कोड आफ कंडक्ट और अपनी सेंसरशिप लागू करने की बात भी कह दी है लेकिन कथनी और करनी एक हो, यह बात किसी बयान को देने भर से साबित होती नहीं है।

दरअसल बात कहीं संतुलन बनाने की है। निजी चैनलों की छुपनछुपाई बीच दूरदर्शन आज भी अपनी डफली बजाने में मस्त है। सरकारी पैसे से सफेद हाथी खा-पीकर जैसा मोटा-मनमौजी हो जाता है, तकरीबन वैसी ही छवि दूरदर्शन की भी है। निजी चैनलों के पास दूरदर्शन जैसे संसाधन नहीं हैं, इसलिए वह अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जितने हथकंडी पांव मार सकता है, मार रहा है।
दोनों दो छोर हैं। जिस दिन दोनों छोर कहीं थोड़ा लचीले होकर बदलेंगे, भारतीय टीवी की तस्वीर भी बदल जाएगी।

लेकिन हमारी जो चाल रही है, उसे देखते हुए लगता है कि जब तक हम चेतेंगे लक्ष्मण रेखाएं तार-तार हो चुकी होंगी। तब हमें एक ऐसे दर्शक वर्ग से जूझना होगा जो हमारे एकदम सच्चे सच को भी सच नहीं मानेगा।

(१ जुलाई, २००८ को राष्ट्रीय सहारा के ' हस्तक्षेप ' में प्रकाशित)

Jun 25, 2008

मैं और मेरे टीचर

परी- यही नाम है उसका
बस एक झलक पाते ही मन में बारिश की फुहार हो जाती है।

परी कुछ नहीं मांगती
हमारी तरह मांग के कटोरे लेकर फिरना शायद उसकी फितरत ही नहीं।

परी पिंजरे के निचले हिस्से में सोती है
राजा ऊपरी हिस्से में झूले पर

राजा सोकर उठता है
परी को हौले अपने पांव से ठोकर देता है, उसे जगाता है
जतलाता है कि ये मर्दाना अधिकार की बात तो वह भी जानता है !

लेकिन परी और राजा जब गाड़ी की अगली सीट पर बैठते हैं
तो अठखेलियां खाते पिंजरे में डर जाते हैं
एक ही झूले पर बैठकर लग जाते हैं- एक- दूसरे के गले
संकट में साथ के मायने दोनों जानते हैं।

लेकिन ताज्जुब
घर में दिनभर अकेले अपने पिंजरे में बंद दोनों जाने क्या सोचते हैं!

मैनें उनके पिंजरे के नीचे नरम घास का बिछौना बना दिया है
उन्हें यह मखमली कुदरती बिछौना बहुत पसंद भी आया है

परी मेरी बेटी नहीं है
राजा दामाद नहीं है
लेकिन मैनें मन ही में करा दी है उनकी शादी।
अकेले नहीं रखना चाहती थी मैं परी को
जानती हूं अकेली को निगल लेती है दुनिया।

दोनों इंसान नहीं हैं
लेकिन फिर भी हैं तो दो फुदकते जीव
दोनों तो बस आंखों की पलकों में बस गए हैं।

आप चाहें तो उन्हें तोता कह सकते हैं
आपकी आंखों को वे तोते ही दिखेंगें
लेकिन मेरे लिए तो वो मेरे सपनों का उड़नखटोला हैं
मेरे अपने पंख हैं
उनके पास मेरी बात सुनने का वक्त है
और मन भी!

मेरे लिए वो एक परी है
और पिंजरे के ऊपरी झूले में बैठकर अपनी चोंच से परी को सहलाने वाला एक राजा।

नहीं - मुझे अभी उन्हें आकाश में नहीं छोड़ना।
ये मेरे कमरे में ही फुदकेंगें
मेरे आंगन में चहकेंगें
कैसे छोड़ दूं दो महीने के इन जीवों को बाहर की दुनिया में
हम करेंगे आपस में बातें
पिंजरे के अंदर के जीव और पिंजरे के बाहर के इंसान की

मैं जानती हूं ये मेरे स्कूल के पहले टीचर हैं और
अभी तो हमारा सफर शुरू ही हुआ है।

Jun 21, 2008

यह ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं है

नाग-नागिनों और आरूषि की खबरों के बीच किसे पड़ी है कि यह देखे कि श्री लाल शुक्ल का पद्मभूषण आखिर गया कहां। मामला रोचक है लेकिन चूंकि यह यह ब्रेकिंग न्यूज नहीं है, इसलिए इसे विशेष गंभीरता से पढ़ना जरूरी नहीं है। ख़बर सिर्फ इतनी है कि हिन्दी कथाकार -व्यंगकार श्रीलालशुक्ल को राष्ट्रपति के हाथों पद्मभूषण दिया जाना था।सेहत ठीक न होने के वजह से वे दिल्ली नहीं आ पाए तो तय हुआ कि पद्मभूषण उनके घर हीपहुंचा दिया जाए।लिहाजा राष्ट्रपति की एक अधिकारी पद्मभूषण समेट रेलगाड़ी में रवाना हुईं। कहानी यहीं से शुरु होती है- पद्मभूषण दिल्ली से चलता है और रेल गाड़ी के उस डिब्बे से चोरी हो जाता है जिसमें वह महिला अधिकारी सफर कररही थीं। घटना के बाद दिल्ली से ही छपने वाले एक बड़े समाचार पत्र के हिंदी और अंग्रेजी संस्करण ने इस पर एक स्टोरी की। लेकिन इसके अलावा इस घटना का कहीं कोई जिक्र दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि इस लेख के लिखे जाने तक इंटरनेट पर भी यह घटना नदारदही दिखाई दी। जाहिर है कि हमारी पत्रकार बिरादरी के ज्यादातर लोग पिछले एक महीने से राष्ट्रीय महत्व की खबर आरूषि के आस-पास मंडराने और अंधेरे में तीर चलाने में व्यस्त रहे हैं। टीवी चैनलों को इतने दिनों बाद ऐसी सनसनीखेज खुराक मिली कि उन्हें हफ्तों कुछ नया कर दिखाने के प्रकोप से शांति मिली। ऐसे में एक लेखक को मिलने वाला पदक रास्ते से कहीं छूमंतर हो जाता है तो भला उसकी कौन परवाह करता है। हां, अगर किसी बड़े अफसर का कुत्ता इस तरह गुम गया होता तो अच्छा-खास हंगामा खड़ा कर दिया जाता। लेकिन क्या इसका यह मतलब निकाल लिया जाए कि श्रीलाल शुक्ल का प्रस्तावित सम्मान पदक खो जाना छोटी बात थाया राष्ट्रीय महत्व से परे की चीज था? श्री लाल शुक्ल यानि बीस किताबों के ज्यादा के लेखक और राजदरबारी के रचेयता। उन्होंने अपना जीवन एक तरह से साहित्य-सृजन में ही लगा दिया लेकिन शायद साहित्य-सृजन अब समाज की वैसी सम्मानजनक पदवी नहीं रहा जो कभी रहा करता था। यही कारण है कि दिल्ली जैसे तमाम महानगरों में बरसों पहले लेखकों की जो बैठकें लगा करती थीं, वे इतिहास हो गईं है। मोहन राकेश के उपन्यासों में कनाट प्लेस के जिस काफी होम का जिक्र मिलता है और रीगल सिनेमा के ऊपर वाले हिस्से में भी बरसों जो लेखकों का स्थायी पता-ठिकाना बना रहा, वह भी अब सूख चला है। अब कवि-लेखकअतीत का हिस्सा बनने के काफी करीब चले आए हैं। बाहरवाले तो दूर की बात, अपने घर में भी लेखक का जो थोड़ा-बहुत रसूख हुआ करता था,वह अब हवा होने लगा है। ऐसे में लेखक या तो अतीत के झरोखे से लगातार झांकने का काम करें यो फिर कुछ टीवी वालों से थोड़ी दोस्ती गांठ कर टीवी पर मस्खरी केनाटक करें और महफिलें सजाएं। अगर किस्मत अच्छी रहे तो चुनावी माहौल में भी थोड़ी फसल काटी जा सकती है। लेकिन अगर यह भी बस का नहीं तो फिर लेखक होने की डफली खुद अकेले बजानी भी होगी और सुननी भी। सवाल गहरे हैं और इन पर गंभीरता से विचार करने के लिए जिस ईमानदारी की जरूरत हो सकती है, वह शायद हमारी बिरादरी में अब थोड़ी कम ही हुई है। मामला सिर्फ ये नहीं है कि इतना सम्मानित पदक गाड़ी से किसने, क्यों, कब और कैसे चुराया,मामला यह है कि तमाम सरकारी टोटकों और नाटकों के बावजूद आज भी इस देश के हिंदी वालों की स्थिति काफी हद तक वही है जो पहले थी। अपवाद हिंदी टीवी चैनल हैं जिनकी वजह से ठेठ अंग्रेजीदां भी हिंदी बोलने और सीखने के लिए मजबूर हो गए हैं । लेकिन इसके बावजूद कवि-लेखकों की दुनिया में आज भी कोई खास बदलाव नहीं आ पाया है।खुद को बेहद आदर्शवादी मानने वाले युवा भी खुद को कवि या लेखक कहलाए जाने से परहेज करने लगे हैं। सच यही है कि इलेक्ट्रानिक मीडिया की छवि खासतौर से लेखनी की दुनिया के आस-पास नहीं हैं। इस मामले ने सरकारी नजरिए की भी काफी हद तक मार्मिक पोल खोल दी है।हाल ही में नेहरू युवा केंद्र ने दिल्ली स्थित तीन मूर्ति में युवा कवियों का काव्य पाठ और पुरस्कार वितरण समारोह करवाया। तमाम अखबारों केरोजाना की गतिविधियों के कालम में इस आयोजन की सूचना भी छपी लेकिन इसे कवर करने पहुंचे सिर्फ मुट्ठी भर चैनल।इस पर हैरानी जताई सकती है कि जिस जमाने में एक सरकारी चैनल हुआ करता था, तब टीवी पर ऐसे आयोजन खूब दिखते थे। अब चैनल बढे़ हैं, चौबीसों घंटे चलाने की आजादी और मजबूरी भी बढ़ी है फिर भी ऐसे आयोजनों की कवरेज काफी सिमट गई है। जिन दिनों अमृता प्रीतम बीमार थीं, प्रिंट मीडिया ने आने वाली खबर को दिमाग में रखते हुए अपने लिए पेज पहले से ही सोच कर रख लिए, सामग्री जुटा ली गई और जरूरत पढ़ते ही उन पन्नों को तल्लीनता से लगा दिया गया। लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया यहां भी काफी हद तक चूक गया।हां, हरिवंश राय बच्चन के समय ऐसा नहीं हुआ।शायद इसलिए नहीं कि वे मधुशाला के रचेता थे बल्कि इसलिए कि उनका बेटा अमिताभ था और बहू जया। बहरहाल पद्मभूषण तो मिलने से रहा। नए का इंतजाम शायद जल्द हो जाए लेकिन इससे कुछ संकेत जरूर मिलते हैं।सोचना होगा- महफिलों का दौर सूख चुका, लेखकों की पुरानी पीढ़ी का सूर्यास्त करीब है। ऐसे में जो नई सुबह हमें मिलेगी, वह क्या लेखकों और कवियों के सान्निध्य से परे होगी? ( यह लेख ७ जुलाई, २००८ को 'जनसत्ता' में प्रकाशित हुआ)

Jun 10, 2008

टीवी एंकर और वो भी तुम

किसने कहा था तुमसे कि
पंजाब के गांव में पैदा हो
साहित्य में एम ए करो
सूट पहनो
और नाक में गवेली सी नथ भी लगा लो

बाल इतने लंबे रखो कि माथा छिप ही जाए
और आंखें बस यूं ही बात-बिन बात भरी-भरी सी जाएं।

किसने कहा था दिल्ली के छोटे से मोहल्ले में रहो
और आडिशन देने बस में बैठी चली आओ
किसने कहा था
बिना परफ्यूम लगाए बास के कमरे में धड़ाधड़ पहुंच जाओ
किसने कहा था
हिंदी में पूछे जा रहे सवालों के जबाव हिंदी में ही दो
किसने कहा था कि ये बताओ कि
तुम्हारे पास कंप्यूटर नहीं है
किसने कहा था बोल दो कि
पिताजी रिटायर हो चुके हैं और घर पर अभी मेहनती बहनें और एक निकम्मा भाई है
क्यों कहा तुमने कि
तुम दिन की शिफ्ट ही करना चाहती हो
क्यों कहा कि
तुम अच्छे संस्कारों में विश्वास करती हो
क्यों कहा कि तुम
' सामाजिक सरोकारों ' पर कुछ काम करना चाहती हो

अब कह ही दिया है तुमने यह सब
तो सुन लो
तुम नहीं बन सकती एंकर।

तुम कहीं और ही तलाशो नौकरी
किसी कस्बे में
या फिर पंजाब के उसी गांव में
जहां तुम पैदा हुई थी।

ये खबरों की दुनिया है
यहां जो बिकता है, वही दिखता है
और अब टीवी पर गांव नहीं बिकता
इसलिए तुम ढूंढो अपना ठोर
कहीं और।
(यह कविता 'हंस' के जुलाई अंक में प्रकाशित हुई है)

एक मामूली औरत

आंखों के छोर से
पता भी नहीं चलता
कब आंसू टपक आता है और तुम कहते हो
मैं सपने देखूं।

तुम देख आए तारे ज़मी पे
तो तुम्हें लगा कि सपने
यूं ही संगीत की थिरकनों के साथ उग आते हैं।

नहीं, ऐसे नहीं उगते सपने।

मैं औरत हूं
अकेली हूं
पत्रकार हूं।

मैं दुनिया भर के सामने फौलादी हो सकती हूं
पर अपने कमरे के शीशे के सामने
मेरा जो सच है,
वह सिर्फ मुझे ही दिखता है
और उसी सच में, सच कहूं,
सपने कहीं नहीं होते।

तुमसे बरसों मैनें यही मांगा था
मुझे औरत बनाना, आंसू नहीं
तब मैं कहां जानती थी
दोनों एक ही हैं।

बस, अब मुझे मत कहो
कि मैं देखूं सपने
मैं अकेली ही ठीक हूं
अधूरी, हवा सी भटकती।

पर तुम यह सब नहीं समझोगे
समझ भी नहीं सकते
क्योंकि तुम औरत नहीं हो
तुमने औरत के गर्म आंसू की छलक
अपनी हथेली पर रखी ही कहां?

अब रहने दो
रहने दो कुछ भी कहना
बस मुझे खुद में छलकने दो
और अधूरा ही रहने दो।

Jun 7, 2008

Female News Anchors in MMS ?

टेलीविजन चैनलों के अंदर और बाहर की बातों पर यह लेख वर्ष 2005 में लिखा गया था और उसी समय छपा था लेकिन इसकी प्रासंगिकता बनी हुई है.
 
 
 
As you sow, so you reap. I was reminded of these age-old words of wisdom when two disgraceful incidents related to television reached my ears. One day, during my recent visit to Central Production Centre of Doordarshan, I got a call from one of my friends in NDTV wanting to share a juicy story.
 
He whispered, "An MMS carrying 'hot pictures' of three female anchors (from three different news channels) is being circulated in the Delhi's under-market." Ironically, all three girls are Delhi-based and well-known television faces.
 
Naturally, the MMS has already been viewed by a large number of journalists in the city. These girls are red with embarrassment and one has reportedly even left the city to save face.
 
The second incident is no less thought provoking. India TV - always on the lookout for slime and sleaze - rehashed an old footage of Govinda meeting Dawood as a breaking news and cried foul the day through.
 
The story hit the actor-politician Govinda hard and he was found defending his position in media. To stretch the breaking-news further perhaps, India TV contacted Govinda to have his latest take under the garb of taking his version in the form of an interview.
 
Govinda found this as a good opportunity to hit back when he learnt that the intended interview would be live and the interviewer Rajat Sharma himself.
 
Soon after the interview started, Govinda countered Rajat with the unimaginably embarrassing personalised counter-questions about his personal credibility and character.
 
The viewers had a hearty laugh combined with sadistic pleasure. The channel chief had a tough time hiding his sweat. Both these incidents became the talk of the media circle and TV journalists were stumped, not knowing what to do.
 
I have not seen even a single word written on this issue so far. Some of them wondered who will write about it and how? And when my friends from various media houses urged me to pen down the same in one of my columns, I reflected on the entire episode.
 
What concerned me the most was to see the attitude change amongst the mud-throwers when some of them stood drenched publicly. The other side of the no-holds-bar journalism has started unveiling its face.
 
Media, which was irresponsible enough to reveal the identity of the MMS victim of DPS RK Puram through indirect suggestions and shots, is hiding its face today. I can understand the plight of the female journalists (of which I know one couple very well), and I consider them victims too.
 
But these incidents, I hope, serve as an eye-opener to all those guardians of morality in the Fourth Estate who think they would not be judged by the parameters of judgment they set for others.
 
They were proved wrong - thanks to the growing abuse of technology and increasing critical understanding of media's functioning among
the media's users. Taking lessons from such mistakes, it seems, the recent Delhi's bomb blast was given quite a sensible coverage this time.
 
Though Jagran seemed settling its own scores on the tragedy, most of the other channels tried to mind their words. Aaj Tak took the lead in restraining itself from fishing in troubled water and others did not hesitate to follow.
 
These days, we hear a lot about development journalism. What does this term mean?
 
The term is simple. This is a kind of journalism which deals with the issues pertaining to the development of the nation as a whole (not just its over-fed urbanised middle class viewers and their make-believe problems) be it urban poor, or its hilly, mofussil and rural segments.
 
This term has gained currency in the past few years because of the advent of private players in the television news business. It is often complained that news media, because of its commercial compulsions of circulation and TRPs, do not accommodate the issues of development journalism.
 
It overlooks the issues related to the 70 per cent of India. Hence, a strong case in favour of development journalism exists.

Jun 5, 2008

एक किस्सा यह भी

श्रीलाल शुक्ल को दिए जाने वाला पद्मभूषण रेल से ही गायब हो गया। इस देश में जहां सच रोज़ हवा में गुम-सा जाता है और गुम जाती हैं संवेदनाएं, वहां एक लेखक को दिया जाने वाला पद्मभूषण रास्ते से कहीं खो जाता है तो भला किसी को क्या फर्क पड़ेगा? हमारे - आपके जैसे लोग लेख लिखेंगें या ब्लाग पर दो शब्द लिखेंगे। गाड़ी जैसी चल रही है, वैसी ही चलेगी।

राम जी की जय हो।

Jun 2, 2008

बड़ा कौन-अपराध या हंसी?

सोचने की बात यह भी है कि हंसी और अपाराध- इन दोनों में से कौन सी चीज़ दर्शक को ज़्यादा लुभाती है। टीवी चैनल चलाने वाले पहले अपराध को अपनी रोज़ी-रोटी का सबसे बड़ा सिक्का माने हुए थे। अब हंसी भी इसमें शामिल हो गई है। लेकिन इन दोनों हथियारों में सबसे कामगर हथियार है कौन सा, मैं इस सवाल का जवाब तलाश रही हूं।

May 31, 2008

हंसी की बात नहीं रही अब हंसी

खबरिया चैनल हंसी का पात्र कई बार बने हैं, बनेंगे लेकिन वे जानबूझकर भी दर्शक को हंसाने का ज़िम्मा लेने लगेंगे, यह बात खुद मीडिया विश्लेषकों को अचंभे में डालने वाली रही। आम दर्शक ने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसे खुश रखने के फेर में धीर-गंभीर माने जाने वाला न्यूज़ मीडिया एक दिन मसखरे का काम भी करने लगेगा। बेचैन करवटें बदलते-बदलते अब एक नया मीडिया सामने है। मीडिया के इस नटखट पुर्जे के पास समाचार पत्रों की ललक है, रेडियो को हम भारत में देख रहे हैं, वैसा दुनिया में कहीं नहीं। शायद यही वजह है कि सबकी नजरें भारतीय मीडिया पर आ टिकी हैं और मीडिया की नज़र मुनाफे की उस पोटली पर है जो उसे टिकाए रखने का सबसे पुख्ता स्तंभ है। इसी मजबूरी ने मीडिया को एक प्रयोगशाला बना डाला है। नए प्रयोगों की इस गहमागहमी में दिखती है- हंसी। बरसों पहले दूरदर्शन पर शाम सात बजे क्षेत्रीय समाचार और रात नौ बजे राष्ट्रीय समाचार प्रसारित होते थे। उन समाचारों को बचपन में देखा-सुना और दिमाग ने समझा कि समाचार का मतलब है- ऐसा कुछ जो बेहद गंभीर है। इसलिए बड़ों की तरह कभी भी बेताबी से समाचारों का इंतजार करने की इच्छा नहीं जगी। पर समय बदला, कुछ ऐसा कि विश्वास से ज़रा परे। जब निजी चैनल जब पैदा हुए तो उन्होंने दूरदर्शन को पटखनी दी। शुरुआत खबर के प्रस्तुतिकरण की चुस्ती और कुछ बेहतर तकनीकी सामान से हुई। चैनलों में पुराने चेहरों की जगह नई बयार ने ले ली लेकिन जब प्रतियोगिता बढ़ी तो शिकन को भी बढ़ना ही था। तब राजनीति, अपराध और खेलों को पहले पायदान पर रखकर जनता की गुहार लगायी गई लेकिन धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि जनता को अब मुस्कुराहट की भी ज़रुरत है। न्यूज़ चैनल ऐसा हो जो सूचना भी दे और खुशी भी। इसलिए अब न्यूज चैनलों में हास्य की रेलमपेल दिखने लगी है। एनडीटीवी के पास अगर छुपा रुस्तम है तो सीएनएन आईबीएन के पास साइरस बरुचा, ज़ी के पास कलयुग का रामराज है तो स्टार के पास पोल-खोल, आईबीएन सेवन में खबरों के बीच हास्य कवियों की फुहार महसूस होती है तो आज तक जैसे कई चैनलों के पास दिखती है - हास्य कवियों की मसखरी को दिखाने का समय। लेकिन ऐसा हुआ क्यों- इसे छानना कम मज़ेदार नहीं। ऐसा नहीं है कि न्यूज़ चैनलों को हंसी एकाएक भाने लगी है बल्कि इसमें छिपी व्यापार और उम्र के परे हर दर्शक को बांध लेने का सामर्थ्य बड़ी ताकत का काम कर गया है। अभी कुछ साल पहले तक अखबारों के कोनों में खूब चुटकुले छपा करते थे जिन्हें गाहे-बगाहे लोग पढ़ा करते थे। फिर टीवी का दौर चला तो दूरदर्शन कवि सम्मेलनों के लिए रंगीन कालीन बिछाने लगा। कई बार कवि सम्मेलन अ-झेल हो जाते लेकिन उन में भी कभी-कभी हास्य का छौक लगा दिया जाता तो जनता ज़रा मदमस्त हो जाती। उस दौर के जो गिने-चुने हास्य कवि पैदा हुए, वो कई दर्शकों के चहेते बन गए। लेकिन इस हंसी को कभी भी विशिष्ट दर्जा नहीं मिला। हास्य हाशिए पर रहा। माना गया कि वह निचले दर्जे की चलताऊ आइतम है। वह खाने में चटनी का काम करते दिखा लेकिन उसे प्राथमिकता कभी नहीं मिली। लेकिन न्यूज़ मीडिया अब इस सच को समझने लगा है कि हास्य समाचार को बेचता है। वह समाचार को सजाने और मसालेदार बनाने का काम करता है, वह तमाम सीमाओं के परे दर्शक को खीचने का माद्दा रखता है और सबसे बड़ी बात वह उन तमाम बातों को बड़े मज़े से कह सकता है जिन्हें खबर के साचे में ढाल कर कहना कई बार शायद उतना आसान न हो। वैसे भी जब व्यापार की बात आती है तो तुरंत सबक लेने में मीडिया जैसा माहिर कोई नहीं। दस साल के भीतर ही मीडिया ने हिन्दी में व्यापार की खुशबू महसूस की और नए पैदा हुए कथित अंग्रेजों के इस देश में टीवी पर हिंदी काबिज हो गई। यहाँ तक कि राजनीति में भी वही नेता ज्यादा समय तक लोगों के दिमाग पर हावी हुए जो या तो हिंदी भाषा थी या क्षेत्रीय भाषा में बतियाने में शर्म महसूस नहीं करते थे। यहाँ यह भी गौर करने लायक है कि 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से फैल रहे टेलीविज़न मीडिया में भले ही संभावनाएं अपार हैं लेकिन यहाँ जो जीतेगा वही होगा सिकंदर। हंसाना अब मीडिया की मजबूरी है लेकिन हंसी तो चार्ली चैप्लिन की भी थी। जब भी हंसते हुए दर्द की बात होती है तो पहला नाम भी चार्ली का ही आता है। आज जब ख़बर में दर्द, विद्रूपता, भूख, गरीबी, तनाव, परेशानी के कई रंग घुल गए हैं, अगर हंसी, हंसी- हंसी में इस दर्द को भी अपने में समेट ले तो न्यूज़ मीडिया को वाकई कोई हंसी में नहीं लेगा।

May 29, 2008

पहली सीढ़ी...

मैं मीडिया स्कूल की छात्रा हूं और मेरा मकसद है- लगातार सीखना। मैं जानना चाहती हूं कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में निजी चैनलों की उछलकूद के बाद शाट्स को लेकर भी कोई नयापन महसूस हो रहा है या नहीं। अगर हां तो वे कितने प्रभावी हैं ? न्यूज़ मीडिया के शाट्स क्या सिर्फ कहानी ही कह भर देते हैं या उनमें डिस्कवरी और नेशनल जोग्रोफिक जैसी कुछ ताज़गी भी दिखाई देती है। आपने अगर कुछ अनूठे प्रयोग हाल ही में देखे हैं तो अपनी बात बांटिए ज़रूर।

पहली क्लास की पहली सीढ़ी।

शुभकामनाएं।

वर्तिका नन्दा

May 28, 2008

मैं-मैं और मैं- यानी एक पत्रकार

कसाईगिरी

तुम और हम एक ही काम करते हैं
तुम सामान की हांक लगाते हो
हम खबर की ।
तुम पुरानी बासी सब्ज़ी को नया बताकर
रूपए वसूलते हो
हम बेकार को 'खास' बताकर टीआरपी बटोरते हैं
लेकिन तुममें और हममें कुछ फर्क भी है।

तुम्हारी रेहड़ी से खरीदी बासी सब्ज़ी
कुकर पर चढ़कर जब बाहर आती है
तो किसी की ज़िंदगी में बड़ा तूफान नहीं आता।

तुम जब बाज़ार में चलते हो
तो खुद को अदना सा दुकानदार समझते हो
तुम सोचते हो कि
रेहड़ी हो या हट्टी
तुम हो जनता ही
बस तुम्हारे पास एक दुकानदारी है
और औरों के पास सामान खऱीदने की कुव्वत।

तुम हमारी तरह फूल कर नहीं चलते
तुम्हें नहीं गुमान कि
तुम्हारी दुकान से ही मनमोहन सिंह या आडवाणी के घर
सब्ज़ी जाती है
लेकिन हमें गुमान है कि
हमारी वजह से ही चलती है
जनसत्ता और राजसत्ता।

हम मानते हैं
हम सबसे अलहदा हैं
खास और विशिष्ट हैं।

पर एक फर्क हममें और तुममें ज़रा बड़ा है
तुम कसाई नहीं हो
और हम पेशे के पहले चरण में ही
उतर आए हैं कसाईगिरी पर।

May 26, 2008

आपके लिए यह पाती...

जब बहुत छोटी थी, तभी टीवी से नाता जुड़ गया। रास्ते में कई लोग बार-बार दीए रखते गए, सिखाते गए कि टीवी की दुनिया है क्या। मन प्रिंट का हिस्सा बनने के लिए भी हिलोरे लेता रहा और इस तरह टीवी, प्रिंट और अध्यापन- तीनों ने मुझे हमेशा जगाए रखा।

यह ब्लाग जागी हुई इसी अलख को कायम रखने की कोशिश है। यह एक स्कूल है जिसमें मैं सीख रही हूं। आप भी मेरे साथ इस पाठशाला में शामिल हो सकते हैं। यहां हम मीडिया से जुड़े गुर आपस में बांटेगें, एक-दूसरे से कुछ जानेगें-समझेंगे, संवाद करेंगें और टटोलेंगे कि सीखना क्या वाकई उतना आसान है जितना देखने-सुनने में लगता है।

बहरहाल यह मीडिया स्कूल है। आज के पन्ने में अभी इतना ही।

शुभकामनाएं।

वर्तिका नन्दा

टीवी की दुनिया सिर्फ़ दिलक़श चेहरा ही नहीं मांगती

मनोरंजन परोसते तमाम न्‍यूज चैनलों में ख़बर सबसे पहले और सबसे तेज देने का दबाव रहता है, यह सभी जानते हैं लेकिन इस दबाव से परे एक और दबाव जोरों से काम करता है और वह है उसका दमदार मेकओवर। टीवी चैनलों की दुनिया दरअसल जिस तरह ख़बरों को चुनने-बीनने, सबसे पहले, सबसे आगे दिखने और विज्ञापन बटोरने के संघर्ष में लीन रहती है, वहीं रंग और प्रस्तुतीकरण भी बाजार में टिकाये रखने की एक बड़ी शर्त तो हैं ही।

जरा गौर कीजिए। आज की तारीख़ में ऐसा कोई भी चैनल नहीं है, जिसमें रंगों का चयन सावधानी से न किया गया हो- दोनों ही तरह के रंग- वे चाहे भावनाओं के हों या फिर बिखरे हुए प्राकृतिक या रचे हुए रंग। चाहा शायद सबने था लेकिन सोचा किसी ने नहीं था कि 10 साल के अंदर ही इतने अद्-भुत प्रयोग होंगे कि रंग मीडिया और खास तौर से न्‍यूज मीडिया पर अपनी पकड़ और मौजूदगी को इस जबरदस्त तरीके से मजबूत बना लेंगे। मीडिया रंगों के लिए अब किसी होली का मोहताज नहीं। वह समझ गया है कि बाजार में टिके रहना है तो रंगों को बांहें फैला कर अपनाना होगा, क्‍योंकि होली भी यहां है और दीवाली भी। बस, ज़रूरत है उन्‍हें हकीकत का अमली जामा पहनाने की।

दरअसल टीवी की दुनिया सिर्फ़ एक दिलक़श चेहरा ही नहीं मांगती, वह मांगती है तल्लीनता, तस्वीरें, तकनीक और बहुत से रंग। लाइट, कैमरा, एक्‍शन की दुनिया के साथ जैसे-जैसे क़रीबी बढ़ी, रंगों की समझ भी कई करवटें लेती गयी। न्‍यूज की भागमभाग के बीच हर मंजा हुआ पत्रकार/कैमरामैन रंगों के तालमेल के घोल को पी कर रखता है। रंग क‍हीं न छूटें, कोशिश रहती है। इंटरव्यू रिकॉर्ड हो तो बैकग्राउंड भरा-भरा लगे। लाइटें इस तरह से लगायी जाएं कि लगे कि स्टूडियो अभी-अभी रोशनी और रंगों से नहाया है। आउटडोर हो तो पेड़-पौधे, रंगीन छवियां दिखें, इनडोर हो तो भी स्टूडियो या फिर कमरा जीवंत दिखे, उसमें रंग छिटके हों, चाहे कुर्सी हो या टेबल या फिर टेबल पर पड़े गिलास-सब में कुछ अलग रंगीनियत हो, रिपोर्टर टीवी पर दिखे तो जरा सा चमके। एंकर परदे पर आये, तो उसकी झुर्रियां खुद उसे भी न दिखें। पत्रकारिता की समझ और सीरत के अलावा अब दर्शक को कोई चीज खास तौर से भा सकती है, तो वह भी होता है रंग और ताज़गी ही। यह उत्‍सवी महक टेलीविजन की नयी ज़रूरत बन गयी है।

