इंटरनेट पर भारत के मीडिया संस्थानों की लिस्ट तलाश करने पर 18 लाख से ज्यादा नतीजे दिखाई देते हैं। इनमें सरकारी संस्थान कम और निजी ज्यादा दिखाई देते हैं। यह भीड़ कुछ ऐसी है कि लगता है जैसे पत्रकार बनाने वाली फैक्ट्रियों की भीड़ ही जमा हो गई हो। वहीं एमबीए इंस्टीट्यूट की तलाश करने पर 6 लाख के करीब नतीजे दिखते हैं।
कुल जमा मतलब ये कि मीडिया संस्थानों की पहुंच, पूछ और पहचान बढ़ रही है। इसी साल देश के सर्वोच्चतम माने जाने वाले मीडिया इंस्टीट्यूट भारतीय जन संचार संस्थान को डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। 1965 में इंदिरा गांधी के स्थापित इस संस्थान ने साउथ एक्सटेंशन की एक छोटी सी इमारत से निकल कर अरूणा आसिफ अली मार्ग तक आने में एक लंबा सफर तय किया है और पत्रकार बनने के ख्वाहिश लिए हुए हजारों युवाओं को बड़ा पत्रकार बनाया है।
इसी तरह दिल्ली के 5 कालेजों – लेडी श्री राम, कमला नेहरू, अग्रसेन, दिल्ली कालेज फार आर्ट्स एंड कामर्स, कालिंदी कालेज में अंग्रेजी में पत्रकारिता को स्नातक स्तर पर पढ़ाया जा रहा है और हिंदी में 4 कालेजों – अदिति महाविद्यालय, भीम राव अंबेडकर कालेज, राम लाल आनंद , गुरू नानक देव खालसा कालेज में पत्रकारिता के स्नातक स्तर की पढ़ाई हो रही है।
यानी दिल्ली में मीडिया के अध्ययन का भरपूर माहौल तैयार हो चुका है और सरकारी कोशिशें भी काफी हद तक संतोषजनक ही रही हैं। लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में निजी संस्थानों भी एक के बाद एक खुलते गए हैं। दिल्ली से सटे एनसीआर रीजन में पत्रकारिता की कई दुकानें खुली हैं और मजे की बात यह है कि उनमें से ज्यादातर ने कहीं न कहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के पत्रकारिता के पाठ्यक्रम से ही बड़े सबक उठाए हैं। सरकारी कालेजों की तुलना में इनमें से कुछ भले ही दर्शनीय और आकर्षक ज्यादा हों लेकिन गुणवत्ता के मामले में ये अभी भी खुद को साबित नहीं कर पाए हैं।
दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छ स्तरों पर होती है – सरकारी विश्वविद्यालयों या कालेजों में (जैसे दिल्ली यूनिवर्सिटी, पंजाब यूनिवर्सिटी), दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों (जगन्नाथ इंस्टीट्यूट वैगरह), तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों (जैसे भारतीय जन संचार संस्थान) चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय(जैसे एमिटी) और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इनमें सबसे कम दावे सरकारी संस्थान करते हैं और दावों की रेस में जीतते हैं – निजी संस्थान। लेकिन विश्वसनीयता के मामले में बात एकदम उल्टी है। यहां यह बात भी गौरतलब है कि अब भारत में 125 डीम्ड विश्वविद्यालय खुल गए हैं। इनमें से 102 निजी स्वामित्व वाले संस्थान हैं। यहां भी शिक्षण संबंधी मूलभूत नियमों की अनदेखी की शिकायतें आती रही हैं। यही वजह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कार्यभार संभालते