इतना ही नहीं, आम इंसान टेलीविजन स्टूडियो में लगे सेट से लेकर चैनल से माइके के रंग तक से चैनल के स्‍वभाव का अंदाजा लगाता है। चैनलों पर चल रही सूचनाओं की रंगीन पट्टी हो या फिर बड़ा सेट- रंगों का चयन इस बारीकी से किया जाता है कि सबका दर्शक पर कुछ अलग ही प्रभाव दिखे। न्‍यूज मीडिया में रंगों और रोशनी से लबालब स्टूडियो इससे पहले कभी नहीं देखे गये। सनसनीनुमा कार्यक्रमों में अगर आमतौर पर लाल रंग हावी दिखता है तो युवा मन को खींचते खबरी कार्यक्रमों में कई बार कुछ नीला या नारंगी-सा।

लेकिन मजे की बात यह भी कि टीवी की दुनिया में हर रंग मान्‍य नहीं है। कुछ रंग ऐसे हैं जिनके इस्तेमाल से परहेज किया जाता है। जैसे कि एकदम सफ़ेद या एकदम काला। दोनों ही रंग कैमरे की आंख से आकर्षण पैदा नहीं करते। यही वजह है कि टीवी में रंगों का चुनाव अक्‍सर बहुत सोच-विचार कर किया जाता है। यहां तक कि एकता कपूर ब्रिगेड भी अपने तमाम नाटकों में रंगों के तालमेल का ध्‍यान रखती है। यहां पर्दे से लेकर तकिए के गिलाफ़ के रंग का चुनाव तक बड़ी तल्लीनता से किया जाता है। यही वजह है कि कई बार एक सेट की क़ीमत ही लाखों का आंकड़ा कर जाती है। यही हाल विज्ञापनों का है। महज 10-15 सेकेंड में अपने सामान की गुहार लगाने वाले विज्ञापनदाता कोशिश करते हैं कि कम शब्‍दों में स्क्रीन पर ऐसा जादू दिखा दिया जाए कि दर्शक उसे ख़रीदने को उतावला हो उठे। यही वजह है कि एक-एक शॉट पर महीन सोच का निवेश होता है और फिर स्टोरी बोर्ड पर अमल किया जाता है।

मीडिया ने रंगों को आत्‍मसात कर लिया है। टीवी चैनलों में जाने वाले भी इस शोध को करके जाते हैं। वे जानते हैं कि एनडीटीवी में होने वाली स्टूडियो रिकॉर्डिंग के लिए कौन-सा रंग नहीं पहनना चाहिए और स्टार न्‍यूज के लिए कौन सा। यहां तक कि कई सितारों के सहायक भी सितारे को वहां ले जाने से पहले गेस्ट डेस्‍क से रंग के बारे में पड़ताल कर लेते हैं ताकि टीवी पर सब कुछ पूरे तालमेल में दिखे। कई सितारे ऐसे भी हैं, जो अपनी कार में अतिरिक्‍त कपड़े लटकाए रहते हैं ताकि चैनल की ज़रूरत के मुताबिक कपड़े तुरंत बदले जा सकें। चुनावी दिनों या फिर कुछ और ख़ास अवसरों पर जो नेता हर पल एक-दूसरे चैनलों में फुदकते रहते हैं, वे भी ऐसी तैयारी बखूबी किये रहते हैं, लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है।

टीवी मीडिया 20 प्रतिशत की वार्षिक दर से हिलोरें भर रहा है। हिंदुस्तान में इस समय जितने चैनलों की भरमार है, उतनी पूरी दुनिया में कहीं नहीं। इस लिहाज से टेलीविजन कुछ नया करने की प्रयोगशाला बन चला है। लेकिन परेशानी तब होती है, जब किसी एक रंग में बेवजह दूसरे रंग घोल दिये जाते हैं। वाकई दर्द होता है जब दंगे की कवरेज को और सुर्ख कर दिया जाता है ताकि वो और बिके, आंसुओं को और मटमैला कर दिया जाता है ताकि दर्शक बस किसी एक चैनल को बंध कर देखता रहे। जब शरीर के गेहुंए रंग को कपड़ों की परत से हटाकर जरा और पारदर्शी कर दिया जाता है ताकि टीवी मसाला आइटम भी बने। तब लगता है कि रंगों के चयन में हम जरा चूक गये। अच्‍छा हो कि जिंदगी के कैनवास को मदहोशी से भरने की कूव्वत रखने वाले रंगों के साथ व्यापारी राजनीति न हो। वैसे भी रंग और बेरंग के बीच का फ़ासला पार होने में ज़्यादा देर नहीं लगती।

वह पेड़...

लोकाट को वो पेड़
पठानकोट के बंगले के सामने वाले हिस्से में
एक महिला चौकीदार की तरह तैनात रहता था।

फल रसीला
मोटे पत्तों से ढका।

तब घर के बाहर गोलियां चला करती थीं
पंजाब सुलग रहा था
कर्फ्यू की खबर सुबह के नाश्ते के साथ आती थी
कर्फ्यू अभी चार दिन और चलेगा
ये रात के खाने का पहला कौर होता था।

बचपन के तमाम दिन
उसी आतंक की कंपन में गुजरे
नहीं जानते थे कि कल अपनी मुट्ठी में आएगा भी या नहीं
मालूम सिर्फ ये था कि
बस यही पल, जो अभी सांसों के साथ सरक रहा है,
अपना है।

लेकिन लोकाट के उस पेड़ को कोई डर नहीं था
गिलहरी उस पर खरगोश की तरह अठखेलियां करती
चिड़िया अपनी बात कहती
मैं स्कूल से आती तो
लोकाट के उस पेड़ के साथ छोटा सा संवाद भी हो जाता।

पंजाब में अब गोलियों की आवाज चुप है
तब जबकि बचपन के दिन भी गुजर गए
लेकिन आज भी जब-तब याद आते हैं
कर्फ्यू के वे अनचाहे बिन-बुलाए डरे दिन
और लोकाट का वह मीठा पेड़।

May 25, 2008

आत्मविश्वास जो ताउम्र साथ रहे और गुदगुदाए भी...


अपना ब्लॉग शुरू करने और उस पर पहला लेख छापने का आनंद कुछ और ही होता है. मैंने इसके लिए आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा के लिए लिखे गए एक लेख को चुना है. इसी संस्थान में कभी मैं पढ़ती थी, कभी पढ़ाती थी. आज भी उन दिनों को याद कर गुदगुदी होती है...

आईआईएमसी की प्रवेश परीक्षा देने का अपना ही स्वाद है. ये परीक्षा कम और नई जिंदगी का अंदाज ज्यादा है.

मैं मानती हूं कि आईआईएमसी की परीक्षा की तैयारी मानसिक और बौद्धिक दोनों ही स्तर पर की जानी जरूरी है. अगर यह ठान ही लिया है कि पत्रकार तो बनना ही है तो यह मान लीजिए कि अनजाने में ही किसी ने आपके रास्ते में दीए पहले से ही रख दिए होंगे. बशर्ते कि आप दीए की उस लौ में मेहनत करने को भी तैयार हों.
यदि परीक्षा में पास हो गए और आईआईएमसी में जगह मिल गई तो बहुत खूब और अगर नहीं भी मिली तो उससे कुछ ऐसा सबक लिया जाए कि वह आगे भी काम में आए.
जहां तक तैयारी का सवाल है तो मैं मानती हूं कि दुनिया  भर के पत्रकारिता के तमाम बड़े कोर्सों के पेपरों के मुकाबले यहां पर प्रवेश परीक्षा पास करना कुछ ज्यादा ही आसान है. वजह यह कि बीते सात-आठ सालों में यहां  प्रवेश परीक्षाओं का जबर्दस्त मेकओवर हुआ है और इन्हें आसान बनाने की जैसे मुहिम ही चला दी गई.
यही वजह है कि कई बार बेहद होनहार छात्र इन परीक्षा पत्रों को देखकर मायूस हो जाते हैं क्योंकि उन्हें पेपर में अपना ज्ञान और भरपूर तैयारी दिखाने का मुनासिब मौका नहीं मिल पाता और यह  भी कि कई बार औसत छात्र  भी इस परीक्षा को आसानी से पास कर जाते हैं. यह एक कड़वा लेकिन माना हुआ सच है.
खै़र पेपर का फार्मेट बन चुका... अब इसमें पास कैसे हुआ जाए, यह सोचना जरूरी है. एक बात तो ये कि परीक्षा से तीन महीने पहले तक के तमाम जरूरी अखब़ार ठीक से पढ़े जाएं. इसका मतलब ये नहीं कि पढ़ाई दिल्ली के दो अखबारों तक सिमट कर रह जाए. यह अधूरी पढ़ाई होगी और जमीनी हकीकत से कटी  भी. बेहतर होगा कि तैयारी करते समय कुछ प्रतिष्ठित क्षेत्रीय अखबारों के संपादकीय को भी खंगाला जाए.
टीवी पत्रकारिता की परीक्षा दे रहे छात्रों को भी एक आम दर्शक की तरह समाचार चैनल देखने की बजाय उसके दृश्यों और उसमें सुनाई दे रहे शब्दों के मर्म को छू लेने की कोशिश करनी चाहिए. कुल मिलाकर यह कि जिस भी माध्यम या विभाग की परीक्षा की तैयारी करें, उस माध्यम को एक आम इंसान की तरह देखने की बजाय, एक विश्लेषक की तरह जानने-समझने की आदत डालना बहुत फायदेमंद हो सकता है.
जाहिर है कि अगर परीक्षार्थी दो आंखों की बजाय एक तीसरी आंख को भी खुला रखता है और उसके कान सूचना क्रांति की नई तरंगों को पकड़ने के लिए तत्पर रहते हैं तो उसे परीक्षा में पास होने से कोई नहीं रोक सकता.
गंभीर पढ़ाई के लिए उन अखबारों का चयन करना होगा जो स्वभाव से गंभीर हैं और जो विकास से लेकर दीन-दुनिया की तमाम खबरों को सलीके से छापने की कोशिश करते हैं. इसी तरह चैनलों और अखबारों की वेबसाइट्स पर नियमित चहलकदमी  भी ज्ञान के दायरे को बढ़ा सकती है.
एक कोशिश जर्नलिज्म से जुड़ी बेहतरीन किताबों को पढ़ने की भी होनी चाहिए क्योंकि मजबूत अध्ययन और चिंतन से ही आनसर शीट को निखारा जा सकता है. बेशक देखने में पेपर आसान लगता हो और पास होना भी आसान ही लगे लेकिन सभी उसमें पहला स्थान तो हासिल नहीं कर पाते. सवाल आसान हुए तो सबके लिए आसान होंगे इसलिए ऐसे सवालों वाली परीक्षा में मुकाबला और कड़ा हो जाता है.
प्रवेश परीक्षा में मिला एक-एक अंक इंटरव्यू के समय काफी मायने रखता है. इसलिए कोशिश सर्वाधिक नंबर लेने की होनी चाहिए ताकि बाद में अपनी तरफ से कोई कमी रह जाने का मलाल न हो. चयन के बाद जो आत्मविश्वास मिलेगा, वह ताउम्र साथ रहेगा और गुदगुदाएगा  भी.