ही कपिल सिब्बल ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से डीम्ड विश्वविद्यालय का दर्जा हासिल कर चुके सभी शिक्षण संस्थानों के कामकाज की समीक्षा के आदेश दे दिए। इसी तरह विश्वविद्यालयों का लेखा-जोखा लें तो पता चलता है कि इस समय अकेले दिल्ली में ही ज्यादातर कालेजों में पत्रकारिता पढाने वालों की सीटें खाली पड़ी हैं। शेक्सपीयर या सूरदास पढ़ानेवाले ही पत्रकारिता पढ़ाने को मजबूर हैं।
उधर निजी चैनलों के कुछ संस्थान पहले तो चयन ही ऐसे छात्रों का करते हैं जो उनके चैनल के लिए पूरी तरह से उपयुक्त दिखते हैं। इनमें ऊंची पहुंच वालों के योग्य बच्चों को तरजीह मिलती है। कुछ छात्र गधेनुमा वर्ग (यानी जो चौबीसों घंटे काम करने को बेशर्त तैयार रहते हैं) के भी होते हैं। इऩमें से कई संस्थान जो सर्टिफिकेट देते हैं, वह चैनल में तो चलता है लेकिन कहीं और नहीं। यहां किसी विश्वविद्यालय से संबंद्ध डिग्री देने का प्रावधान नहीं बन पाया है।
अब मसला यह भी है कि इन संस्थानों में पढ़ाता कौन है (क्या पढ़ाया जाता है, यह एक लंबा मसला है)। सरकारी संस्थानों में इस साल से यूजीसी के निर्देशों का पालन अनिवार्य कर दिया गया है यानी इन संस्थानों में अब वही शिक्षक नौकरी पा सकेंगें जो गुणवत्ता के स्तर पर कहीं भी कम नहीं होंगें क्योंकि नेट की परीक्षा को पार करना आसान नहीं। ऐसे में अक्सर गैस्ट फैकल्टी को बुलाने की कोशिश होती है। आप इस बात पर भी मुस्कुरा सकते हैं कि ज्यादातर सरकारी कालेजों में आज भी गैस्ट को 1 घंटे के लैक्चर के लिए 500 से 750 रूपए ही दिए जाते हैं। ऐसे में या तो लोग आते नहीं और अगर आ भी जाते हैं तो शिक्षण की अनुभवहीनता और अरूचि के चलते अपनी सफलता के किस्से सुनाकर चलते बनते हैं।
लेकिन निजी संस्थानों में अब भी नेट अनिवार्य नहीं दिखती। नतीजा यह होता है कि या तो उनके पास वही टीचर रह जाते हैं जिनका ज्ञान 1980 में अटका पड़ा है या फिर उन्हें वे मिलते हैं जो मीडिया में हैं तो लेकिन पढ़ाने की कला और ताजा ज्ञान से कोसों दूर हैं। ऐसे लोग क्लासों में आत्म-प्रशंसात्मक किस्सागोई तो कर लेते हैं लेकिन छात्र के ज्ञान को विस्तार नहीं दे पाते। नतीजा यह होता है कि अल्पविधि में चलने वाले कोर्स गुणवत्ता के मामले में सरक कर और भी नीचे पहुंच जाते हैं।
ऐसे में मीडिया शिक्षा सिर खुजलाती दिखती है। युवा पत्रकार बनना चाहते हैं, वह भी जल्दी में। यहां पत्रकारिता मैगी नूडल्स बनने के कगार पर पहंचने लगी है। यह बाद में पता चलता है कि जल्दी में जिस फसल को रातोंरात बड़ा किया गया था, वह सही कीटनाशकों के अभाव में कैसी पिलपिली निकली। अब सवाल यह उठता है कि क्या कुछ समय के लिए फोकस मीडिया के बढ़ते बाजार की बजाय योग्य शिक्षकों की खोज, उनकी ट्रेनिंग और सही पैकेज पर किया जा सकता है? वैसे मजे की बात यह भी है कि गूगल पर मीडिया टीचर्स की तलाश करने पर 9 करोड़ से ज्यादा एंट्री मिलती है।
(यह लेख 1 सितंबर, 2010 को दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ)